Tuesday, September 16, 2008

वडोदरा में फायरिंग में एक की मौत

दैनिक जागरण, १६ सितम्बर २००८, वडोदरा। वडोदरा में गणेश मूर्ति विसर्जन के दौरान पथराव के बाद सोमवार दोपहर दो समुदायों के बीच हिसक झड़प के बाद पुलिस फायरिग में एक युवक की मौत हो गई जबकि आठ व्यक्ति घायल है। इलाके में बीती रात भी पथराव की घटना हुई थी। फिलहाल स्थिति तनावपूर्ण लेकिन नियंत्रण में बताई जाती है।

वडोदरा के फतेहपुरा याकूतपुरा में रविवार शाम को गणेश मूर्ति विसर्जन के दौरान पथराव की घटना के बाद इस विवाद ने सोमवार दोपहर उग्र रूप धारण कर लिया। दोनों समुदाय के लोगों ने एक दूसरे पर जमकर पथराव किया तथा दो जगह चाकूबाजी की घटना भी हुई। इसके बाद उपद्रवियों को काबू में करने के लिए पुलिस ने नौ राउंड फायरिग की तथा आंसू गैस के गोले छोड़े। पुलिस फायरिग में एक पच्चीस वर्षीय युवक की मौत हो गई तथा आठ जख्मी है, जिसके बाद से हालात तनावपूर्ण है। उल्लेखनीय है कि वडोदरा में वर्ष 2002 से हर साल गणेश मूर्ति विसर्जन के दौरान हिंसा हो रही है।

Monday, September 15, 2008

दिल्ली विस्फोट

13 सितम्बर 2008, वार्ता, नयी दिल्ली। राजधानी दिल्ली में आज शाम पांच स्थानों पर हुए श्रृंखलाबद्ध विस्फोटों में कम से कम बारह व्यक्तियों की मौत हो गयी तथा 70 से अधिक लोग घायल हो गये।

करोलबाग के गफ्फार मार्केट, कनाटप्लेस के पालिका बाजार के उपर एवं गोपाल दास बिल्डिंग के सामने और ग्रेटर कैलाश के एम ब्लाक में दो स्थानों पर 40 मिनट के भीतर ये विस्फोट हुये।

दमकल विभाग के आधिकारिक सूत्रों ने बताया कि गफ्फार माकेंट में सात लोग मारे गये। कनाटप्लेस में एक महिला सहित पांच लोग मारे गये और 40 लोग घायल हो गये।

दिल्ली पुलिस आयुक्त वाई एस डडवाल सहित पुलिस के वरिष्ठ अधिकार मौके पर पहुंच चुके हैं। विस्फोट की खबर के बाद संबंधित इलाकों में मची अफरा-तफरी के कारण यातायात अवरूद्ध हो गया। हालांकि इस दौरान दिल्ली मेट्रो रेल की सेवायें यथावत जारी है।

सूत्रों ने बताया कि गफ्फार मार्केट में हुए विस्फोट में सबसे ज्यादा नुकसान हुआ है तथा अब तक सात लोगों के मारे जाने की खबर है। मौके पर दमकल की गाडियां एवं बम निरोधक दस्ते पहुंच गये हैं। घायलों को निकटवर्ती निजी तथा राममनोहर लोहिया अस्पताल में भर्ती कराया गया है।

सूत्रों के अनुसार इन विस्फोटों के तुरंत बाद राजधानी में तथा आसपास के क्षेत्र में सतर्कता बढाने के साथ ही रेड अलर्ट घोषित कर दिया गया है।

घटनास्थलों की घेराबंदी कर दी गयी ताकि घायलों को शीघ्र अस्पताल पहुंचाया जा सके । गृह मंत्रालय स्थिति पर नजर रखे हुए है।

उल्लेखनीय है कि इससे पहले वर्ष 2005 में दीवाली के अवसर पर हुये श्रृंखलाबद्ध विस्फोटों में 62 लोग मारे गये थे।

