Monday, August 11, 2008

जम्मू के साथ सौतेलापन

अमरनाथ मामले में आंदोलनरत जम्मू की जनता का दर्द बयान कर रहे हैं संजय गुप्त

जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल एनएन वोहरा के निर्देश पर अमरनाथ श्राइन बोर्ड को अस्थाई रूप से दी गई भूमि का आवंटन रद्द होने के बाद से जम्मू संभाग की जनता द्वारा शुरू किया गया आंदोलन अभी भी थमता नजर नहीं आ रहा। चूंकि जिस समय यह आवंटन रद्द किया गया उस समय केंद्र में राजनीतिक अस्थिरता का माहौल था और संप्रग सरकार खुद को बचाने में लगी हुई थी इसलिए जम्मू के उग्र आंदोलन की ओर ध्यान नहीं दिया गया। विडंबना यह रही कि जम्मू-कश्मीर में राष्ट्रपति शासन लागू होने और इस तरह राज्य की कमान केंद्रीय सत्ता के हाथों में आने के बाद भी जम्मू की अनदेखी की गई। जम्मू-कश्मीर में राष्ट्रपति शासन इसलिए लगाना पड़ा, क्योंकि गुलाम नबी आजाद सरकार द्वारा अमरनाथ श्राइन बोर्ड को भूमि आवंटन के सवाल पर सत्ता में साझीदार पीडीपी ने समर्थन वापस ले लिया था। अमरनाथ श्राइन बोर्ड को भूमि आवंटन का कश्मीर घाटी में जैसा विरोध हुआ उससे देश का हिंदू समाज पहले ही आहत था। रही-सही कसर भूमि आवंटन का फैसला रद्द होने से पूरी हो गई। इस घटनाक्रम पर केंद्र सरकार या तो मौन धारण किए रही या फिर गुलाम नबी आजाद और एनएन वोहरा के फैसलों पर सहमति जताती रही। चूंकि जम्मू की जनता पिछले 60 वर्षो से राज्य और केंद्र सरकार की उपेक्षा से त्रस्त थी इसलिए भूमि आवंटन को रद्द करने के अनुचित फैसले ने उसके संयम का बांध तोड़ दिया। वहां पिछले लगभग 40 दिनों से धरना-प्रदर्शन और बंद का सिलसिला कायम है। जम्मू के लोग इतना अधिक कुपित है कि वे क‌र्फ्यू और सेना की भी परवाह नहीं कर रहे है।
केंद्र सरकार के लिए यह आवश्यक था कि वह जम्मू की नाराजगी दूर करने के लिए आगे आती, लेकिन वह हाथ पर हाथ धरे बैठी रही। इससे वहां के लोगों का गुस्सा और बढ़ता चला गया। इस गुस्से को पुलिस के दमनकारी रवैये ने भी बढ़ावा दिया। इस दमनचक्र के चलते वहां अनेक लोग मारे गए। इन मौतों ने लोगों के गुस्से को भड़काया और उन्होंने श्रीनगर राजमार्ग को अवरुद्ध कर दिया। केंद्र की नींद तब खुली जब जम्मू के आंदोलन की प्रतिक्रिया कश्मीर घाटी में भी होने लगी और वहां के व्यापारी मुजफ्फराबाद कूच की धमकी देने लगे। समस्या समाधान के नाम पर केंद्र सरकार ने एक माह बाद सर्वदलीय बैठक तो बुलाई, लेकिन ऐसा कुछ भी करने से इनकार किया जिससे जम्मू की जनता का आक्रोश कम होता। चूंकि जम्मू के लोगों को बिना कोई आश्वासन दिए वहां एक सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल भेजने का निर्णय लिया गया इसलिएउसका विरोध होना स्वाभाविक है और उसके माध्यम से कोई नतीजा निकलने के आसार भी कम हैं।
जम्मू-कश्मीर के भारत में विलय के बाद से ही जम्मू संभाग के लोगों के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार किया जा रहा है। कश्मीर घाटी को खुश करने के लिए अनुच्छेद 370 का प्रावधान तो बनाया ही गया, उसे अन्य अनेक विशेष सुविधाएं भी प्रदान की गई। केंद्रीय सहायता का अधिकांश हिस्सा कश्मीर घाटी पर खर्च होता है। इसकी एक वजह जम्मू-कश्मीर शासन और प्रशासन में घाटी के लोगों का वर्चस्व होना है। 1980 के दशक में जब कश्मीर में आतंकवाद ने सिर उठाया तो वहां के कश्मीरी पंडितों को अपनी जान बचाकर भागना पड़ा। वे अभी भी जम्मू संभाग के विभिन्न इलाकों में शरणार्थी जीवन बिताने के लिए विवश है। उनकी घर वापसी की परवाह न तो राज्य सरकार कर रही है और न ही केंद्र सरकार।
कश्मीर घाटी से कश्मीरी पंडितों के पलायन के बाद कश्मीरियत का चेहरा ही बदल गया। घाटी का न केवल मुस्लिमकरण हो गया है, बल्कि वह मुस्लिम वर्चस्व वाली भी हो गई है। अब स्थिति यह है कि घाटी के इस्लामिक चरित्र की दुहाई देकर ही नेशनल कांफ्रेंस, पीडीपी और हुर्रियत कांफ्रेंस सरीखे संगठन अमरनाथ श्राइन बोर्ड को जमीन न देने की वकालत कर रहे है। यह तब है जब जमीन का आवंटन अस्थाई रूप से होना है और उसका इस्तेमाल वर्ष में महज दो माह के लिए किया जाना है। यह वन विभाग की बंजर जमीन है, जिसे न तो कोई इस्तेमाल करता है और न वहां कुछ पैदा होता है। इस जमीन पर अमरनाथ तीर्थ यात्रियों के लिए अस्थाई शिविर बनाने की योजना थी, ताकि उन्हे मौसम की मार से बचाया जा सके। घाटी के लोगों को यह भी मंजूर नहीं। इस नामंजूरी के खिलाफ ही जम्मू के लोग असंतोष से भर उठे है। वे इसलिए और गुस्से में है, क्योंकि केंद्र सरकार के साथ-साथ देश के ज्यादातर राजनीतिक दल भी उनकी भावनाओं की उपेक्षा कर रहे है।
केंद्रीय सत्ता जानबूझकर इस तथ्य की अनदेखी कर रही है कि जम्मू का आंदोलन केवल अमरनाथ संघर्ष समिति का आयोजन नहीं है और न ही यह भाजपा के नेतृत्व में चल रहा है। यह आंदोलन तो जम्मू की जनता का है। शायद इसी कारण कांग्रेस के सांसद भी एनएन वोहरा को हटाने की मांग कर रहे है। दरअसल अब जम्मू की जनता ने केंद्र सरकार से अपनी अनवरत उपेक्षा का हिसाब लेने का निश्चय कर लिया है। ये वही लोग है जो आतंकवाद के चरम दौर में भी शांत बने रहे, लेकिन अब और अधिक उपेक्षा सहन करने के लिए तैयार नहीं। जम्मू की जनता को राज्य सरकार के साथ-साथ केंद्र सरकार पर भी भरोसा नहीं। आज जो सवाल जम्मू की जनता का है वही शेष देश का भी है कि आखिर कश्मीर घाटी के अलगाववादियों का तुष्टिकरण कब तक और किस हद तक किया जाएगा? क्या पंथनिरपेक्षता का मतलब सिर्फ हिंदुओं की उपेक्षा करना है? कुछ बुद्धिजीवियों ने यह तर्क दिया है कि जब जम्मू-कश्मीर सरकार अमरनाथ तीर्थ यात्रियों की देखभाल खुद करने के लिए तैयार है तो फिर अमरनाथ श्राइन बोर्ड को जमीन की जरूरत ही क्या रह जाती है? इन बुद्धिजीवियों को यह बताना होगा कि यदि महज सौ एकड़ भूमि दो महीने के लिए श्राइन बोर्ड के पास बनी रहे तो उससे कौन सा पहाड़ टूट जाएगा? उन्हे यह पता होना चाहिए कि जब तक वैष्णो देवी जाने वाले तीर्थ यात्रियों की देखरेख का काम राज्य सरकार के हाथों में रहा तब तक वहां कैसी अराजकता और अव्यवस्था रहा करती थी? क्या ये बुद्धिजीवी यह चाहते है कि अमरनाथ तीर्थयात्री पहले की तरह अव्यवस्था भोगते रहे?
यदि केंद्र सरकार शिवराज पाटिल के नेतृत्व में सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल जम्मू भेजने के पहले यह संकेत भर दे देती कि वह अमरनाथ श्राइन बोर्ड को जमीन वापस सौंपने पर विचार करेगी तो इससे जम्मू के साथ-साथ शेष देश के हिंदुओं की आहत भावनाओं पर मरहम लगता, लेकिन उसने इस पर विचार करने से साफ इनकार कर दिया। लगता है कि उसे यदि किसी की परवाह है तो सिर्फ घाटी के अलगाववादियों की। अगर ऐसा नहीं है तो वह ऐसे संकेत क्यों दे रही है कि जम्मू और शेष देश के लोग यह भूल जाएं कि अमरनाथ श्राइन बोर्ड को कभी कोई जमीन देने का फैसला किया गया था। इस फैसले पर कश्मीर घाटी का नेतृत्व करने वाले लोगों ने जिस छोटी मानसिकता का परिचय दिया, जिसमें महबूबा मुफ्ती से लेकर फारुख अब्दुल्ला तक शामिल है उससे आम हिंदू कुपित भी है और आहत भी। वे स्वयं को अपमानित महसूस कर रहे है। जम्मू के लोग इस अपमान को सहने के लिए तैयार नहीं। हो सकता है कि जम्मू के लोगों का आंदोलन पुलिस और सेना की सख्ती के कारण थोड़ा धीमा पड़ जाए, लेकिन उनकी आहत भावनाएं राज्य के राजनीतिक परिदृश्य पर गहरा असर डालेंगी।( देनिक जागरण, ११ अगस्त २००८)

