हिंदू हितों (सामाजिक, धार्मिक एवं राजनीतिक) को प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से प्रभावित करने वाली घटनाओं से सम्बंधित प्रमाणिक सोत्रों ( राष्ट्रिय समाचार पत्र, पत्रिका) में प्रकाशित संवादों का संकलन।
Monday, January 7, 2013
जिहाद के कारखाने
विकृतियों वाला सेक्युलरवाद
Tuesday, September 11, 2012
सुरक्षा पर भारी पड़ते स्वार्थ
असम में हाल में जो जातीय संघर्ष हुआ उसके बारे में बहुत भ्रातिया हैं। समस्या को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में समझने की आवश्यकता है। 1947 में जब देश का बंटवारा हुआ उस समय भारी संख्या में पूर्वी पाकिस्तान से हिंदू शरणार्थी आए। कालातर में जब पाकिस्तानी फौजों ने बंगालियों के विरुद्घ दमन चक्र चलाया तब मुसलमान भी भारी संख्या में भारत के सीमावर्ती प्रदेशों में आए। 1971 में पाकिस्तान के टूटने और बाग्लादेश के सृजन पश्चात यह आशा हुई कि सभी जातिया और संप्रदाय के लोग साप्रदायिक सौहार्द के वातावरण में बाग्लादेश में रहेंगे, परंतु दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हुआ। शेख मुजीब की 1975 में हत्या कर दी गई और बाद में जनरल इरशाद ने इस्लाम को राजधर्म की मान्यता दी। इसके बाद बाग्लादेश में हिंदू, बौद्घ, ईसाई और जनजातिया यानी सभी वर्ग के अल्पसंख्यकों पर अत्यधिक अत्याचार हुए। आर्थिक कारणों से भारी संख्या में मुसलमानों ने बाग्लादेश से पलायन किया। ऐसा समझा जाता है कि बाग्लादेश से भारत आने वालों में 70 प्रतिशत मुसलमान और 30 प्रतिशत हिंदू व अन्य संप्रदायों के लोग थे। बाग्लादेश से घुसपैठ के अकाट्य प्रमाण हैं। इंस्टीट्यूट ऑफ डेवलपमेंट स्टडीज के अनुसार 1951 व 1961 के बीच करीब 35 लाख लोग पूर्वी पाकिस्तान से चले गए थे। बाग्लादेश के चुनाव आयोग ने भी पाया कि 1991 व 1995 के बीच करीब 61 लाख मतदाता देश से गायब हो गए। स्पष्ट है कि ये सभी व्यक्ति भारत के सीमावर्ती प्रदेशों में घुसपैठ कर चुके थे। 1996 में भी बाग्लादेश के चुनाव आयोग को मतदाता सूची से 1,20,000 नागरिकों के नाम काटने पडे़ थे, क्योंकि उनका कहीं अता-पता नहीं था। इतना सब होने के बाद भी बाग्लादेश के नेता जब यह कहते हैं कि उनके देश से अनधिकृत ढंग से पलायन नहीं हुआ तो उनकी गुस्ताखी की दाद देनी पड़ती है। भारत सरकार ने इस मुद्दे को बाग्लादेश सरकार से कभी गंभीरता से नहीं उठाया। 1998 में असम के तत्कालीन गवर्नर, जनरल एसके सिन्हा ने राष्ट्रपति को लिखे एक पत्र में चेतावनी दी थी कि बाग्लादेश से जिस तरह आबादी भारत में चली आ रही है, अगर उसका प्रवाह बना रहा तो वह दिन दूर नहीं जब असम के मूल निवासी अपने ही प्रदेश में अल्पसंख्यक हो जाएंगे और हो सकता है कि असम के कुछ जनपद भारत से कटकर अलग हो जाएं। चेतावनी का भारत सरकार पर कोई असर नहीं हुआ। कारगिल लड़ाई के बाद भारत सरकार ने चार टॉस्क फोर्सो का गठन किया था। इनमें से एक जो सीमा प्रबंधन से संबंधित थी उसके प्रमुख माधव गोडबोले भूतपूर्व गृह सचिव थे। इस टॉस्क फोर्स ने बड़ी निष्पक्ष आख्या प्रस्तुत की। गोडबोले ने अपनी रिपोर्ट में दो टूक शब्दों में लिखा कि बाग्लादेश से आबादी का जो अनधिकृत पलायन हो रहा है उसके बारे में सभी को मालूम है, परंतु दुर्भाग्य से समस्या से निपटने के लिए कोई आम सहमति नहीं बन पा रही है। टॉस्क फोर्स के आकलन के अनुसार सन् 2000 में बाग्लादेश से आए घुसपैठियों की संख्या लगभग 1.5 करोड़ थी। पिछले 12 वर्षो में यह संख्या बढ़कर कम से कम दो करोड़ तो हो ही गई होगी। 2001 में एक मंत्रि समूह ने टॉस्क फोर्स की रिपोर्ट पर अपनी टिप्पणी देते हुए कहा कि इतनी भारी संख्या में बाग्लादेशियों की उपस्थिति देश की सुरक्षा और सामाजिक सौहार्द के लिए एक खतरा है। यह प्रकरण सुप्रीम कोर्ट के सामने भी गया। 