Thursday, September 11, 2008

मुस्लिम समुदाय की समस्या

रमजान के पवित्र माह पर देश के मुस्लिम समाज के सम्मुख कुछ सवाल रख रहे हैं डा. महीप सिंह
दैनिक जागरण, 11 सितम्बर 2008. मुसलमानों के लिए रमजान का महीना बहुत पवित्र है। मुसलमानों की यह मान्यता हैं कि यह मास पूरी तरह आत्मावलोकन और नैतिक शक्ति-अर्जन का है। इसी मास में पवित्र कुरान को मानवता के लिए प्रकाश में लाया गया। रमजान में अपेक्षित सभी बातों में मुझे आत्मपरीक्षण और आत्मनिरीक्षण की बात सबसे अधिक महत्वपूर्ण लगती है। जो देश, समाज या मजहब-यहां तक कि जो व्यक्ति भी समय-समय पर इस प्रकार का आत्मपरीक्षण या निरीक्षण नहीं करता वह जड़ हो जाता है, सही मार्ग से भटक जाता है, अंधविश्वासी और रूढि़ ग्रस्त होकर अपने समय का साक्षी नहीं रहता। उसमें लकीर की फकीरी तो आ जाती है, अपने मूल सिद्धांतों और अभिप्रायों की सही समझ विकृत हो जाती है। संसार का कोई भी मजहब, मत, संप्रदाय इससे अछूता नहीं है।

