Thursday, October 16, 2008

मलेशिया ने हिंदू संगठन पर प्रतिबंध लगाया

15 अक्टूबर 2008 , रॉयटर्स , कुआलालम्पुर। मलेशिया सरकार ने देश में अल्पसंख्यक हिंदुओं के साथ कथित भेदभाव को लेकर पिछले वर्ष विरोध का झंडा बुलंद करने वाले हिंदू संगठन हिंदू राइट ऐक्शन ग्रुप (हिंद्राफ) पर आज प्रतिबंध लगा दिया।

गृह मंत्री सैयद हामिद अलबर ने कहा “हिंद्राफ को गैर कानूनी संगठन घोषित करने का फैसला इसकी एक या दो गतिविधियों के आधार पर नहीं बल्कि इस बात के पुख्ता सबूत के बाद लिया गया कि संगठन कानून और नैतिकता के लिए खतरा बन गया है।”

उन्होंने कहा कि अपनी मांगों के सामने सरकार को झुकने के लिए विवश करने के वास्ते उसने बाहरी देशो से भी समर्थन हासिल करने की कोशिश की थी।

विपक्षी डेमोक्रेटिक ऐक्शन पार्टी ने प्रतिबंध की यह कहकर निन्दा की कि हिंद्राफ पर प्रतिबंध लगाने के लिए गृह मंत्रालय की कड़े से कड़े शब्दों में आलोचना की जानी चाहिए। डीएपी के नेता लिम किट सियांग ने कहा “इससे भारतीय मूल के समुदाय में असंतोष और बढेगा।”

मलेशिया ने हिंद्राफ के पांच कार्यकर्ताओं को पिछले वर्ष नवंबर से ही आंतरिक सुरक्षा कानून के तहत हिरासत मे ले रखा है जिसमें बिना सुनवाई के आरोपी को अनिश्चितकाल तक हिरासत में रखने का प्रावधान है।

देश की करीब दो करोड 70 लाख की आबादी में सात प्रतिशत भारतीय मूल के लोग हैं। चीनी मूल के मलेशियाई लोगों के साथ भारतीय मूल के लोगों ने भी मलेशिया सरकार की स्थानीय मुसलमानों को वरीयता देने वाली नीतियों के खिलाफ विरोध दर्ज किया था।

गुमराह करने वाले हितैषी

आतंकवाद के संदर्भ में मुस्लिम समुदाय को गुमराह करने वाले वक्तव्यों से सतर्क रहने की सलाह दे रहे हैं राजनाथ सिंह सूर्य

दैनिक जागरण १५ अक्तूबर २००८, जब कभी आतंकी घटनाओं के संदर्भ में पुलिस की धरपकड़ तेज होती है तब यह बयान बार-बार दोहराया जाता है कि मुसलमानों को आतंकवाद से नहींजोड़ा जाना नहीं चाहिए, मुसलमान आतंकवादी नहीं हैं, इस्लाम में आतंक या अतिवादी कार्रवाई की इजाजत नहीं है आदि-आदि। वर्षों से इस प्रकार की अभिव्यक्ति सुनते रहने के कारण यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उठता है कि कौन है जो सभी मुसलमानों को आतंकवादी मान रहा है या फिर इस्लाम को आतंक से जोड़ रहा है? यूरोपीय देशों में आतंकी घटनाओं के बाद 'इस्लामी टेररिस्ट' शब्द का प्रयोग हुआ है। इसकी वजह यह है कि इस प्रकार की घटनाओं को अंजाम देने के सूत्रधार चाहे पहले लीबिया के गद्दाफी रहे हों या अब ओसामा बिन लादेन-सभी ने अपने को इस्लाम का अलंबरदार घोषित किया। यूरोप और अमेरिका में इस्लाम के अनुयायियों को संदेह की दृष्टि से देखा जाने लगा। बावजूद इसके चाहे अमेरिका हो या इंग्लैंड अथवा यूरोप के अन्य देश, न तो इस्लाम के नाम से पहचाने जाने वाले सभी संगठनों को गैर-कानूनी घोषित किया गया है और न इस्लामी देशों के समान गैर-इस्लामी आस्था वालों पर लगे प्रतिबंधों का अनुशरण किया गया है। जिन संगठनों ने स्वयं ही आतंकी घटनाओं को अंजाम देने का दावा किया या सबूत मिले उन्हें अवश्य प्रतिबंधित किया गया तथा उस देश के कानून के मुताबिक उनके विरूद्ध कार्रवाई भी की गई। पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ ने अपने देश के आतंकी संगठनों के विरुद्ध अमेरिकी सैन्य कार्रवाई का समर्थन किया। पिछले तीन दशक से इस्लामी आस्था पर कथित आघात के प्रतिशोध में हो रही आतंकी घटनाओं में जितने लोग मारे गए हैं उतने तो किसी युद्ध में भी नहीं मारे गए। इस प्रकार के जुनून वालों के हमले से सबसे पवित्र तीर्थ माना जाने वाला मक्का भी महफूज नहीं रहा। धीरे-धीरे अनेक देश, जिनमें इस्लामी देश भी शामिल हैं, इस प्रकार की घटनाओं को अंजाम देने वालों के खिलाफ कठोर कार्रवाई के पक्ष में खड़े हो गए हैं।

