आज आतंकवाद के विरुद्ध युद्ध की बड़ी चर्चा है। अमेरिका इस मुहिम का अगुआ है। इस युद्ध की अधिक चर्चा 11 सितंबर 2001 को अमेरिका के न्यूयार्क और वाशिंगटन जैसे नगरों पर हुए आक्रमण के बाद शुरू हुई। अमेरिका ने उस आतंकवादी हमले को अपने अस्तित्व पर खुली चुनौती माना। इराक और अफगानिस्तान पर अमेरिका और उसके साथी देशों का आक्रमण इसी युद्ध का एक अंग था। संसार के किसी भी भाग में जब कोई आतंकवादी घटना होती है तो कुछ अपवादों को छोड़ कर सभी में ऐसे नाम आते है जो उनके मुसलमान होने की घोषणा करते है। लगता है जैसे आतंकवाद और इस्लाम एक दूसरे के पर्यायवाची हो गए है। इस तथ्य से इस्लामी विद्वान भी परिचित है और उनकी ओर से लगातार यह कहा जाता है कि इस्लाम दहशतगर्दो के खिलाफ है और बेगुनाह लोगों की हत्या करने की इजाजत नहीं देता। पिछले दिनों देवबंद दारूल उलूम जैसी इस्लामी चिंतन की प्रख्यात संस्था ने उलेमाओं का सम्मेलन करके यह घोषित किया कि आतंकवाद की इस्लाम में कोई जगह नहीं है और बेगुनाह लोगों की हत्या करना बड़ा गुनाह है, किंतु ऐसे फतवों का कोई विशेष प्रभाव देखने में नहीं आता। हाल में जयपुर, बेंगलूर, अहमदाबाद में आतंकियों ने कितने ही बम विस्फोट करके अनेक लोगों की हत्या की। ऐसी घटनाएं केवल गैर इस्लामी देशों में ही नहीं हो रही है। पाकिस्तान इस समय संभवत: दहशतगर्दो के निशाने पर सबसे ज्यादा है। सब कुछ इस्लाम के नाम पर, मजहब के नाम पर हो रहा है। पाकिस्तान में तो एक-दूसरे की मस्जिदों में नमाज अदा करते हुए नमाजियों पर गोलियां बरसाई गई है। क्या रमजान के पवित्र मास में मुस्लिम उलेमाओं और बुद्धिजीवियों को इस पर गहन विचार नहीं करना चाहिए कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पूरे मुस्लिम समुदाय की क्या छवि बन रही है? क्या मात्र यह कह देना या फतवा जारी कर देना काफी है कि दहशतगर्दो की इस्लाम इजाजत नहीं देता? क्या किसी भी स्तर पर इसका कोई सार्थक परिणाम निकला है? क्या ऐसे फतवों से इस्लामी आतंकवाद में कुछ कमी आई है? मैं अपनी एक और जिज्ञासा मुसलमान मित्रों के सम्मुख रखना चाहता हूं। किसी भी देश के किसी भी भाग में यदि मुसलमानों का बहुमत है तो वहां आंदोलन इस बात पर है कि उस भाग को अपने देश से काट कर वहां इस्लामी राज्य किसी प्रकार स्थापित किया जाए? मध्य एशिया से जुड़े चीन के उस प्रांत को जिसमें मुस्लिम बहुसंख्यक है, चीन से अलग करने की कोशिश हो रही है। फिलीपींस के एक मुस्लिम बहुल भाग को मुस्लिम उस देश से अलग करने के लिए संघर्षरत है। वे चेचेन्या को रूस के शासन में नहीं देखना चाहते। भारत में मुस्लिम बहुल कश्मीर में आजादी की मांग की जा रही है। भारत का 61 वर्ष पहले विभाजन इसी आधार पर हुआ था। लाखों असहाय लोगों की बलि लेकर वह भाग भारत से अलग हो गया था, जो मुस्लिम बहुल था। इससे क्या यह निष्कर्ष निकाला जाए कि मुस्लिम समुदाय किसी देश में गैर मुसलमानों के साथ मिलकर शांति के साथ नहीं रह सकता? क्या जिस देश के किसी भाग में उनकी जनसंख्या बढ़ जाएगी वहां वे उस क्षेत्र को अलग करके इस्लामी राज्य बनाने की जद्दोजहद प्रारंभ कर देंगे? यदि खुला युद्ध करना उनके लिए संभव नहीं होगा तो क्या वे आतंकवादी मार्ग अपना लेंगे? क्या वे आत्मघाती हमलों में खुद भी मरेगे और निर्दोष लोगों को भी मारेगे? कुछ दिन पहले शबाना आजमी ने यह कहा कि इस देश में मुसलमानों के साथ भेद-भाव होता है, किंतु इसका कारण वह नहीं है जो वे सोचती है। कारण मुसलमानों की आम छवि है। सिख समुदाय को भी इस छवि के साथ वर्षो तक जीना पड़ा है। अस्सी के दशक में सिखों की छवि आतंकवाद के साथ जुड़ गई थी। यह बात फैल गई थी कि ये लोग देश तोड़कर खालिस्तान बनाना चाहते है। इसका परिणाम यह हुआ था कि हिंदू बहुल क्षेत्रों में सिखों को कोई किराए पर मकान नहीं देता था। वे बसों में बैठते थे तो लोग शंका भरी नजरों से उन्हे देखते थे। सिखों को इस छवि को सुधारने में दो दशक से अधिक का समय लग गया।
