इसके पहले समिति ने इस नाटक का विरोध किया था। उनका आरोप था कि नाटक में पौराणिक चरित्रों को गलत तरीके से प्रस्तुत किया गया था जिससे हिन्दुओं की भावनायें आहत होती है। मुंबई 16 जून (भाषा)
हिंदू हितों (सामाजिक, धार्मिक एवं राजनीतिक) को प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से प्रभावित करने वाली घटनाओं से सम्बंधित प्रमाणिक सोत्रों ( राष्ट्रिय समाचार पत्र, पत्रिका) में प्रकाशित संवादों का संकलन।
Sunday, June 22, 2008
हिंदू जनजागृति समिति
Wednesday, April 23, 2008
नेपाल में भारत की हार
नेपालियों की मनोदशा भांपने में मिली विफलता को भारत की भूल बता रहे हैं कुलदीप नैयर
नेपाल के चुनाव परिणाम से भारत को हैरानी नहीं होनी चाहिए। भारत पहले राजशाही के साथ डटा रहा और फिर एक नाकारा राजनीतिक दल के साथ। यह नई दिल्ली की असफलता है कि वह नेपाली जनता की मनोदशा का अनुमान लगाने में विफल रही। यह चिंता की बात होनी चाहिए, क्योंकि भारत और नेपाल के संबंधों का विस्तार कुछ माह का नहीं अपितु वर्षो का है। नेपाल के लोगों की सोच बदल रही थी, किंतु कल्पनालोक में खोई नई दिल्ली राजशाही और अपनी पुरानी मित्र नेपाली कांग्रेस को बचाने में लगी रही। अब नेपाल नरेश जाने ही वाले हैं। भारत ने अधिकारिक बयान दिया है कि उसका सरोकार काठमांडू की नई सरकार से है। इससे जाहिर है कि वहां जो हुआ, भारत की इच्छा के विपरीत हुआ और अब जब वैसा हो ही गया है तो वह उसे स्वीकार्य है। नई दिल्ली की चाहत चाहे जो हो, लोगों ने चुनाव में नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) को चुन लिया है। उनके चुनाव पर टीका-टिप्पणी करने वाले हम कौन होते हैं! जनादेश माओवादियों के पक्ष में और भारत के विरुद्ध है। नेपाली देख रहे थे कि नई दिल्ली उनके मामलों में बेवजह टांग अड़ा रहा है। माओवादियों ने चुनाव सभाओं में भारत के बड़े भाई तुल्य रवैये का मुद्दा उछाला था। नेपाल के साथ हमारी संधि भी नेपालियों के मनमाफिक नहीं है। हमें उसे बहुत पहले ही निरस्त कर देना चाहिए था। जब उनकी यही इच्छा थी तो हमने ऐसा क्यों नहीं किया? मैं यह भी नहीं समझ पा रहा कि पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति कार्टर ने अमेरिका से नेपाल में हुए परिवर्तन को मान्यता देने का अनुरोध क्यों किया है? अमेरिका विश्व का सर्वाधिक शक्तिशाली लोकतंत्र है। उसे यह एहसास होना चाहिए कि चाहे कितना भी अप्रिय क्यों न हो, स्वतंत्र और निष्पक्ष निर्वाचन का परिणाम ही निर्णायक और अंतिम होता है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि कोई देश किसी दूसरे देश की सरकार को पसंद करता है या नहीं। महत्व तो जनता की स्वतंत्र इच्छा का है। कार्टर चुनाव के पर्यवेक्षक रहे हैं इसलिए उन्हें यह बात बेहतर ढंग से पता होनी चाहिए। नेपालियों ने जो किया है उसे समझने और सराहने वाले लोग अब भी बहुत कम हैं। वहां सामंती समाज है, जो लगभग 235 वर्ष तक इस धारणा से ग्रस्त रहा कि महाराजा ही ईश्वर है और उसी के शासन में समृद्धि है। वहां इतनी अधिक असमानताएं हैं कि अतीत के विरुद्ध उठी आवाज को समर्थन नहीं मिलता। उम्मीद जाग रही है कि अब उनकी हालत में सुधार आएगा। माओवादी नेता प्रचंड ने इन्हीं परिस्थितियों का इस्तेमाल किया है। दो वर्ष पूर्व जब राजशाही के खात्मे की की मांग के समर्थन में सारा काठमांडू सड़कों पर उमड़ पड़ा था तो यह शोषित समाज की स्वयं को स्वतंत्र करने की उत्कंठा ही थी। देश को गणराज्य में बदलने के आश्वासन ने जनता में बदलाव की उम्मीद जगा दी। उन्होंने परिवर्तन के पक्ष में मतदान किया है। उन्हें भरोसा है कि लोगों की स्थिति में सुधार होगा। माओवादी इस कारण चुनाव में विजयी नहीं हुए हैं कि मतदाता उनकी विचारधारा से प्रभावित हैं। मतदाताओं को भरोसा है कि माओवादियों ने एक अलग अर्थव्यवस्था लाने का जो वचन दिया है उसे पूरा कर वे उन्हें गरीबी से उबारेंगे। यह सच है कि लोग भयभीत भी थे। माओवादी वर्षो से बंदूक के बल पर गांवों में अपनी हुकूमत चला रहे थे। यह भी कोई छिपी बात नहीं कि माओवादियों ने अपने सारे हथियार नहीं सौंपे, जबकि चुनाव से काफी समय पहले उन्होंने ऐसा करने पर सहमति जताई थी। इसके बावजूद लोगों के सामने कोई विकल्प नहीं था। महाराजा को वे खारिज कर चुके थे। वे फिर से नेपाली कांग्रेस की शरण में जाना नहीं चाहते थे, जिसे उन्होंने बार-बार परखा था और उनके हाथ निराशा ही लगी थी। यह देखना मजेदार था कि चुनावी पोस्टरों में कार्ल मार्क्स, लेनिन और एंगेल्स के चित्रों के साथ स्टालिन को भी स्थान दिया गया। स्टालिन ने उन लाखों लोगों को मौत के घाट उतार दिया था, जिन्होंने उनसे असहमत होने का साहस दिखाया था। स्टालिन की तस्वीर कोलकाता स्थित माकपा के मुख्यालय में भी टंगी हुई है, जबकि वह मुख्यधारा में शामिल है और लोकतांत्रिक प्रणाली में आस्था जताती है। नेपाल में माओवादी भी जब सत्ता संभालेंगे तो ऐसा ही करेंगे। अगर उनसे मोहभंग हुआ तो तब होगा, जब वे अपना वचन नहीं निभा पाएंगे। माकपा के मामले में पश्चिम बंगाल, केरल और