अमरनाथ मामले में अलगाववाद को पुरस्कृत और राष्ट्रवाद को तिरस्कृत होता हुआ देख रहे हैं प्रशांत मिश्र
महीने भर पहले तक शायद ही किसी ने सोचा होगा कि जम्मू का जनांदोलन इतनी जल्दी जन विद्रोह बन जाएगा। हमारे मन में यह बात घर कर गई है कि विद्रोह करने का अधिकार सिर्फ कश्मीरियों का है। हमारे लिए यह समझ पाना थोड़ा मुश्किल है कि जम्मू के लोग आखिर इस सीमा तक क्यों चले गए? जम्मू के लोगों की इतनी प्रबल नाराजगी की वजह साफ है। उन्हे समझ में आ गया कि केवल केंद्र सरकार ही नहीं बल्कि पूरी व्यवस्था कश्मीर में तुष्टिकरण के लिए सारी सीमाएं लांघ गई है। अगर जम्मू अब भी नहीं जागता तो शायद उसके स्वाभिमान को हमेशा के लिए दबा दिया जाता। जम्मूवासियों के मन में असंतोष और अपमान की आग तो पहले से ही सुलग रही थी। अमरनाथ प्रकरण ने इस आग में केवल घी डाला है। बीते दो दशक गवाह है कि कश्मीरी अपनी जायज-नाजायज मांगें मनवाते रहे है।
हर बार कुछ बुद्धिजीवियों और केंद्र के नुमांइदों का तर्क होता है कि अगर कश्मीरियों की अमुक मांग नहीं मानी गई तो वे भारत से अलग हो जाएंगे या फिर अलगाववादी उन्हे भड़काने में सफल हो जाएंगे। याद करिए जब पीडीपी के बाद जम्मू-कश्मीर में शासन की बारी कांग्रेस की आई तो दिल्ली के कथित सेक्युलर बुद्धिजीवियों ने बाकायदा अभियान छेड़ दिया कि कांग्रेस को पीडीपी को ही सत्ता में बने रहने देना चाहिए। तर्क वही पुराना था कि यदि राष्ट्रीय दल वहां सरकार बनाता है तो कश्मीर में अलगाववाद बढ़ जाएगा। अलगाववाद के भय से केंद्र सरकार कश्मीरियों की नाजायज मांगों को जितना मानती गई उतना ही कश्मीरी नेता ब्लैकमेलिंग करते गए। सब जानते है कि किस तरह कश्मीर से हिंदू भगा दिए गए, लेकिन देश-दुनिया में कहीं भी उनके मानवाधिकार का मामला नहीं उठा। कुछ देशों के दूतावासों से अलगाववादियों को भारी मात्रा में पैसा मिलता रहा ओर वे भारतीय मीडिया के प्रिय बने रहे। उनकी मदद में जिनेवा के मानवाधिकार आयोग, बीबीसी, सीएनएन और कुछ देश भी लगे रहे। कई देशों में कश्मीर या कश्मीरी लाबी है, लेकिन क्या कभी आपने जम्मू लाबी का नाम सुना है? क्या 'जे एंड के' में केवल 'के' है, 'जे' है ही नहीं। हकीकत यह है कि कश्मीर के अलगाववादियों को खुश रखने के लिए और राष्ट्रवाद के नाम पर जम्मू की अनदेखी की गई। हमारी सरकारों को हमेशा लगता रहा कि असंतुष्ट होकर भी जम्मू कहां जा सकता है। इसी मानसिकता के चलते अलगाववाद को पुरस्कार और राष्ट्रवाद को तिरस्कार मिलता रहा। अधिक जनसंख्या होने के बाद भी जम्मू का प्रतिनिधित्व कश्मीर से कम है। जम्मू पाकिस्तानी आक्रमण और आतंकवाद का पहला शिकार बनता है, लेकिन केंद्रीय सहायता कश्मीर की झोली में डाल दी जाती है। इस अवहेलना पर अगर