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Monday, January 7, 2013

जिहाद के कारखाने

http://www.jagran.com/editorial/apnibaat-opinion-9909645.html

चार साल पूर्व 26 नवंबर को मुंबई की सड़कों पर निरपराधों की लाशें बिछाने वाले आतंकियों में से एकमात्र जिंदा पकड़े गए अजमल कसाब को अंतत: फासी दे दी गई। कई विश्लेषकों ने इसे आतंक के एक अध्याय की समाप्ति की संज्ञा दी है। क्या यह उम्मीद सार्थक है? वास्तविकता तो यह है कि जिहाद की बुनियादी सच्चाइयों की अनदेखी कर आतंकवाद के खत्म होने की आशा करना बेमानी होने के साथ सभ्य समाज के प्रति बेईमानी भी है। कसाब को फासी दिए जाने के 24 घटों के अंदर ही कई इस्लामी आतंकी संगठनों ने भारतीयों को निशाना बनाकर बदला लेने की धमकी दी। ऐसा नहीं है कि इस्लामी कट्टरपंथियों के लिए केवल भारत और हिंदू ही दुश्मन हैं। अभी पाकिस्तान में मुहर्रम के जुलुस में शामिल शियाओं पर बहुसंख्यक सुन्नियों ने हमला कर दिया, जिसमें दर्जनों लोगों की जानें गई। ईरान में शिया बहुसंख्यक हैं। वहा सुन्नी शियाओं के निशाने पर रहते हैं। इराक में करीब हर रोज अल्पसंख्यक सुन्नियों पर बहुसंख्यक शियाओं के बम फटते हैं। इस्लाम को ही मानने वाले दो संप्रदायों के बीच यह टकराव क्यों? और उस हिंसा की प्रेरणा क्या है?
इस संदर्भ में पिछले दिनों एक अंग्रेजी दैनिक में प्रकाशित लेख में कहा गया है कि पाकिस्तान जैसे मुस्लिम बहुल राष्ट्र का बुनियादी पहलू यह है कि वहा न केवल अल्पसंख्यक समुदाय, बल्कि स्वयं इस्लाम में जो बहुसंख्यक नहीं हैं, वे भी इस्लामी व्यवस्था के स्थायी शिकार हैं। अल्पसंख्यकों की आबादी को नगण्य करने के बाद मुसलमान अब अपने ही मजहब के अल्पसंख्यक संप्रदाय से हिसाब चुकता कर रहे हैं। उन्होंने लिखा है, सन 2000 के बाद से अब तक उपमहाद्वीप में मजहबी हिंसा में हिंदुओं की अपेक्षा अपने ही मुस्लिम भाइयों के हाथों मरने वाले मुसलमानों की संख्या दस गुनी अधिक है। इसके साथ ही लेखक ने एक ऐतिहासिक सच को भी उठाया है। उन्होंने लिखा है, हिंदू बहुसंख्या के अधीन हिंदू खुशहाल हैं, किंतु सच्चाई यह है कि हिंदू बहुसंख्या के अधीन मुसलमान भी उतने ही खुशहाल हैं, क्योंकि इसके कारण इस्लाम के अंतर्गत होने वाले फसादों से संरक्षा मिल जाती है। देश विभाजन के बाद भारत में मुसलमानों की आबादी बढ़कर जहा 15 प्रतिशत हुई है वहीं पाकिस्तान में हिंदुओं की आबादी 20 प्रतिशत से घटकर आज एक प्रतिशत से कम रह गई है। सुन्नी बहुल कश्मीर घाटी को छोड़ दें तो शेष भारत में अल्पसंख्यक शिया बहुसंख्यक सुन्नियों के हमले से सुरक्षित हैं। अहमदिया, बोहरा आदि मुसलमानों के अन्य समुदाय भी हिंदू बहुल भारत में बराबरी के अधिकार से फल-फूल रहे हैं।
लेखक ने पाकिस्तान के संदर्भ में एक हास्यास्पद, किंतु इस्लामी जगत के लिए मनन करने योग्य घटना का उल्लेख किया है। पाकिस्तान के पंजाब सूबे के वित्तमंत्री राणा आसिफ महमूद ईसाई हैं। उनके पिता राणा ताज महमूद भी ईसाई थे। कुछ महीने पहले किसी ने गलती से राष्ट्रीय पंजीकरण में आसिफ महमूद का धर्म इस्लाम दर्ज कर दिया। अब महमूद इसे बदल नहीं सकते, क्योंकि इस्लाम त्यागने पर वहा मौत की सजा तय है। किसी की गलती से भी मुसलमान बन गए तो आजीवन मुसलमान रहेंगे, यह कोई फतवा नहीं है, बल्कि पाकिस्तान के मुख्य न्यायाधीश इफ्तिखार चौधरी का आदेश है। यह स्थापित सत्य है कि जहा कहीं भी मुसलमान अल्पसंख्या में होते हैं वे सेक्युलर व्यवस्था पर गहरी आस्था प्रकट करते हैं, किंतु जहा कहीं भी वे बहुसंख्या में हैं, सेक्युलरवाद एक गाली है। पाकिस्तान ही क्यों, अमरनाथ यात्रा और कश्मीरी पंडितों को लेकर कश्मीर घाटी के घटनाक्रम इस कटु सत्य को ही रेखाकित करते हैं। पाकिस्तानी आवाम में भारत विरोधी भावना अविभाजित भारत के मुसलमानों की मानसिकता की ही तार्किक परिणति है। तब मुसलमानों को यह आशका थी कि ब्रितानियों के जाने के बाद उन्हें काफिर हिंदुओं के साथ बराबरी के स्तर पर रहना होगा। जिन लोगों को रोज यही सब सिखाया जाता हो कि इस्लाम ही एकमात्र सच्चा व अंतिम पंथ है, उन्हें बहुलतावादी सनातनी संस्कृति वाले भारत के प्रति जिहाद के लिए उकसाना कठिन नहीं है। उन्हें जानबूझकर इतिहास के उस पक्ष से परिचित नहीं कराया जाता, जब ब्रिटिश उपनिवेश से पहले भारत की अधिकाश रियासतों में अल्पसंख्यक मत व पंथों को बराबरी के अधिकार से पल्लवित-पुष्पित होने का अवसर प्राप्त था।
सवाल है कि क्या पाकिस्तानी सेना कट्टरपंथियों से साठगाठ कर वहा के आवाम को भारत व हिंदू विरोध के लिए भड़काती है? वास्तविकता तो यह है कि पाकिस्तानी जेहन में मौजूद हिंदू विरोधी मानसिकता का वहा की सेना दोहन करने के साथ उसे प्रोत्साहित भी करती है। अभी कुछ समय पूर्व पाकिस्तानी पंजाब सूबे के गवर्नर सलमान तसीर की उनके ही अंगरक्षक ने हत्या कर दी थी। उस हत्यारे को वहा की आवाम ने हीरो बताया, उसके ऊपर फूल बरसाए गए, जबकि हत्यारे को सजा सुनाने वाले न्यायाधीश को पिछले दरवाजे से भागकर अपनी जान बचानी पड़ी। सलमान तसीर का कसूर इतना था कि उन्होंने ईशनिंदा कानून में बंद एक ईसाई महिला से मिलने की गलती और ईशनिंदा कानून में बदलाव लाने की वकालत की थी। ऐसी मानसिकता के रहते जिहादी फैक्ट्रियों के बंद होने की उम्मीद व्यर्थ है।
2010 में पाकिस्तानी फिल्म निर्मात्री शरमीन ओबैद को उनकी फिल्म दि चिल्ड्रेन ऑफ तालिबान के लिए एमी अवॉर्ड मिला था। इसमें बताया गया था कि किस तरह जिहादी संगठन फिदायीन तैयार करते हैं। जैशे-मोहम्मद, लश्कर, हरकत उल अंसार, जिसे अब हरकत उल मुजाहिदीन कहा जाता है, जैसे जिहादी संगठनों के लिए कट्टरपंथी तत्व गरीब व अशिक्षित परिवारों के बच्चे तलाशते हैं। उन्हें खाने और शिक्षा दिलाने के नाम पर मीलों दूर प्रशिक्षण शिविरों में भेजा जाता है। यहा एकात में उन्हें इस्लाम और केवल इस्लाम की दीक्षा दी जाती है। बाहरी दुनिया से उनका कोई संपर्क नहीं होता। इसके बाद इन बच्चों के साथ घोर अमानवीय व्यवहार किया जाता है ताकि उनके मन में अपने अस्तित्व को लेकर ही घृणा का भाव पैदा हो जाए। फिर उन्हें इस्लाम के लिए मर मिटने पर जन्नत और हूरें मिलने का पाठ पढ़ाया जाता है। जिस बच्चे के साथ इतना घोर अमानवीय व्यवहार हो रहा हो उसके लिए मौत ज्यादा मुनासिब लगती है। इसके बाद इन बच्चों को पश्चिमी देशों और भारत में मुसलमानों के कथित उत्पीड़न की फर्जी सीडी आदि दिखाई जाती है। इसका बदला लेने को मजहबी दायित्व बता उन्हें मरने-मारने के लिए सहज तैयार कर लिया जाता है। इसलिए एक कसाब के मरने से आतंकवाद का रक्तरंजित अध्याय बंद हो जाएगा, ऐसी आशा करना व्यर्थ है।
[बलबीर पुंज: लेखक राज्यसभा सदस्य हैं]

विकृतियों वाला सेक्युलरवाद

http://www.jagran.com/editorial/apnibaat-9954109.html

अमरनाथ यात्रा के संदर्भ में सर्वोच्च न्यायालय का हाल का निर्णय वस्तुत: सेक्युलर विकृतियों को ही उजागर करता है। लंबे समय से कश्मीर घाटी के अलगाववादी नेता और उनके संरक्षक सेक्युलर दल हिंदुओं की पावन अमरनाथ यात्रा को लेकर अवरोध खड़ा करते आए हैं। घाटी के अलगाववादी नेता जहां अपने हिंसक विरोध के बल पर अमरनाथ यात्रा को बाधित करने का कुप्रयास करते हैं, वहीं उनके संरक्षक सेक्युलर दल पर्यावरण और कानून एवं व्यवस्था की आड़ में तीर्थयात्रियों की राह में संकट खड़ा करते हैं। पिछले साल अमरनाथ यात्रा के दौरान पर्याप्त स्वास्थ्य और राहत सेवाएं नहीं होने के कारण करीब सौ से ज्यादा तीर्थयात्रियों की मृत्यु यात्रा मार्ग में हुई थी। उसका स्वत: संज्ञान सर्वोच्च न्यायालय ने लिया था। उस पर सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश बीएस चौहान और एस कुमार की पीठ ने पवित्र गुफा तक 'मानवीय गरिमा और सुरक्षा' के साथ तीर्थयात्रियों की यात्रा सुनिश्चित करने के लिए जम्मू-कश्मीर सरकार सहित अमरनाथ श्राइन बोर्ड को निर्देश जारी किया। पीठ ने संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लेख करते हुए कहा है कि प्रत्येक नागरिक को गरिमामय, सुरक्षित और स्वच्छ वातावरण में जीने का अधिकार है। हर वार्षिक अमरनाथ यात्रा में समय के बीतने के साथ तीर्थयात्रियों की मृत्युदर बढ़ रही है। स्वास्थ्य, नागरिक सुविधाओं व साफ-सफाई के मामले में तीर्थयात्रियों की कठिनाइयां लगातार बढ़ती जा रही हैं।
अमरनाथ की यात्रा दुर्गम है, राह कठिन है और अनेक दुश्वारियां हैं, किंतु आज के वैज्ञानिक युग में उन कठिनाइयों को दूर करना असंभव नहीं है। अमरनाथ यात्रा को लेकर सेक्युलर दलों की उदासीनता और अलगाववादी नेताओं का मुखर विरोध एक मानसिकता से प्रेरित है। वह मानसिकता हिंदू और हिंदुस्तान की सनातनी संस्कृति के विरोध पर केंद्रित है। वास्तविकता यह है कि अमरनाथ यात्रा को हतोत्साहित करने का अभियान नया नहीं है। घाटी से कश्मीर की मूल संस्कृति के प्रतीक कश्मीरी पंडितों के बलात निष्कासन के बाद इस्लामी कट्टरवादियों का एक लक्ष्य पूरा हो चुका है। घाटी हिंदूरहित हो चुकी है। हिंदुओं के अधिकांश पूजास्थल ध्वस्त हो चुके हैं, परंतु कुछ प्रमुख आराध्य स्थल अभी भी जीवंत हैं और जिहादियों के निशाने पर हैं। अमरनाथ यात्रा का प्रत्यक्ष व परोक्ष विरोध उसी मानसिकता का उदाहरण है।
सन 2008 में यात्रा की अवधि 55 दिनों से घटाकर 15 दिनों तक करने पर लोग सड़कों पर उतर आए थे। तीर्थयात्रियों की सुविधा हेतु अमरनाथ श्राइन बोर्ड को उपलब्ध कराई गई 40 एकड़ जमीन अलगाववादियों को रास नहीं आई थी। अलगाववादियों को खुश करने के लिए तब सेक्युलर सत्ता अधिष्ठान ने फौरन जमीन आवंटन को निरस्त भी कर दिया था, किंतु इसकी तुलना में शेष भारत में मुसलमानों के मामलों में सेक्युलर दलों के बीच उन्हें जीवन के हर क्षेत्र में अधिक से अधिक सुविधाएं देने की होड़ लगी रहती है। यहां तो सरकारी खजाने की कीमत पर मुसलमानों को हज करने मक्का-मदीना भेजा जाता है, किंतु मानसरोवर यात्रा या अमरनाथ यात्रा में हिंदुओं को बुनियादी सुविधाएं तक उपलब्ध कराने की चिंता सेक्युलर अधिष्ठान को नहीं होती। सन 2009, 2010 और 2011 में हज सब्सिडी देकर सरकार ने लगभग सवा लाख हाजियों को मक्का-मदीना की यात्रा पर भेजा। सन 2009 में 690 करोड़ और 2010 और 2011 में करीब 600 करोड़ हज सब्सिडी का भारी-भरकम बोझ सरकारी राजस्व को झेलना पड़ा, जिसकी भरपाई बहुसंख्यक समुदाय को विभिन्न करों के मद में चुकानी पड़ती है। इस पंथनिरपेक्ष देश के हिंदू नागरिक विकृत सेक्युलरवाद से पोषित हज सब्सिडी का बोझ उठाकर जजिया कर नहीं तो फिर क्या चुका रहे हैं? हज दौरे पर सरकार डॉक्टरों, नर्सो, हज अधिकारी, हज सहायक आदि की फौज साथ भेजती है। मक्का-मदीना में 90 बेड का अस्पताल और 18 डिस्पेंसरी की व्यवस्था के साथ 17 एंबुलेंस हाजियों की सेवा में तत्पर रखे जाते हैं। अमरनाथ यात्रा के लिए ऐसी सुविधा क्यों नहीं होती?
राजस्थान हिंदू बहुल है और यहां के अजमेर शरीफ में हर साल उर्स का मेला लगता है, जिसमें लाखों की संख्या में जायरीन शरीक होते हैं। दिल्ली में हजरत निजामुद्दीन औलिया की दरगाह है। मुंबई में हाजी अली की दरगाह है। उत्तराखंड में कलियार शरीफ, तमिलनाडु में नागौर दरगाह आदि कई अन्य ऐसे प्रसिद्ध दरगाह देश में और भी हैं जहां हिंदू भी उतनी ही श्रद्धा से शीश नवाते हैं। कहीं किसी भी मुस्लिम आराधना स्थल पर बहुसंख्यक हिंदुओं द्वारा उत्पात नहीं मचाया जाता। दो साल पूर्व जम्मू-कश्मीर की सरकार ने अमरनाथ यात्रा और वैष्णो देवी की यात्रा के लिए राच्य में प्रवेश करने वाले दूसरे राच्यों के वाहनों पर दो हजार रुपये का प्रवेश शुल्क लगाया था, किंतु बहुलतावाद व पंथनिरपेक्षता का पाठ पढ़ाने वाले बुद्धिजीवी व राजनीतिक दल तब खामोश रहे। क्यों? कश्मीर घाटी में मुसलमान बहुसंख्यक हैं तो क्या वहां हिंदुओं का प्रवेश वर्जित कर दिया जाए? नहीं तो यह प्रवेश-कर क्यों? विभाजन से पूर्व पाकिस्तान के हिस्से में आए क्षेत्रों में हिंदू कुल जनसंख्या के एक चौथाई से भी अधिक थे। आज उनकी आबादी एक प्रतिशत से भी कम है। इन क्षेत्रों में विभाजन के दौरान करीब पांच सौ ऐतिहासिक मंदिर थे, जिनकी संख्या अब केवल 26 रह गई है। अधिकांश हिंदू तीर्थस्थल या तो जमींदोज कर दिए गए हैं या उनके खंडहर मात्र बचे हैं, जहां पूजा-अर्चना की भी समुचित व्यवस्था नहीं है। विभाजन से पूर्व लाहौर शहर की कुल आबादी में हिंदू-सिखों का अनुपात 70 प्रतिशत था। अब उनकी संख्या नगण्य है।
आज वहां हिंदू-सिखों को जान की सलामती के लिए जजिया देना पड़ता है या फिर मतांतरण के लिए विवश होना पड़ रहा है। पिछले कुछ सालों में पाकिस्तान में हिंदू युवतियों के अपहरण और उनसे बलात निकाह की घटनाएं लगातार बढ़ी हैं। हाल की एक खबर के अनुसार पाकिस्तान के सिंध प्रांत में हिंदू लड़कियों का जबरन धर्म परिवर्तन किया जा रहा है। पाक मानवाधिकार आयोग की एक रिपोर्ट में यह तथ्य सामने आया है। रिपोर्ट के अनुसार सिंध में हर महीने करीब 20 से 25 हिंदू लड़कियों का जबरन धर्म परिवर्तन किया जा रहा है। क्यों? यह स्थापित सत्य है कि जहां कहीं भी मुसलमान अल्पसंख्या में होते हैं वे पंथनिरपेक्षता, संविधान और प्रजातांत्रिक मूल्यों से प्रतिबद्ध होने का दावा करते हैं, किंतु जिस किसी भी क्षेत्र में वे बहुसंख्या में आते हैं उनके लिए शरीयत कानून सर्वोपरि हो जाते हैं। अमरनाथ प्रकरण में अलगाववादियों का विरोध जहां इस कटु सत्य को रेखांकित करता है वहीं यह सेक्युलरिस्टों के दोहरेपन को भी नंगा करता है।
[लेखक बलबीर पुंज, राच्यसभा सदस्य हैं]