12 जुलाई 2005 को सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि बाग्लादेशियों के भारी संख्या में अतिक्रमण के कारण असम में आतरिक अव्यवस्था और वाह्य आक्रमण जैसी स्थिति है और निर्देश दिया कि जो बाग्लादेशी भारत में अनधिकृत तरीके से घुस आए हैं उन्हें देश में रहने का कोई अधिकार नहीं है और उन्हें भारत से निकाला जाए। भारत सरकार ने टॉस्क रिपोर्ट की संस्तुतियों की अनदेखी की, मंत्रि समूह की चेतावनी पर कोई ध्यान नहीं दिया और सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों की अवहेलना की। घुसपैठिए प्रथम चरण में तो याचक थे। स्थानीय नेताओं ने इन्हें अपना वोट बैंक बनाया और असम के निवासी होने के प्रमाण पत्र दिलाए। धीरे-धीरे इन लोगों ने जमीनें भी खरीदनी शुरू कर दी। इस तरह इन्होंने अपना आर्थिक आधार बना लिया। वर्तमान में जिसे तृतीय चरण कहा जा सकता है, अब ये घुसपैठिए अपनी राजनीतिक शक्ति का प्रदर्शन कर रहे हैं। 2008 में दरंग और उदलगिरी जनपदों में बोडो जनजाति और घुसपैठियों में दंगे हुए थे। इनमें 55 व्यक्तियों की जानें गई थीं। हाल में कोकराझाड़, धुबड़ी और अन्य जनपदों में जो हिंसा हुई वह भी 2008 की घटनाओं की पुनरावृत्ति थी, केवल जनपद बदल गए थे। भारतीय सेना के जाने के बाद ही स्थिति पर नियंत्रण पाया जा सका। सवाल यह है कि अब इस समस्या से निपटा कैसे जाए। इस विषय पर मेरे तीन सुझाव हैं। पहला तो यह कि राजीव गाधी की पहल पर 1985 में जो असम समझौता हुआ था उसको आधार मान कर जो भी लोग एक जनवरी 1966 और 24 मार्च 1971 के बीच असम आए थे उनका पता लगाकर उनका नाम मतदाता सूची से काट दिया जाए और जो लोग 25 मार्च 1971 के बाद आए थे उनका पता लगाने के बाद उन्हें वैधानिक तरीके से अपने देश वापस भेज दिया जाए। दूसरा, अगर यह मान लिया जाए कि इतने वर्षो बाद बाग्लादेशियों को वापस भेजना संभव नहीं तो कम से कम यह सुनिश्चित किया जाए कि इनको वोट देने का कोई अधिकार न हो और वह अचल संपत्ति भी न खरीद सकें। इन बाग्लादेशियों को वर्क परमिट दिया जाए, जिससे उन्हें रोजी कमाने का अधिकार तो हो, परंतु भारतीय नागरिक के सामान्य अधिकार न हों? तीसरा यह कि बंग्लादेश सीमा पर तार लगाने का जो कार्य चल रहा है उसे अतिशीघ्र पूरा किया जाए। नेशनल माइनॉरिटी कमीशन के अनुसार असम में जो हिंसा हुई थी वह बोडो और प्रवासी मुसलमानों के बीच थी। यह निष्कर्ष भ्रामक है कि यह मुसलमान आज की तारीख में भले प्रवासी हो गए हों, परंतु सब जानते हैं कि ये बाग्लादेश से आए थे और इन्होंने फर्जी दस्तावेज बनवा लिए हैं। एशियन सेंटर फॉर ह्यूमन राइट्स ने माइनॉरिटी कमीशन की रिपोर्ट की आलोचना करते हुए कहा कि वह बोडो के बारे में पूर्वाग्रह दिखाती हैं। बोडो वास्तव में अपने अस्तित्व के लिए लड़ रहे हैं। असम के मुख्यमंत्री ने अपने एक बयान में कहा कि प्रदेश में एक ज्वालामुखी सुलग रहा है। यह सही है, सरकार ने अपनी सैनिक शक्ति से स्थिति पर नियंत्रण तो पा लिया है, परंतु यह चिंगारी सुलगती रहेगी। जो नेतृत्व अपने राजनीतिक स्वार्थ के आगे नहीं सोचता और जिसके लिए राष्ट्रीय सुरक्षा से ज्यादा महत्वपूर्ण सत्ता में बने रहना है वह अपनी अकर्मण्यता और अदूरदर्शिता के दलदल में फंसता जाएगा।
Monday, August 20, 2012
त्रासदी से जूझता पूर्वोत्तर
http://www.jagran.com/editorial/apnibaat-opinion1-9580149.html
Friday, August 17, 2012
संसद की खतरनाक चुप्पी
माता की जयघोष के साथ मुंबई जैसा प्रदर्शन क्यों नहीं होता? [लेखक बलबीर पुंज, भाजपा के राच्यसभा सांसद हैं]
http://www.jagran.com/editorial/apnibaat-opinion2-9570757.html
Friday, August 10, 2012
त्रासदी पर विचित्र खामोशी
http://www.jagran.com/editorial/apnibaat-opinion1-9542584.html
Wednesday, August 1, 2012
आग में झुलसता असम
http://www.jagran.com/editorial/apnibaat-9523930.html
Monday, July 9, 2012
मुस्लिम आरक्षण का कानूनी पहलू
Thursday, June 7, 2012
बेकार नहीं गई फई की दावतें