भारत में आतंकी घटनाओं की पृष्ठभूमि अलग है। पाकिस्तान और बांग्लादेश, दोनों देशों के सत्ता प्रतिष्ठान अपने मंसूबों की पूर्ति के लिए इस प्रकार की घटनाओं को अंजाम देते रहे हैं। अब इन घटनाओं में भले ही 'देशी' लोगों की ही मुख्य भूमिका हो, लेकिन सूत्रधार का काम पाकिस्तान और बांग्लादेश ही कर रहे हैं। भारत में वांछित अपराधियों को संरक्षण देने, आतंकी भेजने, आतंकी घटनाओं को अंजाम देने वालों को प्रशिक्षित कर उन्हें विस्फोटक तथा धन मुहैया कराने, घुसपैठ कराकर आबादी का संतुलन बिगाड़ने, जाली नोटों का जखीरा भेजने आदि सभी कामों को पाकिस्तान की गुप्तचर संस्था आईएसआई कर रही है। इसके ढेरों सबूत हैं। यह संस्था न केवल मजहबी समानता का जुनून पैदाकर मुस्लिम युवकों को गुमराह कर रही है, बल्कि उल्फा एंवं नक्सलवादियों जैसे उग्र अथवा पृथकवादी संगठनों को सभी प्रकार की सहायता दे रही है। पंजाब की जागरूक जनता ने अपने राज्य में आईएसआई की इस साजिश का सफलता से मुकाबला किया। देश के अन्य भागों में उस साहस और सोच का अभाव है। शायद यही कारण है कि जब भी आतंकी घटना के आरोप में गिरफ्तारी होती है, यह शोर मचाने वाले सक्रिय हो जाते हैं कि सभी मुसलमानों को आतंकी न कहा जाए। प्रश्न वही उठ खड़ा होता है कि यह भावना कौन फैला रहा है? न तो किसी राजनीतिक दल ने, न किसी सरकार ने, न प्रशासन ने और न ही किसी हिंदूवादी संगठन ने एक बार भी सभी मुसलमानों के आतंकवाद से जुड़े होने की अभिव्यक्ति की है। यह अभिव्यक्ति मुस्लिम समुदाय का नेतृत्व करने वालों द्वारा भी कभी-कभार ही की जाती है, लेकिन सेकुलरिज्म का जामा पहनकर सांप्रदायिकता के लिए खाद-पानी मुहैया कराने वाले बार-बार इस प्रकार का बयान देकर उन लोगों के मन में भी शंका पैदा करने का काम करते हैं जिनकी इस प्रकार की सोच नहीं है।

न तो मुसलमान आतंकी हैं, न पृथकतावादी, लेकिन आतंकी घटनाओं में शामिल होने के आरोप में जो भी पकड़े गए हैं वे मुसलमान हैं और पाकिस्तानी झंडा हाथ में लेकर कश्मीर घाटी में 'आजादी' की मांग करने वाले भी मुसलमान हैं। जिस प्रकार 1984 के बाद कुछ सालों तक सभी सिख संदेह की नजर से देखे जाते थे उसी प्रकार आजकल की घटनाओं के कारण सभी मुसलमानों के प्रति ऐसी धारणा का प्रभाव संभव है। क्या सिखों के प्रति उस समय बनी धारणा कायम रह सकी? नहीं। सिर्फ इसलिए, क्योंकि स्वयं सिख समुदाय ने आतंकियों से निपटने में जनसहयोग दिया। इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि उस अभियान में निर्दोष नहीं सताए गए, लेकिन ऐसा जानबूझकर किया गया, यह आरोप नहीं लगाया गया। हम कैसे देश में रह रहे हैं, जहां सरकार आतंकी कार्रवाई से निपटने के लिए कड़े कानून बनाने की बात कर रही है, आतंकियों को मारने या पकड़ने में सफलता का दावा कर रही है और जिस पार्टी की सरकार है वह फर्जी मुठभेड़ का दावा करने वालों की कतार में खड़ी होकर न्यायिक जांच कराने की मांग कर रही है। किसी भी 'अल्पसंख्यक' आयोग ने कश्मीर से बेघर किए गए हिंदुओं की दशा पर वक्तव्य तक मुनासिब नहीं समझा। मुठभेड़ की न्यायिक जांच की मांग करने वालों ने एक बार भी पाकिस्तानी झंडा लहराते हुए आजादी की मांग करने को देशद्रोह बताने का साहस नहींकिया। अहमदाबाद की घटनाओं के बाद आजमगढ़ का एक इलाका आतंकियों के गढ़ के रूप में प्रगट हुआ, लेकिन इसका खुलासा तो उस अबुल बशर ने ही किया जिसे आतंकी वारदात के संदर्भ में पकड़ा गया। जो लोग इंस्पेक्टर मोहनचंद्र शर्मा की शहादत पर सवाल खड़े करते हैं या संसद पर हमले के दोषसिद्ध आरोपी अफजल की पक्षधरता करते हैं वे मुस्लिमों के हितचिंतक नहींहो सकते। मुसलमानों को आत्मचिंतन करना होगा। वे भयादोहन करने वालों से जितना परहेज करेंगे उतना ही पाकिस्तान के मंसूबे ध्वस्त होंगे।