हिंदू हितों (सामाजिक, धार्मिक एवं राजनीतिक) को प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से प्रभावित करने वाली घटनाओं से सम्बंधित प्रमाणिक सोत्रों ( राष्ट्रिय समाचार पत्र, पत्रिका) में प्रकाशित संवादों का संकलन।
Thursday, September 11, 2008
मुस्लिम समुदाय की समस्या
आज आतंकवाद के विरुद्ध युद्ध की बड़ी चर्चा है। अमेरिका इस मुहिम का अगुआ है। इस युद्ध की अधिक चर्चा 11 सितंबर 2001 को अमेरिका के न्यूयार्क और वाशिंगटन जैसे नगरों पर हुए आक्रमण के बाद शुरू हुई। अमेरिका ने उस आतंकवादी हमले को अपने अस्तित्व पर खुली चुनौती माना। इराक और अफगानिस्तान पर अमेरिका और उसके साथी देशों का आक्रमण इसी युद्ध का एक अंग था। संसार के किसी भी भाग में जब कोई आतंकवादी घटना होती है तो कुछ अपवादों को छोड़ कर सभी में ऐसे नाम आते है जो उनके मुसलमान होने की घोषणा करते है। लगता है जैसे आतंकवाद और इस्लाम एक दूसरे के पर्यायवाची हो गए है। इस तथ्य से इस्लामी विद्वान भी परिचित है और उनकी ओर से लगातार यह कहा जाता है कि इस्लाम दहशतगर्दो के खिलाफ है और बेगुनाह लोगों की हत्या करने की इजाजत नहीं देता। पिछले दिनों देवबंद दारूल उलूम जैसी इस्लामी चिंतन की प्रख्यात संस्था ने उलेमाओं का सम्मेलन करके यह घोषित किया कि आतंकवाद की इस्लाम में कोई जगह नहीं है और बेगुनाह लोगों की हत्या करना बड़ा गुनाह है, किंतु ऐसे फतवों का कोई विशेष प्रभाव देखने में नहीं आता। हाल में जयपुर, बेंगलूर, अहमदाबाद में आतंकियों ने कितने ही बम विस्फोट करके अनेक लोगों की हत्या की। ऐसी घटनाएं केवल गैर इस्लामी देशों में ही नहीं हो रही है। पाकिस्तान इस समय संभवत: दहशतगर्दो के निशाने पर सबसे ज्यादा है। सब कुछ इस्लाम के नाम पर, मजहब के नाम पर हो रहा है। पाकिस्तान में तो एक-दूसरे की मस्जिदों में नमाज अदा करते हुए नमाजियों पर गोलियां बरसाई गई है। क्या रमजान के पवित्र मास में मुस्लिम उलेमाओं और बुद्धिजीवियों को इस पर गहन विचार नहीं करना चाहिए कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पूरे मुस्लिम समुदाय की क्या छवि बन रही है? क्या मात्र यह कह देना या फतवा जारी कर देना काफी है कि दहशतगर्दो की इस्लाम इजाजत नहीं देता? क्या किसी भी स्तर पर इसका कोई सार्थक परिणाम निकला है? क्या ऐसे फतवों से इस्लामी आतंकवाद में कुछ कमी आई है? मैं अपनी एक और जिज्ञासा मुसलमान मित्रों के सम्मुख रखना चाहता हूं। किसी भी देश के किसी भी भाग में यदि मुसलमानों का बहुमत है तो वहां आंदोलन इस बात पर है कि उस भाग को अपने देश से काट कर वहां इस्लामी राज्य किसी प्रकार स्थापित किया जाए? मध्य एशिया से जुड़े चीन के उस प्रांत को जिसमें मुस्लिम बहुसंख्यक है, चीन से अलग करने की कोशिश हो रही है। फिलीपींस के एक मुस्लिम बहुल भाग को मुस्लिम उस देश से अलग करने के लिए संघर्षरत है। वे चेचेन्या को रूस के शासन में नहीं देखना चाहते। भारत में मुस्लिम बहुल कश्मीर में आजादी की मांग की जा रही है। भारत का 61 वर्ष पहले विभाजन इसी आधार पर हुआ था। लाखों असहाय लोगों की बलि लेकर वह भाग भारत से अलग हो गया था, जो मुस्लिम बहुल था। इससे क्या यह निष्कर्ष निकाला जाए कि मुस्लिम समुदाय किसी देश में गैर मुसलमानों के साथ मिलकर शांति के साथ नहीं रह सकता? क्या जिस देश के किसी भाग में उनकी जनसंख्या बढ़ जाएगी वहां वे उस क्षेत्र को अलग करके इस्लामी राज्य बनाने की जद्दोजहद प्रारंभ कर देंगे? यदि खुला युद्ध करना उनके लिए संभव नहीं होगा तो क्या वे आतंकवादी मार्ग अपना लेंगे? क्या वे आत्मघाती हमलों में खुद भी मरेगे और निर्दोष लोगों को भी मारेगे? कुछ दिन पहले शबाना आजमी ने यह कहा कि इस देश में मुसलमानों के साथ भेद-भाव होता है, किंतु इसका कारण वह नहीं है जो वे सोचती है। कारण मुसलमानों की आम छवि है। सिख समुदाय को भी इस छवि के साथ वर्षो तक जीना पड़ा है। अस्सी के दशक में सिखों की छवि आतंकवाद के साथ जुड़ गई थी। यह बात फैल गई थी कि ये लोग देश तोड़कर खालिस्तान बनाना चाहते है। इसका परिणाम यह हुआ था कि हिंदू बहुल क्षेत्रों में सिखों को कोई किराए पर मकान नहीं देता था। वे बसों में बैठते थे तो लोग शंका भरी नजरों से उन्हे देखते थे। सिखों को इस छवि को सुधारने में दो दशक से अधिक का समय लग गया।