कश्मीर पर तो सन 1947 से सैकड़ों किस्म की राय, सलाह और रूपरेखाएं दी जाती रही हैं। लॉर्ड माउंटबेटन से लेकर गुलाम नबी फई और श्रीअरविंद से लेकर पनुन कश्मीर तक की अनगिनत सलाहें पुस्तकालयों से लेकर मंत्रालयों की फाइलों में उपलब्ध हैं। तब कश्मीर समस्या पर इस नवीनतम त्रि-सदस्यीय कमेटी द्वारा सुझाए गए समाधान की रूपरेखा किस बात में भिन्न है? इस कमेटी ने अपनी रिपोर्ट का शीर्षक एक पुराने, प्रचलन से बाहर के अंग्रेजी शब्द के सहारे दिया है, ए कॉम्पैक्ट विद द पीपल ऑफ जम्मू एंड कश्मीर। यहां कॉम्पैक्ट शब्द रहस्यमय है, क्योंकि इसका अर्थ शब्दकोष और सामान्य प्रयोग से नहीं निकलेगा। मगर रिपोर्ट पढ़कर समझ में आ जाता है कि कॉम्पैक्ट की आड़ में पैक्ट यानी समझौता कहा जा रहा है। तब इस छोटे, स्पष्ट शब्द के बदले अस्पष्ट शब्द का प्रयोग क्यों किया गया? क्या इसमें बिना साफ कहे कुछ अकथ कहने की कोशिश या कुछ कहकर उससे मुकरने का रास्ता खुला रखने की चतुराई बरती गई है? जिस अर्थ में इस कमेटी ने कॉम्पैक्ट शब्द का प्रयोग किया है, वैसा प्रयोग सदियों पहले शेक्सपीयर ने अपने नाटक जूलियस सीजर में किया था, ाट कॉम्पैक्ट मीन यू टु हैव विद अस? दिलचस्प बात यह है कि ठीक यही प्रश्न इस कमेटी से भारतीय जनता पूछ सकती है कि हमारे साथ तुम्हारा कौन सा करार रखने का इरादा है? क्या तुम हमारे मित्रों में गिने जाओगे या हम तुम पर कोई भरोसा न रखें? यानी वही जो शेक्सपीयर के पात्र ने अपने संदिग्ध मित्र से पूछा था। यह प्रश्न निराधार नहीं होगा। यह रिपोर्ट आरंभ से ही कटु सच्चाइयों से सायास बचने की कोशिश करती है। कश्मीर समस्या के जन्म से ही उसमें एक मजहबी तत्व रहा है, जिसकी अनदेखी कर रिपोर्ट में केवल सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक पहलुओं पर विविध बातें एकत्र की गई हैं। फिर, रिपोर्ट के अनुसार कमेटी ने जम्मू-कश्मीर से संबंधित वृहत साहित्य का भी अध्ययन किया, लेकिन उन पुस्तकों की सूची परिशिष्ट में नहीं दी गई है, जबकि अनेक अनावश्यक चीजें वहां हैं। इससे पता चलता कि कितना महत्वपूर्ण साहित्य कमेटी सदस्यों ने नहीं पढ़ा अथवा यदि पढ़ा तो उसकी बातें पूरी तरह उपेक्षित कीं। उदाहरण के लिए, कश्मीर घाटी से भगाए गए कश्मीरी हिंदुओं द्वारा हर विधा में लिखा गया विस्थापन साहित्य। इसमें वर्तमान से लेकर पीछे पीढि़यों तक के लंबे जीवंत कश्मीरी अनुभव हैं। सामाजिक-आर्थिक से लेकर राजनीतिक-सांस्कृतिक और मजहबी, मनोवैज्ञानिक तक। आजकल के कवियों की भाषा में कहें, तो स्वयं का भोगा हुआ यथार्थ। समाज विज्ञान की भाषा में कहें तो प्राथमिक श्चोतों के तथ्य और प्रमाण। इस रिपोर्ट में वह कहीं नहीं झलकता। कश्मीरी हिंदुओं के बारे में रिपोर्ट लगभग चुप है। रिपोर्ट के कुल 176 पृष्ठों में कुल दो पेज भर सामग्री भी कश्मीरी हिंदुओं को नहीं दी गई है। जो कहा भी गया है, वह नेशनल कांफ्रेंस द्वारा समय-समय पर कही जाने वाली इक्का-दुक्का रस्मी उक्तियों से कुछ भिन्न नहीं है। सच तो यह है कि कमेटी की रिपोर्ट उन लाखों कश्मीरी हिंदुओं को सही-सही पहचानने से भी इंकार करती है। सच से बचने वाली अपनी राजनीति संगत भाषा में उन्हें जड़ से उखड़े लोग कहती है। मगर इन उखड़े हुए लोगों की कही गई कोई बुनियादी बात रिपोर्ट में नहीं झलकती। कारण शायद यह है कि रिपोर्ट के शब्दों में, हमने इस राज्य को परेशान करने वाली अनगिनत समस्याओं को किसी एक क्षेत्र या जाति या मजहबी समुदाय की दृष्टि से देखने की गलती से बचने की कोशिश की है। ऊपर से सुंदर लगने वाली इस बात का वास्तविक, व्यवहारिक अर्थ यह भी हो सकता है कि कमेटी ने पहले से ही किसी भी क्षेत्र, समुदाय या मजहब को दोष न देना तय कर लिया था। जैसे, यह बुनियादी तथ्य कि कश्मीर-समस्या पाकिस्तान-समस्या से जन्मी और आज भी अभिन्न रूप से जुड़ी है। अब जिसने तय कर लिया हो कि उसे किसी एक मजहब को चर्चा में लाना ही नहीं, वह बुनियादी बात भी नहीं उठाएगा। मगर ऐसी समदर्शी दृष्टि जो अलगाववादी और समन्वयवादी के बीच, उत्पीड़ित और उत्पीड़क के बीच भेद न करने पर आमादा हो, वह सभी असुविधानक सच्चाइयों से बचने की कोशिश करेगी ही। इसीलिए इस रिपोर्ट में हर कदम पर, बार-बार अधूरी संज्ञाएं और विशेषण मिलते हैं, जिनसे कोई बात स्पष्ट होने की बजाए धुंधलके में रह जाती है। ऐसी रिपोर्ट लिखने वाली कमेटी कश्मीरी मुसलमानों और कश्मीरी