श्री अमरनाथ श्राइन बोर्ड जमीन मामले के प्रति केंद्र की उदासीनता को घातक मान रहे हैं निशिकान्त ठाकुर
श्री अमरनाथ श्राइन बोर्ड को अस्थायी निर्माण के लिए भूमि के आवंटन और फिर अलगाववादी एवं सांप्रदायिक ताकतों के दबाव में उसके निरस्तीकरण के मसले पर जम्मू में अब हालात विस्फोटक हो चुके है। आने वाले दिनों में क्या हो जाए, कुछ कहा नहीं जा सकता। ध्यान रहे, इसी मसले पर इंदौर में उग्र प्रदर्शन हो चुके है। यहां तक कि कर्फ्यू लगाने की नौबत भी वहां आ चुकी है। देश के दूसरे शहरों में भी इस पर शांतिपूर्ण तरीके से असंतोष जताया जा चुका है। यह अलग बात है कि शांतिपूर्ण ढंग से विरोध जताने का अब किसी सरकार के लिए कोई मतलब नहीं रह गया है। शायद यही वजह है कि जम्मू में इस मामले ने इतना तूल पकड़ा और आखिरकार यह भयावह रूप लिया। हालांकि शुरुआती दौर में वहां भी जनता शांतिपूर्ण ढंग से ही विरोध प्रदर्शन कर रही थी, पर जब पुलिस ने बल प्रयोग किया और श्री अमरनाथ संघर्ष समिति के शहीद कार्यकर्ता कुलदीप वर्मा के शव के साथ बदसलूकी की तो जनता इसे बर्दाश्त नहीं कर सकी। अब अगर लोग यह सवाल उठा रहे है कि क्या बार-बार और हर तरह से अपमानित किए जाना ही जम्मू-कश्मीर के हिंदुओं की नियति है, तो इसे गलत नहीं कहा जा सकता है।
एक मामूली भूखंड, जो साल में नौ-दस महीने तो बर्फ से ढके रहने के कारण किसी काम लायक नहीं रहता, को लेकर शुरू हुआ यह मसला अब जम्मू के लोगों की अस्मिता का सवाल बन चुका है। इस पूरे मामले और जम्मू-कश्मीर के राजनीतिक-सामाजिक इतिहास पर नजर डालें तो जाहिर हो जाता है कि श्राइन बोर्ड को भूमि आवंटन व निरस्तीकरण तथा कुलदीप के शव के अपमान के मसले ने इसमें सिर्फ घी या पेट्रोल का काम किया है। असल आग बहुत पहले से सुलगती आ रही है। तबसे जबसे जम्मू संभाग ने यह महसूस किया कि राजनीतिक तौर पर उसके साथ लगातार पक्षपात होता चला आ रहा है। यह पक्षपात उसके साथ केवल इसलिए हो रहा है कि जम्मू संभाग हिंदू बहुल है और वहां की सरकार को वहां हिंदुओं का होना ही खटक रहा है। अगर ऐसा नहीं है तो क्या कारण है कि दो राजनीतिक दलों द्वारा वहां के संविधान से 'धर्मनिरपेक्ष' शब्द बाकायदा अभियान चला कर हटवाया गया। राज्य में शरीयत कानून लागू करने संबंधी विधेयक को मंजूरी भी इन्हीं राजनीतिक दलों के कारण मिली थी। हद तो यह है कि ये दोनों दल इसके बाद भी खुद को धर्मनिरपेक्ष बताते है।
आज जम्मू की जनता बार-बार सवाल उठा रही है कि श्राइन बोर्ड को अस्थायी तौर पर भूमि आवंटन को लेकर कश्मीर में अलगाववादियों ने तोड़फोड़ से लेकर आगजनी तक सब कुछ कर डाला और तब भी वहां कर्फ्यू नहीं लगाया गया। जबकि यहां शांतिपूर्ण प्रदर्शन को उग्र होने के लिए मजबूर पुलिस ने किया और कर्फ्यू भी लगा दिया। इंसाफ का यह कौन सा तरीका है? क्या इससे अलग-अलग संभागों के बीच फर्क करने की सरकारी नीति उजागर नहीं होती है? जम्मू के लोगों का आरोप है कि आवंटित जमीन सिर्फ इसलिए वापस ली गई ताकि कश्मीर के अलगाववादी और पाकिस्तानपरस्त ताकतों को संतुष्ट किया जा सके। जम्मू के प्रदर्शनकारियों के साथ बर्बरतापूर्ण व्यवहार भी इसीलिए किया गया। इसमें कोई दो राय नहीं है कि पुलिस ऐसा बर्बरतापूर्ण दमन तब तक कर ही नहीं सकती जब तक कि उसे सरकार की ओर से इसके लिए शह न मिली हो। अब यह बात सिर्फ जम्मू ही नहीं, पूरे देश के लोग कह रहे है और यह घटना पूरे देश में असंतोष का कारण बन रही है। इस मामले में राज्यपाल एन.एन. वोहरा की भूमिका को सबसे महत्वपूर्ण माना जा रहा है और इसीलिए जनता में उनके खिलाफ बेहद आक्रोश है।