Wednesday, September 10, 2008
कप्तानगंज में व्यापक तोड़फोड़, लूटपाट के बाद हिंसा
हमारे कंधरापुर/कप्तानगंज/ बूढ़नपुर संवाददाताओं के अनुसार कप्तानगंज बाजार में हालत दूसरे दिन भी नहीं सुधरे। यहां मंगलवार को भी दो पक्षों ने खुलकर मोर्चा संभाला। जमकर लाठी-डण्डे चले और पथराव हुआ जबकि एक पक्ष ने चाकू, तलवार और तमंचों को लहराकर प्रशासनिक दावे 'सब ठीक है' की पोल खोल दी। इस हिंसा में दोनों पक्षों से नौ लोग घायल हो गये। इस दौरान उपद्रवियों ने एक पीसीओ, एक मुर्गा व्यवसायी तथा एक मांस विक्रेता की दुकान के साथ ही एक मोबाइल की दुकान को भी तहस-नहस कर दिया। बाजार में घंटों पथराव और असलहों का खुला प्रदर्शन देखकर हर कोई सुरक्षित रास्ता पकड़ ले रहा था। सड़क पर घंटों हुए इस उपद्रव को देख पुलिस भी सहम गयी। चन्द मिनट के अन्दर बाजार की सभी दुकानें धड़ाधड़ बंद हो गयीं। उपद्रव की सूचना के बाद पुलिस अधीक्षक विजय गर्ग भी मौके पर पहुंच गये। भारी संख्या में पुलिस और पीएसी बुलानी पड़ी। इसके बाद भी उपद्रवी शांत होने का नाम नहीं ले रहे थे। उपद्रवियों को नियंत्रित करने के लिए पुलिस को मशक्कत करनी पड़ी।
बाजार की सड़कों से लेकर गलियों तक में हर तरफ ईट के टुकड़े बिखरे पड़े थे और दहशत का माहौल था। भारी संख्या में फोर्स के पहुंचने के बाद भी लोग अपने घरों में दुबके रहे। कप्तानगंज थानाध्यक्ष ओपी श्रीवास्तव ने बताया कि उपद्रव के सिलसिले में दोनों पक्षों से 11 लोगों को हिरासत में लिया गया है। उनके अनुसार मंगलवार को हुए उपद्रव की जड़ में मिट्टी के तेल वितरण के दौरान हुआ विवाद रहा है जबकि दूसरी ओर यह भी चर्चा है कि सोमवार को बाजार बंद कराने को लेकर एक पक्ष के लोगों पर दूसरे पक्ष द्वारा फब्तियां कसने के कारण स्थिति विस्फोटक हुई।
प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार कोटेदार योगेन्द्र प्रसाद गुप्ता की दुकान पर मिट्टी के तेल वितरण के दौरान कुछ लोगों ने लालू व सोनू को पीटना शुरू कर दिया और उनके चीखने पर मामले ने दूसरा रूप धारण कर लिया।
आगरा में साम्प्रदायिक संघर्ष,फायरिंग और आगजनी
घटना रात्रि लगभग 9.45 बजे की है। शहीद नगर निवासी मुस्लिम समाज की महिला मीरा हुसैनी चौराहे पर रिक्शे से उतरी। तभी सामने से आते स्कूटर ने उसे टक्कर मार दी। वह घायल हो गई। पास ही खड़ा मुस्लिम समुदाय का एक युवक मौके पर पहुंच उसे उठाने का प्रयास करने लगा। इसी बीच दूसरे समाज के युवक वहां आ गये। उन्होंने महिला को उठाने का प्रयास करते युवक को धुन दिया। टक्कर मारने वाले स्कूटर को क्षतिग्रस्त कर दिया। इसी बीच जानकारी होने पर मुस्लिम समुदाय के लोग वहां पहुंच गये। दोनों पक्ष के बीच विवाद होने लगा। जिसने संघर्ष का रूप ले लिया। दोनों समुदाय आमने-सामने आ गये। उनके बीच पथराव और फायरिंग शुरू हो गई। एक घंटे से अधिक दोनों ओर से ताबड़तोड़ गोलियां चलीं। मौके पर एसएसपी रघुबीर लाल पहुंच गये। उपद्रवियों ने पुलिस पर पथराव कर दिया। जिसमें एसएसपी, एसओ नाई की मंडी, एक मीडियाकर्मी सहित एक दर्जन से अधिक लोग घायल हो गये। पुलिस ने हालात नियंत्रित करने के लिये लगभग 24 राउण्ड गोलियां चलाईं। संघर्ष में दो दुकानों तथा दो घरों को आग के हवाले कर दिया। आग में फंसे लोगों को पुलिस ने किसी तरह बाहर निकाला। पुलिस देर रात तक स्थिति को नियंत्रित करने में जुटी थी। मौके पर पीएसी को तैनात किया गया है।
आगरा के मंटोला में सांप्रदायिक आग ठंडी पड़ी
दबाव में फैसले