हिंदुओं के बीच के बरायनाम संबंध से ऊपर, अलगाववादियों और समन्वयवादियों के विपरीत मनोभावों से ऊपर, इस्लाम और हिंदू धर्म के किसी भेद से ऊपर, भारत-पाकिस्तान के झगड़े से ऊपर उठी हुई है! रिपोर्ट पढ़कर लगता है कि अमेरिका में आइएसआइ के कश्मीरी एजेंट गुलाम नबी फई की दावतें बेकार नहीं गईं। एक जरूरी प्रश्न यह भी उठता है कि ऐसी समदर्शिता के साथ यह कमेटी किस का प्रतिनिधित्व कर रही थी? क्या कमेटी ने खुद उसी के शब्दों में राष्ट्रीय हित का प्रतिनिधित्व किया? ऐसा लगता नहीं, क्योंकि रिपोर्ट की पूरी भाषा नेशनल कांफेंस के मानवाधिकारी संगठनों, एक्टिविस्ट समूहों की भाषा से ही मिलती है। यह भारतीय राष्ट्रीय हितों की चिंता करने वाली भाषा से मेल नहीं खाती। यदि इन्हीं दृष्टियों से कश्मीर समस्या को देखना हो, तब याद रखें कि अमेरिकी सरकार, यूरोपीय संघ से लेकर सीआइए, आइएसआइ जैसी कई अंतरराष्ट्रीय सत्ताओं, एजेंसियों और उनके मुखौटे मानवाधिकारियों, एनजीओ की भी कश्मीर पर अपनी-अपनी स्थापित दृष्टि है। क्या इन दृष्टियों और इस कमेटी की दृष्टि में कोई भेद है? इस प्रश्न का उत्तर रिपोर्ट में ढूंढ़ना एक रोचक कार्य होगा।
Wednesday, May 23, 2012
घुसपैठियों की शरणस्थली
http://in.jagran.yahoo.com/news/opinion/general/6_3_9283960.html
Tuesday, May 8, 2012
देशघाती मानसिकता
http://www.jagran.com/editorial/apnibaat-9228017.html
Tuesday, April 24, 2012
राजनीति का खतरनाक रूप
Saturday, April 21, 2012
अल्पसंख्यक हिंदुओं की त्रासदी
http://www.jagran.com/editorial/apnibaat-9164712.html
Tuesday, March 27, 2012
एनजीओ का काला सच
पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों की आपाधापी और रेल बजट प्रस्तुत होने के बाद उपजे राजनीतिक बवाल के बीच एक महत्वपूर्ण घटनाक्रम दब-सा गया। पिछले दिनों प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने राष्ट्रहित को सर्वोपरि रखते हुए उस सच को स्वीकार किया है जो कल तक भारत में मतांतरण गतिविधियों में संलग्न चर्च और अलगाववादी संगठनों की ढाल बनने वाले स्वयंभू मानवाधिकारी गुटों के संदर्भ में राष्ट्रनिष्ठ संगठन उठाते आए हैं। यह वह कड़वा सच है जिसे सेक्युलर दल भाजपा का सांप्रदायिक एजेंडा बताकर अब तक नकारते आए थे। प्रधानमंत्री ने कहा था कि तमिलनाडु में कुडनकुलम परमाणु परियोजना और कृषि क्षेत्र में वृद्धि के लिए जेनेटिक इंजीनियरिंग के प्रयोग का विरोध करने के पीछे विदेशों से वित्तीय सहायता पाने वाले गैर सरकारी संगठनों का हाथ है। पिछले दिनों सरकार ने राज्यसभा में बताया था कि 2007 से 2010 के बीच भारत में सक्त्रिय 65,500 एनजीओ को विदेशों से 31,000 करोड़ रुपये से अधिक की वित्तीय सहायता दी गई। यह राशि किन कायरें में खर्च होती है? महाराष्ट्र के जैतापुर और तमिलनाडु में कुडनकुलम परमाणु बिजली परियोजना का विरोध करने वाले संगठन वस्तुत: भारत के विकास को बाधित करने वाली अंतरराष्ट्रीय शक्तियों के मुखौटे हैं। पिछले कुछ दशकों के घटनाक्रमों का अध्ययन करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि ऊर्जा के क्षेत्र में भारत द्वारा किए जा रहे प्रयासों को लगातार बाधित करने की कोशिश की गई है। अस्सी के दशक में पनबिजली परियोजना का विरोध तो नब्बे के दशक में इसी मंशा से ताप विद्युत परियोजनाओं का विरोध किया गया। करीब दो दशकों तक नर्मदा बचाओ के नाम पर सरदार सरोवर बांध परियोजना को अधर में लटकाने का प्रयास किया गया, जिसके कारण परियोजना लागत व्यय में तीन सौ गुना वृद्धि हुई, किंतु गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने हार नहीं मानी। आज गुजरात और राजस्थान के मरुस्थल के आसपास रहने वाले लाखों लोगों की आर्थिक स्थिति में उस परियोजना के कारण क्रांतिकारी बदलाव आया है। अब कुछ विकसित देशों के इशारे पर परमाणु बिजली परियोजनाओं को ठप करने का प्रयास किया जा रहा है। इस देशघाती गतिविधि में संलग्न संगठन वस्तुत: अलगाववादी ताकतों के सतह पर दिखाई देने वाले चेहरे हैं। गृह