Tuesday, September 11, 2012

सुरक्षा पर भारी पड़ते स्वार्थ

http://www.jagran.com/editorial/apnibaat-opinion-9644739.html
असम में हाल में जो जातीय संघर्ष हुआ उसके बारे में बहुत भ्रातिया हैं। समस्या को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में समझने की आवश्यकता है। 1947 में जब देश का बंटवारा हुआ उस समय भारी संख्या में पूर्वी पाकिस्तान से हिंदू शरणार्थी आए। कालातर में जब पाकिस्तानी फौजों ने बंगालियों के विरुद्घ दमन चक्र चलाया तब मुसलमान भी भारी संख्या में भारत के सीमावर्ती प्रदेशों में आए। 1971 में पाकिस्तान के टूटने और बाग्लादेश के सृजन पश्चात यह आशा हुई कि सभी जातिया और संप्रदाय के लोग साप्रदायिक सौहार्द के वातावरण में बाग्लादेश में रहेंगे, परंतु दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हुआ। शेख मुजीब की 1975 में हत्या कर दी गई और बाद में जनरल इरशाद ने इस्लाम को राजधर्म की मान्यता दी। इसके बाद बाग्लादेश में हिंदू, बौद्घ, ईसाई और जनजातिया यानी सभी वर्ग के अल्पसंख्यकों पर अत्यधिक अत्याचार हुए। आर्थिक कारणों से भारी संख्या में मुसलमानों ने बाग्लादेश से पलायन किया। ऐसा समझा जाता है कि बाग्लादेश से भारत आने वालों में 70 प्रतिशत मुसलमान और 30 प्रतिशत हिंदू व अन्य संप्रदायों के लोग थे। बाग्लादेश से घुसपैठ के अकाट्य प्रमाण हैं। इंस्टीट्यूट ऑफ डेवलपमेंट स्टडीज के अनुसार 1951 व 1961 के बीच करीब 35 लाख लोग पूर्वी पाकिस्तान से चले गए थे। बाग्लादेश के चुनाव आयोग ने भी पाया कि 1991 व 1995 के बीच करीब 61 लाख मतदाता देश से गायब हो गए। स्पष्ट है कि ये सभी व्यक्ति भारत के सीमावर्ती प्रदेशों में घुसपैठ कर चुके थे। 1996 में भी बाग्लादेश के चुनाव आयोग को मतदाता सूची से 1,20,000 नागरिकों के नाम काटने पडे़ थे, क्योंकि उनका कहीं अता-पता नहीं था। इतना सब होने के बाद भी बाग्लादेश के नेता जब यह कहते हैं कि उनके देश से अनधिकृत ढंग से पलायन नहीं हुआ तो उनकी गुस्ताखी की दाद देनी पड़ती है। भारत सरकार ने इस मुद्दे को बाग्लादेश सरकार से कभी गंभीरता से नहीं उठाया। 1998 में असम के तत्कालीन गवर्नर, जनरल एसके सिन्हा ने राष्ट्रपति को लिखे एक पत्र में चेतावनी दी थी कि बाग्लादेश से जिस तरह आबादी भारत में चली आ रही है, अगर उसका प्रवाह बना रहा तो वह दिन दूर नहीं जब असम के मूल निवासी अपने ही प्रदेश में अल्पसंख्यक हो जाएंगे और हो सकता है कि असम के कुछ जनपद भारत से कटकर अलग हो जाएं। चेतावनी का भारत सरकार पर कोई असर नहीं हुआ। कारगिल लड़ाई के बाद भारत सरकार ने चार टॉस्क फोर्सो का गठन किया था। इनमें से एक जो सीमा प्रबंधन से संबंधित थी उसके प्रमुख माधव गोडबोले भूतपूर्व गृह सचिव थे। इस टॉस्क फोर्स ने बड़ी निष्पक्ष आख्या प्रस्तुत की। गोडबोले ने अपनी रिपोर्ट में दो टूक शब्दों में लिखा कि बाग्लादेश से आबादी का जो अनधिकृत पलायन हो रहा है उसके बारे में सभी को मालूम है, परंतु दुर्भाग्य से समस्या से निपटने के लिए कोई आम सहमति नहीं बन पा रही है। टॉस्क फोर्स के आकलन के अनुसार सन् 2000 में बाग्लादेश से आए घुसपैठियों की संख्या लगभग 1.5 करोड़ थी। पिछले 12 वर्षो में यह संख्या बढ़कर कम से कम दो करोड़ तो हो ही गई होगी। 2001 में एक मंत्रि समूह ने टॉस्क फोर्स की रिपोर्ट पर अपनी टिप्पणी देते हुए कहा कि इतनी भारी संख्या में बाग्लादेशियों की उपस्थिति देश की सुरक्षा और सामाजिक सौहार्द के लिए एक खतरा है। यह प्रकरण सुप्रीम कोर्ट के सामने भी गया। 12 जुलाई 2005 को सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि बाग्लादेशियों के भारी संख्या में अतिक्रमण के कारण असम में आतरिक अव्यवस्था और वाह्य आक्रमण जैसी स्थिति है और निर्देश दिया कि जो बाग्लादेशी भारत में अनधिकृत तरीके से घुस आए हैं उन्हें देश में रहने का कोई अधिकार नहीं है और उन्हें भारत से निकाला जाए। भारत सरकार ने टॉस्क रिपोर्ट की संस्तुतियों की अनदेखी की, मंत्रि समूह की चेतावनी पर कोई ध्यान नहीं दिया और सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों की अवहेलना की। घुसपैठिए प्रथम चरण में तो याचक थे। स्थानीय नेताओं ने इन्हें अपना वोट बैंक बनाया और असम के निवासी होने के प्रमाण पत्र दिलाए। धीरे-धीरे इन लोगों ने जमीनें भी खरीदनी शुरू कर दी। इस तरह इन्होंने अपना आर्थिक आधार बना लिया। वर्तमान में जिसे तृतीय चरण कहा जा सकता है, अब ये घुसपैठिए अपनी राजनीतिक शक्ति का प्रदर्शन कर रहे हैं। 2008 में दरंग और उदलगिरी जनपदों में बोडो जनजाति और घुसपैठियों में दंगे हुए थे। इनमें 55 व्यक्तियों की जानें गई थीं। हाल में कोकराझाड़, धुबड़ी और अन्य जनपदों में जो हिंसा हुई वह भी 2008 की घटनाओं की पुनरावृत्ति थी, केवल जनपद बदल गए थे। भारतीय सेना के जाने के बाद ही स्थिति पर नियंत्रण पाया जा सका। सवाल यह है कि अब इस समस्या से निपटा कैसे जाए। इस विषय पर मेरे तीन सुझाव हैं। पहला तो यह कि राजीव गाधी की पहल पर 1985 में जो असम समझौता हुआ था उसको आधार मान कर जो भी लोग एक जनवरी 1966 और 24 मार्च 1971 के बीच असम आए थे उनका पता लगाकर उनका नाम मतदाता सूची से काट दिया जाए और जो लोग 25 मार्च 1971 के बाद आए थे उनका पता लगाने के बाद उन्हें वैधानिक तरीके से अपने देश वापस भेज दिया जाए। दूसरा, अगर यह मान लिया जाए कि इतने वर्षो बाद बाग्लादेशियों को वापस भेजना संभव नहीं तो कम से कम यह सुनिश्चित किया जाए कि इनको वोट देने का कोई अधिकार न हो और वह अचल संपत्ति भी न खरीद सकें। इन बाग्लादेशियों को वर्क परमिट दिया जाए, जिससे उन्हें रोजी कमाने का अधिकार तो हो, परंतु भारतीय नागरिक के सामान्य अधिकार न हों? तीसरा यह कि बंग्लादेश सीमा पर तार लगाने का जो कार्य चल रहा है उसे अतिशीघ्र पूरा किया जाए। नेशनल माइनॉरिटी कमीशन के अनुसार असम में जो हिंसा हुई थी वह बोडो और प्रवासी मुसलमानों के बीच थी। यह निष्कर्ष भ्रामक है कि यह मुसलमान आज की तारीख में भले प्रवासी हो गए हों, परंतु सब जानते हैं कि ये बाग्लादेश से आए थे और इन्होंने फर्जी दस्तावेज बनवा लिए हैं। एशियन सेंटर फॉर ह्यूमन राइट्स ने माइनॉरिटी कमीशन की रिपोर्ट की आलोचना करते हुए कहा कि वह बोडो के बारे में पूर्वाग्रह दिखाती हैं। बोडो वास्तव में अपने अस्तित्व के लिए लड़ रहे हैं। असम के मुख्यमंत्री ने अपने एक बयान में कहा कि प्रदेश में एक ज्वालामुखी सुलग रहा है। यह सही है, सरकार ने अपनी सैनिक शक्ति से स्थिति पर नियंत्रण तो पा लिया है, परंतु यह चिंगारी सुलगती रहेगी। जो नेतृत्व अपने राजनीतिक स्वार्थ के आगे नहीं सोचता और जिसके लिए राष्ट्रीय सुरक्षा से ज्यादा महत्वपूर्ण सत्ता में बने रहना है वह अपनी अकर्मण्यता और अदूरदर्शिता के दलदल में फंसता जाएगा।

Monday, August 20, 2012

त्रासदी से जूझता पूर्वोत्तर

असम में कोकराझाड़ समेत कुछ अन्य जिलों में व्यापक गुटीय हिंसा के बाद देश के विभिन्न हिस्सों में अफवाहों का जा दौर चला और उसके दुष्परिणामस्वरूप पूर्वोत्तर के लोगों को जिस तरह निशाना बनाया गया उससे आंतरिक सुरक्षा का कमजोर ढांचा ही सामने आया। रही-सही कसर कर्नाटक, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश आदि राज्यों से पूर्वोत्तर के लोगों के पलायन ने पूरी कर दी। यह पलायन आंतरिक सुरक्षा के मोर्चे पर केंद्र सरकार की नाकामी को उजागर करता है। इससे अधिक शर्मनाक और क्या होगा कि देश के एक हिस्से में उभरे सांप्रदायिक तनाव की प्रतिक्रिया देश के अलग-अलग हिस्सों में व्यक्त की जाए और राज्य सरकारों के साथ-साथ केंद्रीय सत्ता इस पर अंकुश लगाने में अक्षम साबित हो? यह राष्ट्रीय शर्म का विषय है कि पूर्वोत्तर के लोगों को अलग-अलग राज्यों में निशाना बनाया जा रहा है और इसके चलते वे अपने घरों की ओर भाग रहे हैं। इस मामले में पहला दोष असम सरकार का है, जो अपने यहां भड़की हिंसा पर रोक लगाने में असफल साबित हुई। असम सरकार की नाकामी को ढकने का प्रयास केंद्रीय सत्ता ने किया। नतीजा यह हुआ कि वहां की हिंसा के बहाने अन्य राच्यों में शरारती तत्व सक्रिय हो गए। चूंकि असम में कांग्रेस की ही सरकार है इसलिए केंद्रीय सत्ता ने न तो वहां भड़की हिंसा के बुनियादी कारणों की तह में जाने की कोशिश की और न ही यह देखने-समझने की कि राच्य सरकार अपने दायित्वों का सही तरह पालन कर रही है या नहीं? असम में भड़की हिंसा पर बोडो समुदाय का आरोप है कि बांग्लादेश से अवैध रूप से आकर बसे लोगों के कारण पूरे क्षेत्र का जनसांख्यिकीय स्वरूप बदल गया है। बोडो समुदाय की नाराजगी का एक कारण यह भी है कि 1985 में राजीव गांधी सरकार द्वारा किए गए समझौते को पूरी तरह लागू नहीं किया गया। पिछले डेढ़-दो दशकों में असम में बांग्लादेश से आए लोगों की आबादी जिस तरह बढ़ी है उससे स्थानीय समुदाय के लोगों को अपने संसाधन हाथ से खिसकते नजर आ रहे हैं। असम में भड़की हिंसा पर राच्य सरकार शुरू से ही हकीकत पर पर्दा डालते नजर आई। पहले उसकी ओर से यह आरोप लगाया गया कि सेना ने देर से हस्तक्षेप किया और फिर हिंसा भड़कने के अलग-अलग कारण बताने की होड़ लग गई। चूंकि असम सरकार ने वस्तुस्थिति समझकर सही कदम उठाने से इन्कार किया इसलिए हिंसा ने गंभीर रूप धारण कर लिया। स्थिति की गंभीरता का अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि करीब तीन लाख लोग राहत शिविरों में शरण लेने के लिए मजबूर हैं और खुद मुख्यमंत्री कह रहे हैं कि हालात सामान्य होने में दो-तीन माह का समय लगेगा। पता नहीं क्यों केंद्रीय सत्ता अभी भी बांग्लादेश से होने वाली घुसपैठ को लेकर अपनी आंखें बंद किए हुए है? जब अनेक स्नोतों से यह सामने आ चुका है कि पिछले तीन-चार दशकों में असम में बांग्लादेशी नागरिकों की आबादी कई गुना बढ़ गई है और सुप्रीम कोर्ट भी इस घुसपैठ को लेकर केंद्र सरकार को फटकार लगा चुका है तब हाथ पर हाथ धरकर बैठने का क्या मतलब? बांग्लादेश से आए लोगों का मुद्दा असम की एक पुरानी समस्या है और इसे लेकर खूब राजनीति भी होती रही है। एक समय उल्फा और असम गण परिषद की मान्यता यह थी कि असम में बाहर से आए सभी लोगों को निकाला जाना चाहिए। उनके निशाने पर बांग्लादेश और साथ ही देश के अन्य हिस्सों से आए लोग भी थे। एक समय इस मुद्दे ने राष्ट्रीय समस्या का रूप ले लिया था। बाद में न केवल उल्फा की विभाजनकारी रणनीति पर अंकुश लगाया गया, बल्कि राजनीतिक रूप से असम गण परिषद भी हाशिये पर चला गया। असम गण परिषद के कमजोर होने का फायदा कांग्रेस को मिला और वह पिछले तीन चुनाव जीतने में सफल रही। लंबे समय तक सत्ता में रहने से जो कमियां शासन में आ जाती है वे असम सरकार में भी नजर आ रही हैं, विशेषकर कानून एवं व्यवस्था के मोर्चे पर। असम के साथ-साथ देश के अन्य क्षेत्रों में स्थितियां इसलिए और अधिक खराब होती गईं, क्योंकि मोबाइल और इंटरनेट के जरिये सांप्रदायिक तनाव फैलाने वाले तत्वों पर लगाम नहीं लगाई जा सकी। मुंबई में तो असम हिंसा के विरोध में आयोजित प्रदर्शन अराजकता में तब्दील हो गया। केंद्र सरकार ने थोक में किए जाने वाले एसएमएस और एमएमएस पर रोक लगाने का निर्णय तब लिया जब कर्नाटक, आंध्र और महाराष्ट्र में रह रहे पूर्वोत्तर के लोग बड़े पैमाने पर पलायन के लिए विवश हो गए। भले ही प्रधानमंत्री और गृहमंत्री यह आश्वासन दे रहे हैं कि स्थितियां नियंत्रण में हैं, लेकिन यह कैसा नियंत्रण है कि पूर्वोत्तर के लोग यह भरोसा नहीं कर पा रहे हैं कि उनकी वास्तव में सुरक्षा की जाएगी? फिलहाल इस निष्कर्ष पर पहुंचना जल्दबाजी होगी कि नए गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे आंतरिक सुरक्षा की चुनौतियों से सही तरह से निपट नहीं पा रहे हैं, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि उनके पदभार संभालने के बाद से एक के बाद एक ऐसी घटनाएं सामने आ रही हैं जो उनके लिए किसी परीक्षा से कम नहीं। यह स्वाभाविक ही है कि प्रमुख विपक्षी दल भाजपा आंतरिक सुरक्षा के मामलों को आक्रामक ढंग से उठा रही है। पूर्वोत्तर के लोगों को निशाना बनाए जाने के मामले में प्रधानमंत्री ने जिस तरह केवल भाजपा शासित कर्नाटक के मुख्यमंत्री से बात करना जरूरी समझा उससे भाजपा को केंद्र सरकार पर हमला करने का मौका मिला। वैसे भाजपा को ध्यान रखना होगा कि बांग्लादेशी नागरिकों को निकालना आसान नहीं। खुद उसके नेतृत्व वाली राजग सरकार इस दिशा में कुछ ठोस नहीं कर सकी थी। केंद्र सरकार के लिए न केवल यह आवश्यक है कि वह पूर्वोत्तर के लोगों को सुरक्षा का अहसास कराए, बल्कि उसे इसकी तह में जाना होगा कि क्या असम में हिंसा के पीछे कोई बड़ी साजिश थी? केंद्र सरकार को समस्या की जड़ यानी बांग्लादेश से होने वाली घुसपैठ को रोकने के ठोस प्रयास भी करने होंगे। असम में अवैध रूप से रह रहे बांग्लादेशी नागरिकों को चिन्हित करना कोई सरल कार्य नहीं है। केंद्र सरकार को राजनीतिक स्वार्थो की परवाह करने के बजाय दृढ़ इच्छाशक्ति का परिचय देना होगा। किसी क्षेत्र के सीमित संसाधनों पर जब एक समुदाय का दबाव अत्यधिक बढ़ जाता है तो दूसरे समुदायों की समस्याएं बढ़ती हैं। असम के एक हिस्से में भड़की हिंसा का असर जिस तरह देश के अन्य हिस्सों पर पड़ा और पूर्वोत्तर के हजारों लोग पलायन के लिए मजबूर गए उससे इसका पता चलता है कि किस तरह शरारती तत्व इस हिंसा को हिंदू बनाम मुसलमान का रूप देने में सक्षम हो गए। इससे यह भी जाहिर हुआ कि शेष देश के लोगों को पूर्वोत्तर की समझ नहीं है। इस स्थिति के लिए एक हद तक केंद्रीय सत्ता भी जिम्मेदार है, जो पूर्वोत्तर को हमेशा रियायतों से प्रभावित करने की कोशिश में रहती है। यही कारण है कि इस क्षेत्र के लोगों का सामाजिक और राजनीतिक तौर पर शेष देश से वैसा मिश्रण नहीं हुआ जैसा अन्य इलाके के लोगों का हुआ है। स्थितियां तभी बदलेंगी जब पूर्वोत्तर के च्यादा से च्यादा लोग देश के अन्य हिस्सों में काम-काज के लिए आते रहेंगे। अगर किसी भी कारण से वे भयभीत होंगे तो इससे पूर्वोत्तर की भी समस्याएं बढ़ेंगी और शेष देश की भी। [संजय गुप्त]
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Friday, August 17, 2012