Friday, September 12, 2008

हाजियों का कोटा बढ़ा, किराया नहीं

जागरण ब्यूरो,18 सितम्बर 2008, नई दिल्ली । हज यात्रा हवाई किरायों में ताजी वृद्धि से बेअसर रहेगी। साथ ही, इस साल हज जाने वालों की संख्या भी बढ़ जाएगी। यही नहीं, इंदौर से हज की सीधी उड़ान की सु भी मिलेगी। केंद्रीय पुलिस बलों में 48 नए पद बढे़ंगे। साथ ही, नक्सल प्रभावित क्षेत्रों के लिए 500 करोड़ रुपये अतिरिक्त दिए जाएंगे। ये तमाम फैसले बृहस्पतिवार को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में हुई कैबिनेट की बैठक में लिए गए।

बैठक के बाद सूचना व प्रसारण मंत्री प्रियरंजन दासमुंशी ने बताया कि हज यात्रियों का कोटा 1,23,211 कर दिया गया है, जबकि पिछले साल तक 1.10 लाख यात्रियों को ही हज यात्रा करने की छूट थी। हाजियों को हवाई जहाज के किराये में सरकार सब्सिडी देगी।

सीधे सऊदी अरब जाने वाले यात्रियों की सुविधा के लिए इंदौर को 17वां केंद्र घोषित किया गया है। मध्य प्रदेश के हज यात्रियों को अब किसी दूसरे शहरों की ओर नहीं भागना पड़ेगा। आम तौर पर केरल व महाराष्ट्र जैसे राज्यों के हज यात्रियों की संख्या सर्वाधिक होती है, जबकि कम मुस्लिम आबादी वाले राज्यों से हज जाने वालों की संख्या बहुत कम होती है। इस नई व्यवस्था से अब असंतुलन दूर हो जाएगा।

Thursday, September 11, 2008

Malaysian High Court upholds order to ban Hindraf rally

Kuala Lumpur, Sept.10 (ANI): A magistrate’’s court order to ban the Hindu Rights Action Force (HINDRAF) rally held on November 25 last year, has been deemed as valid by the Malaysian High Court.

According to a New Strait Times report, the High Court also dismissed the appeal filed by five HINDRAF leaders to declare the order null and void.

Judge Datuk Mohamed Zabidin Mohd Diah agreed with deputy public prosecutor Raja Rozela Raja Toran that there were no “live issues” before the court.

The five — lawyers M. Manoharan, V. Ganapathi Rao, P. Uthayakumar, and R. Kengdharan, along with chairman P. Waytha Moorthy — had appealed against the restriction order earlier this year through their counsel Gobind Singh Deo.

They asked the High Court to declare the order, which barred them from holding the rally, null and void.

The five claimed that the magistrate had erred because the order was made ex-parte and was defective under the law because it did not specify the restriction address and conditions. (ANI)

Six injured in communal clashes during Ganesh immersion in Bharuch

Express News Service Posted online: Wednesday, September 10, 2008 , Vadodara, September 09 A dispute between two groups —one Hindu and one Muslim — resulted in stone pelting during the Ganesh visarjan (immersion) procession in Bharuch late on Monday evening. At least six persons were injured in the clash. The police lobbed tear gas shells to disperse the mob.

The incident occurred when a procession from Ghikhudia area in Bharuch was allegedly obstructed by a group of people from Bahar ni Undai area, who complained about loud music being played by the procession, police said. The situation turned ugly when some police officials were attacked and the mob started pelting stones. Apart from lobbing two teargas shells, the police also fired a round in the air to disperse the irate mob.

Inspector A S Shukla of Bharuch police (A division) said, “Around 18 people from both the communities have been arrested following the incident.”

The incident occurred near a religious place in Bahar ni Undai area, said Shukla who is investigating the case. “Around four police constables and two civilians from Bharuch were injured. A police motorcycle was also damaged and the mob also tried to snatch away a rifle from a policeman.”