आज आतंकवाद के विरुद्ध युद्ध की बड़ी चर्चा है। अमेरिका इस मुहिम का अगुआ है। इस युद्ध की अधिक चर्चा 11 सितंबर 2001 को अमेरिका के न्यूयार्क और वाशिंगटन जैसे नगरों पर हुए आक्रमण के बाद शुरू हुई। अमेरिका ने उस आतंकवादी हमले को अपने अस्तित्व पर खुली चुनौती माना। इराक और अफगानिस्तान पर अमेरिका और उसके साथी देशों का आक्रमण इसी युद्ध का एक अंग था। संसार के किसी भी भाग में जब कोई आतंकवादी घटना होती है तो कुछ अपवादों को छोड़ कर सभी में ऐसे नाम आते है जो उनके मुसलमान होने की घोषणा करते है। लगता है जैसे आतंकवाद और इस्लाम एक दूसरे के पर्यायवाची हो गए है। इस तथ्य से इस्लामी विद्वान भी परिचित है और उनकी ओर से लगातार यह कहा जाता है कि इस्लाम दहशतगर्दो के खिलाफ है और बेगुनाह लोगों की हत्या करने की इजाजत नहीं देता। पिछले दिनों देवबंद दारूल उलूम जैसी इस्लामी चिंतन की प्रख्यात संस्था ने उलेमाओं का सम्मेलन करके यह घोषित किया कि आतंकवाद की इस्लाम में कोई जगह नहीं है और बेगुनाह लोगों की हत्या करना बड़ा गुनाह है, किंतु ऐसे फतवों का कोई विशेष प्रभाव देखने में नहीं आता। हाल में जयपुर, बेंगलूर, अहमदाबाद में आतंकियों ने कितने ही बम विस्फोट करके अनेक लोगों की हत्या की। ऐसी घटनाएं केवल गैर इस्लामी देशों में ही नहीं हो रही है। पाकिस्तान इस समय संभवत: दहशतगर्दो के निशाने पर सबसे ज्यादा है। सब कुछ इस्लाम के नाम पर, मजहब के नाम पर हो रहा है। पाकिस्तान में तो एक-दूसरे की मस्जिदों में नमाज अदा करते हुए नमाजियों पर गोलियां बरसाई गई है। क्या रमजान के पवित्र मास में मुस्लिम उलेमाओं और बुद्धिजीवियों को इस पर गहन विचार नहीं करना चाहिए कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पूरे मुस्लिम समुदाय की क्या छवि बन रही है? क्या मात्र यह कह देना या फतवा जारी कर देना काफी है कि दहशतगर्दो की इस्लाम इजाजत नहीं देता? क्या किसी भी स्तर पर इसका कोई सार्थक परिणाम निकला है? क्या ऐसे फतवों से इस्लामी आतंकवाद में कुछ कमी आई है? मैं अपनी एक और जिज्ञासा मुसलमान मित्रों के सम्मुख रखना चाहता हूं। किसी भी देश के किसी भी भाग में यदि मुसलमानों का बहुमत है तो वहां आंदोलन इस बात पर है कि उस भाग को अपने देश से काट कर वहां इस्लामी राज्य किसी प्रकार स्थापित किया जाए? मध्य एशिया से जुड़े चीन के उस प्रांत को जिसमें मुस्लिम बहुसंख्यक है, चीन से अलग करने की कोशिश हो रही है। फिलीपींस के एक मुस्लिम बहुल भाग को मुस्लिम उस देश से अलग करने के लिए संघर्षरत है। वे चेचेन्या को रूस के शासन में नहीं देखना चाहते। भारत में मुस्लिम बहुल कश्मीर में आजादी की मांग की जा रही है। भारत का 61 वर्ष पहले विभाजन इसी आधार पर हुआ था। लाखों असहाय लोगों की बलि लेकर वह भाग भारत से अलग हो गया था, जो मुस्लिम बहुल था। इससे क्या यह निष्कर्ष निकाला जाए कि मुस्लिम समुदाय किसी देश में गैर मुसलमानों के साथ मिलकर शांति के साथ नहीं रह सकता? क्या जिस देश के किसी भाग में उनकी जनसंख्या बढ़ जाएगी वहां वे उस क्षेत्र को अलग करके इस्लामी राज्य बनाने की जद्दोजहद प्रारंभ कर देंगे? यदि खुला युद्ध करना उनके लिए संभव नहीं होगा तो क्या वे आतंकवादी मार्ग अपना लेंगे? क्या वे आत्मघाती हमलों में खुद भी मरेगे और निर्दोष लोगों को भी मारेगे? कुछ दिन पहले शबाना आजमी ने यह कहा कि इस देश में मुसलमानों के साथ भेद-भाव होता है, किंतु इसका कारण वह नहीं है जो वे सोचती है। कारण मुसलमानों की आम छवि है। सिख समुदाय को भी इस छवि के साथ वर्षो तक जीना पड़ा है। अस्सी के दशक में सिखों की छवि आतंकवाद के साथ जुड़ गई थी। यह बात फैल गई थी कि ये लोग देश तोड़कर खालिस्तान बनाना चाहते है। इसका परिणाम यह हुआ था कि हिंदू बहुल क्षेत्रों में सिखों को कोई किराए पर मकान नहीं देता था। वे बसों में बैठते थे तो लोग शंका भरी नजरों से उन्हे देखते थे। सिखों को इस छवि को सुधारने में दो दशक से अधिक का समय लग गया।

इस देश में मुस्लिम समुदाय को लेकर सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि उनकी छवि में सुधार नहीं हो रहा। भारत के मुसलमानों का जीवन-मरण अब इस देश के साथ ही जुड़ा है। ध्यान रहे कि पाकिस्तान और बांग्लादेश में गैर मुसलमानों की संख्या घटी है-या तो मतांतरण या फिर निष्कासन के कारण, किंतु भारत में मुसलमानों की संख्या लगातार बढ़ रही है। मेरा मत है कि रमजान के पवित्र मास में भारतीय मुसलमानों को कुछ निश्चय दोहराने चाहिए: एक, वे इस देश के गौरवशील नागरिक है। दो, आतंकवाद को किसी भी तर्क से न्यायोचित नहीं ठहराते। तीन, कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग मानते है। चार, सभी वर्गो, विशेष रूप से हिंदुओं के साथ सद्भाव पूर्ण वातावरण में जीने के इच्छुक है और सभी प्रकार की शंकाओं को आपसी संवाद द्वारा समाप्त करने के इच्छुक है। मेरी अभिलाषा है कि इस वर्ष की ईद कुछ बेहतर संदेश और सद्भाव लेकर आए।


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