अलगाववाद को पुरस्कार

अमरनाथ मामले में अलगाववाद को पुरस्कृत और राष्ट्रवाद को तिरस्कृत होता हुआ देख रहे हैं प्रशांत मिश्र
महीने भर पहले तक शायद ही किसी ने सोचा होगा कि जम्मू का जनांदोलन इतनी जल्दी जन विद्रोह बन जाएगा। हमारे मन में यह बात घर कर गई है कि विद्रोह करने का अधिकार सिर्फ कश्मीरियों का है। हमारे लिए यह समझ पाना थोड़ा मुश्किल है कि जम्मू के लोग आखिर इस सीमा तक क्यों चले गए? जम्मू के लोगों की इतनी प्रबल नाराजगी की वजह साफ है। उन्हे समझ में आ गया कि केवल केंद्र सरकार ही नहीं बल्कि पूरी व्यवस्था कश्मीर में तुष्टिकरण के लिए सारी सीमाएं लांघ गई है। अगर जम्मू अब भी नहीं जागता तो शायद उसके स्वाभिमान को हमेशा के लिए दबा दिया जाता। जम्मूवासियों के मन में असंतोष और अपमान की आग तो पहले से ही सुलग रही थी। अमरनाथ प्रकरण ने इस आग में केवल घी डाला है। बीते दो दशक गवाह है कि कश्मीरी अपनी जायज-नाजायज मांगें मनवाते रहे है।
हर बार कुछ बुद्धिजीवियों और केंद्र के नुमांइदों का तर्क होता है कि अगर कश्मीरियों की अमुक मांग नहीं मानी गई तो वे भारत से अलग हो जाएंगे या फिर अलगाववादी उन्हे भड़काने में सफल हो जाएंगे। याद करिए जब पीडीपी के बाद जम्मू-कश्मीर में शासन की बारी कांग्रेस की आई तो दिल्ली के कथित सेक्युलर बुद्धिजीवियों ने बाकायदा अभियान छेड़ दिया कि कांग्रेस को पीडीपी को ही सत्ता में बने रहने देना चाहिए। तर्क वही पुराना था कि यदि राष्ट्रीय दल वहां सरकार बनाता है तो कश्मीर में अलगाववाद बढ़ जाएगा। अलगाववाद के भय से केंद्र सरकार कश्मीरियों की नाजायज मांगों को जितना मानती गई उतना ही कश्मीरी नेता ब्लैकमेलिंग करते गए। सब जानते है कि किस तरह कश्मीर से हिंदू भगा दिए गए, लेकिन देश-दुनिया में कहीं भी उनके मानवाधिकार का मामला नहीं उठा। कुछ देशों के दूतावासों से अलगाववादियों को भारी मात्रा में पैसा मिलता रहा ओर वे भारतीय मीडिया के प्रिय बने रहे। उनकी मदद में जिनेवा के मानवाधिकार आयोग, बीबीसी, सीएनएन और कुछ देश भी लगे रहे। कई देशों में कश्मीर या कश्मीरी लाबी है, लेकिन क्या कभी आपने जम्मू लाबी का नाम सुना है? क्या 'जे एंड के' में केवल 'के' है, 'जे' है ही नहीं। हकीकत यह है कि कश्मीर के अलगाववादियों को खुश रखने के लिए और राष्ट्रवाद के नाम पर जम्मू की अनदेखी की गई। हमारी सरकारों को हमेशा लगता रहा कि असंतुष्ट होकर भी जम्मू कहां जा सकता है। इसी मानसिकता के चलते अलगाववाद को पुरस्कार और राष्ट्रवाद को तिरस्कार मिलता रहा। अधिक जनसंख्या होने के बाद भी जम्मू का प्रतिनिधित्व कश्मीर से कम है। जम्मू पाकिस्तानी आक्रमण और आतंकवाद का पहला शिकार बनता है, लेकिन केंद्रीय सहायता कश्मीर की झोली में डाल दी जाती है। इस अवहेलना पर अगर जम्मू में यह मांग उठे कि हमें कश्मीर से अलग कर दिया जाए तो उस पर सांप्रदायिक विभाजन का आक्षेप मढ़ दिया जाता है। तब हम राष्ट्रवादी बनकर कहने लगते हैं कि जम्मू और लद्दाख के कश्मीर से जुड़े रहने से अलगाववाद कमजोर होता है। आज जम्मू के लोग तिरंगा लेकर विद्रोह कर रहे है। उनकी उचित मांगों की अब अधिक देर तक अनसुनी नहीं हो सकती। ऐसा नहीं है कि इस जन विद्रोह के पहले जम्मू में असंतोष नहीं था, हकीकत यह है कि राष्ट्रवाद के नाम पर जम्मू ने असंतोष दबा रखा था। जम्मू में जो कुछ हो रहा है वह उसके तिरस्कार का नतीजा है। जम्मू के जन विद्रोह ने देश को बताया है कि अब वह कश्मीर की धमकी देकर अपनी मांगें मनवा लेने की रणनीति सहन करने को तैयार नहीं हैं। कश्मीरियत बेपर्दा हो गई है। कश्मीर में ब्लैकमेल की राजनीति इतनी सफल है कि पीडीपी और नेशनल कांफ्रेंस भी उसका इस्तेमाल सफलता के साथ कर रहे है, लेकिन उनका दोष क्यों मानें। दोष तो केंद्र सरकार, कथित बुद्धिजीवियों और मीडिया के एक बड़े वर्ग का है जिसने कश्मीर की हर धमकी के आगे घुटने टेके। परिणाम यह हुआ कि जिन उमर फारूख और बिलाल के पिताओं को पाकिस्तान के इशारे पर मौत के घाट उतारा गया वे भी उसके नहीं,भारत के खिलाफ बोलते है। उन्हें मालूम है कि पाकिस्तान के खिलाफ बोलने में गोली