त्रिपुरा में ऐसा ही हुआ है। कौन जानता है कि नेपाल में माओवादी भी इसी बात को तर्कसंगत मानने लगें कि पूंजीवादी प्रणाली में कल्याणकारी राज्य की स्थापना संभव नहीं है, जैसा कि माकपा कर रही है। भारत में नक्सलवादी, जिन्हें माओवादी भी कहा जाता है, जो कुछ कर रहे हैं, मैं उसका घोर विरोधी हूं। वे खूनखराबे और आपराधिक गतिविधियों में लिप्त हैं। वे लोकतांत्रिक प्रणाली के प्रति अपने विरोध को नहीं छिपाते। वे मुख्यधारा में भी शामिल नहीं होना चाहते। उनकी आस्था जोर जबरदस्ती में है, आम सहमति में नहीं। यही एक ठोस कारण है कि नेपाल और भारत के माओवादी हाथ नहीं मिला पाएंगे। इनमें से एक व्यवस्था के स्थापित मूल्यों के प्रति आस्थावान है जबकि दूसरा उसके खिलाफ है। भारतीय माओवादी नेपाली माओवादियों के चरमपंथी गुटों को समर्थन दे सकते हैं ताकि पशुपति से तिरुपति तक लाल गलियारे का विस्तार हो सके। नेपाल का उदाहरण दक्षिण एशियाई क्षेत्र को सीख दे सकता है, अगर वह लेना चाहे तो। निर्धनता दुस्साहसिक प्रतिकार को जन्म देती है। सामंती व्यवस्था लोकतंत्र को नकारती है। नैराश्यभाव और हताशा का बोध लोगों को विद्रोह पर आमादा करता है। वे तब विद्रोह के रास्ते पर चलते हैं, जब यह मान लेते हैं कि दमनकारी व्यवस्था से मुक्ति पाने के लिए हिंसा के अलावा कोई चारा नहीं है। लोकतंत्र जनता को नाकारा और दमनकारी शासन के खिलाफ वोट का शांतिपूर्ण विकल्प प्रदान करता है। नेपालियों ने यही किया है। अब माओवादियों को इस सवाल का जवाब देना है कि क्या उनमें लोगों की हालत सुधारने की योग्यता और संकल्प शक्ति है। जिस चुनाव में माओवादी विजयी हुए हैं वह संविधान सभा के गठन हेतु हुआ है। यदि संविधान में वादे साकार रूप नहीं ले पाए तो लोग ही माओवादियों को उखाड़ फेंकेंगे। जब मैं काठमांडू में कुछ माओवादी नेताओं से मिला था तो उन्होंने कहा था कि यदि वे चुनाव में हार गए तो भी हथियार नहीं उठाएंगे। लोकतंत्र इसी तरह कारगर होता है। लोग अपने कर्णधारों को बदल देते हैं। मैं इस बारे में सुनिश्चित नहीं हूं कि जो माओवादी हिंसा के बल पर उभरे हैं वे यदि सत्ता को हाथ से खिसकता महसूस करेंगे तो अपने वचन को निभाएंगे या नहीं? महात्मा गांधी कहते थे कि यदि साधन दूषित होंगे तो परिणाम भी दूषित ही आएंगे। दुर्भाग्य से भारत गांधीजी की सलाह पर नहीं चल सका, हालांकि उसने आजादी अहिंसात्मक उपायों से ही प्राप्त की। अमेरिका निरंतर अहसास दिला रहा है कि उसने दमनकारी कानूनों से समझौता किया है। दरअसल, आज अमेरिका में इतना बदलाव आ चुका है कि वह पहचान में ही नहीं आ रहा है। नेपाल के माओवादियों को उसका अनुसरण नहीं करना चाहिए। उन्होंने देश-दुनिया को फिर से बंदूक न उठाने का जो वचन दिया है उस पर जिज्ञासु लोगों की नजरें लगी रहेंगी। (लेखक जाने-माने स्तंभकार हैं) दैनिक जागरण, April 23, Wednesday , 2008
Saturday, April 19, 2008
आतंक पर अधूरी पहल
बंगलादेशी प्रवासियों से सुरक्षा को खतरा
Friday, April 4, 2008
सोचा-समझा दुष्प्रचार
यह विश्वास करना कठिन है कि ऐसा जानबूझकर किया जा रहा है, लेकिन यह सही है कि नैतिक मूल्य गिराने वाले तथा भारतीय अस्मिता को चोट पहुंचाने वाले कारनामों का सिलसिला बढ़ता जा रहा है। दुर्भाग्य से ऐसे कारनामों के विरोध को भगवा ब्रिगेड का हंगामा कहकर दबाने की कोशिश की जाती है। ऐसा लगता है कि इस देश में अब उन लोगों का ही वर्चस्व बढ़ता जा रहा है जिनके लिए नैतिकता, निष्ठा, आस्था और अस्मिता के बजाय वाचालता, उच्छृंखलता, दुष्टता और पैशाचिकता का अधिक महत्व है। पिछले दिनों जब दिल्ली विश्वविद्यालय के एक पाठ्यक्रम में राम-सीता-हनुमान के संदर्भ में कुत्सित उद्धरणों के संदर्भ में भी यही देखने को मिला। यह पहला मौका नहीं है जब कुत्सित अभिव्यक्ति पर आपत्ति को भगवा ब्रिगेड का हंगामा कहकर उसके तथ्यों को छिपाने का प्रयास किया गया हो। प्राचीन देवी-देवताओं के अश्लील चित्र बनाने को कलाकार की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हवाला देकर कुछ लोगों ने सेकुलर भारत के लिए महत्वपूर्ण माना। उन्हीं लोगों ने किसी कार्टूनिस्ट का सिर काटकर लाने पर पचास करोड़ के इनाम की घोषणा करने वाले की निंदा नहीं की। राम-कृष्ण के अस्तित्व को नष्ट करने और रामायण-महाभारत को कपोल-कल्पित गाथा मानने वालों ने अब आगे बढ़कर इनके आदर्श पात्रों के चरित्र चित्रण के लिए वाल्मीकि, कंबन या गोस्वामी तुलसीदास जैसे लेखकों का सहारा लेने के बजाय किन्हीं रामानुजम द्वारा लिखित पुस्तक को अधिकृत माना। यह कहा गया कि विद्यार्थियों में भारत की विविधता पूर्ण विरासत की समझ बढ़ाने और उसके प्रति जागरूकता पैदा करने के लिए यह आवश्यक है ताकि वे अकादमिक ढंग से तार्किक रूप में बिना किसी संकोच या नकारात्मकता के विश्लेषण कर सकें। समझ बढ़ाने, विविधता को समझने और बिना संकोच विश्लेषण कर सकने लायक समझ बढ़ाने के लिए रामायण के जो तथ्य प्रस्तुत किए गए हैं उन पर नजर डालना उपयुक्त होगा। इस पुस्तक के कुछ तथ्य इस प्रकार हैं। रावण और मंदोदरी के कोई संतान नहीं थी। दोनों