केंद्र सरकार के लिए यह आवश्यक था कि वह जम्मू की नाराजगी दूर करने के लिए आगे आती, लेकिन वह हाथ पर हाथ धरे बैठी रही। इससे वहां के लोगों का गुस्सा और बढ़ता चला गया। इस गुस्से को पुलिस के दमनकारी रवैये ने भी बढ़ावा दिया। इस दमनचक्र के चलते वहां अनेक लोग मारे गए। इन मौतों ने लोगों के गुस्से को भड़काया और उन्होंने श्रीनगर राजमार्ग को अवरुद्ध कर दिया। केंद्र की नींद तब खुली जब जम्मू के आंदोलन की प्रतिक्रिया कश्मीर घाटी में भी होने लगी और वहां के व्यापारी मुजफ्फराबाद कूच की धमकी देने लगे। समस्या समाधान के नाम पर केंद्र सरकार ने एक माह बाद सर्वदलीय बैठक तो बुलाई, लेकिन ऐसा कुछ भी करने से इनकार किया जिससे जम्मू की जनता का आक्रोश कम होता। चूंकि जम्मू के लोगों को बिना कोई आश्वासन दिए वहां एक सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल भेजने का निर्णय लिया गया इसलिएउसका विरोध होना स्वाभाविक है और उसके माध्यम से कोई नतीजा निकलने के आसार भी कम हैं।
जम्मू-कश्मीर के भारत में विलय के बाद से ही जम्मू संभाग के लोगों के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार किया जा रहा है। कश्मीर घाटी को खुश करने के लिए अनुच्छेद 370 का प्रावधान तो बनाया ही गया, उसे अन्य अनेक विशेष सुविधाएं भी प्रदान की गई। केंद्रीय सहायता का अधिकांश हिस्सा कश्मीर घाटी पर खर्च होता है। इसकी एक वजह जम्मू-कश्मीर शासन और प्रशासन में घाटी के लोगों का वर्चस्व होना है। 1980 के दशक में जब कश्मीर में आतंकवाद ने सिर उठाया तो वहां के कश्मीरी पंडितों को अपनी जान बचाकर भागना पड़ा। वे अभी भी जम्मू संभाग के विभिन्न इलाकों में शरणार्थी जीवन बिताने के लिए विवश है। उनकी घर वापसी की परवाह न तो राज्य सरकार कर रही है और न ही केंद्र सरकार।
कश्मीर घाटी से कश्मीरी पंडितों के पलायन के बाद कश्मीरियत का चेहरा ही बदल गया। घाटी का न केवल मुस्लिमकरण हो गया है, बल्कि वह मुस्लिम वर्चस्व वाली भी हो गई है। अब स्थिति यह है कि घाटी के इस्लामिक चरित्र की दुहाई देकर ही नेशनल कांफ्रेंस, पीडीपी और हुर्रियत कांफ्रेंस सरीखे संगठन अमरनाथ श्राइन बोर्ड को जमीन न देने की वकालत कर रहे है। यह तब है जब जमीन का आवंटन अस्थाई रूप से होना है और उसका इस्तेमाल वर्ष में महज दो माह के लिए किया जाना है। यह वन विभाग की बंजर जमीन है, जिसे न तो कोई इस्तेमाल करता है और न वहां कुछ पैदा होता है। इस जमीन पर अमरनाथ तीर्थ यात्रियों के लिए अस्थाई शिविर बनाने की योजना थी, ताकि उन्हे मौसम की मार से बचाया जा सके। घाटी के लोगों को यह भी मंजूर नहीं। इस नामंजूरी के खिलाफ ही जम्मू के लोग असंतोष से भर उठे है। वे इसलिए और गुस्से में है, क्योंकि केंद्र सरकार के साथ-साथ देश के ज्यादातर राजनीतिक दल भी उनकी भावनाओं की उपेक्षा कर रहे है।