मिलेगी, जबकि भारत के खिलाफ बोलने में झोली भरेगी। जम्मू विद्रोह का संदेश स्पष्ट है कि तुष्टीकरण ने कश्मीर को पाकिस्तान से बदतर बना दिया है। जिस कुलदीप डोगरा के बलिदान से यह जन आंदोलन, जन विद्रोह बना उसे सांघातिक चोट संसद में दिए उमर अब्दुल्ला के उस भाषण से लगी जिसमें कहा गया कि कश्मीरी एक इंच जमीन भी न देंगे। अमरनाथ विवाद से जम्मू की आंखें खुल गई है और अब जम्मू के आंदोलन से देश की आंखें खुलनी चाहिए। आखिर कश्मीरियों को अमरनाथ यात्रियों की अस्थाई सुविधा पर इतनी आपत्ति क्यों है जबकि उनके आने से लाभ उन्हीं को होता है। कश्मीरा सड़कों पर उतरे तो डरी हुई राज्य सरकार ने केंद्र के इशारे पर स्थाई सुविधा को वापस ले लिया। अगर कश्मीरी अलगाववादियों के सामने केंद्र सरकार ऐसे ही घुटने टेकती रही तो एक-दो साल में भारत सरकार कश्मीरियों के पाकिस्तान में मिल जाने की आशंका समाप्त करने के नाम पर अमरनाथ यात्रा पर अस्थाई रोक भी लगा सकती है। अगर जम्मू के जन विद्रोह पर ध्यान नहीं दिया गया तो आज की कल्पना कल हकीकत बन सकती है।
कश्मीर का तुष्टीकरण करके हमने कश्मीर की सद्भावपूर्ण परंपराओं को भी समाप्त कर दिया है। हमने अलगाववाद के लिए प्रीमियम देना शुरू कर दिया है। तुष्टीकरण का अंत नहीं होता। तुष्टीकरण की राजनीति का अर्थ ही यही है कि कभी संतुष्ट न हो। जब महात्मा गांधी ने जिन्ना से कहा कि अपनी मांगें बताइए, हम स्वीकार करेंगे तो जिन्ना का जवाब था, 'हमारी लेटेस्ट मांगे ये है, पर ये लास्ट नहीं हैं।' कुछ इसी तरह कश्मीरियों की हर मांग लेटेस्ट होती है, लास्ट नहीं। जब सरकारें तुष्टीकरण में अंधी हो जाती है तो जनता को आगे आना पड़ता है। जम्मू की जनता यही कर रही है। अगर हमने अब भी इसे तात्कालिक शोर समझ कर इसकी अनदेखी-अनसुनी की तो इतिहास हमें शायद ही माफ करे।(दैनिक जागरण, ११ अगस्त २००८)

Friday, August 8, 2008

आतंक से न लड़ने का सबूत

सिमी पर लगे प्रतिबंध के हटने और पुन: लगने के कारणों पर प्रकाश डाल रहे हैं सुधांशु रंजन

सिमी पर लगे प्रतिबंध को दिल्ली उच्च न्यायालय के एक ट्रिब्युनल ने पर्याप्त प्रमाण के अभाव में खारिज कर दिया, पर 15 घंटे के अंदर उच्चतम न्यायालय ने ट्रिब्युनल के आदेश पर अंतरिम रोक लगाते हुए प्रतिबंध जारी रखा। इस पूरे मामले में तीन पक्ष हैं-आतंकवाद के विरुद्ध लड़ाई में प्रशासनिक चुस्ती, प्रशासनिक संतुष्टि की न्यायिक समीक्षा एवं मामले का राजनीतिकरण। सिमी पर प्रतिबंध पहली बार 27 सितंबर 2001 में अवैध गतिविधियां निरोधक अधिनियम के तहत लगाया गया और तब से हर दो वर्ष बाद यह प्रतिबंध बढ़ाया जा रहा है। गत 7 फरवरी को केंद्र ने फिर चौथी बार इसे 2010 तक के लिए बढ़ा दिया। ट्रिब्यूनल के अनुसार सिमी के विरुद्ध दिए गए साक्ष्य प्रतिबंध के औचित्य को प्रमाणित नहीं करते। अपील में केंद्र सरकार ने उच्चतम न्यायालय में दलील दी कि ट्रिब्युनल ने न तो मंत्रिपरिषद के नोट पर विचार किया जो बंद लिफाफे में उसके समक्ष पेश किया गया और न ही 77 गवाहों के बयानों पर ध्यान दिया, जिनमें खुफिया ब्यूरो के कई वरिष्ठ अधिकारी थे। केंद्र ने अदालत से कहा कि यदि सिमी की अवैध गतिविधियों को तुरंत नियंत्रित नहीं किया गया तो संगठन विध्वंसक हरकतों के जरिये सांप्रादायिकता का जहर घोलकर देश के पंथनिरपेक्ष ताने-बाने को क्षत-विक्षत कर देगा। प्रतिबंध पर न्यायिक समीक्षा पर विचार करने के पहले सिमी की पृष्ठभूमि पर विचार करना आवश्यक है। फिलहाल वेस्टर्न इलिनॉयस विश्वविद्यालय में जन संचार के प्राध्यापक मुहम्मद अहमदुल्ला सिद्दिकी ने 25 अप्रैल 1977 को अलीगढ़ में इसकी स्थापना की थी। इसका उद्देश्य था भारत को पश्चिमी प्रभाव से मुक्त करना और उसे इस्लामी समाज में तब्दील करना। इसकी शुरुआत जमात-ए-इस्लामी के छात्र घटक के रुप में हुई पर यह गठबंधन टिक नहीं पाया, क्योंकि जमात ने इसकी विप्लवी विचारधारा खारिज कर दी। इसने भारत के खिलाफ जिहाद की घोषणा कर रखी है। इसका मकसद है हर व्यक्ति को जबर्दस्ती या हिंसा से मुसलमान बनाकर दार-उल-इस्लाम यानी इस्लाम की भूमि की स्थापना करना।