ने शिव पूजा की। शिवजी ने उन्हें पुत्र प्राप्ति के लिए आम खाने को दिया। गलती से सारे आम रावण ने खा लिए और उसे गर्भ ठहर गया। रावण के नौ माह गर्भधारण की व्यथा भी इस अध्याय में दी गई है। गर्भ की व्यथा से पीडि़त रावण ने छींक मारी और सीता का जन्म हुआ। सीता रावण की पुत्री थी, जिसे उन्होंने जनकपुरी के खेत में त्याग दिया था। हनुमान एक तुच्छ छोटा सा बंदर था। वह लंका में स्ति्रयों का आमोद-प्रमोद देखने के लिए वह खिड़कियों से ताक-झांक करता था। रावण का वध राम ने नहीं, लक्ष्मण ने किया। दिल्ली विश्वविद्यालय के बीए आनर्स द्वितीय वर्ष के लिए कल्चर इन एंसियेंट इंडिया नामक जिस पुस्तक में यह सब और इसी तरह का और बहुत कुछ शामिल किया गया है उसका संकलन और संपादन डा. उपेंद्र कौर ने किया है, जो देश के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की पुत्री हैं। संकोच और नकारात्मकता से प्रभावित न होने के लिए पुरुष के गर्भधारण से अधिक वैज्ञानिक समझ और क्या हो सकती है? जिस रावण के एक लखपूत सवा लख नाती थे उसे संतानविहीन और जो लाखों वर्षो से भारतीय मर्यादा के प्रतीक हैं उन्हें तुच्छ साबित करने से अधिक विविधता को समझने का और कौन सा उदाहरण दिया जा सकता है? इसी संकलन में लिखा है कि प्राचीन भारत में स्ति्रयां बेची और खरीदी जाती थीं। मैं नहीं समझता कि संकलनकर्ता का उपरोक्त उद्धरणों में विश्वास होगा या इन तथ्यों को शिक्षा नीति निर्धारित करने वाले अधिकृत मानते होंगे। कम से कम अर्जुन सिंह के बारे में तो यह दावा किया ही जा सकता है। फिर भी प्राचीन भारत की अनुभूति कराने के इस प्रकट के प्रयासों की निरंतरता क्यों है? इसे समझने के लिए एक और उदाहरण संभवत: उपयुक्त होगा, जो बड़े जोर-शोर से प्रचारित होने वाली यौन शिक्षा की पाठ्य सामग्री में वर्णित है। पाठ्य सामग्री में यह कहा गया है कि यौन संबंध केवल एक सहज शारीरिक क्रिया है, इसका नैतिकता, पवित्रता और आध्यात्मिकता से कोई संबंध नहीं हैं। एड्म को जानिए वाले भाग में सहवास के ऐसे अप्राकृतिक तरीकों का वर्णन किया गया है जिससे एड्स से बचा जा सकता है। मैं क्या करूं शीर्षक का यह उदाहरण क्या समझाने के लिए है-मैं ग्यारहवीं कक्षा में पढ़ती हूं। मैंने क्लास रूम में एक लड़के के साथ यौन संबंध बनाए। अब वह दबाव डाल रहा है कि मैं उसके दोस्तों के साथ भी यौन संबंध बनाऊं, मैं क्या करूं? यौन शिक्षा के लिए इसी तरह के जो दर्जनों उदाहरण दिए गए हैं उनका उल्लेख करने का साहस मुझमें नहीं है। यह पुस्तक किस प्रकार की यौन शिक्षा को बढ़ावा देगी? क्या ऐसे पाठ्यक्रम और निकृष्ट साहित्य पर रोष प्रकट करना भगवा ब्रिगेड का हंगामा है? हम कैसी संस्कृति का स्वरूप पेश कर रहे हैं? जीवन में विश्वास, आस्था और संकल्प शक्ति पैदा करने वाले आचरण को हेय तथा पशुवत भावना को सहज स्वाभाविक बताकर जो कुछ समझाने का काम हमारे समझदार लोग कर रहे हैं उनकी मानसिकता को समझने के लिए एक और उदाहरण पेश है। रामसेतु का विरोध कर रहे तमिलनाडु के मुख्यमंत्री करुणानिधि ने साक्षात्कार में कहा कि राम और सीता भाई-बहन थे। ऐसा तुलसीदास की रामायण में लिखा है। साक्षात्कारकर्ता ने उनसे पूछा कि क्या उन्होंने स्वयं ऐसा पढ़ा है तो उनका उत्तर था-हां मैंने पढ़ा है। अब आप इस पर क्या प्रतिक्रिया करेंगे? कुत्सितता का प्रचार-प्रसार अज्ञानता के कारण नहीं, बल्कि जानबूझकर सोची-समझी रणनीति के तहत किया जा रहा है ताकि हम अपनी अस्मिता से कटकर अमेरिकी कचरा प्रवृत्ति के गुलाम हो जाएं। उद्योग, व्यापार, राजनीति, शिक्षा-सभी क्षेत्रों में यही प्रयास प्रगतिशीलता का पर्याय बन गया है। (लेखक राज्यसभा के पूर्व सदस्य हैं)
Tuesday, March 18, 2008
हिंसक राजनीतिक दर्शन
केरल का कन्नूर जिला मार्क्सवाद हिंसा से सुलग रहा है। कन्नूर भारत में कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना स्थली है, जिसे मार्क्सवादी गर्व से भारत का लेनिनग्राद कहते हैं। कन्नूर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का कार्य 1943 में प्रारंभ हुआ और तब से ही माकपा का दुर्ग माने जाने वाले इस क्षेत्र में हिंदुत्वनिष्ठ संगठनों के कार्यकर्ताओं पर माकपाई हिंसा जारी है। संघ की बढ़ती साख से घबराए मार्क्सवादियों ने 1969 में एक संघ कार्यकर्ता की बर्बरतापूर्वक हत्या कर दी थी। 