केंद्रीय सत्ता जानबूझकर इस तथ्य की अनदेखी कर रही है कि जम्मू का आंदोलन केवल अमरनाथ संघर्ष समिति का आयोजन नहीं है और न ही यह भाजपा के नेतृत्व में चल रहा है। यह आंदोलन तो जम्मू की जनता का है। शायद इसी कारण कांग्रेस के सांसद भी एनएन वोहरा को हटाने की मांग कर रहे है। दरअसल अब जम्मू की जनता ने केंद्र सरकार से अपनी अनवरत उपेक्षा का हिसाब लेने का निश्चय कर लिया है। ये वही लोग है जो आतंकवाद के चरम दौर में भी शांत बने रहे, लेकिन अब और अधिक उपेक्षा सहन करने के लिए तैयार नहीं। जम्मू की जनता को राज्य सरकार के साथ-साथ केंद्र सरकार पर भी भरोसा नहीं। आज जो सवाल जम्मू की जनता का है वही शेष देश का भी है कि आखिर कश्मीर घाटी के अलगाववादियों का तुष्टिकरण कब तक और किस हद तक किया जाएगा? क्या पंथनिरपेक्षता का मतलब सिर्फ हिंदुओं की उपेक्षा करना है? कुछ बुद्धिजीवियों ने यह तर्क दिया है कि जब जम्मू-कश्मीर सरकार अमरनाथ तीर्थ यात्रियों की देखभाल खुद करने के लिए तैयार है तो फिर अमरनाथ श्राइन बोर्ड को जमीन की जरूरत ही क्या रह जाती है? इन बुद्धिजीवियों को यह बताना होगा कि यदि महज सौ एकड़ भूमि दो महीने के लिए श्राइन बोर्ड के पास बनी रहे तो उससे कौन सा पहाड़ टूट जाएगा? उन्हे यह पता होना चाहिए कि जब तक वैष्णो देवी जाने वाले तीर्थ यात्रियों की देखरेख का काम राज्य सरकार के हाथों में रहा तब तक वहां कैसी अराजकता और अव्यवस्था रहा करती थी? क्या ये बुद्धिजीवी यह चाहते है कि अमरनाथ तीर्थयात्री पहले की तरह अव्यवस्था भोगते रहे?
यदि केंद्र सरकार शिवराज पाटिल के नेतृत्व में सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल जम्मू भेजने के पहले यह संकेत भर दे देती कि वह अमरनाथ श्राइन बोर्ड को जमीन वापस सौंपने पर विचार करेगी तो इससे जम्मू के साथ-साथ शेष देश के हिंदुओं की आहत भावनाओं पर मरहम लगता, लेकिन उसने इस पर विचार करने से साफ इनकार कर दिया। लगता है कि उसे यदि किसी की परवाह है तो सिर्फ घाटी के अलगाववादियों की। अगर ऐसा नहीं है तो वह ऐसे संकेत क्यों दे रही है कि जम्मू और शेष देश के लोग यह भूल जाएं कि अमरनाथ श्राइन बोर्ड को कभी कोई जमीन देने का फैसला किया गया था। इस फैसले पर कश्मीर घाटी का नेतृत्व करने वाले लोगों ने जिस छोटी मानसिकता का परिचय दिया, जिसमें महबूबा मुफ्ती से लेकर फारुख अब्दुल्ला तक शामिल है उससे आम हिंदू कुपित भी है और आहत भी। वे स्वयं को अपमानित महसूस कर रहे है। जम्मू के लोग इस अपमान को सहने के लिए तैयार नहीं। हो सकता है कि जम्मू के लोगों का आंदोलन पुलिस और सेना की सख्ती के कारण थोड़ा धीमा पड़ जाए, लेकिन उनकी आहत भावनाएं राज्य के राजनीतिक परिदृश्य पर गहरा असर डालेंगी।( देनिक जागरण, ११ अगस्त २००८)