आतंकवाद के संदर्भ में मुस्लिम समुदाय को गुमराह करने वाले वक्तव्यों से सतर्क रहने की सलाह दे रहे हैं राजनाथ सिंह सूर्य
दैनिक जागरण १५ अक्तूबर २००८, जब कभी आतंकी घटनाओं के संदर्भ में पुलिस की धरपकड़ तेज होती है तब यह बयान बार-बार दोहराया जाता है कि मुसलमानों को आतंकवाद से नहींजोड़ा जाना नहीं चाहिए, मुसलमान आतंकवादी नहीं हैं, इस्लाम में आतंक या अतिवादी कार्रवाई की इजाजत नहीं है आदि-आदि। वर्षों से इस प्रकार की अभिव्यक्ति सुनते रहने के कारण यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उठता है कि कौन है जो सभी मुसलमानों को आतंकवादी मान रहा है या फिर इस्लाम को आतंक से जोड़ रहा है? यूरोपीय देशों में आतंकी घटनाओं के बाद 'इस्लामी टेररिस्ट' शब्द का प्रयोग हुआ है। इसकी वजह यह है कि इस प्रकार की घटनाओं को अंजाम देने के सूत्रधार चाहे पहले लीबिया के गद्दाफी रहे हों या अब ओसामा बिन लादेन-सभी ने अपने को इस्लाम का अलंबरदार घोषित किया। यूरोप और अमेरिका में इस्लाम के अनुयायियों को संदेह की दृष्टि से देखा जाने लगा। बावजूद इसके चाहे अमेरिका हो या इंग्लैंड अथवा यूरोप के अन्य देश, न तो इस्लाम के नाम से पहचाने जाने वाले सभी संगठनों को गैर-कानूनी घोषित किया गया है और न इस्लामी देशों के समान गैर-इस्लामी आस्था वालों पर लगे प्रतिबंधों का अनुशरण किया गया है। जिन संगठनों ने स्वयं ही आतंकी घटनाओं को अंजाम देने का दावा किया या सबूत मिले उन्हें अवश्य प्रतिबंधित किया गया तथा उस देश के कानून के मुताबिक उनके विरूद्ध कार्रवाई भी की गई। पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ ने अपने देश के आतंकी संगठनों के विरुद्ध अमेरिकी सैन्य कार्रवाई का समर्थन किया। पिछले तीन दशक से इस्लामी आस्था पर कथित आघात के प्रतिशोध में हो रही आतंकी घटनाओं में जितने लोग मारे गए हैं उतने तो किसी युद्ध में भी नहीं मारे गए। इस प्रकार के जुनून वालों के हमले से सबसे पवित्र तीर्थ माना जाने वाला मक्का भी महफूज नहीं रहा। धीरे-धीरे अनेक देश, जिनमें इस्लामी देश भी शामिल हैं, इस प्रकार की घटनाओं को अंजाम देने वालों के खिलाफ कठोर कार्रवाई के पक्ष में खड़े हो गए हैं।
भारत में आतंकी घटनाओं की पृष्ठभूमि अलग है। पाकिस्तान और बांग्लादेश, दोनों देशों के सत्ता प्रतिष्ठान अपने मंसूबों की पूर्ति के लिए इस प्रकार की घटनाओं को अंजाम देते रहे हैं। अब इन घटनाओं में भले ही 'देशी' लोगों की ही मुख्य भूमिका हो, लेकिन सूत्रधार का काम पाकिस्तान और बांग्लादेश ही कर रहे हैं। भारत में वांछित अपराधियों को संरक्षण देने, आतंकी भेजने, आतंकी घटनाओं को अंजाम देने वालों को प्रशिक्षित कर उन्हें विस्फोटक तथा धन मुहैया कराने, घुसपैठ कराकर आबादी का संतुलन बिगाड़ने, जाली नोटों का जखीरा भेजने आदि सभी कामों को पाकिस्तान की गुप्तचर संस्था आईएसआई कर रही है। इसके ढेरों सबूत हैं। यह संस्था न केवल मजहबी समानता का जुनून पैदाकर मुस्लिम युवकों को