संसद की खतरनाक चुप्पी

विगत शनिवार को मुंबई के आजाद मैदान में असम दंगों के खिलाफ आयोजित विरोध प्रदर्शन का हिंसा पर उतर आना क्या रेखांकित करता है? स्थानीय मुस्लिम संगठन रजा अकादमी के आव्हान पर जनसभा में शामिल होने के बहाने हजारों की संख्या में एकत्रित भीड़ ने पुलिस की गाड़ियां जला डालीं, न्यूज चैनलों के ओबी वैन जलाए गए और आसपास की दुकानों को लूटपाट के बाद आग के हवाले कर दिया गया। इस दौरान पाकिस्तानी झंडे भी लहराए गए। प्रश्न यह है कि एक समुदाय विशेष के कट्टरपंथी वर्ग को देश की कानून-व्यवस्था का खौफ क्यों नहीं है? अपनी हर उचित-अनुचित मांग को पूरा करने के लिए जब-तब हिंसा की प्रेरणा उन्हें कौन देता है? मुंबई के उपरोक्त कांड से तीन कटु सत्य सामने आते हैं। पहला, देश में एक बड़ा वर्ग है, जो मजहब और मजहबी रिश्तों को देश की मिट्टी के साथ संबंध से बड़ा मानता है। नहीं तो कोई कारण नहीं था कि इस एकत्रित भीड़ की सहानुभूति बोडो लोगों के साथ ना होकर बांग्लादेशी घुसपैठियों के प्रति होती। दूसरा, उक्त विरोध प्रदर्शन में पाकिस्तानी झंडे फहराने का अर्थ यह है कि बहुत से भारतीयों की पहली प्रतिबद्धता पाकिस्तान के साथ है। तीसरा, वोट बैंक की राजनीति से मोहग्रस्त कथित सेक्युलर दलों में से किसी ने भी इस हिंसक घटना की निंदा नहीं की। उनका इस विषय में मौन रहना और पुलिस को पंगु बनाए रखना ही कट्टरपंथियों को प्रोत्साहन दे रहा है। मुंबई जैसी हिंसा वस्तुत: सेक्युलरिस्टों के दोहरे चाल-चरित्र का परिणाम है। सब जानते हैं कि असम की हिंसा के पीछे देश में अवैध रूप से घुसपैठ कर यहां बस चुके बांग्लादेशियों का हाथ है, किंतु संसद से लेकर मीडिया के एक बड़े वर्ग ने इस संबंध में चुप्पी साध रखी है। राज्य और केंद्र सरकार असम दंगों में बांग्लादेशियों का हाथ बताने से परहेज करती आई है। उच्च सदन में मैंने 8 अगस्त को बांग्लादेशी घुसपैठियों की चर्चा की थी, किंतु इस चर्चा में भाग लेने वाले अधिकांश सेक्युलर नेताओं ने लीपापोती करने का ही काम किया, इस खूनी संघर्ष के असली कारणों की चर्चा नहीं की। पूर्व गृहमंत्री पी चिदंबरम ने एक राहत शिविर का दौरा करने के बाद कहा कि असम में अब विभिन्न समुदायों के लोग रह रहे हैं। इन सब को शांति से रहना सीखना होगा। अर्थात स्थानीय जनजाति के लोगों को विदेशी घुसपैठियों द्वारा उनकी संपत्ति, सम्मान और पहचान के ऊपर होते आक्रमण के साथ समझौता करना सीखना होगा। जब सत्ता अधिष्ठान देश की संप्रभुता के साथ समझौता कर ऐसी कायरता दिखाएगा तो स्वाभाविक तौर पर अलगाववादी ताकतों को बढ़ावा मिलेगा। वस्तुत: असम के दंगे केवल असम का मामला नहीं है और ना ही यह बोडो जनजातियों तक सीमित है। करोड़ों की संख्या में अवैध रूप से घुसपैठ कर आए बांग्लादेशी नागरिक राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा बन चुके हैं। यह तब और गंभीर हो जाता है, जब वोट बैंक के कारण इस देश की संप्रभुता को चुनौती देने वालों को संरक्षण प्रदान किया जाता है। बांग्लादेशी नागरिकों की संख्या करीब डेढ़ करोड़ बताई जाती है। इनके कारण देश के कई प्रांतों का जहां जनसंख्या स्वरूप तेजी से बदला है, वहीं वे कानून-व्यवस्था के लिए भी गंभीर खतरा बन रहे हैं। असम में बस चुके अवैध बांग्लादेशी नागरिकों के निष्कासन को असंभव बनाने के लिए कांग्रेस सरकार ने 1983 में जो आइएमडीटी एक्ट बनाया था, उसे सर्वोच्च न्यायालय ने सन् 2005 में असंवैधानिक बताते हुए खारिज कर दिया था। सरकार को तब यह निर्देष दिया गया था कि वह बांग्लादेशियों की पहचान और उन्हें देश से बाहर करना सुनिश्चित करे। वह काम अधर में लटकाए रखा गया है। क्यों? इसे सन 2008 में गौहाटी उच्च न्यायालय द्वारा बाग्लादेशी नागरिकों के कारण पैदा हुई विसंगति पर की गई टिप्पणी से सहज समझा जा सकता है। 61 बांग्लादेशी नागरिकों की पहचान संबंधी सुनवाई करते हुए कोर्ट ने यह नोट किया कि उनमें से अधिकांश के पास राशन कार्ड, वोटर कार्ड और पासपोर्ट हैं। उनमें से एक, जिसके पास पाकिस्तानी पासपोर्ट था, ने 1996 में असम का विधानसभा चुनाव भी लड़ा था। सांसदों-विधायकों के चुनाव और अंतत: इस देश के नीतिनिर्माण में इन बांग्लादेशियों की घुसपैठ की गंभीरता को चिह्नित करते हुए कोर्ट ने तब कहा था कि असम में बांग्लादेशी किंगमेकर बन चुके हैं। आज ये प्रवासी मुसलमान असम की राजनीति में सर्वाधिक प्रभावी हैं। बांग्लादेश से निरंतर आ रहे घुसपैठिए सार्वजनिक जमीनों में बस्तियां आबाद करने के बाद स्थानीय नागरिकों को उनके घरों से बेदखल कर खदेड़ भगाना चाहते हैं। सवाल उठता है कि यह देश क्या धर्मशाला है, जहां कभी बांग्लादेश से तो कभी म्यांमार से अवैध घुसपैठिए बेरोकटोक आ धमकते हैं और स्थानीय जनजीवन को अस्तव्यस्त करते हैं? इन अवैध घुसपैठियों को इसलिए शरणार्थी मान लेना चाहिए कि वे मुस्लिम हैं? रोहयांग म्यांमारी और बांग्लादेशी घुसपैठियों का भारत से दूर-दूर का संपर्क नहीं है, फिर भी उन्हें संरक्षण दिलाने के लिए सेक्युलर दलों का एक बड़ा तबका चिंताग्रस्त है। किंतु उन हजारों हिंदुओं के लिए कोई फिक्त्रमंद दिखाई नहीं देता जो मजहबी चरमपंथ और हिंसा से आतंकित होकर पाकिस्तान से पलायन कर भारत में शरण की उम्मीद लगाए बैठे हैं। चौदह वर्षीय मनीषा कुमारी के अपहरण और बलात मत परिवर्तन के बाद उससे जबरन निकाह की ताजा घटना के साथ विगत शुक्रवार को ढाई सौ हिंदू-सिख परिवार भारत में शरण के लिए आए हैं। उनके समर्थन में भारत 
माता की जयघोष के साथ मुंबई जैसा प्रदर्शन क्यों नहीं होता? [लेखक बलबीर पुंज, भाजपा के राच्यसभा सांसद हैं]
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Friday, August 10, 2012

त्रासदी पर विचित्र खामोशी

इससे इन्कार नहीं किया जा सकता कि राष्ट्रीय खबरों के क्रम में पूर्वोत्तर भारत को सबसे निचला दर्जा हासिल है। जबानी जमाखर्च में तो खूब जोर दिया जाता है कि भारत के इस उपेक्षित भाग को मुख्यधारा में लाया जाना चाहिए, किंतु क्षेत्र की विलक्षण जटिलता और पहुंच में अपेक्षाकृत कठिनाई से यह सुनिश्चित हो जाता है कि यह तीसरी दुनिया में चौथी दुनिया है। पिछले दिनों असम के कोकराझाड़ और धुबड़ी जिलों में हुई हिंसा में पचास से अधिक लोग मारे गए तथा चार लाख से अधिक घर-द्वार छोड़ने को विवश हुए हैं। इस मुद्दे पर मीडिया का गढ़ा हुआ नया जुमला-मानवता पर संकट टीवी पर चर्चाओं में छा जाना चाहिए था और विभिन्न मानवाधिकार संगठनों में एक-दूसरे को पीछे छोड़ने की होड़ मच जानी चाहिए थी। ओडिशा के कंधमाल जिले में 2009 का संकट इससे हल्का होते हुए भी कहीं अधिक ध्यान खींच ले गया था। 2002 के गुजरात दंगों के बारे में तो कुछ कहना ही बेकार है, जो अब तक मीडिया की सुर्खियों में छाया हुआ है। दुर्भाग्य से ब्रंापुत्र नदी के उत्तरी किनारे के हालात इतने जटिल हैं कि यहां अच्छे और बुरे के बीच भेद करना मुश्किल है। क्या यह हिंदू बोडो और मुस्लिम घुसपैठियों के बीच टकराव है, जो बांग्लादेश से आकर यहां बस गए हैं? या फिर यह मूल निवासी बोडो और बंगाली भाषी अप्रवासियों के बीच संघर्ष है? अहम बात यह है कि सांप्रदायिक दंगे अस्वीकार्य हैं और जातीय संघर्ष इतनी भ?र्त्सना के काबिल नहीं है। धीरे-धीरे टीवी चैनलों पर कुछ सवाल उभरने शुरू हुए। क्या दंगाइयों के खिलाफ कार्रवाई में असम सरकार ने देरी की? छह जुलाई को कोकराझाड़ में दो मुसलमानों की हत्या और 20 जुलाई को बदले की कार्रवाई में चार बोडो कार्यकर्ताओं की हत्या के बाद तरुण गोगोई सरकार ने हालात को काबू करने के त्वरित उपाय क्यों नहीं किए? क्या तरुण गोगोई के इस बयान में सच्चाई है कि सेना ने रक्षामंत्री एके एंटनी की अनुमति मिलने से पहले कार्रवाई करने से इन्कार कर दिया था और इस कारण कार्रवाई में दो दिन की देरी हुई? क्या बोडो ट्राइबल काउंसिल के प्रमुख के इस कथन का कोई आधार है कि अंतरराष्ट्रीय सीमापार से आकर हथियारबंद बांग्लादेशियों ने हिंसा को भड़काया? इनमें से अधिकांश सवाल आधिकारिक जांच कमेटी की रिपोर्ट आने के बाद भी अनुत्तरित रह जाएंगे। हालांकि यह स्पष्ट है कि इस पूर्वनियोजित हिंसा पर प्रशासन की दोषसिद्धि पर मीडिया और राजनीतिक तबका लीपापोती पर उतर आया है। कोकराझाड़ और धुबड़ी में हुई जातीय-सांप्रदायिक हिंसा से जुड़ा एक असहज पहलू यह है कि निर्णायक शक्तियां इस त्रासदी पर कुछ नहीं करेंगी, उनके पास पेशकश के लिए कुछ है ही नहीं। असम में हिंसा की जड़ पिछले सौ वर्षो से निरंतर जारी जनसांख्यिकीय बदलाव में निहित है। बांग्लादेश से अप्रवासियों के रेले यहां बसते रहे और 1901 में 32.9 लाख की आबादी वाले असम की जनसंख्या 1971 में 1.46 करोड़ हो गई। इस कालखंड में असम की जनसंख्या 343.7 फीसदी बढ़ गई, जबकि इस दौरान भारत में जनसंख्या वृद्धि मात्र 150 फीसदी हुई। इसमें भी मुस्लिम आबादी बढ़ने की रफ्तार स्थानीय मूल निवासियों की वृद्धि दर से कहीं अधिक रही। पिछले सप्ताह चुनाव आयुक्त एमएस ब्रंा ने कहा कि 2011 की जनगणना से पता चल सकता है कि असम के 27 जिलों में से 11 जिले मुस्लिम बाहुल्य वाले हो गए हैं। बांग्लादेशियों की अवैध घुसपैठ ब्रंापुत्र घाटी के असमभाषी हिंदुओं में चर्चा का विषय बन गई है, जबकि अविभाजित गोलपाड़ा जिले के बोडो भाषी अल्पसंख्यकों के लिए तो यह मुद्दा जीवन-मरण का सवाल बन गया है। बोडो भाषी अल्पसंख्यकों की आबादी असम की कुल आबादी का महज पांच प्रतिशत है। उन्हें असमभाषी बहुसंख्यक आबादी से सांस्कृतिक चुनौती मिल रही है, जबकि बांग्लादेशी मुसलमानों से उन्हें अपने अस्तित्व पर संकट नजर आ रहा है। नब्बे के दशक में हिंसक बोडो आंदोलन इस दोहरी चुनौती से निपटने का प्रयास था। इस आंदोलन के कारण ही 1993 में बोडो टेरिटोरियल काउंसिल की अ?र्द्ध स्वायत्ताता स्थापित हुई। हालांकि इस हिंसक आंदोलन से हासिल अधिकांश लाभ मुस्लिम समुदाय के फैलाव से अब हाथ से फिसल गए हैं। मौलाना बदरुद्दीन अजमल के नेतृत्व में अखिल भारतीय संयुक्त लोकतांत्रिक मोर्चा आल असम माइनॉरिटी स्टूडेंट्स यूनियन और असमिया परिषद के उदय के कारण बोडो-मुस्लिम टकराव शुरू हो गया। एआइयूडीएफ की इस मांग से तनाव और बढ़ गया कि बोडो टेरिटोरियल काउंसिल द्वारा शासित अधिकांश भागों में अब बोडो का बहुमत नहीं रह जाने के कारण इसे भंग कर दिया जाना चाहिए। पिछले सप्ताह तत्कालीन गृहमंत्री पी. चिदंबरम ने कहा था कि अब असम में विभिन्न समुदायों के लोग रह रहे हैं। इन सबको शांति के साथ रहना सीखना होगा। उन्होंने सीमा पर बाड़ लगाने अथवा अवैध घुसपैठ के खिलाफ बनाए गए लचर कानून में संशोधन पर एक शब्द नहीं बोला। दिसपुर में बोडो समर्थन और पूरे देश में मुस्लिम समर्थन को लेकर दुविधाग्रस्त कांग्रेस के पास बोडो गुत्थी सुलझाने के लिए अधिक उपाय नहीं हैं। अतीत में भारत के उदारवादी बुद्धिजीवी तथाकथित सांप्रदायिक सवाल पर बहुत मुखर थे, खासतौर पर अल्पसंख्यकों की प्रताड़ना पर। असम में हिंसक घटनाओं पर इस तबके ने आश्चर्यचकित करने वाली चुप्पी ओढ़ रखी है। इसके कारण स्पष्ट हैं। बहुसंख्यकों की कथित बर्बरता तथा अल्पसंख्यकों की कमजोरी का चिरपरिचित फार्मूला धुबड़ी और कोकराझाड़ में फिट नहीं बैठता। असम में बोडो जाति चारो तरफ से घिर गई है। यहां बोडो एक अन्य अल्पसंख्यक समुदाय की सांप्रदायिकता का शिकार है, जो राष्ट्रीय स्तर पर अपनी मजबूती का लाभ क्षेत्रीय स्तर पर उठा रहा है। 2004 में, जब 2001 की जनगणना में असम में जनसांख्यिकीय बदलाव दृष्टिगोचर हुए तो खुफिया विभाग ने अपना सिर रेत में धंसा लिया और सुनिश्चित किया कि इस मुद्दे पर कोई सार्थक चर्चा न हो। एक बार फिर असम में यही प्रक्रिया दोहराई जा रही है। 1947 में मुस्लिम डरा-सहमा समुदाय था। 2012 में भारतीय पंथनिरपेक्षता ने अपनी जड़ें गहरी कर ली हैं और उसने पंथिक अल्पसंख्यकों की गरिमा व राजनीतिक सशक्तीकरण सुनिश्चित किया है। हालांकि इससे एक समस्या उठती नजर आ रही है कि अल्पसंख्यकों का सशक्तीकरण कहीं अन्य लोगों के लिए अन्यायपूर्ण न हो जाए। असम के बोडो अल्पसंख्यकों के लिए पंथनिरपेक्ष राजनीति में उनकी पहचान और अस्तित्व का संकट निहित है। [लेखक स्वप्न दासगुप्ता, वरिष्ठ स्तंभकार हैं]
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Wednesday, August 1, 2012