मंत्रालय द्वारा प्रधानमंत्री को भेजी गई एक रिपोर्ट में बताया गया है कि कुछ एनजीओ विकलांग लोगों की मदद और कुष्ठ रोग उन्मूलन जैसे सामाजिक सेवा के कायरें के लिए विदेशों से धन प्राप्त करते हैं और उसका उपयोग कुडनकुलम जैसी परियोजना के खिलाफ अभियान चलाने में किया जाता है। एक अनुमान के अनुसार मिशनरी गतिविधियों को बढ़ावा देने के लिए 10,000 करोड़ से अधिक की धनराशि प्रतिवर्ष भारत भेजी जाती है। मिशनरी संगठनों के पितृ संगठन-इवेंजेलिकल फेलोशिप ऑफ इंडिया से ऐसे 35,000 चर्च सूचीबद्ध हैं, किंतु नए चचरें की वास्तविक संख्या आंक पाना कठिन होने के कारण विदेशों से भेजी जाने वाली राशि का अनुमान भी दुष्कर है। विदेशों से धन प्राप्त करने वाले करीब 75 प्रतिशत से अधिक संगठन ईसाई संगठन हैं। चर्च से संबद्ध ऐसे संगठन सामाजिक सेवा के नाम पर वस्तुत: मतांतरण अभियान के सहायक ही हैं। सीबीआइ कुडनकुलम में सक्रिय जिन चार एनजीओ-तूतीकोरिन डायासेसन एसोसिएशन, रूरल अपलिफ्ट सेंटर, गुडविजन चैरिटेबल ट्रस्ट और रूरल अपलिफ्ट एंड एजुकेशन की जांच कर रही है उन्हें सन 2006 से 2011 के बीच विदेशों से 36-37 करोड़ रुपये मिले थे। कुडनकुलम में चर्च के कार्डिनल और बिशपों द्वारा जो जन विरोध खड़ा किया गया वह वस्तुत: चर्च की घबराहट को रेखांकित करता है। उन्हें भय है कि कुडनकुलम जैसी बड़ी परियोजना से न केवल स्थानीय लोगों का भला होगा, बल्कि आसपास के दूरदराज के इलाकों के लोगों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति बेहतर होगी। पिछड़ों और वंचितों को कथित स्वास्थ्य सुविधाएं और शिक्षा देने के नाम पर देश के पिछड़े इलाकों में सक्रिय चर्च के कार्यो पर सरकार द्वारा समय-समय पर गठित की गई समितियों ने गंभीर प्रश्न खड़े किए हैं, किंतु सेक्युलर सत्ता अधिष्ठान चर्च के मतांतरण अभियान पर लगाम लगाने के बजाए राष्ट्रनिष्ठ संगठनों को ही कठघरे में खड़ा करता आया है। कुछ साल पूर्व गुजरात के डांग जिले में जब चर्च के इस तरह के मतांतरण का खुलासा हुआ तो सेक्युलरिस्टों ने भारतीय जनता पार्टी पर चर्च के उत्पीड़न का आरोप मढ़ने में देर नहीं की। ऐसी मानसिकता भारत की बहुलतावादी संस्कृति के लिए घातक है। हाल ही में कश्मीर घाटी में मुसलमानों का मत परिवर्तन कराने वाले पादरियों को शरीयत अदालत के आदेश पर प्रशासन ने गिरफ्तार किया था, किंतु विडंबना यह है कि देश के अन्य हिंदू बहुल भागों में सक्त्रिय चर्च के इस मतांतरण अभियान पर प्रश्न खड़ा होता है तो सेक्युलरिस्ट और स्वयंभू मानवाधिकारी संगठन चर्च के समर्थन में खड़े हो जाते हैं और उपासना के अधिकार का प्रश्न खड़ा किया जाता है। ग्राहम स्टेंस के कथित हत्यारे दारा सिंह की फांसी की सजा को उम्रकैद में बदलते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने भी चर्च के मतांतरण अभियान को लेकर बहुत कटु टिप्पणी की थी। मध्य प्रदेश में मिशनरी गतिविधियों की शिकायतों को देखते हुए इन आरोपों की जांच के लिए 14 अप्रैल, 1955 में तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने पूर्व न्यायाधीश डॉ. भवानी शंकर नियोगी की अध्यक्षता में एक समिति गठित की थी। समिति की प्रमुख संस्तुतियां मतांतरण के उद्देश्य से आए विदेशी मिशनरियों को बाहर निकालने और उनके प्रवेश पर पाबंदी लगाने की थी। उन्होंने कहा था कि बल प्रयोग, लालच, धोखाधड़ी, अनुचित श्रद्धा, अनुभवहीनता, मानसिक दुर्बलता का उपयोग मतांतरण के लिए नहीं हो। न्यायमूर्ति रेगे समिति , न्यायमूर्ति वेणुगोपाल आयोग (1982) और न्यायमूर्ति वाधवा आयोग (1999) ने भी नियोगी आयोग की संस्तुतियों को उचित ठहराया है। बाहरी शक्तियों की कठपुतली बन भारत की विकास परियोजनाओं का विरोध करने वाले गैर सरकारी संगठनों व स्वनामधन्य मानवाधिकारियों के वित्तीय श्चोतों की जांच स्वागत योग्य है, किंतु सरकार को आत्मा के कारोबार में लीन चर्च और उसके सहयोगी संगठनों पर भी लगाम लगानी चाहिए। इसके लिए छलकपट और प्रलोभन के बल पर होने वाले मतांतरण पर प्रतिबंध लगाने की आवश्यकता है।