संकीर्णता का विषाणु

इस्लाम के उदारवादी पक्षों को मजबूत करने की जरूरत पर बल दे रहे है जगमोहन
दैनिक जागरण, १६ अक्तूबर २००८. वैचारिक विषाणु में जमी आतंकवाद की जड़ें जिस तरह राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक पर्तो को भेद रही हैं उससे आतंकवाद की समस्या न केवल विभिन्न राष्ट्रों के लिए अलग-अलग रूप से, बल्कि समग्र अंतरराष्ट्रीय समुदाय के लिए बड़ा खतरा बन चुकी है। विश्व शांति और स्वतंत्रता, सहिष्णुता तथा खुलेपन के आधारभूत मूल्य इस बात पर निर्भर करेंगे कि इस बहुआयामी विकट समस्या से कैसे निपटा जाता है? इसमें मिलने वाली सफलता और विफलता ही हमारी सभ्यता की प्रकृति का निर्धारण करेगी। टोनी ब्लेयर ने ठीक ही कहा है, ''मौजूदा आतंकवाद के खिलाफ संघर्ष सभ्यताओं के बीच टकराव नहीं, बल्कि सभ्यता के संबंध में टकराव है।'' इस वैचारिक वायरस से निपटने का कार्य यूनेस्को या संयुक्त राष्ट्र की नई विशिष्ट एजेंसी के हवाले कर देना चाहिए। यह एजेंसी उन पहलुओं और शक्तियों में सकारात्मक और तीव्र बदलाव लाने में सहायक हो सकती है जो दुनिया में बड़ी संख्या में मुसलमानों के मन-मस्तिष्क को प्रभावित कर रही हैं। यूनेस्को या विशिष्ट एजेंसी ऐसी नीति और कार्यक्रम तैयार करे जो मुस्लिम देशों में प्रबुद्ध नेतृत्व को आगे लाने में सहयोग दें, ताकि मुस्लिम विचारधारा के उन पहलुओं को आगे बढ़ाया जा सके जो मुक्ति, मानवता, बहुलता के पक्ष में हैं तथा विद्वेष फैलाने वाले विचारों को कुचलते हैं।
यह कार्य संविधान में वर्णित 'गतिशील तथा सौहार्दपूर्ण रचनात्मकता' के सिद्धांत का अनुकरण कर पूरा किया जा सकता है। इसका आशय है कि यदि संविधान में दो प्रावधान हैं, जो रूढ़ व्याख्या के कारण एक-दूसरे से टकरा रहे हैं तो उन्हें इस रूप में देखना चाहिए जिससे वे सकारात्मक और सौहार्दपूर्ण रचनात्मकता में सहायक बनें। एक ऐसी रचनात्मकता जो समयानुकूल हो और जो सहअस्तित्व के उच्चतम स्तर को प्राप्त कर सके। इसके साथ ही जो मानवता को शांति, प्रगति और उत्पादकता की ओर उन्मुख कर सके। बात को स्पष्ट करने के लिए कुरान से दो उद्धरण गाबिले गौर होंगे। पहला है, ''तुम्हारे लिए तुम्हारा पंथ, मेरे लिए मेरा पंथ'' । दूसरा, ''ओ मानवजाति! हमने महिला और पुरुष के एक जोड़े से तुम्हारी रचना की और तुम्हें एक राष्ट्र और कबीला बनाया, ताकि तुम एक-दूसरे को जान सको, न कि एक-दूसरे से तिरस्कार करो'' । इस्लाम की आयतों को संकीर्णता के साथ तोड़-मरोड़ कर पेश करने के खिलाफ इस प्रकार की आयतों पर विशेष रूप से बल देने की आवश्यकता है। कुल मिलाकर मामला व्याख्या पर आकर टिक जाता है। यह वह काम है जो मानव समाज द्वारा किया जाना है। चौथे खलीफा अली इब्न अबी तालिब ने सही ही कहा था, ''यह कुरान है, सीधे शब्दों में लिखी हुई; यह जबान नहीं बोलती; इसकी व्याख्या जरूरी है; और व्याख्या जनता करती है।''
जो यह दावा करते हैं कि इस्लाम के तमाम पहलू दिव्य हैं वे अक्सर भूल जाते हैं कि इन पहलुओं की व्याख्या 'पूरी तरह मानवीय और सांसारिक' है। अफगानिस्तान में तालिबान की इस्लाम की व्याख्या लड़कियों के स्कूल बंद कराने की है। बुनियादी रूप से आज मुद्दा इस्लामिक आतंकवाद का नहीं है, बल्कि ऐसे आतंकवाद का है जो इस्लाम की संकीर्ण, नकारात्मक और तमाम नैतिक व पंथिक मूल्यों को अस्वीकारने वाली व्याख्या करता है। यह ऐसी व्याख्या है जो खुद खुदा की मूलभूत अवधारणाओं से मेल नहीं खाती। यह संयुक्त राष्ट्र के बुनियादी सिद्धांतों और प्रावधानों का भी उल्लंघन करती है। कट्टरपंथी लोग इस्लाम को टूटे चश्मे से देखते हैं और इससे नजर आने वाली विकृत तस्वीर को विश्वासी मुसलमानों को सही बताते हैं। इस प्रकार, समस्या का हल अज्ञानता दूर करने और मुस्लिम जनता को यह बताने में निहित है कि उग्रवादी इस्लाम का जो रूप पेश कर रहे हैं वह सही नहीं है।
अधिकांश मुस्लिम देशों में हालात को देखते हुए अंतरराष्ट्रीय समुदाय यह जरूरी हो जाता है कि उग्रवादी तत्वों से छुटकारा पाने और उदार इस्लाम से निकली शक्तियों का आधिपत्य स्थापित करने के लिए जोरदार पहल की जाए। इसके साथ ही मोहम्मद वहाब, सैयद कुत्ब, मौलाना मौदूदी, ओसामा बिन लादेन, अल जवाहिरी और ऐसे अन्य तत्वों के इस्लामिक विचारों को हतोत्साहित करने की जरूरत है। इनके विचार असाधारण रूप से संकीर्ण और रूढ़ हैं। वे उदारता को सांस्कृतिक भ्रष्टाचार के रूप में देखते हैं और खुद के द्वारा विवेचित शरीयत को लोगों के निजी और सार्वजनिक जीवन में लागू करना चाहते हैं। या तो अनुचित व्यग्रता या फिर एकीकृत सोच के अभाव में वे गलत निष्कर्षो पर पहुंच जाते हैं और गलत सिद्धांत प्रतिपादित करते हैं। कभी-कभी वे अपनी पूर्वकल्पित धारणाओं को आध्यात्मिक आग्रहों से जोड़ देते हैं। उदाहरण के लिए कुरान में पंथ त्याग देने वाले दूसरे मुसलमानों को मारने की मनाही के बावजूद सैयद कुत्ब उन्हें मौत का हकदार बताते हैं।
कुत्ब की तरह वहाब और मौदूदी जैसे विचारकों ने भी इस्लामिक सोच में उग्रवादी रूढि़ता की शुरुआत की। उन्होंने जमाल अल-दीन अल-अफगानी और मोहम्मद अब्दुह जैसे महान विद्वानों के विचारों की पूरी तरह अनदेखी की। इन विद्वानों का कहना था कि आधुनिकता के साथ इस्लाम की असंगतता सही नहीं है। उन्होंने प्रतिपादित किया कि प्रकृति और विज्ञान के नियम भी अल्लाह के नियम हैं और तर्क व विवेचनात्मक गुण भी अल्लाह की देन हैं। दूसरे शब्दों में, दोनों तरह के नियमों यानी कुरान और हदीस में उल्लिखित नियमों और प्रकृति के नियमों का एक ही स्त्रोत है और दोनों बराबरी के हकदार हैं। इसी प्रकार सर मुहम्मद इकबाल ने अपनी महत्वपूर्ण रचना 'इस्लाम में पंथिक विचार का निर्माण' में लिखा है, ''इस्लाम का पैगंबर प्राचीन और आधुनिक संसार के बीच खड़ा है। जहां तक इलहाम के स्त्रोत का संबंध है, यह प्राचीन संसार से संबंध रखता है और जहां तक इलहाम की भावना का सवाल है तो यह आधुनिक संसार से संबद्ध है। उनमें जीवन नई दिशा के उपयुक्त ज्ञान के अन्य स्त्रोतों की खोज करता है। इस्लाम का जन्म प्रेरक बौद्धिकता का जन्म है।'' इसलिए अंतरराष्ट्रीय समुदाय, संयुक्त राष्ट्र, यूनेस्को या फिर किसी ऐसी एजेंसी के लिए यह लाजिमी हो जाता है कि अंतरराष्ट्रीय शांति और सुरक्षा के हित में नई पहल करे। एक ऐसा तंत्र विकसित किया जाना चाहिए जो गतिशील इस्लाम के पक्षधर विचारकों को प्रेरित करने के लिए नई राह और साधन उपलब्ध कराए।
वैश्विक मानवीय व्यवस्था कायम करना समय की जरूरत है। यह हैरानी की बात है कि आतंक का राज खत्म करने के लिए अब तक इस प्रकार के कदम क्यों नहीं उठाए गए हैं? क्या यह संयुक्त राष्ट्र का कर्तव्य नहीं है कि वह मानवता की शांति और बहुलता के लिए प्रेरणास्त्रोत का काम करे। संयुक्त राष्ट्र को कुछ प्रस्ताव पारित करने या फिर सदस्य देशों को निर्देश देने भर से संतुष्ट नहीं हो जाना चाहिए। उसे लोगों के दिलोदिमाग से कट्टरपंथी विचारों को निकाल फेंकने के लिए तात्कालिक और दीर्घकालीन ठोस उपाय करने चाहिए और इन विचारों के स्थान पर उदारवादी इस्लाम में यकीन रखने वाले विद्वतजनों के विचारों को भरना चाहिए। ये उपाय इस्लाम को सकारात्मक शक्ति के रूप में देखने वाले प्रबुद्ध वर्र्गो के लिए सहयोग का विषय बनेंगे। वैचारिक वायरस के खात्मे के लिए ये उपाय ही सही दवा का काम कर सकते हैं।