सच तो यह है कि जायज मांगों को लेकर उठे जनाक्रोश को बहुत दिनों तक दबाया नहीं जा सकता है। अभी भले ही वहां गईं उमा भारती व ऋतंभरा जैसी नेताओं को बोलने भी नहीं दिया गया, पर जनता को बहुत दिनों तक दबाया नहीं जा सकेगा। इसके लिए संघर्ष में रोज कई लोग घायल भी हो रहे है। लोगों के आक्रोश का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि अब तक सात लोग इस आंदोलन में शहीद हो चुके हैं, फिर भी लोग कर्फ्यू तोड़ कर धरना-प्रदर्शन कर रहे हैं। इस आंदोलन को दबाने के लिए पुलिस किस हद तक जा रही है इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि पत्रकारों को भी काम के लिए आने-जाने नहीं दिया जा रहा है और प्रेस फोटोग्राफरों के कैमरे तक तोड़ दिए जा रहे है। कुल मिलाकर इमरजेंसी जैसे हालात बना दिए गए है। इसके बावजूद जनता की शक्ति और जज्बे का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि ऐसे समय में जबकि दुकानें नहीं खुल रहीं है और लोगों को खाने-पीने की चीजें भी नहीं मिल पा रही है, तो भी भारी भीड़ प्रदर्शन के लिए निकल रही है और इसमें बच्चे-बूढ़े व स्त्रियां सभी बेधड़क शामिल हो रहे है। आम जनता की दृढ़ इच्छाशक्ति का अंदाजा लगाने के लिए यह तथ्य काफी है। हैरत की बात है कि इस पर भी केंद्र सरकार इसे राजनीतिक शिगूफेबाजी मान रही है और ऐसा सोच रही है कि थोड़े दिन चल कर यह आंदोलन अपने आप थम जाएगा।
दरअसल जम्मू की जनता यह बात लंबे अरसे से महसूस करती आ रही है कि कश्मीर के लोग अपनी मांगें मनवाने के मामले में हमेशा उन पर भारी पड़ते रहे है। इसका कारण कुछ और नहीं, केवल वहां अलगाववादियों की बहुलता और उनका उग्र होना है। उग्र न होने के ही कारण कश्मीर संभाग से अधिकतम हिंदुओं को पलायन करना पड़ा। अपने घर-खेत छोड़ कर अब वे दर-दर की ठोकरे खा रहे है और शरणार्थी बनने को विवश है। अब दूसरे राज्यों से आए मजदूर भी वहां से खदेड़े जा रहे है। हिंदू तीर्थयात्रियों और पर्यटकों पर भी अब वहां हमले किए जा रहे है। यह सब सोची-समझी साजिश के तहत किया जा रहा है।
जम्मू की जनता यह मानती है यह साजिश राजनीतिक स्तर पर भी की गई है। आखिर क्या कारण है कि क्षेत्रफल और आबादी में कश्मीर से काफी बड़ा होने के बावजूद जम्मू संभाग को लोकसभा में सिर्फ दो और विधानसभा में 37 सीटे मिली हुई है। जबकि छोटे होने के बावजूद कश्मीर संभाग को लोकसभा की तीन और विधानसभा की 46 सीटे प्राप्त है। उस पर तुर्रा यह कि यहां 2026 तक परिसीमन पर भी रोक लगा दी गई है। जम्मूवासी इसे अपने साथ राजनीतिक अन्याय का ज्वलंत उदाहरण ही नहीं, किसी बड़ी साजिश का हिस्सा भी मानते है।
सच तो यह है कि जम्मूवासियों का यह असंतोष अब बहुत गंभीर रूप लेता जा रहा है। यह स्थिति ज्यादा गंभीर इसलिए भी है कि इसी राज्य के एक और संभाग लद्दाख की जनता की सहानुभूति भी जम्मू के लोगों के साथ है। देश के बाकी हिस्सों के लोगों की भी पूरी सहानुभूति जम्मू की आम जनता के साथ है। यह और ज्यादा उग्र हो, इसके पहले बेहतर यह होगा कि केंद्र इस मामले में हस्तक्षेप करे और पूरे मामले को नए सिरे से देखते हुए सही फैसला करे। वोटबैंक और तुष्टीकरण की चिंता छोड़कर इसे भारतीय संविधान की मूल भावना के अनुरूप और राष्ट्रीय अस्मिता के सवाल के रूप में देखने की कोशिश करे। अन्यथा इसमें कोई दो राय नहीं है कि आने वाले दिनों में केंद्र की इस भयावह तटस्थता को पक्षपात से ज्यादा खतरनाक माना जाएगा।(दैनिक जागरण, ५ अगस्त २००८)