[बलबीर पुंज: लेखक भाजपा के राज्यसभा सांसद हैं]
http://www.jagran.com/editorial/apnibaat-9063181.html
Saturday, March 17, 2012
Monday, March 5, 2012
त्रासदी का विचित्र तमाशा
Tuesday, May 5, 2009
सेकुलर राजनीति की सच्चाई
गुजरात दंगों के संदर्भ में विशेष जांच दल की रपट से कथित सेकुलर वर्ग का झूठ उजागर होता देख रहे हैं तरुण विजय
Dainik Jagran, 19 April 2009, जिस समय प्राय: हर रोज सैनिकों और नागरिकों की आतंकवादियों द्वारा बर्बर हत्याओं के समाचार छप रहे हों उस समय यह देखकर लज्जा होती है कि भारतीय राजनेता परिवारवाद तथा मजहबी तुष्टीकरण के दलदल में फंसे हास्यास्पद बयान देने में व्यस्त है। गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि 'स्वधर्मे निधनं श्रेय: परधर्मो भयावह' अर्थात् अपने धर्म पर अडिग रहते हुए मृत्यु भी प्राप्त हो तो वह श्रेयस्कर है। आज सत्ता का भोग करने वाले यदि अपने मूल राजधर्म के पथ से अलग रहते है तो एक दिन ऐसा आता है जब न तो उनका यश शेष रहता है और न ही पाप कर्म से अर्जित संपदा। लोकसभा चुनावों में अनर्गल आरोप-प्रत्यारोप, मिथ्या भाषण तथा गाली-गलौज का जो वातावरण बना है वह राजनीतिक कलुश का अस्थाई परिचय ही कराता है।
आजादी के बाद से अब तक देश में ऐसे अनेक मंत्री, मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री हुए जिन्होंने अपने-अपने कार्यकाल में विवादों, चर्चाओं और अकूत संपत्तिका आनंद लिया, परंतु उन सब में हम ऐसे किन्हीं दो-चार व्यक्तियों का स्मरण करते है जो अपनी संपत्तिनहीं, बल्कि कर्तव्य के कारण जनप्रिय हुए। पैसा कभी वास्तविक सम्मान नहीं दिलाता, इस बात को वे राजनेता भूल जाते है जो भारत की मूल हिंदू परंपरा सभ्यता और संस्कृति के प्रवाह पर चोट करना अपनी सेकुलर राजनीति का आधार बना बैठे है कि इस देश को हमेशा धर्म ने बचाया है सेकुलर सत्ता ने नहीं। अब तक कई हजार सांसद और विधायक बन गए है, परंतु उनमें से ऐसे कितने होंगे जिन्होंने पैसा नहीं, यश कमाया है? क्या वजह है कि सरदार पटेल और लाल बहादुर शास्त्री कांग्रेस नेता होते हुए भी शेष दलों में भी आदर और सम्मान पाते है और भाजपा के हिंदुत्वनिष्ठ राजनीति के पुरोधा डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी हों अथवा दीनदयाल उपाध्याय, उनके प्रति कभी कोई आघात नहीं कर पाया। वे संपदा और राजनीतिक प्रभुता न होते हुए भी दायरों से परे सम्मान के पात्र हुए।
गुजरात में दंगों की जांच के लिए गठित विशेष जांच टीम के प्रमुख एवं पूर्व सीबीआई निदेशक ने पिछले सप्ताह अपनी रिपोर्ट सर्वोच्च न्यायालय में दाखिल की, जिसमें कहा गया कि गुजरात दंगों के बारे में कुछ स्वयंसेवी संगठनों ने अपने कुछ नेताओं के कहने पर एक जैसे प्रारूप पर रौंगटे खड़े करने वाले जो आरोप लगाए थे वे सरासर झूठ और मनगढ़ंत थे। इसमें तीस्ता जावेद सीतलवाड़ का नाम सामने आया, जिन्होंने इस प्रकार के आरोप उछाले थे कि गर्भवती मुस्लिम महिला से हिंदुओं ने दुष्कर्म के बाद बर्बरतापूर्वक उसकी हत्या कर दी। विशेष जांच टीम ने स्पष्ट रूप से ऐसे चार उदाहरण प्रस्तुत किए है जिनमें एक कौसर बी की हत्या, दूसरा नरौडा पाटिया में कुएं में मुस्लिमों की लाशें फेंकने, तीसरा एक ब्रिटिश दंपत्तिकी हत्या का था। ये तीनों घटनाएं सैकड़ों मुसलमानों द्वारा एक जैसी भाषा और एक जैसे प्रारूप पर जांच टीम को दी गई थीं और तीनों ही झूठी साबित हुईं। हालांकि तीस्ता ने इस खबर का तीव्र खंडन किया है, लेकिन इस पर विशेष जांच टीम ने कोई टिप्पणी नहीं की है। अत: खंडन के दावों की भी जांच जरूरी है। ध्यान रहे, इसी प्रकार अरुंधती राय ने भी गुजरात दंगों के एक पक्ष का झूठा चित्रण किया था। यह कैसा सेकुलरवाद है जो अपने ही देश और समाज को बदनाम करने के लिए झूठ का सहारा लेने से भी नहीं हिचकता? यह कैसे प्रधानमंत्री हैं जो परमाणु संधि न होने की स्थिति में इस्तीफा देने के लिए तैयार रहते है, लेकिन नागरिकों को सुरक्षा देने में असमर्थ रहते हुए भी पद पर बने रहते हैं।