मुस्लिम समुदाय की समस्या

रमजान के पवित्र माह पर देश के मुस्लिम समाज के सम्मुख कुछ सवाल रख रहे हैं डा. महीप सिंह
दैनिक जागरण, 11 सितम्बर 2008. मुसलमानों के लिए रमजान का महीना बहुत पवित्र है। मुसलमानों की यह मान्यता हैं कि यह मास पूरी तरह आत्मावलोकन और नैतिक शक्ति-अर्जन का है। इसी मास में पवित्र कुरान को मानवता के लिए प्रकाश में लाया गया। रमजान में अपेक्षित सभी बातों में मुझे आत्मपरीक्षण और आत्मनिरीक्षण की बात सबसे अधिक महत्वपूर्ण लगती है। जो देश, समाज या मजहब-यहां तक कि जो व्यक्ति भी समय-समय पर इस प्रकार का आत्मपरीक्षण या निरीक्षण नहीं करता वह जड़ हो जाता है, सही मार्ग से भटक जाता है, अंधविश्वासी और रूढि़ ग्रस्त होकर अपने समय का साक्षी नहीं रहता। उसमें लकीर की फकीरी तो आ जाती है, अपने मूल सिद्धांतों और अभिप्रायों की सही समझ विकृत हो जाती है। संसार का कोई भी मजहब, मत, संप्रदाय इससे अछूता नहीं है।

आज आतंकवाद के विरुद्ध युद्ध की बड़ी चर्चा है। अमेरिका इस मुहिम का अगुआ है। इस युद्ध की अधिक चर्चा 11 सितंबर 2001 को अमेरिका के न्यूयार्क और वाशिंगटन जैसे नगरों पर हुए आक्रमण के बाद शुरू हुई। अमेरिका ने उस आतंकवादी हमले को अपने अस्तित्व पर खुली चुनौती माना। इराक और अफगानिस्तान पर अमेरिका और उसके साथी देशों का आक्रमण इसी युद्ध का एक अंग था। संसार के किसी भी भाग में जब कोई आतंकवादी घटना होती है तो कुछ अपवादों को छोड़ कर सभी में ऐसे नाम आते है जो उनके मुसलमान होने की घोषणा करते है। लगता है जैसे आतंकवाद और इस्लाम एक दूसरे के पर्यायवाची हो गए है। इस तथ्य से इस्लामी विद्वान भी परिचित है और उनकी ओर से लगातार यह कहा जाता है कि इस्लाम दहशतगर्दो के खिलाफ है और बेगुनाह लोगों की हत्या करने की इजाजत नहीं देता। पिछले दिनों देवबंद दारूल उलूम जैसी इस्लामी चिंतन की प्रख्यात संस्था ने उलेमाओं का सम्मेलन करके यह घोषित किया कि आतंकवाद की इस्लाम में कोई जगह नहीं है और बेगुनाह लोगों की हत्या करना बड़ा गुनाह है, किंतु ऐसे फतवों का कोई विशेष प्रभाव देखने में नहीं आता। हाल में जयपुर, बेंगलूर, अहमदाबाद में आतंकियों ने कितने ही बम विस्फोट करके अनेक लोगों की हत्या की। ऐसी घटनाएं केवल गैर इस्लामी देशों में ही नहीं हो रही है। पाकिस्तान इस समय संभवत: दहशतगर्दो के निशाने पर सबसे ज्यादा है। सब कुछ इस्लाम के नाम पर, मजहब के नाम पर हो रहा है। पाकिस्तान में तो एक-दूसरे की