धीमी पड़ रही है आतंक के खिलाफ मुहिम

दैनिक जागरण, १६ अक्तूबर २००८। अभी तो आतंकवाद के खिलाफ सुनियोजित तरीके से काम की शुरुआत ही हुई थी। संप्रग सरकार के कार्यकाल में आतंक का नया नाम बने इंडियन मुजाहिदीन की कमर टूट चुकी है, लेकिन अभी उसका सफाया बाकी है। इतना ही नहीं, आतंक के अन्य माड्यूल के बारे में तो विभिन्न राज्यों की पुलिस और खुफिया एजेंसियां शुरुआती सुराग पा सकी हैं और उसे ध्वस्त करने के लिए लंबा काम बाकी है। मगर चुनावी सियासत के आगे आतंक के खिलाफ मुहिम की रफ्तार धीमी पड़ने की आशंका बलवती हो गई है।

उच्चपदस्थ सूत्रों के मुताबिक, गृह मंत्रालय और खुफिया एजेंसियों के शीर्ष अधिकारी इस नई परिस्थिति से बेहद परेशान हैं। संप्रग सरकार के कार्यकाल में पहली बार आतंकवादियों के खिलाफ पूरे देश में सामूहिक अभियान चला और एक मूड बना। पिछले कई वर्षो से आंतरिक सुरक्षा के मोर्चे पर लगातार असफलता का आरोप झेल रहा खुफिया व पुलिस तंत्र पहली बार शाबासी की उम्मीद कर रहा था। मगर, आईएम का पूरा ढांचा ध्वस्त करने के पर्याप्त सुबूतों के बावजूद जिस तरह से राजनीति हुई, उससे वह हतप्रभ है।

खासतौर से राष्ट्रीय एकता परिषद की बैठक में प्रधानमंत्री के इस बयान कि 'आतंकवाद निरोधक कार्रवाई में किसी वर्ग विशेष में असुरक्षा या अन्याय की भावना नहीं घर करे।' का सुरक्षा एजेंसियों के हौसलों पर भी असर पड़ा है। सूत्रों के मुताबिक, आतंकवादियों के खिलाफ हुई कार्रवाई पर जिस तरह से राजनीति शुरू हुई थी, उसके बाद गृह मंत्रालय के शीर्ष अधिकारियों ने राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार एम.के. नारायणन से भी चर्चा की थी। उन्होंने आतंकवादी विरोधी कार्रवाई के पक्ष में बयान भी दिए, लेकिन गृह मंत्रालय के सूत्र कहते हैं कि उड़ीसा और कर्नाटक में अल्पसंख्यकों पर बजरंग दल जैसे अतिवादी हिंदू संगठनों के कृत्य ने काफी बेड़ा गर्क किया है।

गृह मंत्रालय और कांग्रेस के शीर्ष सूत्रों के मुताबिक, आतंकवाद के खिलाफ मुहिम में सिर्फ एक वर्ग के लोग पकड़े गए। उधर, बजरंग दल के कार्यकर्ता उड़ीसा व कर्नाटक के अलावा अन्य राज्यों में भी उग्र प्रदर्शन करते दिखे। सियासतदानों के साथ-साथ कई मुसलिम उलेमा भी कांग्रेस व सरकार के खिलाफ तकरीरे गढ़ने लगे। अल्पसंख्यकों के खिलाफ माहौल बताने की जो जुबानी सियासत शुरू हुई, उससे आतंकवाद के खिलाफ मुहिम कमजोर हुई।