1994 में पेशे से शिक्षक और संघ के कार्यकर्ता 35 वर्षीय जयकृष्णन को कन्नूर के एक स्कूल में विद्यार्थियों से भरी कक्षा में काट कर मार डाला गया था। वे छात्र शायद ही उम्र भर उस वीभत्स कांड को भूल पाएंगे। पिछले चालीस सालों में 250 से अधिक लोग माकपाई हिंसा में मारे गए हैं। सैकड़ों जीवन भर के लिए विकलांग कर दिए गए। बर्बरता ऐसी कि मृतकों या घायलों के चित्र मात्र देख आत्मा सिहर उठे। कन्नूर से त्रिशूर और कोट्टयम से तिरुअनंतपुरम तक संघ, भारतीय जनता पार्टी, विहिप, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, भारतीय मजदूर संघ आदि हिंदुत्वनिष्ठ संगठनों के कार्यकर्ता मार्क्सवादी गुंडों के निशाने पर हैं। इसके विरोध में जब हाल में माकपा के दिल्ली स्थित मुख्यालय पर शांतिपूर्ण प्रदर्शन करने के लिए भाजपा कार्यकर्ता एकत्रित हुए तो उन पर मुख्यालय के अंदर से पथराव किया गया। बर्बर हिंसा के बल पर अपना वर्चस्व कायम करने के अभ्यस्त मार्क्सवादी कन्नूर हिंसा पर खेद प्रकट करने की जगह संसद में भी सीनाजोरी कर रहे हैं। संसद में हंगामा खड़ा कर वे कन्नूर की हिंसा को छिपाने की कोशिश में लगे हैं। उनका यह पैंतरा नया नहीं है। अभी कुछ समय पूर्व ही पश्चिम बंगाल के नंदीग्राम में सरकार समíथत जिस तरह मार्क्सवादी कामरेडों द्वारा बड़े पैमाने पर हिंसा की गई थी उसे भी देश और मीडिया की नजरों से छिपाने की पूरी कोशिश की गई थी। पश्चिम बंगाल के राज्यपाल ने तब इस हिंसा की कड़ी आलोचना करते हुए सरकार को कठघरे में खड़ा किया था। केरल के हिंसाग्रस्त कन्नूर जिले की असली तस्वीर क्या है, यह केरल उच्च न्यायालय के न्यायाधीश वी. कुमार की टिप्पणी से स्पष्ट है। उन्होंने कहा है, सरकार और पुलिस के समर्थन से की गई यह हिंसा दिल दहलाने वाली है। उन्होंने पुलिस की भूमिका पर टिप्पणी करते हुए कहा, पुलिस का नया चेहरा देखने को मिला, वह एक पार्टी विशेष के नौकर की तरह काम कर रही है..हिंसा रोकने का एकमात्र विकल्प कन्नूर को केंद्रीय सुरक्षा बलों के हवाले करना है। व्यवस्थातंत्र पर मार्क्सवादी कार्यकर्ताओं के शिकंजे का यह अपवाद नहीं है। सत्तर के दशक में पश्चिम बंगाल की कांग्रेस-कम्युनिस्टों की मिली-जुली सरकार में शामिल मार्क्सवादियों ने अपनी कार्यसूची और भूमि सुधार कानूनों को लागू करने के लिए बड़े पैमाने पर राज्यवार हिंसा का दौर चलाया था। प्रशासन और पुलिस का राजनीतिकरण करने के कारण 1977 में मार्क्सवादियों को अपना वर्चस्व कायम करने में बड़ी मदद मिली। इस मार्क्सवादी हिंसा के विरोध में तब कांग्रेसी मुख्यमंत्री अजय मुखर्जी अपनी ही सरकार के खिलाफ धरने पर बैठे थे। यह स्थापित सत्य है कि जो भी व्यक्ति या संगठन मार्क्सवादी विचारों से सहमत नहीं होते उन्हें मार्क्सवादी सहन नहीं कर पाते। दिल्ली में माकपा का एक चेहरा है तो पश्चिम बंगाल, केरल और त्रिपुरा में अलग। नंदीग्राम की हिंसा बताती है कि अपने विरोधियों से निपटने के लिए मार्क्सवादी किस हद तक जा सकते हैं। साठ के दशक से पूर्व और उसके बाद सत्ता हथियाने के लिए कम्युनिस्टों ने हिंसा का किस तरह सहारा लिया, यह सर्वविदित है। तीस के दशक में छिटपुट हिंसा की घटनाओं के साथ ये देश भर में आंदोलन खड़ा करने में क्षणिक रूप से सफल हुए थे, किंतु कांग्रेस प्रमुख राजनीतिक पार्टी बनी रही और मजदूर संघों में राष्ट्रवादी ताकतों का वर्चस्व रहा। 40 के दशक में कम्युनिस्टों को सुनहरा अवसर मिला। ब्रितानियों के खिलाफ राष्ट्रवाद के उफान के दमन पर वे ब्रितानियों के संग हो लिए। बड़े पैमाने पर राष्ट्रवादी नेता जेल में कैद थे। इससे कम्युनिस्टों को भारतीय राजनीति, खासकर मजदूर संघों में सेंधमारी करने का उपयुक्त अवसर मिला। 1964 में कम्युनिस्ट आंदोलन के कुछ वैचारिक प्रश्नों पर हुए वाद-विवाद में पी. सुंदरय्या, एके गोपालन, हरिकिशन सिंह सुरजीत आदि कम्युनिस्ट नेताओं ने लिखा था, हमारे देश में शांति के पथ को अपरिहार्य बताना अपने आप को और दूसरों को धोखा देना है। 1964 का यह दस्तावेज, जो माओ की हिंसक क्रांति पर आधारित था, वास्तव में अंतत: सीपीआई के उद्भव का आधार बना। तब से लेकर आज तक मार्क्सवाद का यह घटक लोकतांत्रिक प्रक्रिया में आने के बावजूद लगातार अपनी गतिविधियों से यह प्रमाणित करता रहा है कि विरोधी स्वर को दबाने के लिए वह हिंसा के किसी भी स्तर तक उतर सकता है। हिंसा और दमन का विरोध करने वाले केरल के केआर गौरी और पश्चिम बंगाल के मोहित सेन जैसे कामरेडों को इसीलिए धक्के मार निकाल बाहर किया गया था। पश्चिम बंगाल, केरल और त्रिपुरा में कम्युनिस्टों का जो प्रभाव है वह उनकी हिंसा की राजनीति के बल पर ही स्थापित हुआ है। कन्नूर मार्क्सवादियों के वर्चस्व वाले उत्तरी मालाबार का मुख्यालय है। नंदीग्रामवासियों की तरह मालाबार के लोग भी अब मार्क्सवाद के विरोध में मुखर हो उठे हैं। कथित मार्क्सवादी शहीदों के नाम पर जनता से धन उगाही, आतंकवाद को समर्थन, छिटपुट व्यापार से लेकर भवन निर्माण तक में मार्क्सवादी पार्टी की तानाशाही, नागरिकों से आय के हिस्से से पार्टी के लिए चंदे की वसूली, रोजगार में माकपा कार्यकर्ताओं को प्राथमिकता जैसे दमन व शोषण के अनगिनत कार्यो के खिलाफ मालाबार की जनता अब उठ खड़ी हुई है। मार्क्सवादी विचारधारा के खिलाफ आम आदमी का यह विद्रोह मार्क्सवादियों के लिए असहनीय है। वस्तुत: राष्ट्रवादी विचारधारा से कोसों की दूरी होने के कारण भारतीय जनमानस में मार्क्सवाद अपनी पैठ नहीं बना पाया है। इसीलिए मार्क्सवादी अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए हिंसा का सहारा लेते है। उन्हें पता है कि वर्ग-संघर्ष की दुकानदारी भारत में नहीं चल सकती। साम्यवाद दुनिया भर से सिमटता जा रहा है। ऐसे में मार्क्सवादियों को अपने अस्तित्व के लिए सबसे बड़ा खतरा