जम्मू के आंदोलन को राष्ट्रीय चेतना को झकझोरने वाला बता रहे हैं हृदयनारायण दीक्षित
जम्मू जल रहा है। जम्मू आग की आंच से दिल्ली में दहशत है। प्रधानमंत्री ने सभी दलों के नेताओं के साथ बैठक की। तय हुआ कि सर्वदलीय टीम जम्मू जाएगी, जायजा लेगी, लेकिन इससे होगा क्या? हिंदू भावना के अपमान का लावा अर्से से पूरे देश में सुलग रहा है। पहले प्रधानमंत्री ने राष्ट्रीय संपदा पर मुसलमानों का पहला अधिकार बताया, हिंदू आहत हुए। फिर केंद्र ने श्रीराम को कल्पना बताया, पूरा देश भभक उठा। सरकारें आस्था प्रतीकों का इतिहास बताने का अधिकार नहीं रखतीं। मनमोहन सरकार ने अनाधिकार चेष्टा की। उसने रामसेतु को तोड़ने का आरोप भी राम पर मढ़ दिया गया। हिंदू मन की आग फिर भभकी। हज यात्रियों को ढेर सारी सुविधांए हैं, लेकिन अमरनाथ यात्रियों के विश्राम के लिए दी गई 40 हेक्टेयर जमीन भी अलगाववादियों के बर्दास्त के बाहर हो गई। वे आंदोलन पर उतारू हुए। उनकी बेजा मांग और आंदोलन के विरूद्ध सेना नहीं बुलाई गई। उल्टे केंद्र और राज्य ने आत्मसमर्पण कर दिया, लेकिन जायज मांग वाले जनआंदोलन को कुचलने के लिए सेना भी बुलाई गई। पुलिस बल टूट पड़ा है। कर्फ्यू है, देखते ही गोली मारने के आदेश हैं, पुलिस और सेना की फायरिंग है। मीडिया पर पाबंदी है। मौलिक अधिकार रसातल में हैं। अघोषित आपातकाल है बावजूद इसके जनसंघर्ष जारी है।
सर्वदलीय बैठक ने समस्या का सांप्रदायिकीकरण न करने की अपेक्षा की है। सांप्रदायिक तुष्टीकरण की राजनीति ही सारे फसाद की जड़ है। बुनियादी सवाल यह है कि पंथनिरपेक्ष संविधान की पंथनिरपेक्ष सरकारें हज जैसी मजहबी यात्रा पर राजकोष लुटाती हैं तो अमरनाथ यात्रियों को मात्र 40 हेक्टेयर जमीन भी अस्थाई रूप से देने में अलगाववादियों के साथ क्यों खड़ी हो जाती हैं? जम्मू कश्मीर मंत्रिपरिषद ने ही सर्वसम्मति से जमीन देने का निर्णय लिया था। बैठक में कांग्रेस और पीडीपी के मंत्री भी शामिल थे। जमीन का एलाटमेंट अस्थाई था। यात्रा के बाद जमीन वन विभाग को लौट जानी थी। श्राइन बोर्ड वहां अस्थाई विश्राम ढांचा ही बना सकता था, लेकिन अलगाववादियों, पीडीपी और नेशनल कांफ्रेंस आदि ने दुष्प्रचार किया कि बोर्ड कश्मीर के बाहरी 'भारतीयों' के लिए आवास बना रहा है। यह भी कि कश्मीरी लोगों को खत्म करने के लिए यहां इसराइल बनाया जा रहा है। जम्मू कश्मीर विधानसभा में तद्विषयक विधेयक पर कोई विरोध नहीं हुआ। इसलिए सरकारी आदेश की वापसी आसान नहीं थी। केंद्र ने नए राज्यपाल वोहरा को मोहरा बनाया। उन्होंने बोर्ड के अध्यक्ष की हैसियत से जमीन वापस की। उन्होंने बोर्ड का संविधान नहीं माना। संविधान के मुताबिक किसी निर्णय के लिए 5 सदस्यों के कोरम की जरूरत थी। वोहरा ने सारा फैसला अकेले लिया।
भाजपा और आंदोलनकारी राज्यपाल वोहरा की वापसी चाहते हैं। केंद्र ने वोहरा को हटाने की मांग ठुकरा दी है। उसने जमीन वापसी का कोई वादा नहीं किया। केंद्र तुष्टीकरण नीति पर अडिग है। प्रधानमंत्री ने दलीय संवाद बढ़ाया है,लेकिन यह मसला दलीय असहमति या सहमति का राजनीतिक मुद्दा नहीं है। राजनाथ सिंह ने अमरनाथ जनसंघर्ष समिति से सीधी वार्ता का आग्रह किया। उन्होंने इसी मुद्दे पर 11 अगस्त से प्रस्तावित पार्टी के आंदोलन को रोकने की मांग ठुकरा दी। यह मसला समूचे विश्व के हिंदुओं, एशिया महाद्वीप और यूरोप में फैले शिव श्रद्धालुओं की आस्था से जुड़ा हुआ है। शिव विश्व आस्था हैं। लंदन विश्वविद्यालय के इतिहासविद् एएल बाशम ने दि वंडर दैट वाज इंडिया में शिव को शांति, संहार और नृत्य का देवता बताया है। गांधार से प्राप्त सिक्कों में शिव प्रतीक वृषभ पाया गया है। चीनी यात्री ह्वेनसांग ने भी शिव परंपरा की चर्चा की है। सीरिया के शिल्प में वे विद्युत-देवता है। इस सबके हजारों वर्ष पहले वे ऋग्वेद में हैं, यजुर्वेद में हैं, अथर्ववेद में भी हैं।