इस देश में एक ऐसा सेकुलर वर्ग खड़ा हो गया है जिसने हिंदुओं की संवेदना तथा प्रतीकों पर चोट करना अपना मकसद मान लिया है। इन दिनों विशेषकर जिस प्रकार उर्दू के कुछ अखबारों में जहर उगला जा रहा है वह 1947 से पहले के जहरीले माहौल की याद दिलाता है। ऐसी किसी संस्था या नेता पर कोई कार्रवाई नहीं होती। इस स्थिति में केवल देशभक्ति और राष्ट्रीयता के आधार पर एकजुटता ही अराष्ट्रीय तत्वों को परास्त कर सकती है। दुर्भाग्य से इस देश में हिंदुओं का पहला शत्रु हिंदू ही होता है। इसी स्थिति को बदलने के लिए डा. हेडगेवार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की थी, ताकि हिंदू एकजुटता स्थापित हो और इस देश का सांस्कृतिक प्रवाह सुरक्षित रह सके। भारत में हिंदू बहुलता संविधान सम्मत लोकतंत्र और बहुलवाद की गारंटी है। जिस दिन हिंदू अल्पसंख्यक होंगे या उनका मनोबल सेकुलर आघातों से तोड़ दिया जाएगा उस दिन भारत न सिर्फ अपनी पहचान खो देगा, बल्कि यहां भी अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश जैसी मजहबी मतांधता छा जाएगी। पानी, बिजली, सड़क, रोजगार, गरीबी उन्मूलन, विज्ञान और प्रौद्योगिकी का विकास, ग्रामीण सम्मान की पुनस्र्थापना राजधर्म के अंतर्गत अनिवार्य कर्तव्य है, लेकिन यही सब स्वयं में कभी भी राष्ट्र की पहचान नहीं बन सकते। अगर भौतिकता राष्ट्र की पहचान होती तो तिरंगे झंडे और यूनियन जैक में फर्क ही नहीं रहता।
आज देश की राजनीति को वह दृष्टि देने की जरूरत है जो भारतीयता की रक्षा कर सके। देश आज विदेशी विचारधाराओं और नव उपनिवेशवादी प्रहारों से लहूलुहान हो रहा है। जिहादी हमलों में साठ हजार से भी अधिक भारतीय मारे गए है। नक्सलवादी-माओवादी हमलों में 12 हजार से अधिक भारतीय मारे जा चुके है। इन आतंकवादियों के पास हमारे सैनिकों से बेहतर उपकरण और हथियार होते है। भारत सरकार पुलिस और अर्धसैनिक बलों को घटिया हथियार, सस्ती बुलेट प्रूफ जैकेट और अपर्याप्त प्रशिक्षण देकर अमानुषिक आतंकवादियों का सामना करने भेज देती है। राजधर्म का इससे बढ़कर और क्या पतन होगा? जिस राज में सैनिक अपने वीरता के अलंकरण वापस करने लगें और संत अपमानित व लांछित किए जाएं वहां के शासक अनाचार को ही प्रोत्साहित करने वाले कहे जाएंगे।
झूठी कहानी की सच्चाई
विशेष जांच दल की रपट से गुजरात दंगों की कहानियों का झूठ उजागर होता हुआ देख रहे हैं एस. शंकर
Dainik Jagran, 23 April 2009, पिछले सात वर्र्षो से मीडिया में मानो एक धारावाहिक चल रहा है, जिसमें गोधरा, बेस्ट बेकरी, जाहिरा शेख, नरेंद्र मोदी, नरोड़ा पटिया, अरुंधती राय, मानवाधिकार आयोग और तीस्ता सीतलवाड़ आदि शब्द बार-बार सुनने को मिलते हैं। नाटक के आरंभ से ही नरेंद्र मोदी को खलनायक के रूप में पेश किया गया, किंतु जैसे-जैसे नई परतें खुलती गईं, पात्रों की भूमिकाएं बदलती नजर आईं। नवीनतम कड़ी में सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त विशेष जांच दल ने कोर्ट की तीन सदस्यीय पीठ को अपनी रिपोर्ट सौंपी। इसने गुजरात दंगे पर सबसे अधिक सक्रिय मानवाधिकार कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड़ को जघन्य हत्याओं और उत्पीड़न की झूठी कहानियां गढ़ने, झूठे गवाहों की फौज तैयार करने, अदालतों में झूठे दस्तावेज जमा करवाने और पुलिस पर मिथ्या आरोप लगाने का दोषी बताया है। चूंकि नई सच्चाई सर्वोच्च न्यायालय के माध्यम से आई है अत: तीस्ता और उनके शुभचिंतक मौन रहकर इसे दबाने का प्रयास कर रहे हैं। इस तरह अब तक जो अभियोजक थे अब वे आरोपी के रूप में कठघरे में दिखाई देंगे। वैसे इन वषरें में गुजरात दंगों से संबंधित हर नया पहलू इसी तरह बदलता रहा है। जाहिरा शेख का बार-बार गवाही-पलटना, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग द्वारा उतावलापन दिखाना, तहलका के पासे उलटा पड़ना, नानावती आयोग की वृहत रिपोर्ट, तीस्ता के अत्यंत निकट सहयोगी रईस खान द्वारा तीस्ता के भय से पुलिस सुरक्षा की मांग करने से लेकर अरुंधती राय द्वारा काग्रेस नेता अहसान जाफरी की बेटी के दुष्कर्म-हत्या की लोमहर्षक झूठी कथा लिखने और लालू प्रसाद यादव द्वारा नियुक्त मुखर्जी आयोग द्वारा गोधरा को महज दुर्घटना बताने तक सभी कड़ियों ने प्रकारातर में एक ही चीज दिखाई कि गुजरात सरकार पर लगाए गए आरोप मनगढ़ंत थे।