यह कहने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि यह सब जो अब हुआ है, थोड़ा पहले भी हो सकता था। सच तो यह है कि अगर वस्तुस्थिति और सत्य को नजरअंदाज करने की बजाय थोड़ी सी ईमानदारी बरती गई होती तो यह नौबत ही नहीं आई होती। न तो जनता को कोई आंदोलन करना पड़ा होता और न जम्मू में कर्फ्यू लगाना पड़ा होता। यही नहीं, अगर थोड़ा और पहले दूरअंदेशी बरती गई होती और वोटबैंक की राजनीति के बजाय राष्ट्रहित एवं जनहित को महत्व दिया गया होता तो घाटी में भी इस मसले को लेकर जो प्रदर्शन हुए और खूनी खेल खेले गए, उनकी नौबत नहीं आई होती। घाटी से लेकर जम्मू तक जो नुकसान न केवल सरकार बल्कि आम जनता को भी उठाना पड़ा है, वह सब नहीं हुआ होता। सरकार को अपने नुकसान का अफसोस न हो, पर जनता को अपने नुकसान का अफसोस जरूर है। इसके बावजूद न चाहते हुए भी वह ऐसा करने के लिए मजबूर थी। यह बात जम्मू के लोगों की समझ में पूरी तरह आ गई थी कि अब अपना वाजिब हक लेने का इसके अलावा कोई रास्ता नहीं बचा है। जिन जम्मूवासियों ने करीब महीने भर की अपनी रोजी-रोटी गंवाई या अपने मकानों-दुकानों का नुकसान झेला, वे किसी से टैक्स वसूल कर अपने निजी नुकसान की भरपाई नहीं कर सकेंगे। यह नुकसान तो खैर, फिर भी वे देर-सबेर पूरा कर लेंगे, पर जिनकी जानें गई है क्या उन्हे कोई लौटा सकेगा?यह सब जो हुआ है क्या इससे पता नहीं चलता कि हमारे राजनेता कितने संवेदनशील है? क्या इससे यह मालूम नहीं हो जाता कि हमारे देश का संविधान जिनके हाथों में है, वे कितने निष्पक्ष और न्यायप्रिय है? जो बात सरकार ने अब मानी है, क्या वही वह पहले नहीं मान सकती थी? अगर अभी सरकार में किसी भी तरह से शामिल कोई भी राजनेता यह कहता है कि सरकार ने जम्मू के लोगों की बातें दबाव में मानी है, तो क्या यह हमारी राजनीतिक न्याय प्रणाली के बेहद कमजोर होने का सबूत नहीं है? यह बात तो साफ है कि दबाव में कभी कहीं न्याय हो ही नहीं सकता है। अब अगर इसे दबाव में हुआ फैसला माना जाए, जो कि यह है भी, तब तो जाहिर है कि यह फैसला गलत है। अगर सही यानी दबाव के बगैर फैसला हुआ है तो फिर जान-माल की जो क्षति हुई है, उसके लिए जिम्मेदार कौन है? क्या यह किसी आपराधिक कृत्य से कम है? बहरहाल, यह फैसला चाहे दबाव में लिया गया हो या बिना दबाव के, पर हकीकत यही है कि हमारे देश में अधिकतम राजनीतिक फैसले दबाव में ही लिए जाते है। बात चाहे श्राइन बोर्ड को जमीन देने की मंजूरी की रही हो, चाहे उसे फिर से वापस लेने या फिर अब दुबारा वही जमीन उसे लौटाने की, फैसले सारे दबाव में ही लिए गए है। यह अलग बात है कि हर बार दबाव अलग-अलग तरह के रहे है।
यह दबाव कैसे प्रभावी होता है, इसे जम्मू-कश्मीर में व्याप्त विसंगतियों से देखा और समझा जा सकता है। यह कौन नहीं जानता है कि घाटी यानी कश्मीर पूरे राज्य का बहुत छोटा सा हिस्सा है। जम्मू और लद्दाख की हिस्सेदारी उससे ज्यादा है। इसके बावजूद राज्य से संबंधित हर फैसले पर इस क्षेत्र की प्रभुता का असर साफ देखा जा सकता है। सरकार के भी बड़े से बड़े फैसले बदलवा देने में यह अपने को सक्षम समझता है और इसे बार-बार साबित करता रहता है। आखिर क्यों? सिर्फ इसलिए कि यहां मुट्ठी भर ऐसे अलगाववादी रहते है, जो राज्य के साथ-साथ केंद्र सरकार को भी शोपीस से ज्यादा कुछ नहीं समझते। इलाके की आम जनता के मानस को चाहे वे रत्ताी भर भी प्रभावित न कर सके हों, पर ढोर-बकरियों की तरह अपने मन मुताबिक जहां चाहे वहां खड़ा करने में उन्हे मुश्किल नहीं होती। क्यों? क्योंकि आम जनता निहत्थी है, जबकि अलगाववादियों के पास अत्याधुनिक बंदूकें है, बम है, ग्रेनेड है, बारूदी सुरंगें है। यही नहीं, परदे के पीछे से कुछ राजनेताओं का संरक्षण भी उन्हे प्राप्त है। अगर ऐसा नहीं है तो क्या कारण है कि घाटी में पाकिस्तान समर्थक नारे लगाए जाते है, पाकिस्तानी झंडे फहराए जाते है और इसकी नोटिस तक नहीं ली जाती है। इस राष्ट्रविरोधी कृत्य को अगर घाटी के जनजीवन का हिस्सा मान लिया गया है तो यह कैसे माना जाए कि यह सब राजनीतिक संरक्षण के बगैर हो रहा है? राजनेता यह क्यों भूल जाते है कि लोकतंत्र में उनकी ताकत जनता से ज्यादा नहीं है?