केंद्र समग्रता में नहीं सोचता। वोट बैंक बाधा है। जम्मू कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है, लेकिन अस्थाई अनुच्छेद 370 के जरिये कश्मीरी अलगाववाद को संवैधानिक मान्यता है। नेहरू ने इस राज्य का अलग प्रधान अलग निशान (ध्वज) और अलग विधान भी माना था। श्यामा प्रसाद मुखर्जी इसी के खिलाफ शहीद हो गये। इसके पहले आजादी (15 अगस्त 1947) के ढाई माह बाद ही पाकिस्तानी कबाइली आक्रमण हुआ। जम्मू कश्मीर का भारत में विलय हुआ। पाकिस्तानी फौजें भीतर तक घुस आर्इं। भारतीय फौजों ने दौड़ाया, पीटा। नेहरू ने युद्धविराम माना। संयुक्त राष्ट्र को मिमियाती अर्जी दी गई। तबसे ही जम्मू कश्मीर राष्ट्रीय समस्या है। पाप कांग्रेस ने किया, सजा पूरे राष्ट्र को मिली। घाटी रक्त रंजित रहती है। पाकिस्तानी सिक्के चलाने के प्रस्ताव आते हैं। पाकिस्तान जिंदाबाद होता है। बावजूद इसके फौज को हुक्म नहीं मिलता, लेकिन अमरनाथ मसले पर आंदोलित हिंदुओं के खिलाफ फौज लगी है। जम्मू का सुख और दुख भारत का सुखदुख है। जम्मू में वैष्णव देवी हैं, अमरनाथ हैं। जम्मू कश्मीर में ही पिप्पलाद हुए। विश्वविख्यात दर्शन ग्रंथ प्रश्नोपनिषद इन्हीं के आश्रम में हुई अखिल भारतीय बहस से पैदा हुआ। जम्मू का संघर्ष राष्ट्रीय उत्ताप है। समस्या को समग्रता में विचार करने की जरूरत है। यही समय है कि अलगाववादी अनुच्छेद 370 के खात्मे पर भी विचार होना चाहिए। जम्मू जनसंघर्ष को व्यापक राष्ट्रीय समर्थन मिला है। सेना और पुलिस की गोलियों से निहत्थों का टकराना ऐतिहासिक कार्रवाई है। बार-बार के अपमान से आहत हिंदू इस दफा टकरा गए हैं। जम्मू निवासी बहुत पहले से उपेक्षित और सरकार पीड़ित हैं। घाटी के अलगाववादी सरकार और प्रशासन पर भारी पड़ते हैं। सरकार उनकी हर बात मान लेती है। जम्मू और लेह के निवासी दोयम दर्जे के नागरिक हैं। निर्वासित कश्मीरी पंडित बिलख रहे हैं। इसलिए इस दफा 'लड़ो और मरो' जैसी स्थिति है। निहत्थे आंदोलनकारी लगभग एक माह से लड़ रहे हैं। आंसूगैस, सरकारी बर्बरता, गोलीबारी, कर्फ्यू और सेना की गोली उनमें खौफ नहीं पैदा करते। यहां मनोविज्ञान और वैज्ञानिक भौतिकवाद काम नहीं करता। सबका मन अमरनाथ हो गया है। केंद्र तुष्टिकरण के रास्ते पर है। हिंसक दमन के बावजूद निर्भीक पत्रकार मोर्चे पर हैं। केंद्र दुस्सह दमन और हिंसा को राष्ट्रीय सत्य बनने से रोक रहा है।
मुसलमान भारतीय समाज के अभिन्न अंग हैं। उनके ईद, अजान और कुरान हिंदुओं में सम्मानित हैं लेकिन हिंदुओं की अयोध्या, काशी, मथुरा और वैष्णो देवी तथा अमरनाथ कट्टरपंथियों को अखरते हैं। अमरनाथ यात्रियों पर राकेट तनते हैं? हिंदू बुतपरस्त ही सही, लेकिन अपने सीने में कुरान और पुराण का सम्मान एक साथ लेकर चलते हैं। मलाल है कि मनमोहन सिंह औरंगजेब हो रहे हैं। हिंदू मानस की प्रकृति कुचालक है। समाज के एक हिस्से का संवेदन दूसरे हिस्से तक आसानी से नहीं पहुंचता। यहां राष्ट्रवाद की करेंट है, लेकिन छद्म सेकुलरवाद की बाधाएं हैं। दुनिया के मुसलमान डेनमार्क के कार्टूनिस्ट से खफा थे, भारत के भी हुए। अमरनाथ मामले को लेकर राष्ट्र खफा है, लेकिन गुस्सा यहां फुटकर और वैयक्तिक रहता है। चूंकि बर्दाश्त की हद होती है इसीलिए इस दफा का आंदोलन ऐतिहासिक है और पूरे देश में रोष है। बहुसंख्यक वोटों के धु्रवीकरण के खतरे हैं, पर यह आंदोलन वोटवादी नहीं है। आंदोलनकारियों ने राष्ट्रीय चेतना को झकझोरने का काम पूरा किया है। (दैनिक जागरण, ८ अगस्त २००८)
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