बेस्ट बेकरी मामला मात्र जाहिरा शेख के बयान बदलने से चर्चित हुआ। मानवाधिकार आयोग ने उसी जाहिरा की छह सौ पन्नों की याचिका पर गुजरात हाई कोर्ट पर सार्वजनिक रूप से लाछन लगाया। उन पन्नों को देखने की भी तकलीफ नहीं की, जिन पर कहीं भी जाहिरा के दस्तखत तक नहीं थे! पर चूंकि उसे तीस्ता ने जमा किया था इसलिए आयोग अधीर होकर सर्वोच्च न्यायालय से गुहार लगा बैठा कि बेस्ट बेकरी की सुनवाई गुजरात से बाहर हो। इस प्रकार आयोग ने न केवल अपनी मर्यादा का उल्लंघन किया, बल्कि गुजरात की न्यायपालिका पर कालिख भी पोती। यहां तक कि गुहार सुनते हुए स्वयं सर्वोच्च न्यायालय ने गुजरात हाई कोर्ट और वहां के मुख्यमंत्री के विरुद्ध कठोर टिप्पणियां कर दीं। किस आधार पर? एक ऐसे व्यक्ति के बयान पर, जो स्व-घोषित रूप से एक बार शपथ लेकर अदालत में झूठा बयान दे चुका था।
इस प्रकार हमारे राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने एक ही गवाह के एक बयान को मनमाने तौर पर गलत और दूसरे को सही मान लिया। इसी आधार पर गुजरात हाईकोर्ट की खुली आलोचना की, जिसने बेस्ट बेकरी केआरोपियों को दोषमुक्त किया था। उस निर्णय को 'सच्चाई का मखौल' बताकर सर्वोच्च न्यायपालकों ने नरेंद्र मोदी को भी 'राजधर्म' निभाने या 'गद्दी छोड़ देने' की सलाह दे डाली। साथ ही मामला मुंबई हाई कोर्ट को सौंप दिया गया। सर्वोच्च न्यायालय ने यह सब तब किया जब जाहिरा की मां और ननद ने कहा था कि सारा खेल तीस्ता करवा रही है और जाहिरा ने पैसे लेकर बयान बदला है। जाहिरा के वकील ने भी यही कहा था। फिर भी, सच्चाई की अनदेखी कर केवल कुछ उग्र, साधन-संपन्न मानवाधिकार कार्यकर्ताओं से प्रभावित होकर हमारे न्यायपालकों ने अपने को हास्यास्पद स्थिति में डाल लिया।
बाद में सर्वोच्च न्यायालय ने यह देखकर 'अपने को विचित्र स्थिति' में पाया कि जाहिरा के नाम पर प्रस्तुत किए गए भारी-भरकम दस्तावेजों में जाहिरा के दस्तखत ही नहीं हैं। यह सब तो अब स्पष्ट हो रहा है। इस बीच तीस्ता भारतीय न्यायपालिका को दुनिया भर में बदनाम कर चुकी थीं और उन्हें न्यूरेनबर्ग ह्यूमन राइट अवार्ड, ग्राहम स्टेंस इंटरनेशनल अवार्ड फार रिलीजियस हारमोनी, पैक्स क्रिस्टी इंटरनेशनल पीस प्राइज, ननी पालकीवाला अवार्ड से लेकर पद्मश्री तक कई देशी-विदेशी पुरस्कार मिल चुके हैं। न्यायाधीशों ने जाहिरा शेख को झूठे बयान देने के लिए सजा दी। अमेरिकी संसद की 'यूनाइटेड स्टेट्स कमीशन आन इंटरनेशनल रिलीजस फ्रीडम' के सामने भी तीस्ता ने मनगढ़ंत गवाही दी थी। क्या हमारे न्यायाधीश उन सारी झूठी गवाहियों की असल सूत्रधार को कोई सजा देंगे? तीस्ता को इसलिए सजा मिलनी चाहिए ताकि आगे न्यापालिका और मीडिया का दुरुपयोग कर अपना उल्लू साधने वालों को चेतावनी मिले। गुजरात हाईकोर्ट ने अपने निर्णय में वही बातें लिखी थीं जिन्हें अब सुप्रीम कोर्ट के विशेष जांच दल ने जांच में सही पाया है।
हाईकोर्ट ने कहा था कि जाहिरा का 'कुछ लोगों को बदनाम करने का षड्यंत्र' दिखता है और यह भी कि वह कुछ समाज-विरोधी और देश-विरोधी तत्वों के गंदे हाथों में खेल रही हैं। हाईकोर्ट ने ऐसे लोगों और कुछ गैर सरकारी संगठनों द्वारा पूरे राज्य प्रशासन और न्यायपालिका को निशाना बनाने तथा एक समानातर जांच चलाने की भी आलोचना की थी, पर उस निर्णय को निरस्त करके सर्वोच्च न्यायालय ने कठोर टिप्पणियां कर दीं। उसी से देश-विदेश में गुजरात हाई कोर्ट की छवि धूमिल हुई। क्या आज गुजरात हाईकोर्ट के वे न्यायाधीश सही नहीं साबित हुए, जिन्हें पक्षपाती समझ कर उन न्यायिक मामलों को राज्य से बाहर ले जाया गया था? आशा की जा सकती है कि अपने ही द्वारा गठित विशेष जांच दल की इस रिपोर्ट के बाद सर्वोच्च न्यायालय न्यायिक प्रक्रिया का दुरुपयोग करने वालों पर कड़ी कार्रवाई करेगा। गुजरात धारावाहिक की अंतिम कड़ियां आनी अभी बाकी हैं।