सच तो यह है कि अगर वे इस बात को याद रखें तो जम्मू-कश्मीर ही नहीं, पूरे देश में कोई दिक्कत नहीं रह जाएगी। कभी वोटबैंक तो कभी निजी स्वार्थो के दबाव में जो फैसले किए जाते रहे है, उनका ही नतीजा है जो पूरे देश में असहिष्णुता बढ़ रही है। जाहिर है, एक समुदाय को खुश करने के लिए अगर दूसरे का हक मारा जाएगा तो वह कितने दिनों तक बर्दाश्त कर सकेगा? और जब शांतिपूर्वक किसी की बात नहीं सुनी जाएगी तो उसके धैर्य का बांध कभी तो टूटेगा ही। जम्मू, गुजरात या अभी उड़ीसा जैसे संकट वस्तुत: ऐसे ही राजनीतिक फैसलों की देन है। राजनेता अगर निजी हितों की तुलना में थोड़ा सा ज्यादा महत्व राष्ट्र और जनहित को देने लगें तो कई समस्याएं अपने आप हल हो जाएंगी। अन्यथा इस बात को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि जम्मू, गुजरात और उड़ीसा सिर्फ संकेत है। सच तो यह है कि अपने मौलिक और न्यायसंगत अधिकारों से वंचित देश की बहुत
बड़ी आबादी के भीतर अत्यंत भयावह ज्वालामुखी का लावा उबल रहा है। उसे अब बहुत ज्यादा दिनों तक गुमराह करना संभव नहीं रह गया है। यह राजनेताओं के सोचने का विषय है कि जिस दिन यह लावा फूटेगा, तब क्या होगा?
मतांतरण अभियान कब तक
उक्त घटना की प्रतिक्रिया में उपजी हिंसा पर वेटिकन से पोप ने प्रतिक्रिया व्यक्त की और इटली की सरकार ने भी भारतीय राजदूत को बुलाकर विरोध जताया। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने स्वदेशी मामले में विदेशी दखल पर वेटिकन और रोम को डपटने के बजाय अपने ही देश पर शर्रि्मदगी का इजहार किया। भारत के कैथोलिक स्कूलों ने उड़ीसा के ईसाई संस्थानों पर जनाक्रोश जनित हमलों के विरोध में हड़ताल की। इन सभी स्कूलों में अधिकाशत: हिंदू बच्चे पढ़ते हैं, लेकिन उनके एक हिंदू संत की हत्या पर स्कूल बंद नहीं हुए। भारत में स्कूलों और बच्चों का राजनीतिक इस्तेमाल चर्च ने शुरू किया है। इसके अलग परिणाम होंगे। वेटिकन को इस पर कोई दुख नहीं हुआ कि शांतिपूर्वक जनसेवा कर रहे एक हिंदू संत की उन कुछ बर्बर तत्वों द्वारा हत्या कर दी गई जिन पर चर्च के संरक्षण का आरोप लगा है। उड़ीसा में किसी भी प्रकार की हिंसा का कोई समर्थन नहीं कर सकता। निर्दोष चाहे हिंदू मारा जाए या ईसाई, वह भारतीय है और उसकी हत्या पर समाज को दुखी होना चाहिए, लेकिन चर्च और दिल्ली की सत्ता ने दुख का भी सांप्रदायीकरण किया। पिछले वर्ष दिसंबर में भी स्वामी लक्ष्मणानंद की हत्या का प्रयास हुआ था, जो विफल रहा। इसके बाद राज्य सरकार और जिला प्रशासन को अनेक बार पत्र लिखकर सुरक्षा उपलब्ध कराने का अनुरोध किया गया, पर राज्य सरकार ने कोई कार्रवाई नहीं की। 9 अगस्त को कंधमाल के पास कुलमाहा गांव में ईसाइयों की एक बैठक हुई जिसमें आल इंडिया क्रिश्चियन काउंसिल के एक कुख्यात अधिकारी ने हिस्सा लिया जो पहले अमेरिकी संसद में भारत के विरुद्ध बयान देने के लिए चíचत रहे हैं। इस अधिकारी की स्वामीजी की हत्या से पहले उड़ीसा में लंबी उपस्थिति के रहस्य की जांच जरूरी है। 13 अगस्त को स्वामीजी की हत्या की धमकी वाला पत्र चक्कपाद आश्रम में मिला। इसका स्थानीय समाचार-पत्रों में व्यापक प्रचार हुआ और राज्य सरकार को भी इसकी सूचना दी गई, लेकिन पुलिस-प्रशासन ने कोई कार्रवाई नहीं की।