आग में झुलसता असम

पिछले दिनों की असम में हिंसक घटनाएं और आगजनी तथाकथित सेक्युलर दलों की कुत्सित राजनीति का परिणाम है। असम की वर्तमान हिंसा जातीय न होकर सीमा पार से आए मुस्लिम घुसपैठियों के हाथों स्थानीय जनजाति के लोगों की अपनी पहचान, सम्मान और संपत्ति की रक्षा का संघर्ष है। विगत 19 जुलाई से भड़की हिंसा में अब तक जहां 58 लोग अकाल मृत्यु के शिकार हुए वहीं करीब तीन लाख लोग अपने घरों से उजड़कर राहत शिविरों में रहने के लिए मजबूर हैं। इन शिविरों में खाने-पीने, सोने और दवा की व्यवस्था तक नहीं है। हिंसा के खौफ से गांव के गांव खाली हो गए। दंगाइयों ने इन गांवों के वीरान घरों और खेतों में लगी फसल को आग के हवाले कर दिया। मीडिया की खबरों के अनुसार सरकार को अंदेशा है कि दंगाइयों का अगला निशाना अब कोकराझाड़ के पड़ोसी जिले बन सकते हैं, इसलिए वह उन्हें खाली कराने पर विचार कर रही है। इस खबर में एक सेवानिवृत्त स्टेशन मास्टर बासुमतारी का उल्लेख है, जिसने बताया कि उन्होंने स्थानीय विधायक प्रदीप से रक्षा की गुहार लगाई तो उन्होंने पर्याप्त पुलिस बल नहीं होने की लाचारी दिखाई। गांव वालों के अनुसार टकराव की स्थिति तब बनी जब घुसपैठियों ने कोकराझाड़ के बेडलंगमारी के वनक्षेत्र में अतिक्त्रमण कर वहां ईदगाह होने का साइनबोर्ड लगा दिया। वन विभाग के अधिकारियों ने बोडो लिबरेशन टाइगर्स के साथ मिलकर यह अतिक्त्रमण हटा दिया। इसके विरोध में ऑल बोडोलैंड माइनारिटी स्टूडेंट यूनियन ने कोकराझाड़ जिले में बंद का आ ान किया था। 6 जुलाई को अंथिपारा में अज्ञात हमलावरों ने एबीएमएसयू के दो सदस्यों की गोली मारकर हत्या कर दी। 19 जुलाई को एमबीएसयू के पूर्व प्रमुख और उनके सहयोगी की हत्या हो गई। अगले दिन घुसपैठियों की भीड़ ने बीएलटी के चार सदस्यों की बर्बरतापूर्वक हत्या कर दी। इसके बाद ही बासुमतारी और अन्य गांव वाले हिंसा की आशंका में राहत शिविरों में चले गए। दूसरे दिन बांग्लादेशियों ने उनके घर और खेत जला दिए। कोकराझाड़, चिरांग, बंगाईगांव, धुबरी और ग्वालपाड़ा से स्थानीय बोडो आदिवासियों को हिंसा के बल पर खदेड़ भगाने वाले अवैध बांग्लादेशी घुसपैठिए हैं, जिनके कारण न केवल असम के जनसांख्यिक स्वरूप में तेजी से बदलाव आया है, बल्कि देश के कई अन्य भागों में भी बांग्लादेशी अवैध घुसपैठिए कानून एवं व्यवस्था के लिए गंभीर खतरा बने हुए हैं। हुजी जैसे आतंकी संगठनों की गतिविधियां इन्हीं घुसपैठियों की मदद से चलने की खुफिया जानकारी होने के बावजूद कुछ सेक्युलर दल बांग्लादेशियों को भारतीय नागरिकता देने की मांग कर रहे हैं। कुछ समय पूर्व गुवाहाटी उच्च न्यायालय ने तल्ख टिप्पणी की थी कि ये अवैध घुसपैठिए राज्य में किंगमेकर बन गए हैं। असम को पाकिस्तान का अंग बनाने का सपना फखरुद्दीन अली अहमद ने देखा था। जनसांख्यिक स्वरूप में बदलाव लाने के लिए असम में पूर्वी बंगाली मुसलमानों की घुसपैठ 1937 से शुरू हुई। पश्चिम बंगाल से चलते हुए उत्तर प्रदेश, बिहार व असम के सीमावर्ती क्षेत्रों में अब इन अवैध घुसपैठियों के कारण एक स्पष्ट भूमि विकसित हो गई है, जो मुस्लिम बहुल है। 1901 से 2001 के बीच असम में मुसलमानों का अनुपात 15.03 प्रतिशत से बढ़कर 30.92 प्रतिशत हो गया। इस दशक में असम के अनेक इलाकों में मुसलमानों की आबादी में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है और यह तेजी से बढ़ रही है। बांग्लादेश से आए अवैध घुसपैठियों की पहचान के लिए वर्ष 1979 में असम में व्यापक विरोध प्रदर्शन हुआ। इसी कारण 1983 के चुनावों का बहिष्कार भी किया गया, क्योंकि बिना किसी पहचान के लाखों बांग्लादेशियों का नाम मतदाता सूची में दर्ज कर लिया गया था। चुनाव बहिष्कार के कारण केवल 10 प्रतिशत मतदान ही दर्ज हो सका। विडंबना यह है कि शुचिता की नसीहत देने वाली कांग्रेस पार्टी ने इसे ही पूर्ण जनादेश माना और राज्य में चुनी हुई सरकार का गठन कर लिया गया। यह अनुमान करना कठिन नहीं कि 10 प्रतिशत मतदान करने वाले इन्हीं अवैध घुसपैठिओं के संरक्षण के लिए कांग्रेस सरकार ने जो कानून बनाया वह असम के बहुलतावादी स्वरूप के लिए अब नासूर बन चुका है। 2008 में सर्वोच्च न्यायालय ने कांग्रेस द्वारा 1983 में लागू किए गए अवैध आव्रजन अधिनियम को निरस्त कर अवैध बांग्लादेशियों को राज्य से निकाल बाहर करने का आदेश पारित किया था, किंतु कांग्रेसी सरकार इस कानून को लागू रखने पर आमादा है। इस अधिनियम में अवैध घुसपैठिया उसे माना गया जो 25 दिसंबर, 1971 (बांग्लादेश के सृजन की तिथि) को या उसके बाद भारत आया हो। इससे स्वत: उन लाखों मुस्लिमों को भारतीय नागरिकता मिल गई जो पूर्वी पाकिस्तान से आए थे। तब से सेक्युलरवाद की आड़ में अवैध बांग्लादेशियों की घुसपैठ जारी है और उन्हें देश से बाहर निकालने की राष्ट्रवादी मांग को फौरन सांप्रदायिक रंग देने की कुत्सित राजनीति भी अपने चरम पर है। बोडो आदिवासियों के साथ हिंसा एक सुनियोजित साजिश है। जिस तरह कश्मीर से कश्मीरी पंडितों को हिंसा के बल पर खदेड़ भगाया गया, हिंदू बोडो आदिवासियों के साथ भी पिछले कुछ सालों से इस्लामी जिहादी यही प्रयोग कर रहे हैं। 2008 में भी पांच सौ से अधिक बोडो आदिवासियों के घर जलाए गए थे, करीब सौ लोग मारे गए और लाखों विस्थापित हुए थे। तब असम के उदलगिरी जिले के सोनारीपाड़ा और बाखलपुरा गांवों में बोडो आदिवासियों के घरों को जलाने के बाद बांग्लादेशी मुसलमानों द्वारा पाकिस्तानी झंडे लहराए गए थे। इससे पूर्व कोकराझाड़ जिले के भंडारचारा गांव में अलगाववादियों ने स्वतंत्रता दिवस के दिन तिरंगे की जगह काला झंडा लहराने की कोशिश की थी। सेक्युलर मीडिया और राजनीतिक दल वर्तमान हिंसा को जातीय संघर्ष के रूप में पेश करने की कोशिश कर रहे हैं, जबकि कटु सत्य यह है कि यह हिंसा जिहादी इस्लाम से प्रेरित है, जिसमें गैर मुस्लिमों के लिए कोई स्थान नहीं है। बोडो आदिवासी पहले मेघालय की सीमा से सटे ग्वालपाड़ा और कामरूप जिले तक फैले थे। अवैध बांग्लादेशी घुसपैठियों की भारी बसावट के कारण वे तेजी से सिमटते गए। अब तो संकट उनकी पहचान और अस्तित्व बचाए रखने का है। दूसरी ओर इस्लामी चरमपंथी इस बात पर तुले हैं कि बोडोलैंड क्षेत्रीय परिषद (बीटीसी) के इलाके के जिन गांवों में बोडो समुदाय की आबादी आधी से कम है उन्हें बीटीसी से बाहर किया जाए। सच यह है कि असम के जिन क्षेत्रों में मुस्लिम धर्मावलंबी बहुमत प्राप्त कर चुके हैं वहां से इस्लामी कट्टरपंथी अब गैर मुस्लिमों को पलायन के लिए विवश कर रहे हैं। [लेखक: बलबीर पुंज, राज्यसभा सदस्य हैं]
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Monday, July 9, 2012

मुस्लिम आरक्षण का कानूनी पहलू


मुस्लिम आरक्षण का मुद्दा नए सिरे से चर्चा में है। कुछ दिनों पहले आध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने पिछड़े वर्गो के कोटा से अल्पसंख्यकों को आरक्षण देने के केंद्र सरकार के फैसले को खारिज कर दिया, बावजूद इसके पश्चिम बंगाल में पिछड़ी जातियों के साथ-साथ अल्पसंख्यकों को नौकरियों में 17 फीसदी आरक्षण देने का विधेयक आम सहमति से पारित हो गया। उत्तर प्रदेश के पिछले विधानसभा चुनाव में अल्पसंख्यक आरक्षण को राजनीतिक दलों ने चुनावी मुद्दा बनाने की कोशिश की थी। काग्रेस ने उच्च न्यायालय के फैसले के बावजूद मुस्लिम आरक्षण की आस नहीं छोड़ी है। केंद्रीय कानून मंत्री सलमान खुर्शीद सुप्रीम कोर्ट से इस मसले पर अंतरिम राहत न मिलने के बावजूद यह उम्मीद कर रहे हैं कि अंतत: फैसला मुस्लिम आरक्षण के हक में ही आएगा। कुल मिलाकर यह मुद्दा राजनीतिक रूप से ही नहीं, बल्कि कानूनी बहस का विषय बना हुआ है।
मुस्लिम आरक्षण पर आध्र प्रदेश उच्च न्यायालय के निर्णय ने कई नए सबक दिए हैं। पहला सबक यह कि सरकार को आरक्षण जैसे संवैधानिक रूप से संवेदनशील मुद्दे पर बहुत सतर्कता बरतने की जरूरत है। लोक मान्यता के खिलाफ इस निर्णय के जरिये अदालत ने मुस्लिम आरक्षण खारिज नहीं किया है, बल्कि सरकार द्वारा इसके लिए अपनाए गए तरीकों पर आपत्ति व्यक्त की है। संविधान में अनुसूचित जातियों/जनजातियों, अन्य पिछड़े वर्गो, बच्चों, महिलाओं तथा कुछ पिछड़े क्षेत्रों को आरक्षण देने की व्यवस्था है, लेकिन इन सभी के लिए अनुशासनबद्ध तरीका तय किया गया है। संविधान के 93वें संशोधन द्वारा अनुच्छेद-15 में खंड-5 जोड़कर यह व्यवस्था कर दी गई थी कि कानून बनाकर संस्थाओं में प्रवेश के मामले में आरक्षण दिया जा सकता है। सरकार ने मुस्लिम आरक्षण के मामले में इस संवैधानिक निर्देश का पालन नहीं किया। कानून बनाने के बजाय सरकारी आदेश जारी करके आरक्षण दे दिया गया। अत: संविधान में तय की गई प्रक्रिया का उल्लंघन किया गया है। इंदिरा साहनी के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने साफ किया था कि पिछड़े वर्गो को आरक्षण देते समय नई जोड़ी जाने वाली जातियों की सामाजिक, आर्थिक तथा शैक्षिक हैसियत का अध्ययन होना चाहिए और जब इस तथ्य के प्रमाण मिल जाएं कि उनकी परिस्थितिया ऐसी हैं जिसमें उन्हें विशेष आरक्षण दिए जाने की आवश्यकता है तभी आरक्षण का लाभ दिया जाना चाहिए। इसके पहले भी 2005 तथा 2007 में आध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने संविधान की अनदेखी करके दिए गए आरक्षण को असंवैधानिक घोषित कर दिया।
उच्च न्यायालय ने इन निर्णयों में दो बातों पर विशेष बल दिया था। पहला यह कि आरक्षण केवल मजहबी आधार पर नहीं होना चाहिए तथा दूसरा यह कि आरक्षण देते समय पिछड़ा वर्ग आयोग से मशविरा किया जाना चाहिए। सरकार ने पिछले दोनों निर्णयों से कोई सबक नहीं लिया। लगता है कि वह राजनीतिक लाभ पाने की बहुत जल्दी में थी और इस हड़बड़ी में उसके द्वारा किए गए आरक्षण से साफ होता है कि वह केवल धर्म के आधार पर किया गया आरक्षण है, जो संविधान के अनुच्छेद-15 और 16 द्वारा प्रतिबंधित है। सरकार यदि वाकई समाज के वंचित वर्ग को बेहतर सुविधाएं देने के प्रति ईमानदार है तो उसका संविधान सम्मत तरीका यह है कि समाज के अल्पसंख्यक या अन्य संभावित वंचित समाज की सामाजिक, आर्थिक तथा शैक्षिक हैसियत का आकलन किया जाए। अल्पसंख्यक आयोग से इसमें मदद ली जाए और शोधपरक अध्ययन के बाद इस तरह से लाभान्वित होने वाली जातियों को समानुपातिक तथा न्यायपूर्ण आरक्षण दिया जाए। आध्र प्रदेश सरकार ने इस सिद्धात का पालन नहीं किया।
आध्र प्रदेश उच्च न्यायालय के सामने तथा बाद में सुप्रीम कोर्ट के सामने केंद्र सरकार की ओर से दलील दी गई थी कि उसके द्वारा लिया गया आरक्षण का फैसला धार्मिक तथा भाषायी अल्पसंख्यक आयोग तथा इसी तरह के अन्य अध्ययनों के आधार पर लिया गया था। इस दलील में कई छेद हैं। पहला यह कि भाषायी तथा धार्मिक अल्पसंख्यक आयोग का सृजन पिछड़ेपन का अध्ययन करने के लिए नहीं किया गया। इसका गठन मूलत: अल्पसंख्यकों के हालात तथा उनके साथ होने वाले भेदभाव पर नजर रखने तथा अपने सुझाव देने के लिए किया गया था। पिछड़े वर्गो के संबंध में अध्ययन करने की जिम्मेदारी पिछड़ा वर्ग आयोग को दी गई है। इसे कानून द्वारा सृजित किया गया है। इसे कई बातों के साथ ही अन्य पिछड़ा वर्गो के संबंध में अध्ययन करने, उनके हालात का आकलन करने तथा उनकी बेहतरी के लिए शोधपरक सुझाव की जिम्मेदारी सौंपी गई है। अत: पिछड़े वर्ग का लाभ देने के लिए इस आयोग से मशविरा किया जाना आवश्यक है, जो सरकार द्वारा नहीं किया गया। सरकार ने अल्पसंख्यक वर्ग के अंतर्गत आने वाली पिछड़ी जातियों को एक साथ मिलाकर 4.5 फीसदी आरक्षण मुस्लिम अल्पसंख्यकों को दे दिया। इसमें कोई दिमागी कसरत नहीं की गई। कुल मिलाकर सरकार को सबक यह मिला कि संविधान के निर्देशों का पालन करते समय सस्ती लोकप्रियता के बजाय गंभीर नीयत का परिचय दिया जाए। केवल राजनीतिक लाभ के लिए किए गए लोकलुभावन निर्णयों से नुकसान के खतरे बढ़ जाते हैं।
[डॉ. हरबंश दीक्षित: लेखक विधि मामलों के विशेषज्ञ हैं]

