दैनिक जागरण, १६ अक्तूबर २००८। अभी तो आतंकवाद के खिलाफ सुनियोजित तरीके से काम की शुरुआत ही हुई थी। संप्रग सरकार के कार्यकाल में आतंक का नया नाम बने इंडियन मुजाहिदीन की कमर टूट चुकी है, लेकिन अभी उसका सफाया बाकी है। इतना ही नहीं, आतंक के अन्य माड्यूल के बारे में तो विभिन्न राज्यों की पुलिस और खुफिया एजेंसियां शुरुआती सुराग पा सकी हैं और उसे ध्वस्त करने के लिए लंबा काम बाकी है। मगर चुनावी सियासत के आगे आतंक के खिलाफ मुहिम की रफ्तार धीमी पड़ने की आशंका बलवती हो गई है।
उच्चपदस्थ सूत्रों के मुताबिक, गृह मंत्रालय और खुफिया एजेंसियों के शीर्ष अधिकारी इस नई परिस्थिति से बेहद परेशान हैं। संप्रग सरकार के कार्यकाल में पहली बार आतंकवादियों के खिलाफ पूरे देश में सामूहिक अभियान चला और एक मूड बना। पिछले कई वर्षो से आंतरिक सुरक्षा के मोर्चे पर लगातार असफलता का आरोप झेल रहा खुफिया व पुलिस तंत्र पहली बार शाबासी की उम्मीद कर रहा था। मगर, आईएम का पूरा ढांचा ध्वस्त करने के पर्याप्त सुबूतों के बावजूद जिस तरह से राजनीति हुई, उससे वह हतप्रभ है।
खासतौर से राष्ट्रीय एकता परिषद की बैठक में प्रधानमंत्री के इस बयान कि 'आतंकवाद निरोधक कार्रवाई में किसी वर्ग विशेष में असुरक्षा या अन्याय की भावना नहीं घर करे।' का सुरक्षा एजेंसियों के हौसलों पर भी असर पड़ा है। सूत्रों के मुताबिक, आतंकवादियों के खिलाफ हुई कार्रवाई पर जिस तरह से राजनीति शुरू हुई थी, उसके बाद गृह मंत्रालय के शीर्ष अधिकारियों ने राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार एम.के. नारायणन से भी चर्चा की थी। उन्होंने आतंकवादी विरोधी कार्रवाई के पक्ष में बयान भी दिए, लेकिन गृह मंत्रालय के सूत्र कहते हैं कि उड़ीसा और कर्नाटक में अल्पसंख्यकों पर बजरंग दल जैसे अतिवादी हिंदू संगठनों के कृत्य ने काफी बेड़ा गर्क किया है।
गृह मंत्रालय और कांग्रेस के शीर्ष सूत्रों के मुताबिक, आतंकवाद के खिलाफ मुहिम में सिर्फ एक वर्ग के लोग पकड़े गए। उधर, बजरंग दल के कार्यकर्ता उड़ीसा व कर्नाटक के अलावा अन्य राज्यों में भी उग्र प्रदर्शन करते दिखे। सियासतदानों के साथ-साथ कई मुसलिम उलेमा भी कांग्रेस व सरकार के खिलाफ तकरीरे गढ़ने लगे। अल्पसंख्यकों के खिलाफ माहौल बताने की जो जुबानी सियासत शुरू हुई, उससे आतंकवाद के खिलाफ मुहिम कमजोर हुई।
सियासत के इस अंदाज से आतंकवादियों के खिलाफ पिछले दिनों हुए देशव्यापी 'आपरेशन' से जुड़े रहे एक शीर्ष अधिकारी के शब्दों में सुरक्षा एजेंसियों की यह व्यथा समझी जा सकती है। वह कहते हैं कि 'सियासत और मीडिया के एक तबके ने जामिया नगर मुठभेड़ से लेकर मुंबई, गुजरात, कर्नाटक और उत्तर प्रदेश में हर जगह हुई गिरफ्तारी पर संदेह खड़ा कर दिया। बावजूद, इसके कि जो बातें कहीं गई, उनका कोई आधार नहीं था और पुलिस ने बाकायदा सारे तथ्य सामने रखे।' वह कहते हैं कि 'राज्य पुलिस ने ज्यादा वाहवाही लूटने के लिए भले ही एक-दूसरे से बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया हो, लेकिन अभी तक तथ्यों से इतना साफ है कि गिरफ्तार लोगों में से कोई निर्दोष नहीं था।'
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