जम्मू में यह मांग उठे कि हमें कश्मीर से अलग कर दिया जाए तो उस पर सांप्रदायिक विभाजन का आक्षेप मढ़ दिया जाता है। तब हम राष्ट्रवादी बनकर कहने लगते हैं कि जम्मू और लद्दाख के कश्मीर से जुड़े रहने से अलगाववाद कमजोर होता है। आज जम्मू के लोग तिरंगा लेकर विद्रोह कर रहे है। उनकी उचित मांगों की अब अधिक देर तक अनसुनी नहीं हो सकती। ऐसा नहीं है कि इस जन विद्रोह के पहले जम्मू में असंतोष नहीं था, हकीकत यह है कि राष्ट्रवाद के नाम पर जम्मू ने असंतोष दबा रखा था। जम्मू में जो कुछ हो रहा है वह उसके तिरस्कार का नतीजा है। जम्मू के जन विद्रोह ने देश को बताया है कि अब वह कश्मीर की धमकी देकर अपनी मांगें मनवा लेने की रणनीति सहन करने को तैयार नहीं हैं। कश्मीरियत बेपर्दा हो गई है। कश्मीर में ब्लैकमेल की राजनीति इतनी सफल है कि पीडीपी और नेशनल कांफ्रेंस भी उसका इस्तेमाल सफलता के साथ कर रहे है, लेकिन उनका दोष क्यों मानें। दोष तो केंद्र सरकार, कथित बुद्धिजीवियों और मीडिया के एक बड़े वर्ग का है जिसने कश्मीर की हर धमकी के आगे घुटने टेके। परिणाम यह हुआ कि जिन उमर फारूख और बिलाल के पिताओं को पाकिस्तान के इशारे पर मौत के घाट उतारा गया वे भी उसके नहीं,भारत के खिलाफ बोलते है। उन्हें मालूम है कि पाकिस्तान के खिलाफ बोलने में गोली मिलेगी, जबकि भारत के खिलाफ बोलने में झोली भरेगी। जम्मू विद्रोह का संदेश स्पष्ट है कि तुष्टीकरण ने कश्मीर को पाकिस्तान से बदतर बना दिया है। जिस कुलदीप डोगरा के बलिदान से यह जन आंदोलन, जन विद्रोह बना उसे सांघातिक चोट संसद में दिए उमर अब्दुल्ला के उस भाषण से लगी जिसमें कहा गया कि कश्मीरी एक इंच जमीन भी न देंगे। अमरनाथ विवाद से जम्मू की आंखें खुल गई है और अब जम्मू के आंदोलन से देश की आंखें खुलनी चाहिए। आखिर कश्मीरियों को अमरनाथ यात्रियों की अस्थाई सुविधा पर इतनी आपत्ति क्यों है जबकि उनके आने से लाभ उन्हीं को होता है। कश्मीरा सड़कों पर उतरे तो डरी हुई राज्य सरकार ने केंद्र के इशारे पर स्थाई सुविधा को वापस ले लिया। अगर कश्मीरी अलगाववादियों के सामने केंद्र सरकार ऐसे ही घुटने टेकती रही तो एक-दो साल में भारत सरकार कश्मीरियों के पाकिस्तान में मिल जाने की आशंका समाप्त करने के नाम पर अमरनाथ यात्रा पर अस्थाई रोक भी लगा सकती है। अगर जम्मू के जन विद्रोह पर ध्यान नहीं दिया गया तो आज की कल्पना कल हकीकत बन सकती है।