सियासत के इस अंदाज से आतंकवादियों के खिलाफ पिछले दिनों हुए देशव्यापी 'आपरेशन' से जुड़े रहे एक शीर्ष अधिकारी के शब्दों में सुरक्षा एजेंसियों की यह व्यथा समझी जा सकती है। वह कहते हैं कि 'सियासत और मीडिया के एक तबके ने जामिया नगर मुठभेड़ से लेकर मुंबई, गुजरात, कर्नाटक और उत्तर प्रदेश में हर जगह हुई गिरफ्तारी पर संदेह खड़ा कर दिया। बावजूद, इसके कि जो बातें कहीं गई, उनका कोई आधार नहीं था और पुलिस ने बाकायदा सारे तथ्य सामने रखे।' वह कहते हैं कि 'राज्य पुलिस ने ज्यादा वाहवाही लूटने के लिए भले ही एक-दूसरे से बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया हो, लेकिन अभी तक तथ्यों से इतना साफ है कि गिरफ्तार लोगों में से कोई निर्दोष नहीं था।'

Wednesday, October 15, 2008

प्रदेश में खुलेंगे 58 मुस्लिम राजकीय कालेज

दैनिक जागरण, १४ अक्तूबर २००८, कौशाम्बी । बसपा सरकार ने मुसलमानों को शैक्षिक पिछड़ापन दूर करने की कवायद शुरू कर दी है। इसके लिए प्रदेश सरकार 58 मुस्लिम राजकीय माध्यमिक स्कूल खोलने जा रही है। यह कालेज कौशाम्बी समेत 58 जिलों में खोले जाएंगे। साथ ही प्रदेश में उर्दू को बढ़ावा दिया जाएगा ताकि यह भाषा जिंदा रहे। इसके अलावा सरकार ने मुस्लिम छात्रों को वजीफे के लिए उनके अभिभावक की सालाना आय की सीमा बढ़ाकर एक लाख रुपये तक कर दी है। प्रदेश सरकार की इस योजना का खुलासा मंगलवार को काबीना मंत्री इन्द्रजीत सरोज ने 'दैनिक जागरण' से बातचीत करते हुए किया।

उन्होंने कहा कि बसपा हमेशा मुसलमानों की तरक्की के बारे में फिक्रमंद रहती थी। सरकार ने हाल ही में मुस्लिम बुद्धिजीवियों को बुलाकर मुसलमानों की बुनियादी समस्याएं जानने की कोशिश की। इन बातचीत में यह तथ्य उभरकर आया कि मुस्लिम कौम अशिक्षा से जूझ रही है। इनमें से शिक्षा का स्तर दिन ब दिन गिरता जा रहा है। प्रदेश सरकार ने इसे उठाने की कोशिशें शुरू कर दी है। इसके लिए कई योजनाएं बनाई गई है। अब उन मुस्लिम छात्रों को भी वजीफा मिलेगा जिनके अभिभावकों की सालाना आमदनी एक लाख रुपये तक है। पहले उन्हीं छात्रों को वजीफा मिलता था जिनके अभिभावक 18 हजार रुपये सालाना कमाते थे। अब आय सीमा बढ़ जाने से लगभग सभी मुस्लिम छात्र वजीफे के हकदार हो जाएंगे। हाल ही में अरबी फारसी बोर्ड का गठन इसीलिए किया गया है। इसके अलावा प्रदेश में 58 राजकीय माध्यमिक स्कूल खोजे जा रहे है। इन स्कूलों में मुसलमानों के लड़के पढ़ेगे। प्रदेश सरकार की सोच है कि इन स्कूलों के जरिए मुसलमानों में तालीम का स्तर ऊंचा उठाया जा सकता है। कौशाम्बी में भी राजकीय मुस्लिम माध्यमिक स्कूल खोला जाएगा।

भगवंतपुर प्रकरण : शाहबाद कोतवाल निलंबित

दैनिक जागरण, १३ अक्तूबर २००८, शाहबाद (रामपुर) : भगवंतपुर गांव में हुए सांप्रदायिक दंगे की गाज कोतवाल पर गिर ही गई। एसपी ने आज उन्हें निलंबित कर दिया है। उधर गांव में एहतियातन पुलिस बल तैनात है।

ज्ञात हो विगत बुधवार की रात आठ बजे भगवंतपुर में पुलिस बल की मौजूदगी में देवी गीत गाते हुए चंडोल यात्रा निकाल रही दर्जनभर लड़कियों को एक धार्मिकस्थल के पास कुछ लोगों ने रोका, न रुकने पर पथराव कर दिया। इससे दूसरे पक्ष में रोष व्याप्त हो गया और दोनों ओर से पथराव हो गया, इसमें एक दर्जन से अधिक घायल हो गए। शाहिद पक्ष से 32 तथा महावीर सिंह पक्ष से 10 लोगों के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज कराई गई। बाद में शाहिद पक्ष में एक व महावीर पक्ष में छह लोगों के नाम प्रकाश में आए। दोनों पक्षों के 16 लोगों को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया। वहीं, महावीर पक्ष के 50 व शाहिद पक्ष के 30 लोगों पर निरोधात्मक कार्रवाई की गई। पुलिस अधीक्षक ने बताया कि लापरवाही बरतने में कोतवाल सुरेंद्र पाल सिंह को निलंबित कर दिया गया है। अन्य नामजदों की तलाश में दबिशें जारी हैं।

कुशीनगर में मूर्ति विसर्जन के दौरान पथराव, पांच घायल, जाम

दैनिक जागरण, कसया (कुशीनगर ), 13 अक्टूबर। थाना क्षेत्र के ग्राम गिदहा के टोला कपरधिक्का में सोमवार को दुर्गा प्रतिमा विसर्जित करने जा रही टोली पर एक वर्ग विशेष द्वारा पथराव कर दिया गया। जिससे प्रतिमा क्षतिग्रस्त हो गयी व तीन घायल हो गये। इसके बाद गांव में तनाव पैदा हो गया। देर रात समाचार लिखे जाने तक हियुवा कार्यकर्ता व पदाधिकारी ग्रामीणों के साथ मूर्ति रखकर दोषियों के गिरफ्तारी की मांग पर अड़े थे। तनाव को देखते हुए पुलिस क्षेत्राधिकारी व थानाध्यक्ष मय फोर्स घटना स्थल पर पहुंच गये थे। समाचार लिखे जाने तक जाम समाप्त नहीं हो सका था।

