Thursday, October 16, 2008

संकीर्णता का विषाणु

इस्लाम के उदारवादी पक्षों को मजबूत करने की जरूरत पर बल दे रहे है जगमोहन
दैनिक जागरण, १६ अक्तूबर २००८. वैचारिक विषाणु में जमी आतंकवाद की जड़ें जिस तरह राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक पर्तो को भेद रही हैं उससे आतंकवाद की समस्या न केवल विभिन्न राष्ट्रों के लिए अलग-अलग रूप से, बल्कि समग्र अंतरराष्ट्रीय समुदाय के लिए बड़ा खतरा बन चुकी है। विश्व शांति और स्वतंत्रता, सहिष्णुता तथा खुलेपन के आधारभूत मूल्य इस बात पर निर्भर करेंगे कि इस बहुआयामी विकट समस्या से कैसे निपटा जाता है? इसमें मिलने वाली सफलता और विफलता ही हमारी सभ्यता की प्रकृति का निर्धारण करेगी। टोनी ब्लेयर ने ठीक ही कहा है, ''मौजूदा आतंकवाद के खिलाफ संघर्ष सभ्यताओं के बीच टकराव नहीं, बल्कि सभ्यता के संबंध में टकराव है।'' इस वैचारिक वायरस से निपटने का कार्य यूनेस्को या संयुक्त राष्ट्र की नई विशिष्ट एजेंसी के हवाले कर देना चाहिए। यह एजेंसी उन पहलुओं और शक्तियों में सकारात्मक और तीव्र बदलाव लाने में सहायक हो सकती है जो दुनिया में बड़ी संख्या में मुसलमानों के मन-मस्तिष्क को प्रभावित कर रही हैं। यूनेस्को या विशिष्ट एजेंसी ऐसी नीति और कार्यक्रम तैयार करे जो मुस्लिम देशों में प्रबुद्ध नेतृत्व को आगे लाने में सहयोग दें, ताकि मुस्लिम विचारधारा के उन पहलुओं को आगे बढ़ाया जा सके जो मुक्ति, मानवता, बहुलता के पक्ष में हैं तथा विद्वेष फैलाने वाले विचारों को कुचलते हैं।
यह कार्य संविधान में वर्णित 'गतिशील तथा सौहार्दपूर्ण रचनात्मकता' के सिद्धांत का अनुकरण कर पूरा किया जा सकता है। इसका आशय है कि यदि संविधान में दो प्रावधान हैं, जो रूढ़ व्याख्या के कारण एक-दूसरे से टकरा रहे हैं तो उन्हें इस रूप में देखना चाहिए जिससे वे सकारात्मक और सौहार्दपूर्ण रचनात्मकता में सहायक बनें। एक ऐसी रचनात्मकता जो समयानुकूल हो और जो सहअस्तित्व के उच्चतम स्तर को प्राप्त कर सके। इसके साथ ही जो मानवता को शांति, प्रगति और उत्पादकता की ओर उन्मुख कर सके। बात को स्पष्ट करने के लिए कुरान से दो उद्धरण गाबिले गौर होंगे। पहला है, ''तुम्हारे लिए तुम्हारा पंथ, मेरे लिए मेरा पंथ'' । दूसरा, ''ओ मानवजाति! हमने महिला और पुरुष के एक जोड़े से तुम्हारी रचना की और तुम्हें एक राष्ट्र और कबीला बनाया, ताकि तुम एक-दूसरे को जान सको, न कि एक-दूसरे से तिरस्कार करो'' । इस्लाम की आयतों को संकीर्णता के साथ तोड़-मरोड़ कर पेश करने के खिलाफ इस प्रकार की आयतों पर विशेष रूप से बल देने की आवश्यकता है। कुल मिलाकर मामला व्याख्या पर आकर टिक जाता है। यह वह काम है जो मानव समाज द्वारा किया जाना है। चौथे खलीफा अली इब्न अबी तालिब ने सही ही कहा था, ''यह कुरान है, सीधे शब्दों में लिखी हुई; यह जबान नहीं बोलती; इसकी व्याख्या जरूरी है; और व्याख्या जनता करती है।''
जो यह दावा करते हैं कि इस्लाम के तमाम पहलू दिव्य हैं वे अक्सर भूल जाते हैं कि इन पहलुओं की व्याख्या 'पूरी तरह मानवीय और सांसारिक' है। अफगानिस्तान में तालिबान की इस्लाम की व्याख्या लड़कियों के स्कूल बंद कराने की है। बुनियादी रूप से आज मुद्दा इस्लामिक आतंकवाद का नहीं है, बल्कि ऐसे आतंकवाद का है जो इस्लाम की संकीर्ण, नकारात्मक और तमाम नैतिक व पंथिक मूल्यों को अस्वीकारने वाली व्याख्या करता है। यह ऐसी व्याख्या है जो खुद खुदा की मूलभूत अवधारणाओं से मेल नहीं खाती। यह संयुक्त राष्ट्र के बुनियादी सिद्धांतों और प्रावधानों का भी उल्लंघन करती है। कट्टरपंथी लोग इस्लाम को टूटे चश्मे से देखते हैं और इससे नजर आने वाली विकृत तस्वीर को विश्वासी मुसलमानों को सही बताते हैं। इस प्रकार, समस्या का हल अज्ञानता दूर करने और मुस्लिम जनता को यह बताने में निहित है कि उग्रवादी इस्लाम का जो रूप पेश कर रहे हैं वह सही नहीं है।