स्वामी लक्ष्मणानंद इस क्षेत्र में समाज सुधारक के नाते जाने जाते थे। जनजातियों से शराब, तंबाकू की आदत छुड़वाना, साफ-सुथरे रहकर भगवद् चिंतन और उच्च शिक्षा की ओर प्रवृत्ता करना उनके मुख्य योगदान थे। उन्होंने जनजातीय क्षेत्र में संस्कृत विद्यालय की स्थापना की। आर्थिक विकास, चिकित्सकीय सहायता जैसे अनेक प्रकल्प आज भी स्वामीजी के प्रयासों से चल रहे हैं। उनकी हत्या से किसे लाभ हो सकता था? स्थानीय ईसाई तत्वों ने उनकी हत्या के बाद प्रचारित किया कि माओवादी-नक्सली तत्वों ने उन्हें मारा है। जब माओवादियों की ओर से स्थानीय प्रेस को अधिकृत बयान दिया गया कि इस हत्या में उनका कोई हाथ नहीं है तब यह भ्रामक प्रचार रुका। वस्तुत: दुनिया में ईसाइयत ने सर्वाधिक रक्तरंजित बर्बरता जनजातीय समाज पर ही करते हुए उन्हें मतांतरित किया। 1493 में कोलंबस ने भारत की खोज के भ्रम में अमेरिका खोजा। कोलंबस के समय अमेरिका और कैरेबियन में 10 करोड़ जनजातीय लोग थे। उसके बाद सिर्फ सौ वर्ष के कालखंड में सात करोड़ लोग बर्बरतापूर्वक मार डाले गए। क्यूबा, प्यूर्टोरिको और जमैका के 30 लाख जनजातीय लोग 50 वर्ष के कालखंड में सिर्फ 200 रह गए। । ब्राजील, आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड के जनजातीय समाज को भी इसी प्रकार या तो मार डाला गया या ईसाई बनाया गया।
चर्च आक्रामकता के साथ हिंदू देवी-देवताओं के प्रति अभद्र प्रचार करते हुए हर संभव साधन से हिंदुओं के मतांतरण में जुटता है तो उस कारण सामाजिक विखंडन पैदा होता है। स्वेच्छा से कोई किसी भी आस्था को माने तो कभी किसी को आपत्तिनहीं होती, लेकिन छल-बल से हिंदू जनसंख्या घटाने का षड़यंत्र प्रतिक्रिया पैदा करता है। आक्रामक ईसाइयत केवल हिंदू और बौद्ध देशों तक ही क्यों सीमित है-इस्लामी देशों में क्यों नहीं? हिंदुओं की सर्वपंथ समभाव की धर्मनीति का सम्मान करने के बजाय उनके मतांतरण का अभियान क्यों किया जाता है?
Tuesday, September 9, 2008
फसाद की जड़ धर्मांतरण
उड़ीसा दंगों में ईसाई संगठन दोषी: रिपोर्ट
“जस्टिस ऑन ट्रायल” की जांच समिति के अध्यक्ष और राजस्थान के अतिरिक्त महाधिवक्ता सरदार जीएस. गिल ने आज यहां एक प्रेस वार्ता में कहा कि उड़ीसा में धर्मपरिवर्तन रोकने के लिए सन 1967 में बनाए गए सख्त कानून के बावजूद ईसाई मिशनरी संस्थाएं प्रलोभन से भोलेभाले आदिवासियों का धर्मपरिवर्तन करा रही हैं, जिससे समय-समय पर तनाव पैदा होता रहता है।
उन्होंने कहा कि उड़ीसा के हिन्दू नेता स्वामी लक्ष्मणानन्द सरस्वती ने एक साक्षात्कार में स्वंय कहा था कि मिशनरी तत्व उन पर आठ बार हमला कर चुके हैं। नौवें हमले में गत महीने उनकी मौत हो गई थी।
जांच समिति ने हिन्दू नेता पर हुए हमले के लिए माओवादियों को जिम्मेदार ठहराए जाने के बारे में कहा कि ऐसा कोई ठोस कारण नहीं है कि माओवादी स्वामी जी की जान लें।
जांच समिति ने कहा कि इस बात की छानबीन होनी चाहिए कि क्या हिन्दू विरोधी ताकतों ने माओवादियों के जरिए इस अपराध को अंजाम दिया है।
जांच समिति में पंजाब के पूर्व पुलिस महानिदेशक पीसी. डोगरा, राष्ट्रीय महिला आयोग की पूर्व सदस्य नफीसा हुसैन, सामाजिक कार्यकर्ता कैप्टन एमके. अंधारे और रामकिशोर पसारी शामिल थे।
कंधमाल में पिछले वर्ष भी दिसम्बर में हुई घटनाओं की जांच के लिए समिति के सदस्यों ने विभिन्न स्थानों का दौरा कर अपनी रिपोर्ट जारी की थी। समिति के सदस्यों का मानना है कि इस रिपोर्ट में साम्प्रदायिक और सामाजिक तनावों के मूल कारणों का उल्लेख है, जिन्हें दूर करके ही इस क्षेत्र में शांति और सद्भाव कायम किया जा सकता है।
Monday, September 8, 2008
उड़ीसा में इटली का दखल
उड़ीसा की हिंसक घटनाओं के पीछे मतांतरण की भूमिका देख रहे हैं बलबीर पुंज