राष्ट्रवादी ताकतों से लगता है। आश्चर्य नहीं कि भाजपा और संघ परिवार मार्क्सवादियों के निशाने पर रहते हैं। यह सही है कि हिंसा के बदले हिंसा भारतीय परंपरा की पहचान नहीं है, किंतु अनवरत हिंसा का प्रतिकार क्या हो सकता है? हिंसा? अंततोगत्वा सभ्य समाज को ही भारत की बहुलतावादी परंपरा की रक्षा के लिए मार्क्सवादियों की हिंसा के खिलाफ गोलबंद होना होगा। कन्नूर की ये दुर्भाग्यपूर्ण घटनाएं मार्क्सवादी विचारधारा में कोई अपवाद नहीं है। कम्युनिस्टों को हिंसा के माध्यम से अपनी राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता के दमन और प्रताडि़त करने का विश्वव्यापी अनुभव है। सोवियत संघ से लेकर, कम्युनिस्ट चीन, कंबोडिया, क्यूबा में करोड़ों निर्दोषों की हत्या कम्युनिस्टों के रक्तरंजित इतिहास में दर्ज हैं। यदि कन्नूर में फैली इस हिंसा को समाप्त नहीं किया गया तो यह कालांतर में दावानल बन सकता है। (दैनिक जागरण , १८ मार्च २००८ )
Saturday, March 15, 2008
आस्था पर अनगिनत हमले
Wednesday, March 12, 2008
तसलीमा बनाम मकबूल
आमी बाड़ी जाबो, आमी बाड़ी जेते चाई, कोलकाता से वामपंथी सरकार द्वारा निकाल बाहर किए जाने के बाद से ही पश्चिम बंगाल लौटने की लगातार गुहार लगा रहीं बांग्लादेश की लेखिका तसलीमा नसरीन इन पंक्तियों के लिखते समय अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान चिकित्सा केंद्र में अपना उपचार करा रही हैं। मानसिक यंत्रणा से जूझ रही तसलीमा को देश निकाले की धमकी और चित्रकार मकबूल फिदा हुसैन को महिमामंडित करने का क्या अर्थ है? अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर भारत माता और हिंदू देवी-देवताओं के अपमानजनक चित्र बनाने वाले को भारत रत्न से सम्मानित करने की मांग का क्या औचित्य है? आखिर तसलीमा का अपराध क्या है कि उन्हें जान की सुरक्षा और रहने के ठिकाने की चिंता के साये में जीवन गुजारना पड़ रहा है? हिंदू भावनाओं को आघात पहुंचाने के कारण अदालती कार्रवाइयों से बचने के लिए विदेश में छिपे मकबूल के पक्ष में तो सारे सेकुलरिस्ट खड़े हैं, किंतु तसलीमा को शरण दिए जाने पर वही खेमा आपे से बाहर क्यों है? तसलीमा और मकबूल के प्रति जो दोहरा रवैया अपनाया जा रहा है वह वस्तुत: पंथनिरपेक्षता के विकृत पक्ष को ही उजागर करता है। बांग्लादेश के अल्पसंख्यक हिंदुओं पर वहां के बहुसंख्यक मुसलमानों द्वारा किए गए अत्याचार पर आधारित तसलीमा की पुस्तक लज्जा के प्रकाशन के बाद बांग्लादेश सरकार ने उन्हें देश छोड़ने का फरमान जारी किया। उसके बाद से ही वह निर्वासित जिंदगी गुजार रही हैं। कुछ समय से तसलीमा ने भारत में शरण ले रखी है। लंबे समय से वह भारत सरकार से भारतीय नागरिकता प्रदान करने की गुहार कर रही हैं। भारतीय नागरिकता अधिनियम, 1955 के खंड 6 के अंतर्गत ऐसे व्यक्ति को भारतीय नागरिकता के योग्य बताया गया है, जिसने विज्ञान, दर्शन, कला, साहित्य, विश्व शांति और मानव कल्याण के क्षेत्र में विशिष्ट योगदान दिया हो। संवैधानिक पंथनिरपेक्षता के संदर्भ में तसलीमा के विचारों को कई पश्चिमी देश सम्मान भाव से देखते हैं, किंतु सेकुलर भारत उन्हें तिरस्कार का पात्र समझता है। क्यों? तसलीमा नसरीन की पुस्तक लज्जा सेकुलर भारत के लिए सचमुच लज्जा की बात साबित हो रही है। 1993 में लिखी इस पुस्तक ने मानवीय संवेदनाओं को झकझोर दिया था। उन्हें बांग्लादेशी कठमुल्लों के फतवे से जान बचाकर देश छोड़ भागना पड़ा। 1971 में बांग्लादेश को एक पंथनिरपेक्ष राष्ट्र के रूप में मुक्त कराया गया था, किंतु सच यह है कि वह आज इस्लामी जेहादियों का दूसरा सबसे बड़ा गढ़ है। 1988 में उसने पंथनिरपेक्षता को तिलांजलि दे खुद को इस्लामी राष्ट्र घोषित कर लिया। बांग्लादेश में तसलीमा का दमन आश्चर्य की बात नहीं, किंतु पंथनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक भारत की क्या मजबूरी है? सेकुलरवाद और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर मकबूल का समर्थन करने वाले सेकुलरिस्ट और कम्युनिस्ट तसलीमा का विरोध क्यों कर रहे हैं? क्या सेकुलरवाद हिंदू मान्यताओं और प्रतीकों को कलंकित करने का साधन है? क्या ऐसा इसलिए कि हिंदुओं में प्रतिरोध करने की क्षमता कम है या वे आवेश में आकर विवेक का त्याग नहीं करते? पैगंबर साहब का अपमानजनक कार्टून बनाने वाले के खिलाफ सड़क से लेकर संसद तक निंदा करने वाले सेकुलरिस्ट मकबूल के मामले में क्यों मौन रह जाते हैं? किसी भी मजहब की आस्था पर आघात करना यदि उचित नहीं है तो हिंदुओं की आस्था पर आघात करने वाले कलाकारों-संगठनों को संरक्षण किस तर्क पर दिया जाता है? मकबूल फिदा हुसैन के जीवन को कोई खतरा नहीं है। संपूर्ण सेकुलर सत्ता अधिष्ठान उनके स्वागत में तत्पर है। सेकुलरिस्ट उन्हें भारत रत्न से सम्मानित करने की मांग करते हैं, जामिया मिलिया विश्वविद्यालय उन्हें पीएचडी की उपाधि से सम्मानित करता है और इस अवसर पर केंद्रीय मंत्री अर्जुन सिंह उपस्थित रहते हैं। न्यायपालिका की विश्वसनीयता और प्रामाणिकता अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठित है। संसद पर हमला करने के आरोप में एहसान गुरु का बरी होना इसका सबसे बड़ा प्रमाण है। यदि मकबूल को अपने देश की न्यायपालिका पर विश्वास है और अपनी रचनात्मक अभिव्यक्ति को न्यायोचित ठहराने की क्षमता है तो उन्हें भारत आकर अदालत में अपना पक्ष रखना चाहिए। किंतु मदर टेरेसा, मरियम, अपनी मां-बेटी को वस्त्राभूषण के साथ सम्मानजनक ढंग से चित्रित करने और हिंदू देवी-देवताओं को अपमानजनक और नग्न चित्रित करने वाले मकबूल आखिर किस तर्क पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का लाभ उठा पाएंगे? संविधान के अनुच्छेद 19 (1)(अ) द्वारा नागरिकों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता दी गई है, किंतु इसमें कुछ निषेध भी हैं। जनहित में मर्यादा और सदाचरण की रक्षा के लिए सरकार इस पर प्रतिबंध भी लगा सकती है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दुरुपयोग करते हुए समाज के किसी वर्ग की आस्था, उसकी धार्मिक भावनाओं को आहत करने, सांप्रदायिक वैमनस्य फैलाने के आरोप में भारतीय दंड विधान की धारा 153 ए के अंतर्गत सजा का प्रावधान भी है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दुरुपयोग करने का जो तर्क तसलीमा पर लागू होता है वह मकबूल पर लागू क्यों नहीं होता? तसलीमा को देश से निकालने पर आमादा सेकुलरिस्ट उसी आरोप में मकबूल को यहां की कानून-व्यवस्था के दायरे में लाने की मांग क्यों नहीं करते? वस्तुत: तसलीमा के भारत में रहने से सेकुलरिस्टों को दो तरह के डर ज्यादा सताते हैं। एक तो उन्हें यह डर है कि उनका थोक वोट बैंक (मुसलमान मतदाता) उनसे बिदक जाएगा और दूसरा, चूंकि मुसलमानों के कट्टरवादी वर्ग में हिंसात्मक प्रतिक्रिया करने की क्षमता ज्यादा है, इसलिए स्वाभाविक रूप से उनकी ब्लैकमेलिंग ताकत भी ज्यादा है। पश्चिम बंगाल में इस वर्ष पंचायत चुनाव होने हैं। नंदीग्राम हिंसा को लेकर जिस तरह जमायते हिंद के बैनर तले मुसलमानों ने वर्तमान वाममोर्चा सरकार के खिलाफ सड़कों पर उग्र आंदोलन किया उससे माकपाइयों का घबराना स्वाभाविक है। इस आक्रोश को दबाने के लिए ही तसलीमा नसरीन को पश्चिम बंगाल से निकाला गया और अब उन्हें देश छोड़कर जाने के लिए मजबूर किया जा रहा है। भारत ने शरणार्थियों को शरण देने में कभी कंजूसी नहीं की। पारसी आए, हमने गले लगाया। केरल के तट पर व्यापारी रूप में इस्लाम के अनुयायी आए तो हमने उन्हें मोपला (स्थानीय भाषा में दामाद) कहकर सम्मानित किया। हालांकि इसका पारितोषिक हमें मोपला दंगों के रूप में मिला, किंतु हमारे आतिथ्य संस्कार में कमी नहीं आई। यहूदी हमारी बहुलावादी संस्कृति व सर्वधर्मसमभाव के सबसे बड़े साक्षी हैं। शेष दुनिया में जब उनका उत्पीड़न हो रहा था तब हमने उन्हें शरण दी। दलाई लामा भारत की इस परंपरा को कैसे भूल सकते हैं? उन्हें शरण देने के कारण जब-तब चीन के साथ हमारे संबंध कटु हो उठते हैं, किंतु क्या हमने कभी उन्हें निकालने की बात भी सोची? यदि कम्युनिस्टों के दबाव में संप्रग सरकार तसलीमा को देश से निकालती है तो यह न केवल भारतीय परंपराओं के प्रतिकूल होगा, बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारतीय पंथनिरपेक्षता की विकृति को भी रेखांकित करेगा। (लेखक भाजपा के राष्ट्रीय सचिव हैं) , दैनिक जागरण, February 5, Tuesday, 2008
दमन पर शर्मनाक मौन
मलेशिया में हिंदुओं के साथ हो रहे अन्याय के खिलाफ भारत सरकार की चुप्पी पर निराशा जता रहे हैं प्रकाश सिंह
मलेशिया में भारतीय मूल के हिंदुओं का जिस तरह दमन हो रहा है वह बड़े खेद का विषय है। उससे भी अधिक शर्म की बात यह है कि भारत की करीब सभी पार्टियों ने इस विषय पर मौन साध रखा है। भारत सरकार तक ने मलेशिया में भारतीय मूल के हिंदुओं पर हो रहे अत्याचारों के सामने आंख पर जैसे पट्टी बांध ली है। लगता है कि भारतीयों और विशेष तौर पर बहुसंख्यक समुदाय को कहीं भी अपमानित किया जा सकता है। अतीत में तालिबान ने अफगानिस्तान से हिंदुओं को खदेड़ा। बांग्लादेश में हिंदुओं पर अत्याचार हुए। इससे पहले युगांडा और फिजी में भारतीय मूल के लोगों के साथ अन्याय की कहानी इतिहास के पन्नों में लिखी जा चुकी है। उसी क्रम में अब मलेशिया का नाम जोड़ा जा सकता है। वास्तविकता यह है कि मलेशिया में भारतीय मूल के लोगों में काफी समय से असंतोष की चिंगारी भड़क रही थी। ये भारतीय ब्रिटिश हूकूमत के दौरान वहां काम के लिए भेजे गए थे। इनमें लगभग 70 प्रतिशत तमिल श्रमिक थे। बाद में कुछ संपन्न तमिल भी गए, जिन्होंने व्यापार में अपनी पहचान बनाई। फिर भी आर्थिक दृष्टि से भारतीय मूल के लोगों के साथ मलेशिया में भेदभाव किया जाता रहा है। राजनीतिक दृष्टि से भी उनका कोई वजन नहीं है। 1957 में राजकीय सेवाओं में उनका प्रतिनिधित्व करीब 40 प्रतिशत था। यह 2005 तक गिरकर मात्र 2 प्रतिशत रह गया। 