कश्मीर का तुष्टीकरण करके हमने कश्मीर की सद्भावपूर्ण परंपराओं को भी समाप्त कर दिया है। हमने अलगाववाद के लिए प्रीमियम देना शुरू कर दिया है। तुष्टीकरण का अंत नहीं होता। तुष्टीकरण की राजनीति का अर्थ ही यही है कि कभी संतुष्ट न हो। जब महात्मा गांधी ने जिन्ना से कहा कि अपनी मांगें बताइए, हम स्वीकार करेंगे तो जिन्ना का जवाब था, 'हमारी लेटेस्ट मांगे ये है, पर ये लास्ट नहीं हैं।' कुछ इसी तरह कश्मीरियों की हर मांग लेटेस्ट होती है, लास्ट नहीं। जब सरकारें तुष्टीकरण में अंधी हो जाती है तो जनता को आगे आना पड़ता है। जम्मू की जनता यही कर रही है। अगर हमने अब भी इसे तात्कालिक शोर समझ कर इसकी अनदेखी-अनसुनी की तो इतिहास हमें शायद ही माफ करे।(दैनिक जागरण, ११ अगस्त २००८)
हर बार कुछ बुद्धिजीवियों और केंद्र के नुमांइदों का तर्क होता है कि अगर कश्मीरियों की अमुक मांग नहीं मानी गई तो वे भारत से अलग हो जाएंगे या फिर अलगाववादी उन्हे भड़काने में सफल हो जाएंगे। याद करिए जब पीडीपी के बाद जम्मू-कश्मीर में शासन की बारी कांग्रेस की आई तो दिल्ली के कथित सेक्युलर बुद्धिजीवियों ने बाकायदा अभियान छेड़ दिया कि कांग्रेस को पीडीपी को ही सत्ता में बने रहने देना चाहिए। तर्क वही पुराना था कि यदि राष्ट्रीय दल वहां सरकार बनाता है तो कश्मीर में अलगाववाद बढ़ जाएगा। अलगाववाद के भय से केंद्र सरकार कश्मीरियों की नाजायज मांगों को जितना मानती गई उतना ही कश्मीरी नेता ब्लैकमेलिंग करते गए। सब जानते है कि किस तरह कश्मीर से हिंदू भगा दिए गए, लेकिन देश-दुनिया में कहीं भी उनके मानवाधिकार का मामला नहीं उठा। कुछ देशों के दूतावासों से अलगाववादियों को भारी मात्रा में पैसा मिलता रहा ओर वे भारतीय मीडिया के प्रिय बने रहे। उनकी मदद में जिनेवा के मानवाधिकार आयोग, बीबीसी, सीएनएन और कुछ देश भी लगे रहे। कई देशों में कश्मीर या कश्मीरी लाबी है, लेकिन क्या कभी आपने जम्मू लाबी का नाम सुना है? क्या 'जे एंड के' में केवल 'के' है, 'जे' है ही नहीं। हकीकत यह है कि कश्मीर के अलगाववादियों को खुश रखने के लिए और राष्ट्रवाद के नाम पर जम्मू की अनदेखी की गई। हमारी सरकारों को हमेशा लगता रहा कि असंतुष्ट होकर भी जम्मू कहां जा सकता है। इसी मानसिकता के चलते अलगाववाद को पुरस्कार और राष्ट्रवाद को तिरस्कार मिलता रहा। अधिक जनसंख्या होने के बाद भी जम्मू का प्रतिनिधित्व कश्मीर से कम है। जम्मू पाकिस्तानी आक्रमण और आतंकवाद का पहला शिकार बनता है, लेकिन केंद्रीय सहायता कश्मीर की झोली में डाल दी जाती है। इस अवहेलना पर अगर जम्मू में यह मांग उठे कि हमें कश्मीर से अलग कर दिया जाए तो उस पर सांप्रदायिक विभाजन का आक्षेप मढ़ दिया जाता है। तब हम राष्ट्रवादी बनकर कहने लगते हैं कि जम्मू और लद्दाख के कश्मीर से जुड़े रहने से अलगाववाद कमजोर होता है। आज जम्मू के लोग तिरंगा लेकर विद्रोह कर रहे है। उनकी उचित मांगों की अब अधिक देर तक अनसुनी नहीं हो सकती। ऐसा नहीं है कि इस जन विद्रोह के पहले जम्मू में असंतोष नहीं था, हकीकत यह है कि राष्ट्रवाद के नाम पर जम्मू