जिस संगठन का उद्देश्य खलीफा की स्थापना करना हो वह हिंसा के माध्यम से अपने कृत्यों का अंजाम देना ही चाहेगा। खिलाफत के पक्ष में आंदोलन 1920 के दशक में चला जिसे गांधीजी का पूर्ण समर्थन मिला और जिसने अली बंधुओं को भारतीय मुसलमानों को रहनुमा बना दिया, पर इतने मजबूत जनांदोलन की मौत हो गई, क्योंकि तुर्की के जिस खलीफा संस्था के पक्ष में आंदोलन चलाया जा रहा था उसे मुस्तफा कमाल पाशा ने आधुनिकीकरण की प्रक्रिया में खत्म कर दिया। सिमी को अभी रियाद के व‌र्ल्ड असेंबली आफ मुस्लिम यूथ से आर्थिक सहायता मिलती है और कुवैत के इंटरनेशनल इस्लामिक फेडरेशन आफ स्टुडेंट्स आर्गनाईजेशन से इसके गहरे संबंध है। इसे पाकिस्तान एवं शिकागो स्थित कंसल्टेटिव कमेटी आफ इंडियन मुस्लिम्स से भी आर्थिक मदद मिलती है। हिजबुल मुजाहिदीन,आईएसआई, हुजी तथा कई अन्य आतंकी संगठनों से इसके करीबी रिश्ते माने जाते हैं। सरकारी सूत्रों के अनुसार 1993 में एक सिख की गिरफ्तारी के बाद यह खुलासा हुआ कि विध्वंसक कारनामों को अंजाम देने के लिए आईएसआई ने सिमी काडर, सिख तथा कश्मीरी उग्रवादियों को एक साथ लाने का काम किया। सिमी के 400 अंसार यानी पूर्णकालिक काडर तथा 20 हजार सामान्य सदस्य हैं जिनके बीच वह लोकतंत्र, पंथनिरपेक्षता एवं राष्ट्रवाद के विरुद्ध विषवमन करता है।

सिमी की पृष्ठभूमि से यह साफ हो जाता है कि इसकी विचारधारा और गतिविधियां गैरकानूनी हैं। अनेक आतंकी घटनाओं के लिए इसे जिम्मेदार माना गया है। ऐसे में आखिर उच्च न्यायालय के ट्रिब्यूनल ने इस पर लगे प्रतिबंध को कैसे हटा दिया? यहां एक कानूनी पेंच भी नजर आता है। यदि प्रशासनिक अधिकारी तथ्यों के आधार पर संतुष्ट हैं कि किसी संगठन पर प्रतिबंध लगना चाहिए, क्योंकि उसकी गतिविधियां राष्ट्रविरोधी हैं तो क्या इस संतुष्टि की समीक्षा न्यायालय करेगा? पहले अदालत केवल यह देखती थी कि जो तथ्य हैं वे सही हैं या नहीं? उन तथ्यों के आधार पर किसी निर्णय पर पहुंचना सरकार का काम है और प्रशासनिक संतुष्टि आत्मगत हो सकती है, लेकिन बेरियम मिल मामले में न्यायिक समीक्षा के दायरे को विस्तार देते हुए उच्चतम न्यायालय ने व्यवस्था दी कि अदालत यह भी जांच करेगी कि उन तथ्यों के आधार पर उन निष्कर्र्षो तक पहुंचना कितना सही है? इस पर सवाल उठ सकता है कि यदि प्रशासन के इस तरह के निर्णय की न्यायिक समीक्षा होगी तो अपराध एवं आतंकवाद पर काबू पाना कैसे संभव होगा, किंतु इसका दूसरा पक्ष ज्यादा अहम् है। संविधान हर नागरिक को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मौलिक अधिकार देती है, जिसमें संगठन बनाना भी शामिल है। इस अधिकार में कटौती कुछ खास आधार पर ही की जा सकती है। किसी व्यक्ति के मौलिक अधिकारों की रक्षा करना न्यायपालिका की जिम्मेदारी है। अगर किसी संगठन पर सरकार दुर्भावना या राजनीतिक वजहों से प्रतिबंध लगाती है तो एक निष्पक्ष पंच की हैसियत से न्यायालय उसे खारिज करेगा। ऐसे में आतंकवाद से लड़ने में सबसे जरूरी है कि राजनीतिक नफा-नुकसान की फिक्र न करते हुए सरकार एवं राजनेता राष्ट्रहित में काम करें। दुर्भाग्य से इस मुद्दे पर भी संप्रग एकजुट नहीं हैं। कांग्रेस प्रतिबंध के पक्ष में है जबकि सपा और राजद इसके विरुद्ध। किस हद तक प्रतिबंधों का राजनीतिक इस्तेमाल हो सकता है, इसका एक उदाहरण है यूपी में मायावती के कार्यकाल में शिवपाल सिंह की सिमी कार्यकर्ता के रुप में गिरफ्तारी, जबकि सिमी के संविधान के तहत कोई गैर-मुस्लिम इसका सदस्य नहीं हो सकता। शिवपाल सिंह को इसी आधार पर न्यायालय से तुरंत जमानत मिल गई। स्पष्ट है कि आतंकवाद के विरुद्ध लड़ाई ईमानदारी से होनी चाहिए और न्यायिक कसौटी पर खरे उतरने के लिए तथ्यात्मक आधार भी पुष्ट होने चाहिए। (दैनिक जागरण, ८ अगस्त २००८)

