Wednesday, March 12, 2008

दुश्मन के घरेलू दोस्त


आतंकियों और उनके समर्थकों से सख्ती से निपटने में केंद्रीय सत्ता को असफल करार दे रहे हैं हृदयनारायण दीक्षित

पवित्र कुरान (सूरा 2/216) में हिदायत है, तुम पर युद्ध अनिवार्य किया गया और वह तुम्हें नापसंद है। बहुत संभव है कि कोई चीज तुम्हें नापसंद हो, लेकिन वह तुम्हारे लिए अच्छी हो। जानता अल्लाह है, तुम नहीं जानते। आतंकी जेहाद को फर्ज मानकर जंग-ए-मैदान में हैं। आतंकवाद भारत के विरुद्ध युद्ध है। भारत सरकार कुरान या गीता से नहीं चलती। चलती होती तो कुरान की हिदायत या गीता (11.33) के अनुसार युद्ध को कर्तव्य मानती। भारतीय संविधान में भी साफ-साफ यही निर्देश है, भारत के प्रत्येक अंग की रक्षा, इसके लिए युद्ध, युद्ध की तैयारी, युद्ध संचालन और युद्ध समाप्ति के बाद प्रभावी सैन्य विनियोजन। बावजूद इसके केंद्र अपने संवैधानिक कर्तव्य से विमुख है। मनमोहन सिंह सरकार के साढ़े तीन वर्ष में ही 12 हृदय विदारक आतंकी घटनाएं हुई। उत्तर प्रदेश के फैजाबाद, वाराणसी और लखनऊ की कचहरियों में बम विस्फोट ताजी घटना है। रामपुर में सीआरपीएफ कैंप की घटना जम्मू-कश्मीर जैसी है। सीआरपीएफ की छावनी पर पूर्वसूचना के बावजूद हमले की कामयाबी साधारण घटना नहीं है। रामपुर हमले को लेकर केंद्र और राज्य आमने-सामने है। केंद्र के मुताबिक उसने राज्य को संभावित हमले की पूर्व सूचना दी थी। राज्य के अनुसार ढिलाई केंद्र की तरफ से है। आतंकवाद से लड़ने की जिम्मेदारी और अपने कर्तव्य निर्वहन से दोनों पल्ला झाड़ गए। बेशक पाकिस्तान जेहादी आतंकवाद का प्रायोजक है। यह भी ठीक है कि आतंकवादी पाकिस्तान से ही आते हैं। केंद्र के पास पाकिस्तान में घुसकर आतंकी कैंप नष्ट करने की राजनीतिक इच्छा शक्ति नहीं है। लचर विदेश नीति के चलते अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियां भी भारत के अनुकूल नहीं हैं, लेकिन आतंकियों की सहायता करने वाले स्थानीय सहयोगियों पर ठोस कार्रवाई में आखिरकार क्या कठिनाई है? आस्तीन में घुसे सांपों को खोजने में दिक्कत क्या है? आतंकवाद की मदद करने वाले भारत के ही हैं। आखिरकार पाक आतंकवादियों को रामपुर का रास्ता किसने दिखाया? फैजाबाद, वाराणसी और लखनऊ की कचहरी में बम फोड़कर भागने वाले आतंकवादियों को किसने सुरक्षा मार्ग दिखाया? ऐसे स्थानीय/भारतीय आतंकवादियों की धरपकड़, खोजबीन में दिक्कतें क्या हैं? आतंकवादी युद्ध के मददगार और साजिश में शामिल ऐसे भारतवासियों को सामान्य आपराधिक कानूनों में गिरफ्तार किया जाता है। आतंकवाद पर अलग से कोई कानून नहीं है। पाकिस्तानी आतंकवादी भी हत्या, हत्या के प्रयास आदि सामान्य कानूनों में गिरफ्तार होते हैं और उनके भारतीय मददगार भी। लखनऊ के अधिवक्ताओं ने केंद्र से ज्यादा दिलेरी दिखाई। उन्होंने आतंकवादियों की पैरवी से इनकार किया। परिणामस्वरूप उन पर हमला हुआ। केंद्र आतंकवाद पर कड़ा कानून बनाने से क्यों भाग रहा है? सवाल यह है कि क्या