अधिकांश मुस्लिम देशों में हालात को देखते हुए अंतरराष्ट्रीय समुदाय यह जरूरी हो जाता है कि उग्रवादी तत्वों से छुटकारा पाने और उदार इस्लाम से निकली शक्तियों का आधिपत्य स्थापित करने के लिए जोरदार पहल की जाए। इसके साथ ही मोहम्मद वहाब, सैयद कुत्ब, मौलाना मौदूदी, ओसामा बिन लादेन, अल जवाहिरी और ऐसे अन्य तत्वों के इस्लामिक विचारों को हतोत्साहित करने की जरूरत है। इनके विचार असाधारण रूप से संकीर्ण और रूढ़ हैं। वे उदारता को सांस्कृतिक भ्रष्टाचार के रूप में देखते हैं और खुद के द्वारा विवेचित शरीयत को लोगों के निजी और सार्वजनिक जीवन में लागू करना चाहते हैं। या तो अनुचित व्यग्रता या फिर एकीकृत सोच के अभाव में वे गलत निष्कर्षो पर पहुंच जाते हैं और गलत सिद्धांत प्रतिपादित करते हैं। कभी-कभी वे अपनी पूर्वकल्पित धारणाओं को आध्यात्मिक आग्रहों से जोड़ देते हैं। उदाहरण के लिए कुरान में पंथ त्याग देने वाले दूसरे मुसलमानों को मारने की मनाही के बावजूद सैयद कुत्ब उन्हें मौत का हकदार बताते हैं।
कुत्ब की तरह वहाब और मौदूदी जैसे विचारकों ने भी इस्लामिक सोच में उग्रवादी रूढि़ता की शुरुआत की। उन्होंने जमाल अल-दीन अल-अफगानी और मोहम्मद अब्दुह जैसे महान विद्वानों के विचारों की पूरी तरह अनदेखी की। इन विद्वानों का कहना था कि आधुनिकता के साथ इस्लाम की असंगतता सही नहीं है। उन्होंने प्रतिपादित किया कि प्रकृति और विज्ञान के नियम भी अल्लाह के नियम हैं और तर्क व विवेचनात्मक गुण भी अल्लाह की देन हैं। दूसरे शब्दों में, दोनों तरह के नियमों यानी कुरान और हदीस में उल्लिखित नियमों और प्रकृति के नियमों का एक ही स्त्रोत है और दोनों बराबरी के हकदार हैं। इसी प्रकार सर मुहम्मद इकबाल ने अपनी महत्वपूर्ण रचना 'इस्लाम में पंथिक विचार का निर्माण' में लिखा है, ''इस्लाम का पैगंबर प्राचीन और आधुनिक संसार के बीच खड़ा है। जहां तक इलहाम के स्त्रोत का संबंध है, यह प्राचीन संसार से संबंध रखता है और जहां तक इलहाम की भावना का सवाल है तो यह आधुनिक संसार से संबद्ध है। उनमें जीवन नई दिशा के उपयुक्त ज्ञान के अन्य स्त्रोतों की खोज करता है। इस्लाम का जन्म प्रेरक बौद्धिकता का जन्म है।'' इसलिए अंतरराष्ट्रीय समुदाय, संयुक्त राष्ट्र, यूनेस्को या फिर किसी ऐसी एजेंसी के लिए यह लाजिमी हो जाता है कि अंतरराष्ट्रीय शांति और सुरक्षा के हित में नई पहल करे। एक ऐसा तंत्र विकसित किया जाना चाहिए जो गतिशील इस्लाम के पक्षधर विचारकों को प्रेरित करने के लिए नई राह और साधन उपलब्ध कराए।
वैश्विक मानवीय व्यवस्था कायम करना समय की जरूरत है। यह हैरानी की बात है कि आतंक का राज खत्म करने के लिए अब तक इस प्रकार के कदम क्यों नहीं उठाए गए हैं? क्या यह संयुक्त राष्ट्र का कर्तव्य नहीं है कि वह मानवता की शांति और बहुलता के लिए प्रेरणास्त्रोत का काम करे। संयुक्त राष्ट्र को कुछ प्रस्ताव पारित करने या फिर सदस्य देशों को निर्देश देने भर से संतुष्ट नहीं हो जाना चाहिए। उसे लोगों के दिलोदिमाग से कट्टरपंथी विचारों को निकाल फेंकने के लिए तात्कालिक और दीर्घकालीन ठोस उपाय करने चाहिए और इन विचारों के स्थान पर उदारवादी इस्लाम में यकीन रखने वाले विद्वतजनों के विचारों को भरना चाहिए। ये उपाय इस्लाम को सकारात्मक शक्ति के रूप में देखने वाले प्रबुद्ध वर्र्गो के लिए सहयोग का विषय बनेंगे। वैचारिक वायरस के खात्मे के लिए ये उपाय ही सही दवा का काम कर सकते हैं।

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