1980 के बाद मलेशिया में कट्टरपंथियों की पकड़ बराबर बढ़ती गई। मलेशिया में हिंदू मंदिरों को ध्वस्त करने की प्रक्रिया कई वर्षो से चली आ रही थी। दलील यह दी जाती है कि ये मंदिर सरकारी या प्राइवेट जमीन पर बने हैं, इसलिए इनका गिराया जाना आवश्यक है, पर तथ्य यह है कि जो मंदिर गिराए गए वे वर्षों से बने थे। कुछ तो सौ वर्षो से भी अधिक पुराने थे। करीब 150 मंदिर अब तक धराशायी किए जा चुके हैं। यह नीति मस्जिदों पर नहीं लागू की जाती। पिछली 30 अक्टूबर को जावा के पुराने महामरीअम्मन मंदिर को ध्वस्त किया गया। इससे स्थानीय हिंदुओं में भयंकर रोष हुआ। तत्पश्चात हिंदू राइट्स एक्शन फोर्स (हिंड्राफ), जो मलेशिया के हिंदू संगठनों का एक समूह है, ने तय किया कि एक रैली निकाली जाएगी। पुलिस ने प्रदर्शन की अनुमति नहीं दी, फिर भी करीब बीस हजार व्यक्ति क्वालालंपुर में पेट्रोनास टावर के पास एकत्र हुए। वे महात्मा गांधी का पोस्टर लेकर चल रहे थे-यह दिखाने के लिए कि वे अहिंसा में विश्वास करते हैं। पुलिस सख्ती से पेश आई। आंसू गैस व पानी की धार से उन्हें तितर-बितर किया गया। प्रदर्शनकारियों के नेताओं को हिरासत में लिया गया। हिंड्राफ के पांच प्रमुख नेताओं को आंतरिक सुरक्षा अधिनियम के अंतर्गत गिरफ्तार किया जा चुका है। इस अधिनियम के अंतर्गत किसी व्यक्ति को दो साल तक बिना मुकदमा चलाए जेल में रखा जा सकता है। इन नेताओं के विरुद्ध देशद्रोह का आरोप है। पुलिस कार्रवाई का समर्थन करते हुए मलेशिया के प्रधानमंत्री ने कहा कि वह स्वतंत्रता को अहमियत देते हैं, पर शांति व्यवस्था बनाए रखना उससे भी ज्यादा जरूरी है। मलेशिया की पुलिस ने हिंदू नेताओं पर श्रीलंका के लिट्टे से भी गठबंधन का आरोप लगाया है। इसका हिंदू नेताओं ने कड़े शब्दों में खंडन किया है। स्पष्ट है कि पुलिस ने हिंदू प्रदर्शनकारियों के विरुद्ध आतंकवाद का झूठा आरोप इसलिए लगाया है ताकि उनकी करने कार्रवाई को बल मिल सके। सच यह है कि मलेशिया में भारतीयों ने राजनीतिक, आर्थिक, मजहबी भेदभाव के विरुद्ध आवाज उठाई थी। मंदिरों के लगातार तोड़े जाने से उनकी भावनाओं को बहुत ठेस पहुंची थी, कई मंदिरों से तो उन्हें मूर्तियां भी नहींउठाने दिया और उन्हें तोड़ दिया गया। भारतीयों के पास सड़क पर उतरकर अपना विरोध प्रकट करने के अलावा और कोई विकल्प नहीं था, परंतु मलेशिया सरकार ने इस लोकतांत्रिक विरोध का दमन किया। मानवाधिकारों के उल्लंघन का नंगा नाच हुआ। भारत सरकार ने शुरू में तो कुछ ऐसे बयान दिए जिससे लगा कि वह भारतीय मूल के लोगों के हितों की रक्षा करेगी, पर जब मलेशिया सरकार ने कहा कि यह उनका आंतरिक मामला है और खासतौर पर जब भारतीयों पर आतंकवाद का आरोप लगाया गया तब हमारे नेता पीछे हट गए। सरकार में बैठे लोगों ने यह जानने की कोशिश नहीं की कि भारतीयों पर लगे आरोपों में कितनी सच्चाई है? अन्य पार्टियों का मौन भी समझ से बाहर है। भाजपा अपनी अंर्तकलह से शायद इतनी परेशान है कि उसे इस विषय पर सोचने का समय ही नहीं मिला। विश्व हिंदू परिषद को तो जैसे लकवा मार गया है। शंकराचार्य सोए हुए हैं। धर्मगुरुओं ने भी इस मुद्दे पर कुछ कहना आवश्यक नहीं समझा। मानवाधिकार संगठन तो तभी उत्तेजित होते हैं जब अल्पसंख्यकों या आतंकवादियों के मानवाधिकारों की बात आती है। यह संतोषजनक होने के साथ-साथ भारत के लिए शर्म की बात है कि ब्रिटेन और अमेरिका में भारतीय मूल के हिंदुओं ने मलेशिया में हो रहे अत्याचार के खिलाफ आवाज उठाई है। ब्रिटेन में लेबर फ्रेंड्स आफ इंडिया के चेयरमैन स्टीफेन पाउंड और विभिन्न पार्टियों के सांसदों ने ब्रिटिश सरकार से अनुरोध किया है कि वह मलेशिया सरकार पर मंदिरों को न तोड़ने के लिए दबाव डाले। अमेरिका के इंटरनेशनल रिलिजस फ्रीडम से संबंधित कमीशन ने राष्ट्रपति बुश को लिखकर कहा है कि वह मलेशिया सरकार से तुरंत कहें कि मंदिरों की पवित्रता बनाए रखी जाए। गृह मंत्रालय के प्रवक्ता ने भी कहा कि अमेरिकी सरकार यह अपेक्षा करती है कि जिन लोगों के विरुद्ध मलेशियाई सरकार कार्रवाई कर रही है उनके लोकतांत्रिक अधिकारों का सम्मान किया जाए, लेकिन हमारे अपने देश में भारतीय मूल के लोगों के पक्ष में कोई सशक्त आवाज नहीं उठ रही है और उनके पक्ष में केवल पश्चिम में लोग बोल रहे हैं। यह स्थिति अपने आत्मसम्मान के प्रति हमारी प्रतिबद्घता पर सवाल उठाती है। (लेखक उत्तर प्रदेश के पूर्व डीजीपी हैं) , दैनिक जागरण, January 1, Tuesday, 2008
दुश्मन के घरेलू दोस्त
आतंकियों और उनके समर्थकों से सख्ती से निपटने में केंद्रीय सत्ता को असफल करार दे रहे हैं हृदयनारायण दीक्षित