दैनिक जागरण ,१ सितम्बर २००८ , उड़ीसा के कंधमाल जिले की हिंसा पर इटली सरकार द्वारा विगत गुरुवार को व्यक्त की गई आपत्ति न केवल राजनयिक मर्यादा का अतिक्रमण है, बल्कि ईसाइयत का साम्राज्यवादी चेहरा भी बेनकाब करती है। 80 वर्षीय स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती और उनके सहयोगियों की हत्या एवं उसकी प्रतिक्रिया में जो हिंसा हुई वह निंदनीय है, किंतु इसके पीछे चर्च की दशकों पुरानी मतांतरण गतिविधियां जनाक्रोश का सबसे बड़ा कारण हैं। ये हिंसक घटनाएं भारत का आंतरिक मसला हैं और किसी समुदाय विशेष के विरुद्ध राज्य सरकार द्वारा पोषित नहीं हैं। विगत गुरुवार को इटली सरकार ने कैबिनेट की बैठक के बाद भारतीय राजदूत को तलब कर भारत में मजहबी हिंसा रोकने का निर्देश देने का फैसला लेने संबंधी बयान जारी किया है। इसके एक दिन पूर्व पोप ने भी हिंसा की कड़ी निंदा की थी।
वस्तुत: इटली सरकार की निराधार प्रतिक्रिया उसके राजनीतिक पतन और गिरते सामाजिक मापदंडों को ही रेखांकित करती है। इटली की सरकार नवफासीवादियों पर आश्रित है, जिनका मुख्य एजेंडा विदेशी द्वेष और अप्रवास विरोधी है। आश्चर्य नहीं कि रोम के नए मेयर का स्वागत मुसोलिनी की तरह होता है। नवफासीवादी युवा इटली रोमन कैथोलिक के अनुयायी हैं और उन्हें मुस्लिम-यहूदियों सहित प्रोटेस्टेंट ईसाइयों की उपस्थिति से भी नफरत है। इसके विपरीत ईसाई मत में दीक्षित और इटली में जन्मी-पलीं सोनिया गांधी सत्तापक्ष की सर्वोच्च नेता हैं। इस पृष्ठभूमि में इटली सरकार द्वारा भारत को सहिष्णुता का उपदेश देना शैतान के मंत्रोच्चार करने जैसा है। इटली की सरकार ने जो अनावश्यक हस्तक्षेप करने की कोशिश की है उसका भारतीय सत्ता अधिष्ठान की ओर से कड़ा प्रतिवाद किया जाना चाहिए। क्या इस सेकुलर सरकार से देश के आत्मसम्मान की रक्षा के लिए किसी पहल की अपेक्षा की जा सकती है? पोप दुनियाभर के इसाइयों के संरक्षक माने जाते हैं, इसलिए कुछ हद तक उनकी प्रतिक्रिया स्वाभाविक है, किंतु भारत के संदर्भ में उन्होंने एकपक्षीय तथ्यों के आधार पर प्रतिक्रिया व्यक्त कर चर्च की मतांतरण गतिविधियों को ढकने का प्रयास किया है। चर्च भारत में वैसे इलाकों में ज्यादा सक्रिय है जहां आर्थिक व शैक्षिक पिछड़ापन है। बहुधा चर्च स्थानीय मान्यताओं, परंपराओं व प्रचलित आस्थाओं पर भी आघात कर अपना प्रसार करने की कोशिश करता रहा है। यह हिंदूनिष्ठ संगठनों का मिथ्या आरोप नहीं है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद मतांतरण की ऐसी शिकायतें मिलने पर मध्य प्रदेश की कांग्रेसी सरकार द्वारा 14 अप्रैल 1955 में गठित 'नियोगी समिति' ने इस कटु सत्य को रेखांकित किया था। समिति की प्रमुख संस्तुतियां थीं-मतांतरण के उद्देश्य से आए विदेशी मिशनरियों को बाहर निकाला जाए, चिकित्सा व अन्य सेवाओं के माध्यम से मतांतरण को कानून बनाकर रोका जाए, बल प्रयोग, लालच, धोखाधड़ी, अनुभवहीनता, मानसिक दुर्बलता का उपयोग मतांतरण के लिए नहीं हो, किसी भी निजी संस्था को सरकारी स्त्रोतों के अलावा विदेशी सहायता प्राप्त करने की अनुमति नहीं मिले।
स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती 1966 में कंधमाल आए और तब से वह अशिक्षित-पिछड़े वनवासियों के उत्थान में संलग्न थे। उन्होंने पिछड़े आदिवासियों के मतांतरण के मिशनरी प्रयासों का प्रखर विरोध किया। उन्होंने गोवध के खिलाफ भी मुहिम छेड़ रखी थी। 1970 के बाद से वह चर्च के निशाने पर थे। विगत दिसंबर माह में भी उन पर कातिलाना हमला हुआ था। उसकी प्रतिक्रिया में हिंसक वारदातें भी हुईं। तब दिल्ली से जांच के लिए उड़ीसा गए मानवाधिकार आयोग के प्रतिनिधियों ने हिंसा के लिए केवल हिंदू संगठनों को कसूरवार ठहराया। केंद्रीय गृहमंत्री शिवराज पाटिल का दौरा केवल ईसाई गांवों तक ही सीमित रहा। उन्होंने ब्राह्मणदेई, जलेसपेटा, तुमुड़ीबंध, बालीगुडा और बाराखंबा गांवों का दौरा नहीं किया, जहां ईसाई हमलावरों द्वारा हिंदू मंदिरों को तोड़ा गया। ईसाई हमलावरों के डर से कटिंगिया व आसपास के दस गांवों के