Thursday, June 7, 2012

बेकार नहीं गई फई की दावतें



बेकार नहीं गई फई की दावतें

कश्मीर पर तो सन 1947 से सैकड़ों किस्म की राय, सलाह और रूपरेखाएं दी जाती रही हैं। लॉर्ड माउंटबेटन से लेकर गुलाम नबी फई और श्रीअरविंद से लेकर पनुन कश्मीर तक की अनगिनत सलाहें पुस्तकालयों से लेकर मंत्रालयों की फाइलों में उपलब्ध हैं। तब कश्मीर समस्या पर इस नवीनतम त्रि-सदस्यीय कमेटी द्वारा सुझाए गए समाधान की रूपरेखा किस बात में भिन्न है? इस कमेटी ने अपनी रिपोर्ट का शीर्षक एक पुराने, प्रचलन से बाहर के अंग्रेजी शब्द के सहारे दिया है, ए कॉम्पैक्ट विद द पीपल ऑफ जम्मू एंड कश्मीर। यहां कॉम्पैक्ट शब्द रहस्यमय है, क्योंकि इसका अर्थ शब्दकोष और सामान्य प्रयोग से नहीं निकलेगा। मगर रिपोर्ट पढ़कर समझ में आ जाता है कि कॉम्पैक्ट की आड़ में पैक्ट यानी समझौता कहा जा रहा है। तब इस छोटे, स्पष्ट शब्द के बदले अस्पष्ट शब्द का प्रयोग क्यों किया गया? क्या इसमें बिना साफ कहे कुछ अकथ कहने की कोशिश या कुछ कहकर उससे मुकरने का रास्ता खुला रखने की चतुराई बरती गई है? जिस अर्थ में इस कमेटी ने कॉम्पैक्ट शब्द का प्रयोग किया है, वैसा प्रयोग सदियों पहले शेक्सपीयर ने अपने नाटक जूलियस सीजर में किया था, ाट कॉम्पैक्ट मीन यू टु हैव विद अस? दिलचस्प बात यह है कि ठीक यही प्रश्न इस कमेटी से भारतीय जनता पूछ सकती है कि हमारे साथ तुम्हारा कौन सा करार रखने का इरादा है? क्या तुम हमारे मित्रों में गिने जाओगे या हम तुम पर कोई भरोसा न रखें? यानी वही जो शेक्सपीयर के पात्र ने अपने संदिग्ध मित्र से पूछा था। यह प्रश्न निराधार नहीं होगा। यह रिपोर्ट आरंभ से ही कटु सच्चाइयों से सायास बचने की कोशिश करती है। कश्मीर समस्या के जन्म से ही उसमें एक मजहबी तत्व रहा है, जिसकी अनदेखी कर रिपोर्ट में केवल सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक पहलुओं पर विविध बातें एकत्र की गई हैं। फिर, रिपोर्ट के अनुसार कमेटी ने जम्मू-कश्मीर से संबंधित वृहत साहित्य का भी अध्ययन किया, लेकिन उन पुस्तकों की सूची परिशिष्ट में नहीं दी गई है, जबकि अनेक अनावश्यक चीजें वहां हैं। इससे पता चलता कि कितना महत्वपूर्ण साहित्य कमेटी सदस्यों ने नहीं पढ़ा अथवा यदि पढ़ा तो उसकी बातें पूरी तरह उपेक्षित कीं। उदाहरण के लिए, कश्मीर घाटी से भगाए गए कश्मीरी हिंदुओं द्वारा हर विधा में लिखा गया विस्थापन साहित्य। इसमें वर्तमान से लेकर पीछे पीढि़यों तक के लंबे जीवंत कश्मीरी अनुभव हैं। सामाजिक-आर्थिक से लेकर राजनीतिक-सांस्कृतिक और मजहबी, मनोवैज्ञानिक तक। आजकल के कवियों की भाषा में कहें, तो स्वयं का भोगा हुआ यथार्थ। समाज विज्ञान की भाषा में कहें तो प्राथमिक श्चोतों के तथ्य और प्रमाण। इस रिपोर्ट में वह कहीं नहीं झलकता। कश्मीरी हिंदुओं के बारे में रिपोर्ट लगभग चुप है। रिपोर्ट के कुल 176 पृष्ठों में कुल दो पेज भर सामग्री भी कश्मीरी हिंदुओं को नहीं दी गई है। जो कहा भी गया है, वह नेशनल कांफ्रेंस द्वारा समय-समय पर कही जाने वाली इक्का-दुक्का रस्मी उक्तियों से कुछ भिन्न नहीं है। सच तो यह है कि कमेटी की रिपोर्ट उन लाखों कश्मीरी हिंदुओं को सही-सही पहचानने से भी इंकार करती है। सच से बचने वाली अपनी राजनीति संगत भाषा में उन्हें जड़ से उखड़े लोग कहती है। मगर इन उखड़े हुए लोगों की कही गई कोई बुनियादी बात रिपोर्ट में नहीं झलकती। कारण शायद यह है कि रिपोर्ट के शब्दों में, हमने इस राज्य को परेशान करने वाली अनगिनत समस्याओं को किसी एक क्षेत्र या जाति या मजहबी समुदाय की दृष्टि से देखने की गलती से बचने की कोशिश की है। ऊपर से सुंदर लगने वाली इस बात का वास्तविक, व्यवहारिक अर्थ यह भी हो सकता है कि कमेटी ने पहले से ही किसी भी क्षेत्र, समुदाय या मजहब को दोष न देना तय कर लिया था। जैसे, यह बुनियादी तथ्य कि कश्मीर-समस्या पाकिस्तान-समस्या से जन्मी और आज भी अभिन्न रूप से जुड़ी है। अब जिसने तय कर लिया हो कि उसे किसी एक मजहब को चर्चा में लाना ही नहीं, वह बुनियादी बात भी नहीं उठाएगा। मगर ऐसी समदर्शी दृष्टि जो अलगाववादी और समन्वयवादी के बीच, उत्पीड़ित और उत्पीड़क के बीच भेद न करने पर आमादा हो, वह सभी असुविधानक सच्चाइयों से बचने की कोशिश करेगी ही। इसीलिए इस रिपोर्ट में हर कदम पर, बार-बार अधूरी संज्ञाएं और विशेषण मिलते हैं, जिनसे कोई बात स्पष्ट होने की बजाए धुंधलके में रह जाती है। ऐसी रिपोर्ट लिखने वाली कमेटी कश्मीरी मुसलमानों और कश्मीरी हिंदुओं के बीच के बरायनाम संबंध से ऊपर, अलगाववादियों और समन्वयवादियों के विपरीत मनोभावों से ऊपर, इस्लाम और हिंदू धर्म के किसी भेद से ऊपर, भारत-पाकिस्तान के झगड़े से ऊपर उठी हुई है! रिपोर्ट पढ़कर लगता है कि अमेरिका में आइएसआइ के कश्मीरी एजेंट गुलाम नबी फई की दावतें बेकार नहीं गईं। एक जरूरी प्रश्न यह भी उठता है कि ऐसी समदर्शिता के साथ यह कमेटी किस का प्रतिनिधित्व कर रही थी? क्या कमेटी ने खुद उसी के शब्दों में राष्ट्रीय हित का प्रतिनिधित्व किया? ऐसा लगता नहीं, क्योंकि रिपोर्ट की पूरी भाषा नेशनल कांफेंस के मानवाधिकारी संगठनों, एक्टिविस्ट समूहों की भाषा से ही मिलती है। यह भारतीय राष्ट्रीय हितों की चिंता करने वाली भाषा से मेल नहीं खाती। यदि इन्हीं दृष्टियों से कश्मीर समस्या को देखना हो, तब याद रखें कि अमेरिकी सरकार, यूरोपीय संघ से लेकर सीआइए, आइएसआइ जैसी कई अंतरराष्ट्रीय सत्ताओं, एजेंसियों और उनके मुखौटे मानवाधिकारियों, एनजीओ की भी कश्मीर पर अपनी-अपनी स्थापित दृष्टि है। क्या इन दृष्टियों और इस कमेटी की दृष्टि में कोई भेद है? इस प्रश्न का उत्तर रिपोर्ट में ढूंढ़ना एक रोचक कार्य होगा।

Wednesday, May 23, 2012

घुसपैठियों की शरणस्थली


पिछले दिनों दिल्ली उच्च न्यायालय के हस्तक्षेप के बाद म्यांमार के हजारों अवैध घुसपैठियों को दिल्ली से बाहर निकालना संभव हुआ, जिन्हें दिल्ली पुलिस ने वसंत कुंज के समीप सुल्तानगढ़ी में शरण लेने की अनुमति दी थी, किंतु सरकार ने उन्हें देश से निकालने की अब तक कोई घोषणा नहीं की है। सेक्युलर दलों के सहयोग से देश में अब भी करीब डेढ़ करोड़ बांग्लादेशी घुसपैठिए न केवल सुरक्षित जिंदगी गुजार रहे हैं, बल्कि राशन कार्ड, मतदाता कार्ड बनवाने में भी सफल हो रहे हैं। इसलिए रोहयांग म्यांमारी घुसपैठियों की भारत में स्थायी रूप से बसने की आशंका निराधार नहीं है। रोहयांग म्यांमारी बांग्लादेश के चटगांव में हजारों बौद्ध चकमाओं के नरसंहार के अपराधी हैं, जिन्हें बांग्लादेश और म्यांमार, दोनों ने इस जघन्य कांड के लिए खदेड़ भगाया है। रोहयांग म्यांमारी नागरिक पिछले दिनों हजारों की संख्या में दिल्ली स्थित संयुक्त राष्ट्र के दफ्तर के सामने एकत्रित हुए और उससे भारत में शरणार्थी का दर्जा दिलाने की मांग की। भारत को रक्तरंजित करने में लगे विभिन्न आतंकी संगठनों के खिलाफ एक सशक्त व मजबूत एनसीटीसी नामक एजेंसी का प्रस्ताव लाकर केंद्र सरकार राज्य सरकारों से रार ठाने बैठी है। मैंने पिछले दिनों राज्यसभा में यह मामला उठाया था और सरकार से जानना चाहा था कि आखिर बिना वीजा ये लोग दिल्ली कैसे धमक आए? उन्हें संरक्षण और समर्थन देने वाले कौन से व्यक्ति या संगठन हैं?
इन सवालों का सरकार के पास कोई जवाब नहीं था। हैदराबाद, पंजाब, जम्मू, जलालाबाद, मेरठ, दिल्ली और खुर्जा में हजारों रोहयांग म्यांमारी अवैध रूप से आ बसे और सरकार को कोई जानकारी ही नहीं है। हजारों की संख्या में म्यांमार से चलकर यदि ये दिल्ली पहुंचे हैं तो किसने इतने बड़े वर्ग का नेतृत्व किया, किसने इनका वित्तपोषण किया और इन सबका समन्वय आखिर किसने किया? गृहमंत्री ने खानापूर्ति के लिए जांच कराने की बात की, किंतु यह कैसी सरकार है, जो आतंकवाद से लड़ने के लिए अभूतपूर्व कारगर एजेंसी बनाने का दावा करती है और दूसरी ओर हजारों की संख्या में अवैध घुसपैठ की उसे जानकारी तक नहीं होती? क्या यह देश धर्मशाला है, जहां कभी बांग्लादेश से तो कभी म्यांमार से अवैध घुसपैठिए बेरोकटोक आ धमकते हैं और स्थानीय जनजीवन को अस्तव्यस्त करते हैं? क्या वोट बैंक की राजनीति के लिए इन अवैध घुसपैठियों को इसलिए शरणार्थी मान लेना चाहिए कि वे मजहब विशेष के हैं? रोहयांग म्यांमारी और बांग्लादेशी घुसपैठियों का भारत से दूर-दूर का संपर्क नहीं है, फिर भी उन्हें संरक्षण दिलाने के लिए सेक्युलर दलों का एक बड़ा तबका चिंताग्रस्त है, किंतु उन हजारों हिंदुओं के लिए कोई फिक्रमंद दिखाई नहीं देता जो मजहबी चरमपंथ और हिंसा से खौफजदा होकर बांग्लादेश और पाकिस्तान से पलायन कर अपने वतन लौटे हैं। लाखों कश्मीरी पंडित अपने ही देश में बेगानों की तरह शरणार्थी शिविरों में जीवनयापन कर रहे हैं, किंतु उनकी घरवापसी की चिंता नहीं होती। क्यों? क्या इसलिए कि वे हिंदू हैं?
देश का विभाजन मजहबी जुनून के कारण हुआ। बड़े पैमाने पर रक्तपात हुआ। पाकिस्तान ने खुद को इस्लामी राष्ट्र के रूप में स्थापित कर लिया। 11 अगस्त, 1947 को मोहम्मद अली जिन्ना ने पाकिस्तान की संसद के माध्यम से यह भरोसा दिलाया था कि पाकिस्तान में अल्पसंख्यक बराबरी के अधिकार से सुरक्षित रहेंगे, किंतु उनके देहावसान से वह सपना ही रह गया। इसके बाद 1950 में तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू और पाकिस्तानी प्रधानमंत्री लियाकत अली खान के बीच एक संधि हुई। इसमें भी भरोसा दिलाया गया कि विभाजन के बाद दोनों देश अपने-अपने अल्पसंख्यकों का विशेष ख्याल रखेंगे, किंतु आज स्थिति कैसी है?
भारत अपनी पंथनिरपेक्ष परंपरा के अनुसार सेक्युलर राष्ट्र है, जहां मुसलमानों को न केवल बहुसंख्यकों के बराबर अधिकार प्राप्त हैं, बल्कि वोट बैंक की राजनीति के कारण प्राय: सभी सेक्युलर दलों में उन्हें ज्यादा से च्यादा विशेषाधिकार, रियायतें और सुविधाएं दिलाने की होड़ लगी रहती है। वहीं पाकिस्तान में हिंदू और ईसाइयों की क्या स्थिति है? वहां उनके साथ तीसरे दर्जे के नागरिक की तरह व्यवहार होता है। पाकिस्तान के मानवाधिकार आयोग की रिपोर्ट के अनुसार हर महीने अकेले सिंध प्रांत में 20-25 हिंदू लड़कियों के अगवा करने, उनका जबरन मतांतरण कराने के बाद उनका मुस्लिम लड़कों से निकाह कराने की घटनाएं सामने आती हैं। दिल्ली स्थित विदेशी क्षेत्रीय निबंधन कार्यालय के अनुसार पाकिस्तान से भारत आने वाले हिंदुओं की संख्या पिछले कुछ समय में तेजी से बढ़ी है।
हाल में रिंकल नामक एक हिंदू युवती के साथ जो हुआ वह पाकिस्तान में हिंदुओं की अवस्था को समझने के लिए काफी है। 26 मार्च को पाकिस्तान के मुख्य न्यायाधीश इफ्तिखार मोहम्मद चौधरी के समक्ष सिंध में अपने परिजनों के साथ रहने वाली 19 वर्षीय रिंकल कुमारी ने नावेद शाह नामक व्यक्ति पर अपने अपहरण का आरोप लगाते हुए उसे अपनी मां के संरक्षण में देने की गुहार लगाई। कोर्ट से जब पुलिस उसे खींचकर ले जा रही थी तो उसने बिलखते हुए मीडियाकर्मियों से कहा कि उसका जबरन मतांतरण और निकाह कराया गया है, किंतु 18 अप्रैल को मामले की सुनवाई के लिए जब वह दोबारा सर्वोच्च न्यायालय पहुंचीं तो उसने स्वेच्छा से मतांतरण और नावेद से निकाह करने की बात कबूल कर ली। कारण? सुनवाई के वक्त हजारों की संख्या में बंदूकधारियों का जमा होना। ऐसी अनेक रिंकलों की कहानी राजस्थान, गुजरात और पंजाब में शरणागत हिंदू परिवारों के सीनों में पैबस्त हैं, लेकिन जो स्वयंभू सेक्युलर दल पाकिस्तान के हिंदुओं के उत्पीड़न पर खामोश रहते हैं।
[बलबीर पुंज: लेखक भाजपा के राच्यसभा सदस्य हैं]