पवित्र कुरान (सूरा 2/216) में हिदायत है, तुम पर युद्ध अनिवार्य किया गया और वह तुम्हें नापसंद है। बहुत संभव है कि कोई चीज तुम्हें नापसंद हो, लेकिन वह तुम्हारे लिए अच्छी हो। जानता अल्लाह है, तुम नहीं जानते। आतंकी जेहाद को फर्ज मानकर जंग-ए-मैदान में हैं। आतंकवाद भारत के विरुद्ध युद्ध है। भारत सरकार कुरान या गीता से नहीं चलती। चलती होती तो कुरान की हिदायत या गीता (11.33) के अनुसार युद्ध को कर्तव्य मानती। भारतीय संविधान में भी साफ-साफ यही निर्देश है, भारत के प्रत्येक अंग की रक्षा, इसके लिए युद्ध, युद्ध की तैयारी, युद्ध संचालन और युद्ध समाप्ति के बाद प्रभावी सैन्य विनियोजन। बावजूद इसके केंद्र अपने संवैधानिक कर्तव्य से विमुख है। मनमोहन सिंह सरकार के साढ़े तीन वर्ष में ही 12 हृदय विदारक आतंकी घटनाएं हुई। उत्तर प्रदेश के फैजाबाद, वाराणसी और लखनऊ की कचहरियों में बम विस्फोट ताजी घटना है। रामपुर में सीआरपीएफ कैंप की घटना जम्मू-कश्मीर जैसी है। सीआरपीएफ की छावनी पर पूर्वसूचना के बावजूद हमले की कामयाबी साधारण घटना नहीं है। रामपुर हमले को लेकर केंद्र और राज्य आमने-सामने है। केंद्र के मुताबिक उसने राज्य को संभावित हमले की पूर्व सूचना दी थी। राज्य के अनुसार ढिलाई केंद्र की तरफ से है। आतंकवाद से लड़ने की जिम्मेदारी और अपने कर्तव्य निर्वहन से दोनों पल्ला झाड़ गए। बेशक पाकिस्तान जेहादी आतंकवाद का प्रायोजक है। यह भी ठीक है कि आतंकवादी पाकिस्तान से ही आते हैं। केंद्र के पास पाकिस्तान में घुसकर आतंकी कैंप नष्ट करने की राजनीतिक इच्छा शक्ति नहीं है। लचर विदेश नीति के चलते अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियां भी भारत के अनुकूल नहीं हैं, लेकिन आतंकियों की सहायता करने वाले स्थानीय सहयोगियों पर ठोस कार्रवाई में आखिरकार क्या कठिनाई है? आस्तीन में घुसे सांपों को खोजने में दिक्कत क्या है? आतंकवाद की मदद करने वाले भारत के ही हैं। आखिरकार पाक आतंकवादियों को रामपुर का रास्ता किसने दिखाया? फैजाबाद, वाराणसी और लखनऊ की कचहरी में बम फोड़कर भागने वाले आतंकवादियों को किसने सुरक्षा मार्ग दिखाया? ऐसे स्थानीय/भारतीय आतंकवादियों की धरपकड़, खोजबीन में दिक्कतें क्या हैं? आतंकवादी युद्ध के मददगार और साजिश में शामिल ऐसे भारतवासियों को सामान्य आपराधिक कानूनों में गिरफ्तार किया जाता है। आतंकवाद पर अलग से कोई कानून नहीं है। पाकिस्तानी आतंकवादी भी हत्या, हत्या के प्रयास आदि सामान्य कानूनों में गिरफ्तार होते हैं और उनके भारतीय मददगार भी। लखनऊ के अधिवक्ताओं ने केंद्र से ज्यादा दिलेरी दिखाई। उन्होंने आतंकवादियों की पैरवी से इनकार किया। परिणामस्वरूप उन पर हमला हुआ। केंद्र आतंकवाद पर कड़ा कानून बनाने से क्यों भाग रहा है? सवाल यह है कि क्या आतंकवाद विरोधी कोई कड़ा कानून बनेगा? सरकार बार-बार इनकार करती है। वह किसे खुश करना चाहती है? क्या उसे पाकिस्तान के नाराज हो जाने का भय सता रहा है? या भारत के भीतर ही कोई बड़ी संगठित ताकत ही आतंकवादियों के विरुद्ध कोई कड़ा कानून नहीं बनने देती? सवाल यह है कि अफजल की फांसी बचाने के लिए केंद्र पर किसका दबाव है? आखिरकार केंद्र ने किसके दबाव में पोटा हटाया? राजग सरकार के 6 वर्ष के कार्यकाल में हुई आतंकी घटनाओं की तुलना में संप्रग शासन के सिर्फ साढ़े तीन बरस में ही ज्यादा निर्दोष मार दिए गए। सवाल राजनीतिक भी हैं। क्यों भाजपा ही आतंकवाद का सवाल बार-बार उठाती है? क्या वोट के लिए? यदि हां तो कांग्रेस भी कड़ाई से यही सवाल उठाकर अपना वोट क्यों नहीं बढ़ाती? वामदल, डीएमके, सपा और बसपा भी आतंकवाद के विरुद्ध संघर्ष का ऐलान क्यों नहीं करते? कह सकते हैं कि भाजपा हिंदुओं की पैरोकार और मुसलमानों की विरोधी है तो क्या आतंकवाद से किसी भी बड़े संघर्ष का मतलब भारतीय मुसलमानों के खिलाफ संघर्ष है? भारतीय मुसलमानों को आतंकवाद का समर्थक नहीं मानना चाहिए, लेकिन सवाल यह है कि अफजल की फांसी की रोक, पोटा की वापसी और आतंकवाद विरोधी किसी नए कानून के न बनाने के सरकारी ऐलान के जरिए किस संगठित शक्ति या संप्रदाय का तुष्टीकरण किया जा रहा है? दरअसल तुष्टीकरण राजनीति ने सभी मुसलमानों को आतंकवाद समर्थक मान लिया है। पोटा इसी वोट बैंक को खुश करने के लिए हटाया गया। अफजल की फांसी भी सभी मुसलमानों से जोड़ी गई है। पोटा जैसे कानून की जद में आतंकवाद समर्थक हजार दो हजार लोग ही आ सकते थे। वे मुसलमान भी हो सकते थे, दीगर पंथ मजहब वाले भी। आतंकवाद को सहूलियत देने वाली सारी नीतियां आम मुसलमान के खाते में डाली गई हैं। आश्चर्य है कि किसी बड़े मुस्लिम नेता या मौलवी ने पूरी कौम को पोटा विरोधी और आतंकवाद समर्थक मानने वाली नीति की निंदा नहीं की। आतंकवाद राष्ट्रीय संप्रभुता पर हमला है। युद्ध के मौकों पर राजनीति नहीं होती। अटल बिहारी वाजपेयी ने भारत-पाक युद्ध के दौरान सभी मतभेद भुलाकर तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की तारीफ की थी। आज स्थिति ठीक उलटी है। प्रमुख विपक्षी दल आतंकवाद के खिलाफ युद्ध में सहयोग को तत्पर है, पूरा राष्ट्र आतंकवाद से युद्ध चाहता है, लेकिन केंद्र युद्ध विरत और कर्तव्य विमुख है। केंद्र दुश्मन के दोस्तों को खुश करने में संलग्न है। कानून एवं व्यवस्था बेशक राज्यों का विषय है, लेकिन आतंकवाद महज कानून एवं व्यवस्था की समस्या नहीं है। आतंकवादियों का निशाना अब उत्तर प्रदेश है। राजनीति ने सुरक्षा बलों का मनोबल गिराया है। समूचा राष्ट्र व्यथित है। भारत चंद राजनीतिक दलों की जागीर नहीं है। इस युद्ध से राष्ट्र को स्वयं ही लड़ना होगा। हम सब पर युद्ध अनिवार्य किया गया है। (लेखक उप्र सरकार के पूर्व मंत्री हैं) दैनिक जागरण ,January 11, Friday, 2008