Lalu & Mulayam bats for SIMI

NEW DELHI: Union railway minister Lalu Yadav and Samajwadi Party chief Mulayam Singh Yadav on Wednesday batted for Simi, which the Centre described in the SC as an organisation “preparing students and youth for jihad”. The unwholesome spectacle of the two key leaders of the ruling alliance backing the dreaded outfit came hours after a special Tribunal lifted the ban on Simi. The two leaders said the ban on the organisation should not have been imposed in the first place. Mr Mulayam Singh also recollected how valiantly he had fought for “Simi’s rights” while Uttar Pradesh was under his charge. The two leading lights of the ruling side seemed least concerned about their government’s own stand that lifting of the ban would give a fillip to terror activities. The government has been maintaining that Simi has been providing logistical support to terror attacks on Mumbai local trains, Malegaon, Hyderabad, Bangalore and Ahmedabad. The determination of Mr Lalu Yadav and Mr Mulayam Singh to use Simi for their “community outreach” cannot but be discomforting for the responsible sections in the government as well as the security establishment. Their backing for Simi gave an opportunity for the Opposition to drive home its point that the government and its leadership do not have the political will to contain terror. There is already charge that there utter lack of credibility when it comes to supporting, respecting and leading the fight against terrorism. The security community is naturally appalled by the clean chit for Simi from Mr Lalu Yadav and Mr Mulayam Singh. They said the statements from the leaders only give credence to the allegation that a section of the government leadership fetishes on the rights of terrorists. The principal Opposition party, the BJP, pounced on the decision by the two Yadav chieftains to defend Simi, arguing that it showed how elements within the UPA wanted the government to adopt a soft approach on terrorism. “If leaders such as Mulayam Singh Yadav and Lalu Prasad Yadav come out in open support of Simi, one can only wonder about the government’s resolve to suppress terrorism,’’ BJP general secretary Arun Jaitley said here on Wednesday afternoon. The party also wondered whether the government’s decision to facilitate the lifting of the ban on Simi was part of a quid-pro-quo deal worked out with the Samajwadi Party in return for its support for the trust vote.[7 Aug, 2008, ET Bureau]

देश को झकझोरता जम्मू

जम्मू के आंदोलन को राष्ट्रीय चेतना को झकझोरने वाला बता रहे हैं हृदयनारायण दीक्षित