http://in.jagran.yahoo.com/news/opinion/general/6_3_9283960.html

Tuesday, May 8, 2012

देशघाती मानसिकता

आंध्र प्रदेश की पुलिस द्वारा 1 जुलाई, 2010 को एक मुठभेड़ में मारे गए शीर्ष नक्सली नेता चेरूकुरी राजकुमार उर्फ आजाद की मौत पर स्वयंभू मानवाधिकारियों के आंसू थमे नहीं हैं। पहले मुठभेड़ की सीबीआइ जांच की मांग की गई और जब सीबीआइ ने मानवाधिकारियों के प्रतिकूल मुठभेड़ को वास्तविक बताया तो सर्वोच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दाखिल कर विशेष जांच समिति गठित करने की गुहार लगाई गई। पिछले दिनों सर्वोच्च न्यायालय ने यह याचिका खारिज कर दी। नक्सली नेता चेरूकुरी पर 12 लाख का इनाम था। राज्य व्यवस्था के खिलाफ सशस्त्र क्रांति छेड़ने वाले नक्सलियों के प्रति मानवाधिकारियों के मोह का यह अकेला उदाहरण नहीं है। पश्चिम बंगाल में मारे गए शीर्ष नक्सली कमांडर कोटेश्वर राव उर्फ किशन की मौत पर भी स्वयंभू मानवाधिकारियों की टोली ने खूब हंगामा खड़ा किया था। इससे पूर्व नक्सलियों से सहानुभूति रखने वाले विनायक सेन और नक्सली विचारक कोबाद घंडी की गिरफ्तारी पर भी मानवाधिकारियों का कुनबा बिफर उठा था। यह कैसी मानसिकता है? देशघाती व्यक्तियों का मानवाधिकार क्या राष्ट्रहित से ऊपर है? अभी हाल ही में नक्सलियों ने छत्तीसगढ़ में सुकमा के जिलाधिकारी एलेक्स पाल मेनन को दिनदहाड़े अगवा कर लिया था। उनके दो सुरक्षाकर्मी मारे गए। इससे पूर्व उड़ीसा में बीजद के विधायक को नक्सलियों ने एक महीने तक अपनी कैद में रखा। इटली के दो पर्यटकों का अपहरण कर कई दिनों तक कैद में रखा गया। उससे पूर्व मलकानगिरी के जिलाधिकारी आर विरील कृष्णा का अपहरण किया गया था। इन सब की रिहाई के लिए सरकार को नामी और इनामी नक्सली कामरेडों को रिहा करना पड़ा, जिन पर राज्य के खिलाफ विद्रोह करने और जानमाल को नुकसान पहुंचाने का आरोप था। नक्सलियों की इस नई बंधक नीति के आगे घुटने टेकने से नि:संदेह उनका मनोबल बढ़ेगा और आगे इस तरह की और भी घटनाएं बढ़ेंगी ही। बंदूक के बल पर जनतंत्र को उखाड़ फेंकना नक्सलियों का घोषित एजेंडा है, यह उनका खुला चेहरा है, किंतु नक्सलियों का समर्थन करने वाले बुद्धिजीवी नकाबपोश हैं, जो मानवाधिकार के नाम पर हिंसा और रक्तपात को न्यायोचित ठहराने की कोशिश करते हैं। एक ओर नक्सलियों को स्वयंभू मानवाधिकारियों व बुद्धिजीवियों का समर्थन प्राप्त है तो दूसरी ओर केंद्र में एक ऐसी सरकार है, जो नक्सलवाद को महज सामाजिक-आर्थिक समस्या मानती है, जबकि नक्सली चीन प्रेरित हैं और बंदूक के बल पर राजसत्ता को पलटने का लक्ष्य रखते हैं। उनकी प्रेरणा चीनी साम्यवादी नेता माओ त्से तुंग हैं, जिसने हिंसा के बल पर चीन की सत्ता हथिया ली थी। नक्सलियों का न तो प्रजातंत्र पर विश्वास है और न ही वे भारत के प्रति आस्था का भाव रखते हैं। कथित तौर पर वे शोषित और वंचितों के हक के लिए हथियार उठाए घूम रहे हैं, किंतु हकीकत यह है कि उनकी हिंसा से गरीब आदिवासी ही सर्वाधिक आहत हैं। नक्सली हिंसा के कारण दूरस्थ प्रदेशों में विकास कार्य संभव नहीं हो रहे, इसलिए सामाजिक असमानता कायम है। प्रारंभिक नीति दूरस्थ आदिवासी इलाकों में सरकारी हस्तक्षेप न्यूनतम रखने की थी, ताकि उनकी संस्कृति और परंपराओं को अक्षुण्ण रखा जा सके, किंतु इसके दुष्परिणामस्वरूप जो शून्य उत्पन्न हुआ उस निर्वात को अलगाववादी ताकतों ने पूरा किया। इसमें चर्च की भूमिका बहुत घातक रही है, किंतु सेक्युलर दल और कथित मानवाधिकारी चर्च केइस राष्ट्रविरोधी चेहरे को भी बचाते आए हैं। पूर्वोत्तर के राज्य अलगाववाद की चपेट में हैं और इस अलगाववादी भावना के दोहन में चर्च का भारी योगदान है। खुफिया जानकारी के अनुसार माओवादी अब असम के उग्रवादी संगठन उल्फा के परेश बरूआ गुट के साथ मिलकर अपहरण और उगाही का काम कर रहे हैं। माओवादी उल्फा के साथ मिलकर अरुणाचल के रास्ते चीन तक सीधी पहुंच बनाने की कोशिश में हैं, ताकि अत्याधुनिक हथियार और गोलाबारूद की आपूर्ति सुगम हो सके। नागालैंड के उग्रवादी संगठन नेशनलिस्ट सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नागालैंड के साथ भी माओवादियों के घनिष्ठ संपर्क कायम होने की खुफिया जानकारी सरकार को है। नक्सल समस्या को सामाजिक-आर्थिक समस्या मानने वाली केंद्र सरकार इन खतरों की अनदेखी कर वस्तुत: देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए बड़ा खतरा पैदा कर रही है। उत्तर में नेपाल स्थित पशुपति से लेकर दक्षिण के तिरुपति तक फैले माओवादियों को अपने प्रभाव क्षेत्र की तराइयों, निष्ठावान कैडर और आधुनिक अस्त्रों के कारण बढ़त हासिल है। खुफिया विभाग के पास इस बात की पुख्ता जानकारी है कि माओवादी जम्मू-कश्मीर और पूर्वोत्तर के अलगाववादी आतंकी संगठनों के साथ घनिष्ठ संपर्क में है। स्वयं जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री ने भी इसकी पुष्टि की है। सशस्त्र माओवादी कैडरों की संख्या 15000 से ऊपर पहुंच चुकी है। 2008 में ऐसे कैडरों की संख्या महज चार हजार ही थी। इसकी तुलना में केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल, जिस पर माओवादियों के सफाए की जिम्मेदारी है, के पास न तो पर्याप्त आधुनिक असलहे हैं और न ही उन्हें समुचित प्रषिक्षण दिया गया है। पिछले तीन सालों में सुरक्षा जवानों और नक्सलियों के बीच होने वाली मुठभेड़ में सुरक्षाकर्मी ही बड़ी संख्या में मारे गए हैं। ऑपरेशन ग्रीनहंट की विफलता और सुरक्षा बलों की भारी क्षति के बाद केंद्रीय पुलिस संगठन और सीमा सुरक्षा बल के वर्तमान स्वरूप और उसकी क्षमता का आकलन करने से यह कटु सत्य सामने आया कि मौजूदा संसाधनों के साथ नक्सलियों से लोहा लेने में केंद्रीय रिजर्व बल समेत केंद्रीय पुलिस बल को अगले बीस सालों तक नक्सलियों के खिलाफ कोई बड़ी सफलता हाथ लगने वाली नहीं है। कहने को नक्सली आंदोलन भूमिगत है, किंतु आजाद, किशन, विनायक सेन और कोबाड घंडी जैसे लोगों के समर्थन में कुतर्क की भाषा बोलने वाले बुद्धिजीवी वस्तुत: भारतीय जनतंत्र और प्रजातांत्रिक मूल्यों के घोर विरोधी हैं। अन्यथा क्या कारण है कि सभ्य समाज को लहूलुहान करने वाले इस्लामी आतंकियों से लेकर माओवादियों के पक्ष में स्वयंभू मानवाधिकारी ढाल बनकर खड़े हो जाते हैं? इस्लामी आतंक और नक्सली हिंसा को संरक्षण देने वाला चेहरा धरातल पर दिखने वाला हो या भूमिगत, उनका उद्देश्य भारत की बहुलतावादी संस्कृति और विशिष्ट पहचान को नष्ट करना है। यह भारत के खिलाफ एक अघोषित युद्ध है और इस युद्ध में भारत के खिलाफ भारतीयों का ही सफलतापूर्वक उपयोग किया जा रहा है। जब तक नई दिल्ली में बैठा सत्ता अधिष्ठान इस सच्चाई को नहीं समझता तब तक नक्सलवाद के खिलाफ लड़ाई नहीं जीती जा सकती।
http://www.jagran.com/editorial/apnibaat-9228017.html

Tuesday, April 24, 2012

राजनीति का खतरनाक रूप


केरल का वर्तमान राजनीतिक घटनाक्रम वस्तुत: भारत में प्रचलित सेक्युलरवाद की विकृतियों को ही रेखांकित करता है। कांग्रेसनीत यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट सरकार में इंडियन युनियन मुस्लिम लीग और केरल कांग्रेस का दबदबा है। अभी हाल में मुस्लिम लीग ने सरकार की कलाई मरोड़ कर अपनी पार्टी के कोटे में पांचवां मंत्रालय भी हासिल कर लिया। ओमान चांडी के 21 सदस्यीय मंत्रिमंडल में अब अल्पसंख्यक कोटे के 12 मंत्री हैं, जिसमें केवल मुस्लिम लीग के पांच मंत्री हैं। जोड़तोड़ से सरकार बनाने में सफल कांग्रेस पर गठबंधन का दबाव इतना है कि जो काम मुख्यमंत्री का है वह काम भी घटक दल अपनी मनमानी से कर रहे हैं। मुस्लिम लीग ने कांग्रेस की कमजोर नब्ज दबा रखी है और उसी कारण न केवल अपने लिए पांचवां मंत्रालय झटका, बल्कि मंत्री और मंत्रालय भी अपनी मर्जी से स्वयं घोषित कर दिए।
करीब एक साल से मुस्लिम लीग इस पांचवें मंत्रालय की मांग कर रही थी। इसके समर्थन में सड़कों पर भी हरा झंडा लेकर विरोध प्रदर्शन किया गया, जिसमें मल्लपुरम को केरल की सत्ता का केंद्र बताया जाता था। मल्लपुरम वही ऐतिहासिक क्षेत्र है जहां मा‌र्क्सवादी नेता और बाद में केरल के पहले मुख्यमंत्री बने नंबूदरीपाद अलग पाकिस्तान के समर्थन में नारे लगाते सड़कों पर उतरा करते थे। परिस्थितियां आज भी वैसी ही हैं। राजनीतिक स्वार्थपूर्ति के लिए कांग्रेस अलगाववादी मानसिकता को पोषित कर रही है। मुस्लिम लीग या केरल कांग्रेस का भयादोहन केवल मंत्रालय तक सीमित नहीं है। केरल कांग्रेस और इंडियन मुस्लिम लीग के जो मंत्री हैं उनके सभी निजी सहकर्मी भी ईसाई और मुस्लिम संप्रदाय के हैं। इतना ही नहीं, केरल कांग्रेस और मुस्लिम लीग के मंत्री महोदय के अधीन जितने भी विभाग आते हैं उनमें शीर्ष स्तर पर नियुक्तिऔर तबादले अपने ही समुदाय से किए जा रहे हैं। केरल में हिंदुओं की आबादी 56 प्रतिशत है, किंतु ओमान चांडी की सरकार में केवल नौ हिंदू मंत्री हैं। ईसाई आबादी 19 फीसदी है और उनका प्रतिनिधित्व करने के लिए सात मंत्री हैं। इसी तरह मुस्लिमों की आबादी करीब 25 फीसदी है और उनके कोटे से पांच मंत्री हैं। आज केरल के नीति निर्माण में वहां के अल्पसंख्यक प्रभावी और निर्णायक भूमिका में हैं, जबकि वहां के बहुसंख्यक सरकार में अल्पसंख्यक बन गए हैं। क्या यह स्थिति सेक्युलरवादी राजनीति का परिणाम नहीं है? विडंबना यह है कि प्राय: पूरे देश में सेक्युलरवाद के नाम पर राजनीतिक दलों में वोट बैंक की राजनीति के कारण तुष्टीकरण की होड़ लगी है। तुष्टीकरण की यह होड़ देश को किस ओर ले जा रही है?
हाल में उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी सत्तासीन हुई है, किंतु विजयमाला के फूल सूखे भी नहीं थे कि मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को मुस्लिम चरमपंथियों की ब्लैकमेलिंग से दो-चार होना पड़ा। सपा नेता आजम खान और दिल्ली की जामा मस्जिद के इमाम सैयद बुखारी के बीच चली जुबानी जंग इस खतरनाक पहलू को ही रेखांकित करती है। केरल में मुस्लिमों का वोट बैंक अपने पाले में करने के लिए हर चुनाव के दौरान कांग्रेस और मा‌र्क्सवादियों के बीच होड़ लगी रहती है। पीपुल्स डेमोक्त्रेटिक पार्टी के संस्थापक अब्दुल नासेर मदनी कोयंबटूर बम धमाकों के आरोप में सन् 2008 में जब तमिलनाडु की जेल में बंद थे तब होली की छुट्टी के दिन केरल विधानसभा का विशेष सत्र बुलाया गया, जिसमें कांग्रेस और मा‌र्क्सवादियों ने सर्वसम्मति से मदनी को पैरोल पर छोड़ने के लिए प्रस्ताव पारित किया था।
आज मदनी चेन्नास्वामी स्टेडियम में बम विस्फोट के सिलसिले में कर्नाटक की जेल में बंद है, किंतु कांग्रेस और मा‌र्क्सवादी उसको संरक्षण देने से बाज नहीं आ रहे। केरल के पूर्व मा‌र्क्सवादी मुख्यमंत्री अच्युतांनद ने सार्वजनिक तौर पर राज्य का इस्लामीकरण किए जाने का खुलासा किया था, किंतु यह भी सच है कि कांग्रेस और मा‌र्क्सवादियों के मौन समर्थन के कारण लव जिहाद का खेल जारी है। बहला-फुसलाकर हिंदू युवतियों के साथ मुस्लिमों के निकाह किए जाने की साजिश का वित्तपोषण खाड़ी देशों से होता है। आतंकी संगठन इंडियन मुजाहिदीन [अलगाववादी मुस्लिम छात्र संगठन सिमी का नया अवतार] के कई स्लीपर सेल केरल में मौजूद हैं। इन खतरों के बीच केरल की राजनीति में इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग का प्रभावी भूमिका में होना आत्मघाती साबित हो सकता है।
हाल ही में पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने इमामों के लिए मासिक मेहनताना देने, उनके लिए मकान बनवाने की खातिर भूमि और आर्थिक मदद देने की घोषणा की। ममता की निगाह अगले साल होने वाले पंचायती चुनाव पर टिकी है, इसलिए स्वाभाविक तौर पर वह मा‌र्क्सवादियों से दौड़ में आगे रहने के लिए मुसलमानों को बढ़-चढ़ कर सौगातें दे रही हैं। उन्होंने बड़े पैमाने पर मदरसों की स्थापना करने की राह भी आसान की है। पश्चिम बंगाल में तीस सालों तक मा‌र्क्सवादियों का राज रहा, जिन्होंने वोट बैंक की खातिर बड़े पैमाने पर अवैध बांग्लादेशी घुसपैठियों की बसावट को नजरअंदाज किया। तुष्टीकरण की नीति के कारण ही आधी रात को बांग्लादेशी लेखिका तस्लीमा नसरीन को मा‌र्क्सवादियों ने राज्य से बाहर निकाल दिया था। हाल ही में राजस्थान की कांग्रेस सरकार ने छल-प्रपंच के बल पर सलमान रुश्दी को जयपुर में संपन्न साहित्य सम्मेलन में भाग लेने से वंचित कर दिया था। जो सेक्युलर जमात हिंदू देवी-देवताओं के नग्न चित्र बनाने वाले मकबूल फिदा हुसैन के समर्थन में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सवाल खड़ा करता है वह तस्लीमा नसरीन और सलमान रुश्दी के मामले में खामोश क्यों हो जाती है?
क्या भारत वास्तव में एक सेक्युलर देश है? देश के कई हिंदूबहुल राच्यों में यदि गैर हिंदू मुख्यमंत्री-राच्यपाल बन सकता है तो मुस्लिम बहुल या ईसाई बहुल राच्यों में एक हिंदू मुख्यमंत्री की कुर्सी पर क्यों आसीन नहीं हो पाता? मिजोरम, मेघालय, नागालैंड आदि में मुख्यमंत्री की कुर्सी पर कोई हिंदू अब तक नहीं बैठा। जम्मू-कश्मीर में गैर मुस्लिम का मुख्यमंत्री बनना वर्तमान में दिवास्वप्न ही है, जबकि मुस्लिम समुदाय के लोगों की एक लंबी सूची है, जो देश के भिन्न-भिन्न राच्यों में राच्यपाल या मुख्यमंत्री रहे। मुस्लिम समुदाय के लोग इस देश में राष्ट्रपति जैसे शिखर पद पर आसीन हो चुके हैं, किंतु कुछ राच्यों के साथ हिंदुओं का अनुभव ऐसा नहीं है। पूर्वोत्तर और जम्मू-कश्मीर में जिस दिन कोई हिंदू मुख्यमंत्री बनेगा वह सेक्युलरवाद की सच्ची जीत होगी, किंतु यक्ष प्रश्न यह है कि सेक्युलरवाद का मौजूदा स्वरूप क्या कभी ऐसा माहौल विकसित होने देगा?
[बलबीर पुंज: लेखक भाजपा के राच्यसभा सदस्य हैं]