आतंकवाद विरोधी कोई कड़ा कानून बनेगा? सरकार बार-बार इनकार करती है। वह किसे खुश करना चाहती है? क्या उसे पाकिस्तान के नाराज हो जाने का भय सता रहा है? या भारत के भीतर ही कोई बड़ी संगठित ताकत ही आतंकवादियों के विरुद्ध कोई कड़ा कानून नहीं बनने देती? सवाल यह है कि अफजल की फांसी बचाने के लिए केंद्र पर किसका दबाव है? आखिरकार केंद्र ने किसके दबाव में पोटा हटाया? राजग सरकार के 6 वर्ष के कार्यकाल में हुई आतंकी घटनाओं की तुलना में संप्रग शासन के सिर्फ साढ़े तीन बरस में ही ज्यादा निर्दोष मार दिए गए। सवाल राजनीतिक भी हैं। क्यों भाजपा ही आतंकवाद का सवाल बार-बार उठाती है? क्या वोट के लिए? यदि हां तो कांग्रेस भी कड़ाई से यही सवाल उठाकर अपना वोट क्यों नहीं बढ़ाती? वामदल, डीएमके, सपा और बसपा भी आतंकवाद के विरुद्ध संघर्ष का ऐलान क्यों नहीं करते? कह सकते हैं कि भाजपा हिंदुओं की पैरोकार और मुसलमानों की विरोधी है तो क्या आतंकवाद से किसी भी बड़े संघर्ष का मतलब भारतीय मुसलमानों के खिलाफ संघर्ष है? भारतीय मुसलमानों को आतंकवाद का समर्थक नहीं मानना चाहिए, लेकिन सवाल यह है कि अफजल की फांसी की रोक, पोटा की वापसी और आतंकवाद विरोधी किसी नए कानून के न बनाने के सरकारी ऐलान के जरिए किस संगठित शक्ति या संप्रदाय का तुष्टीकरण किया जा रहा है? दरअसल तुष्टीकरण राजनीति ने सभी मुसलमानों को आतंकवाद समर्थक मान लिया है। पोटा इसी वोट बैंक को खुश करने के लिए हटाया गया। अफजल की फांसी भी सभी मुसलमानों से जोड़ी गई है। पोटा जैसे कानून की जद में आतंकवाद समर्थक हजार दो हजार लोग ही आ सकते थे। वे मुसलमान भी हो सकते थे, दीगर पंथ मजहब वाले भी। आतंकवाद को सहूलियत देने वाली सारी नीतियां आम मुसलमान के खाते में डाली गई हैं। आश्चर्य है कि किसी बड़े मुस्लिम नेता या मौलवी ने पूरी कौम को पोटा विरोधी और आतंकवाद समर्थक मानने वाली नीति की निंदा नहीं की। आतंकवाद राष्ट्रीय संप्रभुता पर हमला है। युद्ध के मौकों पर राजनीति नहीं होती। अटल बिहारी वाजपेयी ने भारत-पाक युद्ध के दौरान सभी मतभेद भुलाकर तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की तारीफ की थी। आज स्थिति ठीक उलटी है। प्रमुख विपक्षी दल आतंकवाद के खिलाफ युद्ध में सहयोग को तत्पर है, पूरा राष्ट्र आतंकवाद से युद्ध चाहता है, लेकिन केंद्र युद्ध विरत और कर्तव्य विमुख है। केंद्र दुश्मन के दोस्तों को खुश करने में संलग्न है। कानून एवं व्यवस्था बेशक राज्यों का विषय है, लेकिन आतंकवाद महज कानून एवं व्यवस्था की समस्या नहीं है। आतंकवादियों का निशाना अब उत्तर प्रदेश है। राजनीति ने सुरक्षा बलों का मनोबल गिराया है। समूचा राष्ट्र व्यथित है। भारत चंद राजनीतिक दलों की जागीर नहीं है। इस युद्ध से राष्ट्र को स्वयं ही लड़ना होगा। हम सब पर युद्ध अनिवार्य किया गया है। (लेखक उप्र सरकार के पूर्व मंत्री हैं) दैनिक जागरण ,January 11, Friday, 2008

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