जम्मू जल रहा है। जम्मू आग की आंच से दिल्ली में दहशत है। प्रधानमंत्री ने सभी दलों के नेताओं के साथ बैठक की। तय हुआ कि सर्वदलीय टीम जम्मू जाएगी, जायजा लेगी, लेकिन इससे होगा क्या? हिंदू भावना के अपमान का लावा अर्से से पूरे देश में सुलग रहा है। पहले प्रधानमंत्री ने राष्ट्रीय संपदा पर मुसलमानों का पहला अधिकार बताया, हिंदू आहत हुए। फिर केंद्र ने श्रीराम को कल्पना बताया, पूरा देश भभक उठा। सरकारें आस्था प्रतीकों का इतिहास बताने का अधिकार नहीं रखतीं। मनमोहन सरकार ने अनाधिकार चेष्टा की। उसने रामसेतु को तोड़ने का आरोप भी राम पर मढ़ दिया गया। हिंदू मन की आग फिर भभकी। हज यात्रियों को ढेर सारी सुविधांए हैं, लेकिन अमरनाथ यात्रियों के विश्राम के लिए दी गई 40 हेक्टेयर जमीन भी अलगाववादियों के बर्दास्त के बाहर हो गई। वे आंदोलन पर उतारू हुए। उनकी बेजा मांग और आंदोलन के विरूद्ध सेना नहीं बुलाई गई। उल्टे केंद्र और राज्य ने आत्मसमर्पण कर दिया, लेकिन जायज मांग वाले जनआंदोलन को कुचलने के लिए सेना भी बुलाई गई। पुलिस बल टूट पड़ा है। क‌र्फ्यू है, देखते ही गोली मारने के आदेश हैं, पुलिस और सेना की फायरिंग है। मीडिया पर पाबंदी है। मौलिक अधिकार रसातल में हैं। अघोषित आपातकाल है बावजूद इसके जनसंघर्ष जारी है।
सर्वदलीय बैठक ने समस्या का सांप्रदायिकीकरण न करने की अपेक्षा की है। सांप्रदायिक तुष्टीकरण की राजनीति ही सारे फसाद की जड़ है। बुनियादी सवाल यह है कि पंथनिरपेक्ष संविधान की पंथनिरपेक्ष सरकारें हज जैसी मजहबी यात्रा पर राजकोष लुटाती हैं तो अमरनाथ यात्रियों को मात्र 40 हेक्टेयर जमीन भी अस्थाई रूप से देने में अलगाववादियों के साथ क्यों खड़ी हो जाती हैं? जम्मू कश्मीर मंत्रिपरिषद ने ही सर्वसम्मति से जमीन देने का निर्णय लिया था। बैठक में कांग्रेस और पीडीपी के मंत्री भी शामिल थे। जमीन का एलाटमेंट अस्थाई था। यात्रा के बाद जमीन वन विभाग को लौट जानी थी। श्राइन बोर्ड वहां अस्थाई विश्राम ढांचा ही बना सकता था, लेकिन अलगाववादियों, पीडीपी और नेशनल कांफ्रेंस आदि ने दुष्प्रचार किया कि बोर्ड कश्मीर के बाहरी 'भारतीयों' के लिए आवास बना रहा है। यह भी कि कश्मीरी लोगों को खत्म करने के लिए यहां इसराइल बनाया जा रहा है। जम्मू कश्मीर विधानसभा में तद्विषयक विधेयक पर कोई विरोध नहीं हुआ। इसलिए सरकारी आदेश की वापसी आसान नहीं थी। केंद्र ने नए राज्यपाल वोहरा को मोहरा बनाया। उन्होंने बोर्ड के अध्यक्ष की हैसियत से जमीन वापस की। उन्होंने बोर्ड का संविधान नहीं माना। संविधान के मुताबिक किसी निर्णय के लिए 5 सदस्यों के कोरम की जरूरत थी। वोहरा ने सारा फैसला अकेले लिया।
भाजपा और आंदोलनकारी राज्यपाल वोहरा की वापसी चाहते हैं। केंद्र ने वोहरा को हटाने की मांग ठुकरा दी है। उसने जमीन वापसी का कोई वादा नहीं किया। केंद्र तुष्टीकरण नीति पर अडिग है। प्रधानमंत्री ने दलीय संवाद बढ़ाया है,लेकिन यह मसला दलीय असहमति या सहमति का राजनीतिक मुद्दा नहीं है। राजनाथ सिंह ने अमरनाथ जनसंघर्ष समिति से सीधी वार्ता का आग्रह किया। उन्होंने इसी मुद्दे पर 11 अगस्त से प्रस्तावित पार्टी के आंदोलन को रोकने की मांग ठुकरा दी। यह मसला समूचे विश्व के हिंदुओं, एशिया महाद्वीप और यूरोप में फैले शिव श्रद्धालुओं की आस्था से जुड़ा हुआ है। शिव विश्व आस्था हैं। लंदन विश्वविद्यालय के इतिहासविद् एएल बाशम ने दि वंडर दैट वाज इंडिया में शिव को शांति, संहार और नृत्य का देवता बताया है। गांधार से प्राप्त सिक्कों में शिव प्रतीक वृषभ पाया गया है। चीनी यात्री ह्वेनसांग ने भी शिव परंपरा की चर्चा की है। सीरिया के शिल्प में वे विद्युत-देवता है। इस सबके हजारों वर्ष पहले वे ऋग्वेद में हैं, यजुर्वेद में हैं, अथर्ववेद में भी हैं।
केंद्र समग्रता में नहीं सोचता। वोट बैंक बाधा है। जम्मू कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है, लेकिन अस्थाई अनुच्छेद 370 के जरिये कश्मीरी अलगाववाद को संवैधानिक मान्यता है। नेहरू ने इस राज्य का अलग प्रधान अलग निशान (ध्वज) और अलग विधान भी माना था। श्यामा प्रसाद मुखर्जी इसी के खिलाफ शहीद हो गये। इसके पहले आजादी (15 अगस्त 1947) के ढाई माह बाद ही पाकिस्तानी कबाइली आक्रमण हुआ। जम्मू कश्मीर का भारत में विलय हुआ। पाकिस्तानी फौजें भीतर तक घुस आर्इं। भारतीय फौजों ने दौड़ाया, पीटा। नेहरू ने युद्धविराम माना। संयुक्त राष्ट्र को मिमियाती अर्जी दी गई। तबसे ही जम्मू कश्मीर राष्ट्रीय समस्या है। पाप कांग्रेस ने किया, सजा पूरे राष्ट्र को मिली। घाटी रक्त रंजित रहती है। पाकिस्तानी सिक्के चलाने के प्रस्ताव आते हैं। पाकिस्तान जिंदाबाद होता है। बावजूद इसके फौज को हुक्म नहीं मिलता, लेकिन अमरनाथ मसले पर आंदोलित हिंदुओं के खिलाफ फौज लगी है। जम्मू का सुख और दुख भारत का सुखदुख है। जम्मू में वैष्णव देवी हैं, अमरनाथ हैं। जम्मू कश्मीर में ही पिप्पलाद हुए। विश्वविख्यात दर्शन ग्रंथ प्रश्नोपनिषद इन्हीं के आश्रम में हुई अखिल भारतीय बहस से पैदा हुआ। जम्मू का संघर्ष राष्ट्रीय उत्ताप है। समस्या को समग्रता में विचार करने की जरूरत है। यही समय है कि अलगाववादी अनुच्छेद 370 के खात्मे पर भी विचार होना चाहिए। जम्मू जनसंघर्ष को व्यापक राष्ट्रीय समर्थन मिला है। सेना और पुलिस की गोलियों से निहत्थों का टकराना ऐतिहासिक कार्रवाई है। बार-बार के अपमान से आहत हिंदू इस दफा टकरा गए हैं। जम्मू निवासी बहुत पहले से उपेक्षित और सरकार पीड़ित हैं। घाटी के अलगाववादी सरकार और प्रशासन पर भारी पड़ते हैं। सरकार उनकी हर बात मान लेती है। जम्मू और लेह के निवासी दोयम दर्जे के नागरिक हैं। निर्वासित कश्मीरी पंडित बिलख रहे हैं। इसलिए इस दफा 'लड़ो और मरो' जैसी स्थिति है। निहत्थे आंदोलनकारी लगभग एक माह से लड़ रहे हैं। आंसूगैस, सरकारी बर्बरता, गोलीबारी, क‌र्फ्यू और सेना की गोली उनमें खौफ नहीं पैदा करते। यहां मनोविज्ञान और वैज्ञानिक भौतिकवाद काम नहीं करता। सबका मन अमरनाथ हो गया है। केंद्र तुष्टिकरण के रास्ते पर है। हिंसक दमन के बावजूद निर्भीक पत्रकार मोर्चे पर हैं। केंद्र दुस्सह दमन और हिंसा को राष्ट्रीय सत्य बनने से रोक रहा है।
मुसलमान भारतीय समाज के अभिन्न अंग हैं। उनके ईद, अजान और कुरान हिंदुओं में सम्मानित हैं लेकिन हिंदुओं की अयोध्या, काशी, मथुरा और वैष्णो देवी तथा अमरनाथ कट्टरपंथियों को अखरते हैं। अमरनाथ यात्रियों पर राकेट तनते हैं? हिंदू बुतपरस्त ही सही, लेकिन अपने सीने में कुरान और पुराण का सम्मान एक साथ लेकर चलते हैं। मलाल है कि मनमोहन सिंह औरंगजेब हो रहे हैं। हिंदू मानस की प्रकृति कुचालक है। समाज के एक हिस्से का संवेदन दूसरे हिस्से तक आसानी से नहीं पहुंचता। यहां राष्ट्रवाद की करेंट है, लेकिन छद्म सेकुलरवाद की बाधाएं हैं। दुनिया के मुसलमान डेनमार्क के कार्टूनिस्ट से खफा थे, भारत के भी हुए। अमरनाथ मामले को लेकर राष्ट्र खफा है, लेकिन गुस्सा यहां फुटकर और वैयक्तिक रहता है। चूंकि बर्दाश्त की हद होती है इसीलिए इस दफा का आंदोलन ऐतिहासिक है और पूरे देश में रोष है। बहुसंख्यक वोटों के धु्रवीकरण के खतरे हैं, पर यह आंदोलन वोटवादी नहीं है। आंदोलनकारियों ने राष्ट्रीय चेतना को झकझोरने का काम पूरा किया है। (दैनिक जागरण, ८ अगस्त २००८)

Thursday, August 7, 2008

उत्तरप्रदेश में पैर पसार रहा है सिमी


तिलखाना। आतंकवादी गतिविधियों के मद्देनजर उत्तरप्रदेश में हाई अलर्ट जारी है लेकिन यहां प्रतिबंधित संगठन सिमी की गतिविधियां जारी है। सिमी लगातार राज्‍य में अपने पैर प्रसार रहा हैं। सिमी पर आतंकवादी संगठनों को मदद किए जाने के आरोप लगाए जाते रहे हैं। सिमी राज्य में अपना प्रसार कर रहा है जिसका जीता जागता उदाहरण नेपाल सीमा के पास तिलखाना में देखने को मिला। यहां की दीवारों पर पेंट से लिख कर सिमी खुले आम निमंत्रण दे रहा है कि ‘सिमी से जुड़ें’। सिमी से जुड़ने का यह निमंत्रण हिंदी और उर्दू दोनों भाषाओं में आसानी से देखने को मिल रहा है। इन इश्तहारों से साफ है कि सिमी अपने संगठन में भर्ती का अभियान चला रहा है।