Saturday, April 21, 2012

अल्पसंख्यक हिंदुओं की त्रासदी


सर्वधर्म समभाव और वसुधैव कुटुंबकम को जीवन का आधार मानने वाले हिंदुओं की स्थिति उन देशों में काफी बदतर है जहां वे अल्पसंख्यक हैं। भारत से बाहर रह रहे हिंदुओं की आबादी लगभग 20 करोड़ है। सबसे ज्यादा खराब स्थिति दक्षिण एशिया के देशों में रह रहे हिंदुओं की है। दक्षिण एशियाई देशों-बांग्लादेश, भूटान, पाकिस्तान और श्रीलंका के साथ-साथ फिजी, मलेशिया, त्रिनिदाद-टौबेगो में हाल के वर्षो में हिंदू अल्पसंख्यकों के खिलाफ अत्याचार के मामले बढ़े हैं। इनमें जबरन मतांतरण, यौन उत्पीड़न, धार्मिक स्थलों पर आक्रमण, सामाजिक भेदभाव, संपत्ति हड़पना आदि शामिल है। कुछ देशों में राजनीतिक स्तर पर भी हिंदुओं के साथ भेदभाव की शिकायतें सामने आई है। हिंदू अमेरिकन फाउंडेशन की आठवीं वार्षिक मानवाधिकार रिपोर्ट में इसका खुलासा हुआ है। यह रिपोर्ट 2011 की है, जिसे हाल ही में जारी किया गया है। रिपोर्ट के मुताबिक पाकिस्तान में 1947 में कुल आबादी का 25 प्रतिशत हिंदू थे। अभी इनकी जनसंख्या कुल आबादी की मात्र 1.6 प्रतिशत रह गई है। वहां गैर-मुस्लिमों के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार हो रहा है। 24 मार्च, 2005 को पाकिस्तान में नए पासपोर्ट में धर्म की पहचान को अनिवार्य कर दिया गया। स्कूलों में इस्लाम की शिक्षा दी जाती है। गैर-मुस्लिमों, खासकर हिंदुओं के साथ असहिष्णु व्यवहार किया जाता है। जनजातीय बहुल इलाकों में अत्याचार ज्यादा है। इन क्षेत्रों में इस्लामिक कानून लागू करने का भारी दबाव है। हिंदू युवतियों और महिलाओं के साथ दुष्कर्म, अपहरण की घटनाएं आम हैं। उन्हें इस्लामिक मदरसों में रखकर जबरन मतांतरण का दबाव डाला जाता है। गरीब हिंदू तबका बंधुआ मजदूर की तरह जीने को मजबूर है।
इसी तरह बांग्लादेश में भी हिंदुओं पर अत्याचार के मामले तेजी से बढ़े हैं। बांग्लादेश ने वेस्टेड प्रापर्टीज रिटर्न [एमेंडमेंट] बिल 2011 को लागू किया है, जिसमें जब्त की गई या मुसलमानों द्वारा कब्जा की गई हिंदुओं की जमीन को वापस लेने के लिए क्लेम करने का अधिकार नहीं है। इस बिल के पारित होने के बाद हिंदुओं की जमीन कब्जा करने की प्रवृति बढ़ी है और इसे सरकारी संरक्षण भी मिल रहा है। इसका विरोध करने वाले मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और पत्रकारों पर भी जुल्म ढाए जाते हैं। इसके अलावा हिंदू इस्लामी कट्टरपंथियों के निशाने पर भी हैं। उनके साथ मारपीट, दुष्कर्म, अपहरण, जबरन मतांतरण, मंदिरों में तोड़फोड़ और शारीरिक उत्पीड़न आम बात है। अगर यह जारी रहा तो अगले 25 वर्षो में बांग्लादेश में हिंदुओं की आबादी ही समाप्त हो जाएगी।
बहु-धार्मिक, बहु-सांस्कृतिक और बहुभाषी देश कहे जाने वाले भूटान में भी हिंदुओं के खिलाफ अत्याचार हो रहा है। 1990 के दशक में दक्षिण और पूर्वी इलाके से एक लाख हिंदू अल्पसंख्यकों और नियंगमापा बौद्धों को बेदखल कर दिया गया। ईसाई बहुल देश फिजी में हिंदुओं की आबादी 34 प्रतिशत है। स्थानीय लोग यहां रहने वाले हिंदुओं को घृणा की दृष्टि से देखते हैं। 2008 में यहां कई हिंदू मंदिरों को निशाना बनाया गया। 2009 में ये हमले बंद हुए। फिजी के मेथोडिस्ट चर्च ने लगातार इसे इसाई देश घोषित करने की मांग की, लेकिन बैमानिरामा के प्रधानमंत्रित्व में गठित अंतरिम सरकार ने इसे खारिज कर दिया और अल्पसंख्यकों, खासकर हिंदुओं के संरक्षण की बात कही। मलेशिया घोषित इस्लामी देश है, इसलिए वहां की हिंदू आबादी को अकसर भेदभाव का सामना करना पड़ता है। मंदिरों और अन्य धार्मिक स्थानों को अकसर निशाना बनाया जाता है। सरकार मस्जिदों को सरकारी जमीन और मदद मुहैया कराती है, लेकिन हिंदू धार्मिक स्थानों के साथ इस नीति को अमल में नहीं लाती। हिंदू कार्यकर्ताओं पर तरह-तरह के जुल्म किए जाते हैं और उन्हें कानूनी मामलों में जबरन फंसाया जाता है। उन्हें शरीयत अदालतों में पेश किया जाता है। सिंहली बहुल श्रीलंका में भी हिंदुओं के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार होता है। पिछले कई दशकों से हिंदुओं और तमिलों पर हमले हो रहे हैं। हिंसा के कारण उन्हें लगातार पलायन का दंश झेलना पड़ रहा है। हिंदू संस्थानों को सरकारी संरक्षण नहीं मिलता है। त्रिनिदाद-टोबैगो में भारतीय मूल की कमला परसाद बिसेसर के सत्ता संभालने के बाद आशा बंधी है कि हिंदुओं के साथ साठ सालों से हो रहा अत्याचार समाप्त होगा। इंडो-त्रिनिदादियंस समूह सरकारी नौकरियों और अन्य सरकारी सहायता से वंचित है। हिंदू संस्थाओं के साथ और हिंदू त्यौहारों के दौरान हिंसा होती है।
हिंदू अमेरिकन फाउंडेशन की आठवीं वार्षिक मानवाधिकार रिपोर्ट में जम्मू-कश्मीर में हिंदुओं के खिलाफ हो रहे अत्याचार का भी जिक्र है। पाकिस्तान ने कश्मीर के 35 फीसदी भू-भाग पर अवैध तरीके से कब्जा कर रखा है। 1980 के दशक से यहां पाकिस्तान समर्थित आतंकी सक्रिय हैं। कश्मीर घाटी से अधिकांश हिंदू आबादी का पलायन हो चुका है। तीन लाख से ज्यादा कश्मीरी हिंदू अपने ही देश में शरणार्थी के तौर पर रह रहे हैं। कश्मीरी पंडित रिफ्यूजी कैंप में बदतर स्थिति में रहने को मजबूर हैं। यह चिंता की बात है कि दक्षिण एशिया में रह रहे हिंदुओं पर अत्याचार के मामले लगातार बढ़ रहे हैं, लेकिन चंद मानवाधिकार संगठनों की बात छोड़ दें तो वहां रह रहे हिंदुओं के हितों की रक्षा के लिए आवाज उठाने वाला कोई नहीं है। जिस तरह से श्रीलंका में तमिलों के मानवाधिकार हनन के मुद्दे पर अमेरिका, फ्रांस और नार्वे ने संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग में प्रस्ताव रखा और तमिल राजनीतिक दलों के दबाव में ही सही भारत को प्रस्ताव के पक्ष में वोट डालना पड़ा उसी तरह की पहल भारत को भी दक्षेस के मंच पर तो करनी ही चाहिए।
[कमलेश रघुवंशी: लेखक दैनिक जागरण में वरिष्ठ पत्रकार हैं]

http://www.jagran.com/editorial/apnibaat-9164712.html

Tuesday, March 27, 2012

एनजीओ का काला सच



एनजीओ का काला सच

पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों की आपाधापी और रेल बजट प्रस्तुत होने के बाद उपजे राजनीतिक बवाल के बीच एक महत्वपूर्ण घटनाक्रम दब-सा गया। पिछले दिनों प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने राष्ट्रहित को सर्वोपरि रखते हुए उस सच को स्वीकार किया है जो कल तक भारत में मतांतरण गतिविधियों में संलग्न चर्च और अलगाववादी संगठनों की ढाल बनने वाले स्वयंभू मानवाधिकारी गुटों के संदर्भ में राष्ट्रनिष्ठ संगठन उठाते आए हैं। यह वह कड़वा सच है जिसे सेक्युलर दल भाजपा का सांप्रदायिक एजेंडा बताकर अब तक नकारते आए थे। प्रधानमंत्री ने कहा था कि तमिलनाडु में कुडनकुलम परमाणु परियोजना और कृषि क्षेत्र में वृद्धि के लिए जेनेटिक इंजीनियरिंग के प्रयोग का विरोध करने के पीछे विदेशों से वित्तीय सहायता पाने वाले गैर सरकारी संगठनों का हाथ है। पिछले दिनों सरकार ने राज्यसभा में बताया था कि 2007 से 2010 के बीच भारत में सक्त्रिय 65,500 एनजीओ को विदेशों से 31,000 करोड़ रुपये से अधिक की वित्तीय सहायता दी गई। यह राशि किन कायरें में खर्च होती है? महाराष्ट्र के जैतापुर और तमिलनाडु में कुडनकुलम परमाणु बिजली परियोजना का विरोध करने वाले संगठन वस्तुत: भारत के विकास को बाधित करने वाली अंतरराष्ट्रीय शक्तियों के मुखौटे हैं। पिछले कुछ दशकों के घटनाक्रमों का अध्ययन करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि ऊर्जा के क्षेत्र में भारत द्वारा किए जा रहे प्रयासों को लगातार बाधित करने की कोशिश की गई है। अस्सी के दशक में पनबिजली परियोजना का विरोध तो नब्बे के दशक में इसी मंशा से ताप विद्युत परियोजनाओं का विरोध किया गया। करीब दो दशकों तक नर्मदा बचाओ के नाम पर सरदार सरोवर बांध परियोजना को अधर में लटकाने का प्रयास किया गया, जिसके कारण परियोजना लागत व्यय में तीन सौ गुना वृद्धि हुई, किंतु गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने हार नहीं मानी। आज गुजरात और राजस्थान के मरुस्थल के आसपास रहने वाले लाखों लोगों की आर्थिक स्थिति में उस परियोजना के कारण क्रांतिकारी बदलाव आया है। अब कुछ विकसित देशों के इशारे पर परमाणु बिजली परियोजनाओं को ठप करने का प्रयास किया जा रहा है। इस देशघाती गतिविधि में संलग्न संगठन वस्तुत: अलगाववादी ताकतों के सतह पर दिखाई देने वाले चेहरे हैं। गृह मंत्रालय द्वारा प्रधानमंत्री को भेजी गई एक रिपोर्ट में बताया गया है कि कुछ एनजीओ विकलांग लोगों की मदद और कुष्ठ रोग उन्मूलन जैसे सामाजिक सेवा के कायरें के लिए विदेशों से धन प्राप्त करते हैं और उसका उपयोग कुडनकुलम जैसी परियोजना के खिलाफ अभियान चलाने में किया जाता है। एक अनुमान के अनुसार मिशनरी गतिविधियों को बढ़ावा देने के लिए 10,000 करोड़ से अधिक की धनराशि प्रतिवर्ष भारत भेजी जाती है। मिशनरी संगठनों के पितृ संगठन-इवेंजेलिकल फेलोशिप ऑफ इंडिया से ऐसे 35,000 चर्च सूचीबद्ध हैं, किंतु नए चचरें की वास्तविक संख्या आंक पाना कठिन होने के कारण विदेशों से भेजी जाने वाली राशि का अनुमान भी दुष्कर है। विदेशों से धन प्राप्त करने वाले करीब 75 प्रतिशत से अधिक संगठन ईसाई संगठन हैं। चर्च से संबद्ध ऐसे संगठन सामाजिक सेवा के नाम पर वस्तुत: मतांतरण अभियान के सहायक ही हैं। सीबीआइ कुडनकुलम में सक्रिय जिन चार एनजीओ-तूतीकोरिन डायासेसन एसोसिएशन, रूरल अपलिफ्ट सेंटर, गुडविजन चैरिटेबल ट्रस्ट और रूरल अपलिफ्ट एंड एजुकेशन की जांच कर रही है उन्हें सन 2006 से 2011 के बीच विदेशों से 36-37 करोड़ रुपये मिले थे। कुडनकुलम में चर्च के कार्डिनल और बिशपों द्वारा जो जन विरोध खड़ा किया गया वह वस्तुत: चर्च की घबराहट को रेखांकित करता है। उन्हें भय है कि कुडनकुलम जैसी बड़ी परियोजना से न केवल स्थानीय लोगों का भला होगा, बल्कि आसपास के दूरदराज के इलाकों के लोगों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति बेहतर होगी। पिछड़ों और वंचितों को कथित स्वास्थ्य सुविधाएं और शिक्षा देने के नाम पर देश के पिछड़े इलाकों में सक्रिय चर्च के कार्यो पर सरकार द्वारा समय-समय पर गठित की गई समितियों ने गंभीर प्रश्न खड़े किए हैं, किंतु सेक्युलर सत्ता अधिष्ठान चर्च के मतांतरण अभियान पर लगाम लगाने के बजाए राष्ट्रनिष्ठ संगठनों को ही कठघरे में खड़ा करता आया है। कुछ साल पूर्व गुजरात के डांग जिले में जब चर्च के इस तरह के मतांतरण का खुलासा हुआ तो सेक्युलरिस्टों ने भारतीय जनता पार्टी पर चर्च के उत्पीड़न का आरोप मढ़ने में देर नहीं की। ऐसी मानसिकता भारत की बहुलतावादी संस्कृति के लिए घातक है। हाल ही में कश्मीर घाटी में मुसलमानों का मत परिवर्तन कराने वाले पादरियों को शरीयत अदालत के आदेश पर प्रशासन ने गिरफ्तार किया था, किंतु विडंबना यह है कि देश के अन्य हिंदू बहुल भागों में सक्त्रिय चर्च के इस मतांतरण अभियान पर प्रश्न खड़ा होता है तो सेक्युलरिस्ट और स्वयंभू मानवाधिकारी संगठन चर्च के समर्थन में खड़े हो जाते हैं और उपासना के अधिकार का प्रश्न खड़ा किया जाता है। ग्राहम स्टेंस के कथित हत्यारे दारा सिंह की फांसी की सजा को उम्रकैद में बदलते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने भी चर्च के मतांतरण अभियान को लेकर बहुत कटु टिप्पणी की थी। मध्य प्रदेश में मिशनरी गतिविधियों की शिकायतों को देखते हुए इन आरोपों की जांच के लिए 14 अप्रैल, 1955 में तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने पूर्व न्यायाधीश डॉ. भवानी शंकर नियोगी की अध्यक्षता में एक समिति गठित की थी। समिति की प्रमुख संस्तुतियां मतांतरण के उद्देश्य से आए विदेशी मिशनरियों को बाहर निकालने और उनके प्रवेश पर पाबंदी लगाने की थी। उन्होंने कहा था कि बल प्रयोग, लालच, धोखाधड़ी, अनुचित श्रद्धा, अनुभवहीनता, मानसिक दुर्बलता का उपयोग मतांतरण के लिए नहीं हो। न्यायमूर्ति रेगे समिति , न्यायमूर्ति वेणुगोपाल आयोग (1982) और न्यायमूर्ति वाधवा आयोग (1999) ने भी नियोगी आयोग की संस्तुतियों को उचित ठहराया है। बाहरी शक्तियों की कठपुतली बन भारत की विकास परियोजनाओं का विरोध करने वाले गैर सरकारी संगठनों व स्वनामधन्य मानवाधिकारियों के वित्तीय श्चोतों की जांच स्वागत योग्य है, किंतु सरकार को आत्मा के कारोबार में लीन चर्च और उसके सहयोगी संगठनों पर भी लगाम लगानी चाहिए। इसके लिए छलकपट और प्रलोभन के बल पर होने वाले मतांतरण पर प्रतिबंध लगाने की आवश्यकता है।
[बलबीर पुंज: लेखक भाजपा के राज्यसभा सांसद हैं]
http://www.jagran.com/editorial/apnibaat-9063181.html