मस्जिदों में नमाज अदा करते हुए नमाजियों पर गोलियां बरसाई गई है। क्या रमजान के पवित्र मास में मुस्लिम उलेमाओं और बुद्धिजीवियों को इस पर गहन विचार नहीं करना चाहिए कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पूरे मुस्लिम समुदाय की क्या छवि बन रही है? क्या मात्र यह कह देना या फतवा जारी कर देना काफी है कि दहशतगर्दो की इस्लाम इजाजत नहीं देता? क्या किसी भी स्तर पर इसका कोई सार्थक परिणाम निकला है? क्या ऐसे फतवों से इस्लामी आतंकवाद में कुछ कमी आई है? मैं अपनी एक और जिज्ञासा मुसलमान मित्रों के सम्मुख रखना चाहता हूं। किसी भी देश के किसी भी भाग में यदि मुसलमानों का बहुमत है तो वहां आंदोलन इस बात पर है कि उस भाग को अपने देश से काट कर वहां इस्लामी राज्य किसी प्रकार स्थापित किया जाए? मध्य एशिया से जुड़े चीन के उस प्रांत को जिसमें मुस्लिम बहुसंख्यक है, चीन से अलग करने की कोशिश हो रही है। फिलीपींस के एक मुस्लिम बहुल भाग को मुस्लिम उस देश से अलग करने के लिए संघर्षरत है। वे चेचेन्या को रूस के शासन में नहीं देखना चाहते। भारत में मुस्लिम बहुल कश्मीर में आजादी की मांग की जा रही है। भारत का 61 वर्ष पहले विभाजन इसी आधार पर हुआ था। लाखों असहाय लोगों की बलि लेकर वह भाग भारत से अलग हो गया था, जो मुस्लिम बहुल था। इससे क्या यह निष्कर्ष निकाला जाए कि मुस्लिम समुदाय किसी देश में गैर मुसलमानों के साथ मिलकर शांति के साथ नहीं रह सकता? क्या जिस देश के किसी भाग में उनकी जनसंख्या बढ़ जाएगी वहां वे उस क्षेत्र को अलग करके इस्लामी राज्य बनाने की जद्दोजहद प्रारंभ कर देंगे? यदि खुला युद्ध करना उनके लिए संभव नहीं होगा तो क्या वे आतंकवादी मार्ग अपना लेंगे? क्या वे आत्मघाती हमलों में खुद भी मरेगे और निर्दोष लोगों को भी मारेगे? कुछ दिन पहले शबाना आजमी ने यह कहा कि इस देश में मुसलमानों के साथ भेद-भाव होता है, किंतु इसका कारण वह नहीं है जो वे सोचती है। कारण मुसलमानों की आम छवि है। सिख समुदाय को भी इस छवि के साथ वर्षो तक जीना पड़ा है। अस्सी के दशक में सिखों की छवि आतंकवाद के साथ जुड़ गई थी। यह बात फैल गई थी कि ये लोग देश तोड़कर खालिस्तान बनाना चाहते है। इसका परिणाम यह हुआ था कि हिंदू बहुल क्षेत्रों में सिखों को कोई किराए पर मकान नहीं देता था। वे बसों में बैठते थे तो लोग शंका भरी नजरों से उन्हे देखते थे। सिखों को इस छवि को सुधारने में दो दशक से अधिक का समय लग गया।