हमारे सखवनिया प्रतिनिधि से मिली जानकारी के मुताबिक क्षेत्र के ग्राम मठिया चौराहे पर सजी दुर्गा प्रतिमा को ग्रामवासी विसर्जन हेतु लेकर जा रहे थे। इस दौरान दुर्गा प्रतिमा को लेकर ग्रामीणों की टोली जैसे ही ग्राम गिदहां के टोला कपरधिक्का में पहुंची कुछ शरारती तत्वों द्वारा पथराव कर दिया गया। इससे दुर्गा प्रतिमा क्षतिग्रस्त हो गयी तो वहीं टोली में शामिल मठिया निवासी योगेन्द्र, कल्लू, यासीन, सत्तार सहित कुल पांच लोग घायल हो गये। इसके बाद चारों ओर अफरा-तफरी मच गयी। इससे आक्रोशित ग्रामीणों ने हियुवा के जिलाध्यक्ष चन्द्रप्रकाश यादव चमन, धर्मेन्द्र गोंड, गोपाल शर्मा, दीपक शर्मा, मुकुल पाण्डेय, जयप्रकाश वर्मा आदि हियुवा कार्यकर्ताओं के साथ मिलकर मूर्ति रखकर दोषियों के विरूद्ध कार्यवाही की मांग को लेकर जाम कर बैठ गये। इधर गांव में पसरे तनाव की सूचना मिलने पर पुलिस क्षेत्राधिकारी ज्ञानेन्द्र कुमार सिंह व थानाध्यक्ष मेवालाल सुमन घटना स्थल पर मय फोर्स पहुंच गये तो देर शाम उपजिलाधिकारी बी. एस. चौधरी भी पहुंचे। समाचार लिखे जाने तक न तो जाम समाप्त हो सका था और न ही मूर्ति विसर्जित हो सकी थी। गांव में तनाव व्याप्त था लेकिन स्थिति नियंत्रण में थी।

इस बावत पुलिस क्षेत्राधिकारी श्री सिंह ने बताया कि इस बावत तहरीर मिल गयी है। मुकदमा दर्ज कर दोषियों के विरूद्ध कार्यवाही की जायेगी। मामला गम्भीर है तनाव की कोई बात नहीं है।

लम्भुआ में हालात सामान्य, पुलिस बल वापस

दैनिक जागरण, लम्भुआ (सुल्तानपुर),13 अक्टूबर २००८ : दिन दहाड़े महिला के साथ दुष्कर्म की कोशिश मामले के बाद कस्बे में चौथे दिन हालात पूरी तौर पर सामान्य हो गये हैं। यहां तैनात अन्य थानों की पुलिस फोर्स और अतिरिक्त बल वापस भेज दिये गये हैं। भाजपा और हिन्दू संगठनों की धरना-प्रदर्शन की घोषित तारीख बीत जाने पर अफसरों ने भी राहत की सांस ली है। उधर अल्पसंख्यक समुदाय के बुद्धिजीवियों ने भी उक्त दुष्कृत्य को इस्लाम विरु द्ध बताया है।

शुक्रवार को दोपहर दो बजे बखारी दिखाने के बहाने प्रौढ़ महिला के साथ व्यापारी पुत्र के दुष्कर्म की कोशिश को लेकर कस्बे समेत ग्रामीण इलाके में तनाव व्याप्त हो गया था। उसी दिन भाजपा व हिन्दू संगठनों के पदाधिकारियों ने पुलिस अधिकारियों से मुलाकात करके कड़ी कार्रवाई की मांग की थी। पुलिस ने चौदह घंटे के भीतर ही आरोपी युवक सलमान गिरफ्तार कर लिया। इसके बावजूद शनिवार को हिन्दू संगठनों व भाजपा के पदाधिकारियों की बैठक में युवाओं के तेवर देख लोगों के होश उड़ गये। हालांकि काफी जद्दोजहद के बाद मामला शांतिपूर्वक निपट गया। इस दौरान पुलिस फोर्स को कई बार कस्बे में गश्त भी लगानी पड़ी थी। रविवार की सुबह से ही कस्बे में हालात पूरी तौर पर सामान्य दिखे। दूसरी तरफ मुस्लिम समुदाय के बुद्धिजीवियों ने भी इस मामले की कड़ी निन्दा की है। मास्टर शमीउल्ला की अध्यक्षता में हुई बैठक में वारदात को कष्टप्रद व दु:खदायी बताया गया। दोषी अपराधी के खिलाफ कठोर कार्रवाई की जानी चाहिए। वक्ताओं ने कहा कि अपराधी किसी जाति-धर्म का नहीं होता। वह किसी धर्म से ताल्लुक नहीं रखता है।

इस्लाम धर्म में ऐसे लोगों के लिए कोई जगह नहीं है। कुछ लोग धर्म की आड़ में उन्माद पैदा करना चाहते थे, लेकिन उनके मंसूबे सफल न हुए। कस्बे में दोनों सम्प्रदायों के लोग साथ-साथ रहे हैं। लिहाजा, हिन्दू-मुस्लिम में नफरत पैदा करने की कोशिश न की जाय। बैठक में मुख्य रूप से नियाज अहमद, शाहिद अली, मु.सफी, गुलाम दस्तगीर, हाजी मुहर्रम अली, मुख्तार अहमद, वहीद खान आदि मौजूद रहे। उधर पुलिस ने दोषी युवक की दुकान व घटनास्थल को सीज करके मामले की विवेचना प्रारम्भ कर दी है।