सीएनएन-आईबीएन के जांच दल ने नेपाल सीमा के पास सिद्धार्थनगर जिले में अल-जामईतुल-इस्लामिया मदरसे का दौरा किया। यहीं से वर्ष 2001 में सिमी से सांठगांठ रखने वाले चार लोगों को पकड़ा गया था। यहां के नए मैनेजर मुश्ताक अहमद और अरबी के अध्यापक अख्तर फलाही से बातचीत की गई। यह एक प्रकार की जांच थी जो छुप कर की जा रही थी। वर्ष 2001 में जिन्हें यहां से गिरफ्तार किया गया था उनमें फलाही और उसका एक साथी अब्दुल अवाल भी शामिल थे। फलाही ने देखते ही कहा कि आशा है कि आप लोग तहलका से तो नहीं है, जैसा गुजरात में हुआ था। फलाही ने बताया कि पुलिस ने हमें फर्जी मामले में गिरफ्तार किया और कहा कि हम सिमी से जुड़े हैं। आज फलाही औऱ अवाल इस मदरसे में फिर से पढ़ा रहे हैं और उनकी वापसी के साथ ही यहां पर सिमी के नारों की वापसी भी हो गई है। भले ही वे अपने आप को गुनहगार नहीं बताए लेकिन सिमी के नारों की वापसी उनके साथ ही हुई है।

तिलखाना के एक निवासी ने बताया कि सिमी के नारे मदरसे के दरवाजों पर, दीवारों पर और यहां तक की गांव के चौराहों पर भी लिखे हुए हैं। जिन अध्यापकों को यहां से गिरफ्तार किया गया था वे आज भी यहां पढ़ा रहे है। कुछ यहां के अध्यापक हिरासत में भी हैं। मदरसे के पूर्व मैनेजर मोहम्मद रउफ ने सिमी की गतिविधियों की चलते यहां से इस्तीफा दे दिया था। सीएनएन-आईबीएन के उनसे बात भी की।

सीएनएन-आईबीएन- कौन- कौन मास्टर शामिल थे?

रउफ- एक मास्टर अब्दुल अवाल है, बताया गया है कि वहीं इसका मुख्य कर्ताधर्ता है और कुछ लड़के शामिल हैं। गांव के अनेक लोग मदरसे के बारे में कुछ भी कहने से डरते है। तिलखाना के एक निवासी अकरम (बदला हुआ नाम) ने बताया कि हम भी मुस्लिम है, लेकिन उन्हें रोकने की ताकत हममें नहीं है क्योंकि हम जानते है कि वे अच्छे लोग नहीं है। भारत नेपाल सीमा पर लगभग 600 मदरसे और मस्जिदें हैं। खुफिया विशेषज्ञों का कहना है कि इनमें से कई मदरसों को पाकिस्तान और पश्चिमी एशिया से आर्थिक सहायता मिल रही है। संघर्ष प्रबंधन संस्थान के निदेशक अजय सहानी का कहना है कि पाकिस्तान के हबीब बैंक, सउदी अरब के इस्लामिक बैंक, कराची के अल-फलाह बैंक जैसे कई इस्लामिक संस्थानों और बैंकों से इन मदरसों को आर्थिक सहायता मिलती है। (सीएनएन-आईबीएन,12 जनवरी २००८)

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नाम बदलकर नेटवर्क चलाएगा सिमी


भोपाल। भारत में आतंकवाद को बढावा देने में भूमिका निभा रहा प्रतिबंधित मुस्लिम छात्र संगठन स्टूडेंट्स इस्लामिक मूवमेंट ऑफ इंडिया (सिमी) बदले हुए सुरक्षा माहौल में दूसरा नाम रख सकता है। उच्च पदस्थ पुलिस सूत्रों ने यह आशंका जताई है। सूत्रों ने बताया कि यह संगठन तहरीक-ए-मिल्लत या आवाज-ए-सूरा नाम से अपनी गतिविधियां चला सकता है। खासकर मध्य प्रदेश में यह संगठन अपना नेटवर्क बढ़ाने के प्रयास में लगा हुआ है। सिमी की मध्य प्रदेश इकाई के पूर्व प्रमुख इमरान अंसारी और एक अन्य कार्यकर्ता अब्बदुल रज्जाक पिछले सप्ताह पुलिस धोखा देने में कामयाब निकल गए। बाद में अंसारी को एक होटल में सिमी समर्थकों और कार्यकर्ताओं की एक बैठक को संबोधित करते हुए पाया गया। पुलिस ने उस ठिकाने पर छापे मारकर उसे गिरफ्तार कर लिया। एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने बताया कि ये दोनों एक खतरनाक साजिश में संलिप्त थे। इंदौर के पुलिस प्रमुख अंशुमन यादव ने बताया कि अंसारी और रज्जाक को हम पकडने में सफल रहे, लेकिन गुलरेज और अख्तर उर्फ चांद जैसे सिमी कार्यकर्ता भागने में सफल रहे।

खबरे अब ऐसी आ रही है कि सिमी दूसरा नाम रखने की तैयारी में है। सितंबर 2001 में प्रतिबंधित किए जाने से लेकर अब तक सिमी बुरहानपुर, गुना, नीमच और शाजापुर जैसे जिलों में अपना नेटवर्क फैला चुका है। प्रतिबंध से पहले इस संगठन की गतिविधियां इंदौर, उज्जैन, खंडवा और भोपाल तक ही सीमित थीं। सिमी का राज्य मुख्यालय इंदौर में है।( इंडो-एशियन न्यूज सर्विस, 07 नवम्बर २००६)

हैदराबाद विस्फोट का शक सिमी पर

हैदराबाद। शुक्रवार को मक्का मस्जिद में हुए विस्फोट के पीछे हरकत-उल-जिहाद-अल-इस्लाम (एचयूजीआई) और स्टूडेंट इस्लामिक मूवमेंट आफ इंडिया (सिमी) का हाथ हो सकता है। यह दावा शनिवार को आंध्रप्रदेश पुलिस ने किया है। हैदराबाद पुलिस आयुक्त बलविंदर सिंह ने सीएनएन-आईबीएन को जानकारी देते हुए कहा कि यह एक आतंकी हमला था। इस हमले के पीछे जेहादी संगठनों का हाथ था। हादसे की जांच की जा रही है और पुलिस के हाथों में कुछ सुराग भी आए हैं।

खुफिया एजेंसियों का कहना है कि इस विस्फोट को करने की तरीका वैसा ही था जैसा मालेगांव विस्फोट का था। इसलिए सिमी का हाथ इस विस्फोट के पीछे होने का संकेत मिलता है। खुफिया एजेंसियों का मानना है कि प्रतिबंधित दीनदार अंजुमन संगठन विस्फोट में सहायता दे सकता है। यह एक प्रतिबंधित संगठन है जिसका संबंध सिमी से था और अब हैदराबाद के आस पास सक्रिय है। आश्चर्य है कि मस्जिद की जिम्मेदारी त्वरित कार्यबल (आरएएफ) की निगरानी में थी। लेकिन दो दिन पहले ही आरएएफ के जवानों के यहां से कहीं और स्थानांतरित किया गया था। इससे भी इस एतेहासिक मस्जिद की सुरक्षा व्यवस्था में छेद होने और लापरवाही बरतने का संकेत मिलता है।