इस देश में मुस्लिम समुदाय को लेकर सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि उनकी छवि में सुधार नहीं हो रहा। भारत के मुसलमानों का जीवन-मरण अब इस देश के साथ ही जुड़ा है। ध्यान रहे कि पाकिस्तान और बांग्लादेश में गैर मुसलमानों की संख्या घटी है-या तो मतांतरण या फिर निष्कासन के कारण, किंतु भारत में मुसलमानों की संख्या लगातार बढ़ रही है। मेरा मत है कि रमजान के पवित्र मास में भारतीय मुसलमानों को कुछ निश्चय दोहराने चाहिए: एक, वे इस देश के गौरवशील नागरिक है। दो, आतंकवाद को किसी भी तर्क से न्यायोचित नहीं ठहराते। तीन, कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग मानते है। चार, सभी वर्गो, विशेष रूप से हिंदुओं के साथ सद्भाव पूर्ण वातावरण में जीने के इच्छुक है और सभी प्रकार की शंकाओं को आपसी संवाद द्वारा समाप्त करने के इच्छुक है। मेरी अभिलाषा है कि इस वर्ष की ईद कुछ बेहतर संदेश और सद्भाव लेकर आए।


Wednesday, September 10, 2008

कप्तानगंज में व्यापक तोड़फोड़, लूटपाट के बाद हिंसा

दैनिक जागरण, 9 सितम्बर 2008, आजमगढ़। योगी आदित्यनाथ के काफिले पर रविवार को हुए प्राण घातक हमले के बाद प्रशासन ने शहर को भले ही शांत कर लिया हो मगर ग्रामीण क्षेत्रों में हिंसा थमने का नाम नहीं ले रही। मंगलवार को भी ग्रामीण क्षेत्रों में योगी आदित्यनाथ के काफिले पर हमले को लेकर लोगों में आक्रोश बना रहा।

हमारे कंधरापुर/कप्तानगंज/ बूढ़नपुर संवाददाताओं के अनुसार कप्तानगंज बाजार में हालत दूसरे दिन भी नहीं सुधरे। यहां मंगलवार को भी दो पक्षों ने खुलकर मोर्चा संभाला। जमकर लाठी-डण्डे चले और पथराव हुआ जबकि एक पक्ष ने चाकू, तलवार और तमंचों को लहराकर प्रशासनिक दावे 'सब ठीक है' की पोल खोल दी। इस हिंसा में दोनों पक्षों से नौ लोग घायल हो गये। इस दौरान उपद्रवियों ने एक पीसीओ, एक मुर्गा व्यवसायी तथा एक मांस विक्रेता की दुकान के साथ ही एक मोबाइल की दुकान को भी तहस-नहस कर दिया। बाजार में घंटों पथराव और असलहों का खुला प्रदर्शन देखकर हर कोई सुरक्षित रास्ता पकड़ ले रहा था। सड़क पर घंटों हुए इस उपद्रव को देख पुलिस भी सहम गयी। चन्द मिनट के अन्दर बाजार की सभी दुकानें धड़ाधड़ बंद हो गयीं। उपद्रव की सूचना के बाद पुलिस अधीक्षक विजय गर्ग भी मौके पर पहुंच गये। भारी संख्या में पुलिस और पीएसी बुलानी पड़ी। इसके बाद भी उपद्रवी शांत होने का नाम नहीं ले रहे थे। उपद्रवियों को नियंत्रित करने के लिए पुलिस को मशक्कत करनी पड़ी।

बाजार की सड़कों से लेकर गलियों तक में हर तरफ ईट के टुकड़े बिखरे पड़े थे और दहशत का माहौल था। भारी संख्या में फोर्स के पहुंचने के बाद भी लोग अपने घरों में दुबके रहे। कप्तानगंज थानाध्यक्ष ओपी श्रीवास्तव ने बताया कि उपद्रव के सिलसिले में दोनों पक्षों से 11 लोगों को हिरासत में लिया गया है। उनके अनुसार मंगलवार को हुए उपद्रव की जड़ में मिट्टी के तेल वितरण के दौरान हुआ विवाद रहा है जबकि दूसरी ओर यह भी चर्चा है कि सोमवार को बाजार बंद कराने को लेकर एक पक्ष के लोगों पर दूसरे पक्ष द्वारा फब्तियां कसने के कारण स्थिति विस्फोटक हुई।

प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार कोटेदार योगेन्द्र प्रसाद गुप्ता की दुकान पर मिट्टी के तेल वितरण के दौरान कुछ लोगों ने लालू व सोनू को पीटना शुरू कर दिया और उनके चीखने पर मामले ने दूसरा रूप धारण कर लिया।

आगरा में साम्प्रदायिक संघर्ष,फायरिंग और आगजनी

दैनिक जागरण, 9 सितम्बर 2008, आगरा। आगरा के मिश्रित आबादी वाले मंटोला क्षेत्र सोमवार की रात दो समुदायों में जबरदस्त संघर्ष के बाद गोलियों की तड़तड़ाहट से गूंज उठा। पुलिस की मौजूदगी में जमकर गोलीबारी और पथराव के बाद दो दुकानों सहित चार मकानों को आग के हवाले कर दिया। पथराव में एसएसपी और दरोगा तथा मीडियाकर्मी सहित एक दर्जन से अधिक लोग घायल हो गये। स्थिति को नियंत्रण पाने के लिये कई राउंड गोलियां चलानी पड़ीं। घटना के बाद समूचा इलाका पुलिस की छावनी में तब्दील हो गया है।