ने असंतोष दबा रखा था। जम्मू में जो कुछ हो रहा है वह उसके तिरस्कार का नतीजा है। जम्मू के जन विद्रोह ने देश को बताया है कि अब वह कश्मीर की धमकी देकर अपनी मांगें मनवा लेने की रणनीति सहन करने को तैयार नहीं हैं। कश्मीरियत बेपर्दा हो गई है। कश्मीर में ब्लैकमेल की राजनीति इतनी सफल है कि पीडीपी और नेशनल कांफ्रेंस भी उसका इस्तेमाल सफलता के साथ कर रहे है, लेकिन उनका दोष क्यों मानें। दोष तो केंद्र सरकार, कथित बुद्धिजीवियों और मीडिया के एक बड़े वर्ग का है जिसने कश्मीर की हर धमकी के आगे घुटने टेके। परिणाम यह हुआ कि जिन उमर फारूख और बिलाल के पिताओं को पाकिस्तान के इशारे पर मौत के घाट उतारा गया वे भी उसके नहीं,भारत के खिलाफ बोलते है। उन्हें मालूम है कि पाकिस्तान के खिलाफ बोलने में गोली मिलेगी, जबकि भारत के खिलाफ बोलने में झोली भरेगी। जम्मू विद्रोह का संदेश स्पष्ट है कि तुष्टीकरण ने कश्मीर को पाकिस्तान से बदतर बना दिया है। जिस कुलदीप डोगरा के बलिदान से यह जन आंदोलन, जन विद्रोह बना उसे सांघातिक चोट संसद में दिए उमर अब्दुल्ला के उस भाषण से लगी जिसमें कहा गया कि कश्मीरी एक इंच जमीन भी न देंगे। अमरनाथ विवाद से जम्मू की आंखें खुल गई है और अब जम्मू के आंदोलन से देश की आंखें खुलनी चाहिए। आखिर कश्मीरियों को अमरनाथ यात्रियों की अस्थाई सुविधा पर इतनी आपत्ति क्यों है जबकि उनके आने से लाभ उन्हीं को होता है। कश्मीरा सड़कों पर उतरे तो डरी हुई राज्य सरकार ने केंद्र के इशारे पर स्थाई सुविधा को वापस ले लिया। अगर कश्मीरी अलगाववादियों के सामने केंद्र सरकार ऐसे ही घुटने टेकती रही तो एक-दो साल में भारत सरकार कश्मीरियों के पाकिस्तान में मिल जाने की आशंका समाप्त करने के नाम पर अमरनाथ यात्रा पर अस्थाई रोक भी लगा सकती है। अगर जम्मू के जन विद्रोह पर ध्यान नहीं दिया गया तो आज की कल्पना कल हकीकत बन सकती है।
कश्मीर का तुष्टीकरण करके हमने कश्मीर की सद्भावपूर्ण परंपराओं को भी समाप्त कर दिया है। हमने अलगाववाद के लिए प्रीमियम देना शुरू कर दिया है। तुष्टीकरण का अंत नहीं होता। तुष्टीकरण की राजनीति का अर्थ ही यही है कि कभी संतुष्ट न हो। जब महात्मा गांधी ने जिन्ना से कहा कि अपनी मांगें बताइए, हम स्वीकार करेंगे तो जिन्ना का जवाब था, 'हमारी लेटेस्ट मांगे ये है, पर ये लास्ट नहीं हैं।' कुछ इसी तरह कश्मीरियों की हर मांग लेटेस्ट होती है, लास्ट नहीं। जब सरकारें तुष्टीकरण में अंधी हो जाती है तो जनता को आगे आना पड़ता है। जम्मू की जनता यही कर रही है। अगर हमने अब भी इसे तात्कालिक शोर समझ कर इसकी अनदेखी-अनसुनी की तो इतिहास हमें शायद ही माफ करे।(दैनिक जागरण, ११ अगस्त २००८)
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