Tuesday, October 14, 2008

खतरे की घुसपैठ

असम की अशांति के पीछे बांग्लादेशी घुसपैठियों की भूमिका देख रहे हैं बलबीर पुंज

दैनिक जागरण, १३ अक्तूबर २००८. अमरनाथ प्रकरण को लेकर कश्मीर घाटी में अलगाववादियों ने जिस तरह विरोध प्रदर्शन किया उसकी एक झलक अब असम के मुस्लिम बहुल इलाके-उदलगिरी, दरांग और रीता गांव में दिख रही है। पाकिस्तानी झंडा लहराते हुए घाटी के अलगाववादियों ने यदि भारत विरोधी नारे लगाए थे तो असम के उदलगिरी जिले के सोनारीपाड़ा और बाखलपुरा गांवों में बोडो आदिवासियों के घरों को जलाने के बाद बांग्लादेशी मुसलमानों द्वारा पाकिस्तानी झंडे लहराए गए। इससे पूर्व कोकराझार जिले के भंडारचारा गांव में अलगाववादियों ने स्वतंत्रता दिवस के दिन तिरंगे की जगह काला झंडा लहराने की कोशिश की थी, जिसे स्थानीय राष्ट्रभक्त ग्रामीणों ने नाकाम कर दिया था।

असम के 27 जिलों में से आठ में बांग्लाभाषी मुसलमान बहुसंख्यक बन चुके है। बहुसंख्यक होते ही उनका भारत विरोधी नजरिया क्या रेखांकित करता है? भारत द्वेष का ऐसा सार्वजनिक प्रदर्शन कश्मीर घाटी का एक कड़वा सच बन चुका है और इसे भारत विभाजन से जोड़कर न्यायोचित ठहराने की कोशिश भी होती रही है, किंतु भारत के वैसे इलाके जहां धीरे-धीरे मुसलमान बहुसंख्यक की स्थिति में आ रहे हैं, वहां भी ऐसी मानसिकता दिखाई देती है। क्यों? मैं कई बार अपने पूर्व लेखों में इस कटु सत्य को रेखांकित करता रहा हूं कि भारत में जहां कहीं भी मुसलमान अल्पसंख्यक स्थिति में हैं वे लोकतंत्र, संविधान और भारतीय दंड विधान के मुखर पैरोकार के रूप में सामने आते है, किंतु जैसे ही वे बहुसंख्या में आते है, उनका रवैया बदल जाता है और मजहब के प्रति उनकी निष्ठा अन्य निष्ठाओं से ऊपर हो जाती है। विडंबना यह है कि भारत की बहुलतावादी संस्कृति को नष्ट करने पर आमादा ऐसी मानसिकता का पोषण सेकुलरवाद के नाम पर किया जा रहा है।

असम में बोडो आदिवासियों और बांग्लादेशी मुसलमानों के बीच हिंसा चरम पर है। अब तक बोडो आदिवासियों के 500 घरों को जलाने की घटना सामने आई है। करीब सौ लोगों के मारे जाने की खबर है, जबकि एक लाख बोडो आदिवासी शरणार्थी शिविरों में रहने को विवश है। सेकुलरिस्ट इसे बोडो आदिवासी और स्थानीय मुसलमानों के बीच संघर्ष साबित करने की कोशिश कर रहे है। मीडिया का एक बड़ा वर्ग भी सच को सामने लाने से कतरा रहा है। आल असम स्टूडेट्स यूनियन के सलाहकार रागुज्ज्वल भट्टाचार्य के अनुसार प्रशासन पूर्वाग्रहग्रस्त है। बांग्लादेशी अवैध घुसपैठियों को संरक्षण दिया जा रहा है, वहीं बोडो आदिवासियों को हिंसा फैलाने के नाम पर प्रताड़ित किया जा रहा है। इससे पूर्व गुवाहाटी उच्च न्यायालय ने भी विगत जुलाई माह में यह कड़वी टिप्पणी की थी, ''बांग्लादेशी इस राज्य में 'किंगमेकर' की भूमिका में आ गए है।'' यह एक कटु सत्य है कि और इसके कारण न केवल असम के जनसांख्यिक स्वरूप में तेजी से बदलाव आया है, बल्कि देश के कई अन्य भागों में भी बांग्लादेशी अवैध घुसपैठिए कानून एवं व्यवस्था के लिए गंभीर खतरा बने हुए है। हुजी जैसे आतंकी संगठनों की गतिविधियां इन्हीं बांग्लादेशी घुसपैठियों की मदद से चलने की खुफिया जानकारी होने के बावजूद कुछ सेकुलर दल बांग्लादेशियों को भारतीय नागरिकता देने की मांग कर रहे है। केंद्रीय मंत्रिमंडल में प्रभावी मंत्री रामविलास पासवान इस मुहिम के कप्तान है।

अवैध बांग्लादेशी घुसपैठियों को संरक्षण देना और उनके वोट बैंक का दोहन नई बात नहीं है। असम में पूर्वी बंगाली मुसलमानों की घुसपैठ 1937 से शुरू हुई। इस षड्यंत्र का उद्देश्य जनसंख्या के स्वरूप को मुस्लिम बहुल बनाकर इस क्षेत्र को पाकिस्तान का भाग बनाना था। पश्चिम बंगाल से चलते हुए उत्तर प्रदेश, बिहार और असम के सीमावर्ती क्षेत्रों में इन अवैध घुसपैठियों के कारण एक स्पष्ट भू-पट्टी विकसित हो गई है, जो मुस्लिम बहुल है। 1901 से 2001 के बीच असम में मुसलमानों का अनुपात 15.03 प्रतिशत से बढ़कर 30.92 प्रतिशत हुआ है। इस दशक में असम के बंगाईगांव, धुबरी, कोकराझार, बरपेटा और कछार के इलाकों में मुसलमानों की आबादी में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है और यह तीव्रता से बढ़ रही है। असम सेकुलरिस्टों की कुत्सित नीति का एक और दंश झेल रहा है। यहां छल-फरेब के बल पर चर्च बड़े पैमाने पर मतांतरण गतिविधियों में संलग्न है। यहां ईसाइयों का अनुपात स्वतंत्रता के बाद करीब दोगुना हुआ है। कोकराझार, गोआलपारा, दरंग, सोनिपतपुर में ईसाइयों का अनुपात अप्रत्याशित रूप से बढ़ा है। कार्बी आंग्लांग के पहाड़ी जनपदों में ईसाइयों का अनुपात करीब 15 प्रतिशत है, जबकि उत्तर कछार जनपद में वे 26.68 प्रतिशत हैं।