घटना रात्रि लगभग 9.45 बजे की है। शहीद नगर निवासी मुस्लिम समाज की महिला मीरा हुसैनी चौराहे पर रिक्शे से उतरी। तभी सामने से आते स्कूटर ने उसे टक्कर मार दी। वह घायल हो गई। पास ही खड़ा मुस्लिम समुदाय का एक युवक मौके पर पहुंच उसे उठाने का प्रयास करने लगा। इसी बीच दूसरे समाज के युवक वहां आ गये। उन्होंने महिला को उठाने का प्रयास करते युवक को धुन दिया। टक्कर मारने वाले स्कूटर को क्षतिग्रस्त कर दिया। इसी बीच जानकारी होने पर मुस्लिम समुदाय के लोग वहां पहुंच गये। दोनों पक्ष के बीच विवाद होने लगा। जिसने संघर्ष का रूप ले लिया। दोनों समुदाय आमने-सामने आ गये। उनके बीच पथराव और फायरिंग शुरू हो गई। एक घंटे से अधिक दोनों ओर से ताबड़तोड़ गोलियां चलीं। मौके पर एसएसपी रघुबीर लाल पहुंच गये। उपद्रवियों ने पुलिस पर पथराव कर दिया। जिसमें एसएसपी, एसओ नाई की मंडी, एक मीडियाकर्मी सहित एक दर्जन से अधिक लोग घायल हो गये। पुलिस ने हालात नियंत्रित करने के लिये लगभग 24 राउण्ड गोलियां चलाईं। संघर्ष में दो दुकानों तथा दो घरों को आग के हवाले कर दिया। आग में फंसे लोगों को पुलिस ने किसी तरह बाहर निकाला। पुलिस देर रात तक स्थिति को नियंत्रित करने में जुटी थी। मौके पर पीएसी को तैनात किया गया है।

आगरा के मंटोला में सांप्रदायिक आग ठंडी पड़ी

दैनिक जागरण, 10 सितम्बर 2008, आगरा : मंटोला में सोमवार की रात भड़की सांप्रदायिक आग सुबह तक ठंडी पड़ गयी। रात भर चली तलाशी में पुलिस ने एक दर्जन उपद्रवियों को गिरफ्तार कर लिया। जिन्हें छुड़वाने के लिए राजनीति तेज रही। पुलिस ने सुबह फ्लैग मार्च करने के बाद बाजार खुलवाये, लेकिन लोगों के बीच अज्ञात आशंका पूरे दिन बनी रही।

दबाव में फैसले

राजनेताओं को देश और जनहित को ज्यादा महत्व देने की सलाह दे रहे हैं निशिकान्त ठाकुर

Dainik Jagran, 8 September 2008. जम्मू में अब जिंदगी पटरी पर लौट आई है। स्कूल-कॉलेज खुलने लगे है और वहां पढ़ाई होने लगी है। बाजारों में चहल-पहल लौट आई है। वीरान हो गईं सड़कें, जहां कुछ दिनों पहले या तो फौजी बूटों की धमक थी या फिर आंदोलनकारियों की चीत्कार, अब नए सिरे से गुलजार हो गईं है। अपने निजी उपयोग के लिए नहीं, बल्कि श्राइन बोर्ड के लिए जमीन की मांग को लेकर अपनी जान तक देने वाले लोगों की मौत का गम अब हल्का होने लगा है। निजी स्वार्थो के लिए अगर राजनेता गड़े मुर्दे न उखाड़े तो थोड़े दिनों बाद यह कड़ा संघर्ष इतिहास का हिस्सा हो जाएगा। अलबत्ता यह मान लेना बहुत बड़ी भूल होगी कि जनता इसे पूरी तरह भूल जाएगी। क्योंकि लोक की स्मृति राजसत्ता और दरबारी लेखकों की गुलाम नहीं होती। उसने हजारों साल पहले की उन घटनाओं को भी अपने भीतर संजो रखा है, जिन्हे सरकारी किताबों से उड़ा ही नहीं दिया गया बल्कि जनता के मन से मिटाने के लिए क्रूरतम कोशिशें तक की गईं है। लगातार जनता को गुमराह करने की ही साजिश में ही लगे रहने वाले राजनेताओं को चाहिए कि वे इस मसले को जनता की याददास्त से उड़ाने की बजाय, इससे स्वयं सीख लेने की कोशिश करे।