हिंदू ग्रामीण जंगलों में जा छिपे थे। उन्हें सुरक्षा का भरोसा दिलाने की चिंता शिवराज पाटिल को नहीं हुई। सेकुलर मीडिया में भी चर्चों पर हुए हमलों की तो खूब चर्चा हुई थी, किंतु मंदिरों और हिंदुओं पर किए गए हमलों की खबर गायब ही रही। यदि तब तटस्थतापूर्वक जांच की जाती और चर्च पर कड़ी कार्रवाई की जाती तो संभवत: आज यह स्थिति पैदा ही नहीं होती। यह कहना कि हत्या के पीछे नक्सलियों-माओवादियों का हाथ है, सत्य से आंख मूंदना है। उड़ीसा में सक्रिय अधिकांश माओवादी-नक्सली नवमतांतरित ईसाई ही हैं। त्रिपुरा में अगस्त 2000 में स्वामी शांतिकाली जी महाराज की भी हत्या की गई थी। शांतिजी भी वनवासी इलाकों में चलाए जा रहे मतांतरण कार्यक्रमों के प्रखर आलोचक थे। तब तत्कालीन मुख्यमंत्री ने हत्या में बैप्टिस्ट चर्च के शामिल होने की बात स्वीकारी थी। पूर्वोत्तार के ईसाई बहुल क्षेत्र हों या अन्यत्र, जहां कहीं भी अलगाववाद की समस्या है उसके पीछे मतांतरण एक बड़ा कारक है।
मतांतरण के संबंध में स्वामी विवेकानंद ने कहा था, ''जब हिंदू समाज का एक सदस्य मतांतरण करता है तो समाज की संख्या कम नहीं होती, बल्कि समाज का एक शत्रु बढ़ जाता है।'' आज कश्मीर में जो हो रहा है वह इस कटु सत्य को रेखांकित करता है। आश्चर्य नहीं कि वैदिक हिंदू दर्शन के साक्षी कश्मीर में आज पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे लग रहे हैं और भारत की मौत की कामना की जा रही है।
लक्ष्मणानंदजी की हत्या में चर्च शामिल हो या नक्सली-माओवादी, मैं मतांतरण से पैदा होने वाली विषाक्त मानसिकता को मुख्य कसूरवार मानता हूं, जो बहुलतावादी संस्कृति की धुर विरोधी है। कंधमाल की हिंसा में जहां चर्च की बड़ी भूमिका है वहीं सेकुलरवादियों की कुत्सित नीतियों का भी बड़ा योगदान है। उड़ीसा की दो आदिवासी जातियों-कंध और पण में पिछले कुछ समय से आरक्षण को लेकर संघर्ष चरम पर है। कंध जनजाति के लोग अपनी संस्कृति और आस्था के प्रति खासे जागरूक हैं, जबकि अधिकांश पण आदिवासियों ने ईसाइयत स्वीकार कर ली है। मतांतरण के बाद अनुसूचित जाति को मिलने वाले आरक्षण से वंचित हो जाने के बाद पण समुदाय कंध की तरह अनुसूचित जनजाति का दर्जा पाने की मांग कर रहा है, जिसका समर्थन चर्च कर रहा है। विदेशी धन से पोषित फूलबनी कुई जनकल्याण संघ इस फसाद का सूत्रधार है। संप्रग सरकार द्वारा गठित रंगनाथ मिश्रा आयोग द्वारा सभी मतांतरितों को आरक्षण देने की संस्तुति के बाद कंध सहित अन्य हिंदू अनुसूचित जाति-जनजाति को यह भय सताने लगा है कि उनके हक का आरक्षण लाभ पण उड़ा ले जाएंगे। स्वयं पण भी चर्च की शरण में आने के बावजूद ठगा सा महसूस कर रहे हैं। चर्च की शरण में आने के बावजूद उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया है। उड़ीसा की हाल की हिंसक घटनाओं की तह में छल-कपट और फरेब के बल पर चर्च द्वारा चलाया जा रहा मतांतरण अभियान है, जिसे सेकुलरिस्टों का प्रत्यक्ष और परोक्ष समर्थन प्राप्त है।
उड़ीसा: विहिप नेता समेत चार की हत्या
फुलबनी स्थित चकपाड़ा आश्रम के संस्थापक स्वामी सरस्वती आश्रम में गए थे, तभी हमलावरों ने उन पर अंधाधुंध गोलियां चलानी शुरू कर दीं, जिससे चार अन्य सहित उनकी मौके पर ही मृत्यु हो गई। राज्य के पुलिस महानिदेशक गोपाल नन्दा ने घटना की पुष्टि करते हुए बताया कि मारे गए चार अन्य की पहचान अभी नहीं हो सकी है। उन्होंने कहा कि यह घटना संदिग्ध नक्सलियों की हो सकती है और इसका पता लगाया जा रहा है।
स्वामी सरस्वती ने हाल ही में प्रेस को जारी एक बयान में आरोप लगाया था कि आदिवासी बहुल फुलबनी जिले में माओवादियों के ईसाई मिशनरियों के साथ मिल जाने से उनके जीवन को खतरा है।