असम की कुल आबादी में 1991 से 2001 की अवधि में ईसाइयों की आबादी 0.41 से बढ़कर 3.70 प्रतिशत हुई है। उड़ीसा और कर्नाटक में चर्च की दशकों पुरानी मतांतरण गतिविधियों से त्रस्त आदिवासियों का क्रोध ईसाई संगठनों पर फूट रहा है, जिसके लिए सेकुलरिस्ट बजरंग दल और विहिप को कसूरवार बताकर उन पर पाबंदी लगाने की मांग कर रहे है। भविष्य में यदि असम के आदिवासियों का आक्रोश भी उबल पड़े तो इसकी जिम्मेदारी किसकी होगी? अवैध घुसपैठियों की पहचान के लिए 1979 में असम में व्यापक विरोध प्रदर्शन हुआ। इसी कारण 1983 के चुनावों का बहिष्कार भी किया गया, क्योंकि बिना पहचान के लाखों बांग्लादेशी मतदाता सूची में दर्ज कर लिए गए थे। चुनाव बहिष्कार के कारण केवल 10 प्रतिशत मतदान ही दर्ज हो सका। शुचिता की नसीहत देने वाली कांग्रेस पार्टी ने इसे ही पूर्ण जनादेश माना और सरकार का गठन कर लिया गया। 10 प्रतिशत मतदान करने वाले इन्हीं अवैध घुसपैठियों के संरक्षण के लिए कांग्रेस सरकार ने जो कानून बनाया वह असम के बहुलतावादी स्वरूप के लिए नासूर बन चुका है। कांग्रेस ने 1983 में अवैध आव्रजन अधिनियम के अधीन बांग्लादेशी घुसपैठियों को बसने का अवसर उपलब्ध कराया था। हाल में सर्वोच्च न्यायालय ने इस अधिनियम को निरस्त कर अवैध बांग्लादेशियों को राज्य से निकाल बाहर करने का आदेश भी पारित किया, किंतु वर्तमान कांग्रेसी सरकार भी पूर्ववर्ती कांग्रेसी सरकारों के अनुरूप पिछवाड़े से इस कानून को लागू रखने पर आमादा है।

कांग्रेस की तत्कालीन सरकार ने वोटों के अंकगणित को देखते हुए न केवल अवैध घुसपैठियों से उत्पन्न खतरे को नजरअंदाज किया, बल्कि भविष्य में अवैध घुसपैठियों के निष्कासन को असंभव बनाने के लिए संवैधानिक प्रावधान भी बनाए। केंद्र की तत्कालीन कांग्रेस सरकार द्वारा बनाए गए अवैध परिव्रजन अधिनियम, 1983 के अधीन 'अवैध घुसपैठिया' उसे माना गया जो 25 दिसंबर, 1971 (बांग्लादेश के सृजन की तिथि) को या उसके बाद भारत आया हो। इससे स्वत: उन लाखों मुस्लिमों को भारतीय नागरिकता मिल गई जो पूर्वी पाकिस्तान से आए थे। तब से सेकुलरवाद की आड़ में अवैध बांग्लादेशियों की घुसपैठ जारी है और उन्हे देश से बाहर निकालने की राष्ट्रवादी मांग को फौरन सांप्रदायिक रंग देने की कुत्सित राजनीति भी अपने चरम पर है। ऐसी मानसिकता के रहते भारत की बहुलतावादी संस्कृति की रक्षा कब तक हो पाएगी?


सुप्रीम कोर्ट ने सिमी पर प्रतिबंध बढ़ाया

13 अक्टूबर 2008 ,वार्ता, नई दिल्ली। उच्चतम न्यायालय ने राष्ट्रविरोधी और आतंकवादी गतिविधियों में शामिल होने के आरोपों से घिरे इस्लामिक स्टूडेंट्स मूवमेंट ऑफ इंडिया (सिमी) पर लगे प्रतिबंध को सोमवार अगले आदेश तक बढ़ा दिया।

न्यायमूर्ति एसबी. सिन्हा और न्यायमूर्ति सी. जोसेफ की पीठ ने मामले को उचित पीठ में स्थानांतरित कर दिया, जो पहले से ही संबंधित याचिकाओं की सुनवाई कर रही है।

उल्लेखनीय है कि दिल्ली उच्च न्यायालय ने 5 अगस्त 2008 को सिमी से प्रतिबंध हटाते हुए कहा था कि इस संबंध में केन्द्र सरकार द्वारा पेश साक्ष्य गैरकानूनी गतिविधि निरोधक कानून के तहत संगठन पर प्रतिबंध को जायज ठहराने के लिए ना काफी हैं।

केन्द्र ने उच्च न्यायालय के इस फैसले के खिलाफ उच्चतम न्यायालय में भी अपील दायर की थी।

मुख्य न्यायाधीश केजी. बालाकृष्णन की अध्यक्षता वाली पीठ, दिल्ली उच्च न्यायालय के आदेश पर पहले ही रोक लगा चुकी है।

केन्द्रीय गृह मंत्रालय की पैरवी करते हुए अतिरिक्त महाधिवक्ता गोपाल सुब्रमण्यम ने कहा था कि सिमी के कार्यकर्ता हाल में हुए कई बम धमाकों में शामिल थे और 89 मामलों में संगठन के 1900 कार्यकर्ता देश की विभिन्न जेलों में बंद हैं। लेकिन उच्च न्यायालय ने इन सबूतों को पर्याप्त नहीं माना था।

सरकार का आरोप है कि दिल्ली उच्च न्यायालय के विशेष न्यायाधिकरण ने सिमी के राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय आतंकवादी संगठनों से सांठगांठ के बारे में केन्द्रीय खुफिया और जांच एजेंसियों से मिली जानकारी को भी नजरअंदाज किया।

सरकार का कहना है कि सिमी के अंतरराष्ट्रीय आतंकवादी संगठन अल-कायदा और अंडरवर्ल्ड सरगना दाउद इब्राहीम से भी संबंध हैं। सरकार ने सिमी पर प्रतिबंध को सात फरवरी 2008 को दो वर्ष के लिए बढ़ा दिया था।