यह कहने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि यह सब जो अब हुआ है, थोड़ा पहले भी हो सकता था। सच तो यह है कि अगर वस्तुस्थिति और सत्य को नजरअंदाज करने की बजाय थोड़ी सी ईमानदारी बरती गई होती तो यह नौबत ही नहीं आई होती। न तो जनता को कोई आंदोलन करना पड़ा होता और न जम्मू में क‌र्फ्यू लगाना पड़ा होता। यही नहीं, अगर थोड़ा और पहले दूरअंदेशी बरती गई होती और वोटबैंक की राजनीति के बजाय राष्ट्रहित एवं जनहित को महत्व दिया गया होता तो घाटी में भी इस मसले को लेकर जो प्रदर्शन हुए और खूनी खेल खेले गए, उनकी नौबत नहीं आई होती। घाटी से लेकर जम्मू तक जो नुकसान न केवल सरकार बल्कि आम जनता को भी उठाना पड़ा है, वह सब नहीं हुआ होता। सरकार को अपने नुकसान का अफसोस न हो, पर जनता को अपने नुकसान का अफसोस जरूर है। इसके बावजूद न चाहते हुए भी वह ऐसा करने के लिए मजबूर थी। यह बात जम्मू के लोगों की समझ में पूरी तरह आ गई थी कि अब अपना वाजिब हक लेने का इसके अलावा कोई रास्ता नहीं बचा है। जिन जम्मूवासियों ने करीब महीने भर की अपनी रोजी-रोटी गंवाई या अपने मकानों-दुकानों का नुकसान झेला, वे किसी से टैक्स वसूल कर अपने निजी नुकसान की भरपाई नहीं कर सकेंगे। यह नुकसान तो खैर, फिर भी वे देर-सबेर पूरा कर लेंगे, पर जिनकी जानें गई है क्या उन्हे कोई लौटा सकेगा?यह सब जो हुआ है क्या इससे पता नहीं चलता कि हमारे राजनेता कितने संवेदनशील है? क्या इससे यह मालूम नहीं हो जाता कि हमारे देश का संविधान जिनके हाथों में है, वे कितने निष्पक्ष और न्यायप्रिय है? जो बात सरकार ने अब मानी है, क्या वही वह पहले नहीं मान सकती थी? अगर अभी सरकार में किसी भी तरह से शामिल कोई भी राजनेता यह कहता है कि सरकार ने जम्मू के लोगों की बातें दबाव में मानी है, तो क्या यह हमारी राजनीतिक न्याय प्रणाली के बेहद कमजोर होने का सबूत नहीं है? यह बात तो साफ है कि दबाव में कभी कहीं न्याय हो ही नहीं सकता है। अब अगर इसे दबाव में हुआ फैसला माना जाए, जो कि यह है भी, तब तो जाहिर है कि यह फैसला गलत है। अगर सही यानी दबाव के बगैर फैसला हुआ है तो फिर जान-माल की जो क्षति हुई है, उसके लिए जिम्मेदार कौन है? क्या यह किसी आपराधिक कृत्य से कम है? बहरहाल, यह फैसला चाहे दबाव में लिया गया हो या बिना दबाव के, पर हकीकत यही है कि हमारे देश में अधिकतम राजनीतिक फैसले दबाव में ही लिए जाते है। बात चाहे श्राइन बोर्ड को जमीन देने की मंजूरी की रही हो, चाहे उसे फिर से वापस लेने या फिर अब दुबारा वही जमीन उसे लौटाने की, फैसले सारे दबाव में ही लिए गए है। यह अलग बात है कि हर बार दबाव अलग-अलग तरह के रहे है।