इधर आंध्रप्रदेश पुलिस ने दावा किया है कि उन्होंने खुफिया विभाग की जानकारी के बाद मस्जिद प्रशासन के चेतावनी दी थी कि यहां भी मालेगांव विस्फोट जैसी घटना होने की सम्भावना है। साथ ही पुलिस ने यह भी कहा कि इस चेतावनी पर मस्जिद प्रशासन ने उनकी कोई सहायता नहीं की। आंध्रप्रदेश के मुख्यमंत्री वाई. एस राजशेखर रेड्डी ने कहा कि प्रयोग किया गया बम अत्याधुनिक था और इसे बनाने में आरडीएक्स औऱ टीएनटी का इस्तमाल किया गया था। वे शुक्रवार को घटना स्थल का दौरा करने गए थे। उन्होंने कहा कि हमले के पीछे साम्प्रदायिक लोगों का हाथ था जिसका उद्देश्य शांति और सौहार्द को नुकसान पहुंचाना था।

गृहराज्यमंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल कहा अभी तक किसी भी संगठन ने इस विस्फोट की जिम्मेदारी नहीं ली है। उन्होंने कहा कि निश्चित रूप से इतना तय है कि विस्फोट का उद्देश्य साम्प्रदायिक सदभाव को हानि पहुंचाने का था। हैदराबाद में सुरक्षा को देखते हुए रेड अलर्ट घोषित कर दिया गया है। शहर धीरे-धीरे सामान्य हो रहा है। (19 मई २००७, ibnlive.com)


भारतीयों ने मलेशियाई स्कूल को घेरा

कुआलालंपुर। मलेशिया में करीब 500 भारतीयों ने एक स्कूल के बाहर प्रदर्शन कर अपने बच्चों के साथ हो रहे कथित नस्लभेदी व्यवहार पर आक्रोश व्यक्त किया है। यह घटना मलेशिया के सेलनगोर राज्य के कुआला लंगात के बेंतिंग कस्बे में सोमवार को हुई। भारतीय अभिभावकों ने एसएमके तेलक पेंगलीमा गारेंग के मुख्य द्वार पर एकत्र होकर अपना विरोध प्रकट किया। दो छात्रों ने पुलिस में रिपोर्ट भी दर्ज कराई है। इसमें एक शिक्षक द्वारा कुछ बच्चों की पिटाई किए जाने का आरोप भी लगाया गया है। समाचार-पत्र ‘स्टार’ ने मंगलवार को यह खबर प्रकाशित की है। स्कूल के प्रधानचार्य की गैरमौजूदगी में उसके शिक्षिकों ने पुलिस रिपोर्ट की प्रति ली।

प्रवासी भारतीयों के काम करने वाले स्वयंसेवी संगठन ‘कोएलिशन ऑफ मलेशियन इंडियन’ के सचिव गुनराज जॉर्ज ने कहा कि बच्चों से इस तरह का सुलूक जातीय वैमनस्य और गुटबाजी का नतीजा है। मलेशिया के शिक्षा उपमंत्री वी. सियोंग ने कहा कि आरोप सही मिलने पर उक्त शिक्षक को बर्खास्त कर दिया जाएगा। मलेशिया की कुल आबादी में से आठ प्रतिशत भारतीय हैं। (05 अगस्त 2008 , इंडो-एशियन न्यूज सर्विस)

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जम्मू: महिलाओं-बच्चों ने भी कर्फ्यू तोड़ा,अबतक 8 मृत


जम्मू। जम्मू-कश्मीर में ‘श्री अमरनाथ श्राईन बोर्ड’ (एसएएसबी) को आवंटित भूमि पुन: दिए जाने की मांग को लेकर जारी प्रदर्शनों के दौरान कठुआ जिले में कल भी प्रदर्शनकारियों पर सेना द्वारा चलाई गई गोली से एक व्यक्ति की मौत हो गई। इसी के साथ इस विवाद में मारे गए लोगों की संख्या बढ़कर अब आठ हो गई है।

सूत्रों ने बताया कि सेना की गोलीबारी से नाराज प्रदर्शनकारियों ने मृतक का शव सड़क पर रखकर जम्मू-पठानकोट राष्ट्रीय राजमार्ग पर जाम लगा दिया और वहां धरना देकर बैठ गए जिससे सेना के 50 वाहन वहां फंस गए।

रक्षा प्रवक्ता एसडी. गोस्वामी ने सेना की ओर से की गई गोलीबारी की पुष्टि करते हुए कहा कि कानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए तैनात किए गए कार्यकारी मजिस्ट्रेट के आदेश पर सेना ने गैर कानूनी रुप से पल्ली मोर्च पर एकत्र हुए लोगों पर गोली चलाई, जिससे एक व्यक्ति की मौत हो गई और एक अन्य घायल हो गया।

गोस्वामी ने कहा कि बेकाबू भीड़ ने जम्मू-पठानकोट मार्ग को जाम कर दिया था और पथराव शुर कर दिया, जिससे मजबूर होकर सेना को गोली चलानी पड़ी। मृतक नरेन्द्र सिंह पास के ही गांव का निवासी था तथा उसके पेट में गोली लगी।

इस बीच श्री अमरनाथ श्राइन बोर्ड को भूमि पुन: देने की मांग को लेकर प्रदर्शनकारियों द्वारा जम्मू के कई स्थानों पर कर्फ्यू के उल्लंघन का सिलसिला कल भी जारी रहा। यहां से 13 किलोमीटर दूर नगरोठा में सरकारी कार्यालय को आग लगा रहे प्रदर्शनकारियों पर पुलिस कार्रवाई के दौरान घायल हुए एक युवक को भी गंभीर हालत में अस्पताल में भर्ती कराया गया है।

सांबा से प्राप्त रिपोर्टों में कहा गया कि प्रदर्शनकारियों ने पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी के पूर्व विधायक मंजीत सिंह के आवास पर भी हमला किया। जबकि रायपुर सतवारी क्षेत्र में कर्फ्यू की अवहेलना करते हुए हजारों लोगों ने पुल पर से होकर शहर की तरफ बढ़ने की कोशिश की और जब उन्हें रोका गया तो वे तवी नदी को पार करके शहर में जाने लगे।

इसी तरह महिलाओं और बच्चों सहित हजारों लोगों के अलग-अलग समूहों ने कर्फ्यू का उल्लंघन कर शहर के गांधीनगर, त्रिकुटा नगर, गंगयाल, डिगयाना, बंतलाब और मुठी क्षेत्रों में जुलूस निकाले और बम-बम भोले के नारे लगाए। (वार्ता, अगस्त २००८)