गुमराह कर रही है, बल्कि उल्फा एंवं नक्सलवादियों जैसे उग्र अथवा पृथकवादी संगठनों को सभी प्रकार की सहायता दे रही है। पंजाब की जागरूक जनता ने अपने राज्य में आईएसआई की इस साजिश का सफलता से मुकाबला किया। देश के अन्य भागों में उस साहस और सोच का अभाव है। शायद यही कारण है कि जब भी आतंकी घटना के आरोप में गिरफ्तारी होती है, यह शोर मचाने वाले सक्रिय हो जाते हैं कि सभी मुसलमानों को आतंकी न कहा जाए। प्रश्न वही उठ खड़ा होता है कि यह भावना कौन फैला रहा है? न तो किसी राजनीतिक दल ने, न किसी सरकार ने, न प्रशासन ने और न ही किसी हिंदूवादी संगठन ने एक बार भी सभी मुसलमानों के आतंकवाद से जुड़े होने की अभिव्यक्ति की है। यह अभिव्यक्ति मुस्लिम समुदाय का नेतृत्व करने वालों द्वारा भी कभी-कभार ही की जाती है, लेकिन सेकुलरिज्म का जामा पहनकर सांप्रदायिकता के लिए खाद-पानी मुहैया कराने वाले बार-बार इस प्रकार का बयान देकर उन लोगों के मन में भी शंका पैदा करने का काम करते हैं जिनकी इस प्रकार की सोच नहीं है।
न तो मुसलमान आतंकी हैं, न पृथकतावादी, लेकिन आतंकी घटनाओं में शामिल होने के आरोप में जो भी पकड़े गए हैं वे मुसलमान हैं और पाकिस्तानी झंडा हाथ में लेकर कश्मीर घाटी में 'आजादी' की मांग करने वाले भी मुसलमान हैं। जिस प्रकार 1984 के बाद कुछ सालों तक सभी सिख संदेह की नजर से देखे जाते थे उसी प्रकार आजकल की घटनाओं के कारण सभी मुसलमानों के प्रति ऐसी धारणा का प्रभाव संभव है। क्या सिखों के प्रति उस समय बनी धारणा कायम रह सकी? नहीं। सिर्फ इसलिए, क्योंकि स्वयं सिख समुदाय ने आतंकियों से निपटने में जनसहयोग दिया। इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि उस अभियान में निर्दोष नहीं सताए गए, लेकिन ऐसा जानबूझकर किया गया, यह आरोप नहीं लगाया गया। हम कैसे देश में रह रहे हैं, जहां सरकार आतंकी कार्रवाई से निपटने के लिए कड़े कानून बनाने की बात कर रही है, आतंकियों को मारने या पकड़ने में सफलता का दावा कर रही है और जिस पार्टी की सरकार है वह फर्जी मुठभेड़ का दावा करने वालों की कतार में खड़ी होकर न्यायिक जांच कराने की मांग कर रही है। किसी भी 'अल्पसंख्यक' आयोग ने कश्मीर से बेघर किए गए हिंदुओं की दशा पर वक्तव्य तक मुनासिब नहीं समझा। मुठभेड़ की न्यायिक जांच की मांग करने वालों ने एक बार भी पाकिस्तानी झंडा लहराते हुए आजादी की मांग करने को देशद्रोह बताने का साहस नहींकिया। अहमदाबाद की घटनाओं के बाद आजमगढ़ का एक इलाका आतंकियों के गढ़ के रूप में प्रगट हुआ, लेकिन इसका खुलासा तो उस अबुल बशर ने ही किया जिसे आतंकी वारदात के संदर्भ में पकड़ा गया। जो लोग इंस्पेक्टर मोहनचंद्र शर्मा की शहादत पर सवाल खड़े करते हैं या संसद पर हमले के दोषसिद्ध आरोपी अफजल की पक्षधरता करते हैं वे मुस्लिमों के हितचिंतक नहींहो सकते। मुसलमानों को आत्मचिंतन करना होगा। वे भयादोहन करने वालों से जितना परहेज करेंगे उतना ही पाकिस्तान के मंसूबे ध्वस्त होंगे।