यह दबाव कैसे प्रभावी होता है, इसे जम्मू-कश्मीर में व्याप्त विसंगतियों से देखा और समझा जा सकता है। यह कौन नहीं जानता है कि घाटी यानी कश्मीर पूरे राज्य का बहुत छोटा सा हिस्सा है। जम्मू और लद्दाख की हिस्सेदारी उससे ज्यादा है। इसके बावजूद राज्य से संबंधित हर फैसले पर इस क्षेत्र की प्रभुता का असर साफ देखा जा सकता है। सरकार के भी बड़े से बड़े फैसले बदलवा देने में यह अपने को सक्षम समझता है और इसे बार-बार साबित करता रहता है। आखिर क्यों? सिर्फ इसलिए कि यहां मुट्ठी भर ऐसे अलगाववादी रहते है, जो राज्य के साथ-साथ केंद्र सरकार को भी शोपीस से ज्यादा कुछ नहीं समझते। इलाके की आम जनता के मानस को चाहे वे रत्ताी भर भी प्रभावित न कर सके हों, पर ढोर-बकरियों की तरह अपने मन मुताबिक जहां चाहे वहां खड़ा करने में उन्हे मुश्किल नहीं होती। क्यों? क्योंकि आम जनता निहत्थी है, जबकि अलगाववादियों के पास अत्याधुनिक बंदूकें है, बम है, ग्रेनेड है, बारूदी सुरंगें है। यही नहीं, परदे के पीछे से कुछ राजनेताओं का संरक्षण भी उन्हे प्राप्त है। अगर ऐसा नहीं है तो क्या कारण है कि घाटी में पाकिस्तान समर्थक नारे लगाए जाते है, पाकिस्तानी झंडे फहराए जाते है और इसकी नोटिस तक नहीं ली जाती है। इस राष्ट्रविरोधी कृत्य को अगर घाटी के जनजीवन का हिस्सा मान लिया गया है तो यह कैसे माना जाए कि यह सब राजनीतिक संरक्षण के बगैर हो रहा है? राजनेता यह क्यों भूल जाते है कि लोकतंत्र में उनकी ताकत जनता से ज्यादा नहीं है?

सच तो यह है कि अगर वे इस बात को याद रखें तो जम्मू-कश्मीर ही नहीं, पूरे देश में कोई दिक्कत नहीं रह जाएगी। कभी वोटबैंक तो कभी निजी स्वार्थो के दबाव में जो फैसले किए जाते रहे है, उनका ही नतीजा है जो पूरे देश में असहिष्णुता बढ़ रही है। जाहिर है, एक समुदाय को खुश करने के लिए अगर दूसरे का हक मारा जाएगा तो वह कितने दिनों तक बर्दाश्त कर सकेगा? और जब शांतिपूर्वक किसी की बात नहीं सुनी जाएगी तो उसके धैर्य का बांध कभी तो टूटेगा ही। जम्मू, गुजरात या अभी उड़ीसा जैसे संकट वस्तुत: ऐसे ही राजनीतिक फैसलों की देन है। राजनेता अगर निजी हितों की तुलना में थोड़ा सा ज्यादा महत्व राष्ट्र और जनहित को देने लगें तो कई समस्याएं अपने आप हल हो जाएंगी। अन्यथा इस बात को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि जम्मू, गुजरात और उड़ीसा सिर्फ संकेत है। सच तो यह है कि अपने मौलिक और न्यायसंगत अधिकारों से वंचित देश की बहुत

बड़ी आबादी के भीतर अत्यंत भयावह ज्वालामुखी का लावा उबल रहा है। उसे अब बहुत ज्यादा दिनों तक गुमराह करना संभव नहीं रह गया है। यह राजनेताओं के सोचने का विषय है कि जिस दिन यह लावा फूटेगा, तब क्या होगा?