Monday, March 5, 2012

त्रासदी का विचित्र तमाशा


-स्वप्न दासगुप्ता
यह कटु लग सकता है, किंतु जिस तरह मीडिया और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने भयावह गुजरात दंगों की दसवीं वर्षगांठ को पीड़ितों के उत्सव में बदला है वह बेहद घृणित है। पीड़ितों को गले लगाने के लिए दिग्गज पत्रकार अहमदाबाद की दौड़ लगा रहे थे। दंगों में अपनी जान बख्शने की गुहार लगा रहे कुतुबुद्दीन अंसारी के दुर्भाग्यपूर्ण अति-प्रचारित फोटोग्राफ का दुर्भाग्यपूर्ण ढंग से दोहन किया गया। यह हिंसा को इतिहास के कूड़ेदान में फेंकने का संकल्प लेने का एक उचित अवसर हो सकता था, किंतु इसके बजाय यह महज तमाशा बनकर रह गया। हंगामेदार टीवी वार्ताओं में इसका पटाक्षेप हो गया।
घटनाओं के इस बदसूरत मोड़ के कारण स्पष्ट हैं। दस साल पहले गोधरा में साबरमती एक्सप्रेस पर हुए जघन्य हमले से गुजरात में हिंसा भड़की। इस पूरे प्रकरण में 'न्याय' का राजनीतिक दोषारोपण में रूपातंरण हो गया। कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं ने इस मुद्दे को जिंदा बनाए रखा। अब मुद्दा दंगाइयों और अमानवीय कृत्य के जिम्मेदार लोगों को दंडित करने का नहीं रह गया है, बल्कि एक व्यक्ति-मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को राजनीतिक निशाना बनाना भर रह गया है। यह माना जा रहा है कि अगर मोदी पर व्यक्तिगत रूप से दंगों को बढ़ावा देने के आरोप में मामला दर्ज हो जाता है तो न्याय हासिल हो जाएगा। एक अतिरिक्त लाभ के रूप में मोदी राजनीतिक परिदृश्य से गायब भी हो जाएंगे। परिणामस्वरूप अगले लोकसभा चुनाव में उनके प्रधानमंत्री पद की दावेदारी की संभावना भी खत्म हो जाएगी। संक्षेप में, अगर आप नरेंद्र मोदी को हरा नहीं सकते, तो उन्हें अयोग्य ठहरा दो।
अगर नरेंद्र मोदी राजनीतिक रूप से कमजोर हो जाते तो उनके खिलाफ न्यायिक संघर्ष भी दम तोड़ देता। 2002 या 2007 के चुनाव में अगर मोदी हार जाते तो उससे यह आत्मतुष्ट निष्कर्ष निकाल लिया जाता कि गुजरात ने भी उसी तरह प्रायश्चित कर लिया जिस तरह उत्तर प्रदेश ने अयोध्या में विवादित ढांचा गिराए जाने के बाद भारतीय जनता पार्टी को नकारकर किया था। एक्टिविस्टों का शिकंजा इसलिए कसता चला गया, क्योंकि इस बीच मोदी बराबर खुद को मजबूत करते चले गए और कांग्रेस एक प्रभावी चुनौती खड़ी करने की स्थिति में भी नहीं रही। परिणामस्वरूप, मोदी से निपटने का एकमात्र रास्ता यह रह गया कि उन्हें राजनीति से ही किनारे कर दिया जाए।
एक और पहलू गौरतलब है। पिछले दस वर्षो में नरेंद्र मोदी ने गुजरात का कायापलट कर दिया है। 2002 में सांप्रदायिक माहौल में चुनाव जीतने के बाद उन्होंने अपना ध्यान गुजरात के तीव्र विकास पर केंद्रित किया। गुजरात हमेशा से ही आर्थिक रूप से सशक्त राज्य रहा है और उद्यमिता तो जैसे गुजरातियों के डीएनए में समाई हुई है। मोदी के प्रयासों से गुजरात की विकास दर दहाई में प्रवेश कर गई। उन्होंने प्रशासन को चुस्त-दुरुस्त किया, राज्य की राजकोषीय स्थिति को सुधारा, भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाया और सरकारी योजनाओं को ईमानदारी से चलाया। मोदी एक आदर्श प्रशासक हैं, जो कम से कम खर्च में प्रभावी शासन का मंत्र जानते हैं। 2007 में उनकी चुनावी जीत हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण का परिणाम नहीं थी। इस जीत का श्रेय उनके सुशासन को जाता है। दूसरे, मोदी ने मुद्दे को सफलतापूर्वक हिंदू गौरव से गुजराती गौरव में बदल दिया। पिछले एक दशक में गुजरातियों के जनमानस में बड़ा बदलाव आया है। दरअसल, 1969 के दंगे के बाद से गुजरात एक दंगा संभाव्य राज्य बन गया था। 1969 के दंगे के बाद, 1971, 1972 और 1973 में गुजरात में भीषण दंगे हुए। इसके बाद लंबे अंतराल के बाद जनवरी 1982, मार्च 1984, मार्च से जुलाई 1985, जनवरी 1986, मार्च 1986, जनवरी 1987, अप्रैल 1990, अक्टूबर 1990, नवंबर 1990, दिसंबर 1990, जनवरी 1991, मार्च 1991, अप्रैल 1991, जनवरी 1992, जुलाई 1992, दिसंबर 1992 और जनवरी 1993 में दंगे हुए। इस दौरान गुजरात क‌र्फ्यू, सामाजिक असुरक्षा और हिंदू-मुस्लिम समुदायों में घृणा का साक्षी रहा। दंगों का यह सिलसिला पूरे गुजरात में चलता रहा। 1993 में सूरत में भीषण दंगे हुए थे।
मार्च 2002 के बाद से गुजरात में कोई दंगा नहीं हुआ है। वहां क‌र्फ्यू अतीत की बात बन गया है। इस असाधारण रूपांतरण का क्या कारण है? मोदी में बुराई ढूंढने वाले सेक्युलरिस्ट बिना सोचे-समझे इसका सतही जवाब यह देते हैं कि 2002 के दंगों के बाद गुजरात के मुसलमान इतने भयभीत हो गए हैं कि वे हिंदुओं के अत्याचारों का विरोध कर पाने की स्थिति में नहीं हैं। इस प्रकार की व्याख्या से तो यही लगता है कि दंगे मुस्लिम समुदाय के एक वर्ग द्वारा शुरू किए जाते थे। इसका सही कारण यह है कि गुजरात में पिछले एक दशक में बड़े आर्थिक और प्रशासकीय बदलाव हुए हैं। पहला बदलाव तो यह हुआ कि प्रशासकीय और राजनीतिक नेतृत्व, दोनों ने 2002 के दंगों में भड़की हिंसा से निपटने की अक्षमता से सबक लिया है। पुलिस को सत्तारूढ़ दल के छुटभैये नेताओं की दखलंदाजी से मुक्त करते हुए खुलकर काम करने का मौका दिया गया है। अवैध शराब व्यापार और माफिया पर शिकंजा कसा गया है। इसके अलावा एक अघोषित समझ यह भी विकसित हुई है कि राज्य एक और दंगे की राजनीतिक कीमत नहीं चुका पाएगा। इसीलिए, वहां हिंदू उग्रवाद पर अंकुश लगाने के लिए विशेष ध्यान दिया गया है।
गुजरात में सबसे बड़ा परिवर्तन सामाजिक स्तर पर आया है। आज गुजरात एक ऐसा समाज है जो पैसा बनाने और आर्थिक अवसरों का लाभ उठाने में लगा हुआ है। खुशनुमा वर्तमान और संभावनाओं से भरे भविष्य ने गुजरातियों के मन में भर दिया है कि दंगे धंधे के लिए सही नहीं हैं। इसका यह मतलब नहीं है कि दोनों समुदायों के बीच अतीत की कटुता खत्म हो गई है और उसका स्थान सौहा‌र्द्र ने ले लिया है। अब भी सांप्रदायिक टकराव होते हैं, किंतु सांप्रदायिक टकराव और सांप्रदायिक हिंसा में फर्क होता है। अगर आर्थिक और राजनीतिक अंकुश रहे तो सांप्रदायिक टकराव हमेशा सांप्रदायिक हिंसा में नहीं बदलते। गुजरात के मुसलमानों को अब राजनीतिक वरदहस्त हासिल नहीं है, जो उन्हें कांग्रेस के राज में हासिल था, किंतु इसकी क्षतिपूर्ति समृद्धि के बढ़ते स्तर से हो गई है। 2002 के दंगे भयावह थे, किंतु अब इस पर ध्यान देना महत्वपूर्ण है कि जनसंहार के बाद के दस सालों में गुजरात में अमनचैन कायम है और वह अभूतपूर्व विकास की राह पर अग्रसर है। उत्सव इसी बात का मनाया जाना चाहिए।

Tuesday, May 5, 2009

सेकुलर राजनीति की सच्चाई

गुजरात दंगों के संदर्भ में विशेष जांच दल की रपट से कथित सेकुलर वर्ग का झूठ उजागर होता देख रहे हैं तरुण विजय

Dainik Jagran, 19 April 2009, जिस समय प्राय: हर रोज सैनिकों और नागरिकों की आतंकवादियों द्वारा बर्बर हत्याओं के समाचार छप रहे हों उस समय यह देखकर लज्जा होती है कि भारतीय राजनेता परिवारवाद तथा मजहबी तुष्टीकरण के दलदल में फंसे हास्यास्पद बयान देने में व्यस्त है। गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि 'स्वधर्मे निधनं श्रेय: परधर्मो भयावह' अर्थात् अपने धर्म पर अडिग रहते हुए मृत्यु भी प्राप्त हो तो वह श्रेयस्कर है। आज सत्ता का भोग करने वाले यदि अपने मूल राजधर्म के पथ से अलग रहते है तो एक दिन ऐसा आता है जब न तो उनका यश शेष रहता है और न ही पाप कर्म से अर्जित संपदा। लोकसभा चुनावों में अनर्गल आरोप-प्रत्यारोप, मिथ्या भाषण तथा गाली-गलौज का जो वातावरण बना है वह राजनीतिक कलुश का अस्थाई परिचय ही कराता है।

आजादी के बाद से अब तक देश में ऐसे अनेक मंत्री, मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री हुए जिन्होंने अपने-अपने कार्यकाल में विवादों, चर्चाओं और अकूत संपत्तिका आनंद लिया, परंतु उन सब में हम ऐसे किन्हीं दो-चार व्यक्तियों का स्मरण करते है जो अपनी संपत्तिनहीं, बल्कि कर्तव्य के कारण जनप्रिय हुए। पैसा कभी वास्तविक सम्मान नहीं दिलाता, इस बात को वे राजनेता भूल जाते है जो भारत की मूल हिंदू परंपरा सभ्यता और संस्कृति के प्रवाह पर चोट करना अपनी सेकुलर राजनीति का आधार बना बैठे है कि इस देश को हमेशा धर्म ने बचाया है सेकुलर सत्ता ने नहीं। अब तक कई हजार सांसद और विधायक बन गए है, परंतु उनमें से ऐसे कितने होंगे जिन्होंने पैसा नहीं, यश कमाया है? क्या वजह है कि सरदार पटेल और लाल बहादुर शास्त्री कांग्रेस नेता होते हुए भी शेष दलों में भी आदर और सम्मान पाते है और भाजपा के हिंदुत्वनिष्ठ राजनीति के पुरोधा डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी हों अथवा दीनदयाल उपाध्याय, उनके प्रति कभी कोई आघात नहीं कर पाया। वे संपदा और राजनीतिक प्रभुता न होते हुए भी दायरों से परे सम्मान के पात्र हुए।

गुजरात में दंगों की जांच के लिए गठित विशेष जांच टीम के प्रमुख एवं पूर्व सीबीआई निदेशक ने पिछले सप्ताह अपनी रिपोर्ट सर्वोच्च न्यायालय में दाखिल की, जिसमें कहा गया कि गुजरात दंगों के बारे में कुछ स्वयंसेवी संगठनों ने अपने कुछ नेताओं के कहने पर एक जैसे प्रारूप पर रौंगटे खड़े करने वाले जो आरोप लगाए थे वे सरासर झूठ और मनगढ़ंत थे। इसमें तीस्ता जावेद सीतलवाड़ का नाम सामने आया, जिन्होंने इस प्रकार के आरोप उछाले थे कि गर्भवती मुस्लिम महिला से हिंदुओं ने दुष्कर्म के बाद बर्बरतापूर्वक उसकी हत्या कर दी। विशेष जांच टीम ने स्पष्ट रूप से ऐसे चार उदाहरण प्रस्तुत किए है जिनमें एक कौसर बी की हत्या, दूसरा नरौडा पाटिया में कुएं में मुस्लिमों की लाशें फेंकने, तीसरा एक ब्रिटिश दंपत्तिकी हत्या का था। ये तीनों घटनाएं सैकड़ों मुसलमानों द्वारा एक जैसी भाषा और एक जैसे प्रारूप पर जांच टीम को दी गई थीं और तीनों ही झूठी साबित हुईं। हालांकि तीस्ता ने इस खबर का तीव्र खंडन किया है, लेकिन इस पर विशेष जांच टीम ने कोई टिप्पणी नहीं की है। अत: खंडन के दावों की भी जांच जरूरी है। ध्यान रहे, इसी प्रकार अरुंधती राय ने भी गुजरात दंगों के एक पक्ष का झूठा चित्रण किया था। यह कैसा सेकुलरवाद है जो अपने ही देश और समाज को बदनाम करने के लिए झूठ का सहारा लेने से भी नहीं हिचकता? यह कैसे प्रधानमंत्री हैं जो परमाणु संधि न होने की स्थिति में इस्तीफा देने के लिए तैयार रहते है, लेकिन नागरिकों को सुरक्षा देने में असमर्थ रहते हुए भी पद पर बने रहते हैं।

इस देश में एक ऐसा सेकुलर वर्ग खड़ा हो गया है जिसने हिंदुओं की संवेदना तथा प्रतीकों पर चोट करना अपना मकसद मान लिया है। इन दिनों विशेषकर जिस प्रकार उर्दू के कुछ अखबारों में जहर उगला जा रहा है वह 1947 से पहले के जहरीले माहौल की याद दिलाता है। ऐसी किसी संस्था या नेता पर कोई कार्रवाई नहीं होती। इस स्थिति में केवल देशभक्ति और राष्ट्रीयता के आधार पर एकजुटता ही अराष्ट्रीय तत्वों को परास्त कर सकती है। दुर्भाग्य से इस देश में हिंदुओं का पहला शत्रु हिंदू ही होता है। इसी स्थिति को बदलने के लिए डा. हेडगेवार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की थी, ताकि हिंदू एकजुटता स्थापित हो और इस देश का सांस्कृतिक प्रवाह सुरक्षित रह सके। भारत में हिंदू बहुलता संविधान सम्मत लोकतंत्र और बहुलवाद की गारंटी है। जिस दिन हिंदू अल्पसंख्यक होंगे या उनका मनोबल सेकुलर आघातों से तोड़ दिया जाएगा उस दिन भारत न सिर्फ अपनी पहचान खो देगा, बल्कि यहां भी अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश जैसी मजहबी मतांधता छा जाएगी। पानी, बिजली, सड़क, रोजगार, गरीबी उन्मूलन, विज्ञान और प्रौद्योगिकी का विकास, ग्रामीण सम्मान की पुनस्र्थापना राजधर्म के अंतर्गत अनिवार्य कर्तव्य है, लेकिन यही सब स्वयं में कभी भी राष्ट्र की पहचान नहीं बन सकते। अगर भौतिकता राष्ट्र की पहचान होती तो तिरंगे झंडे और यूनियन जैक में फर्क ही नहीं रहता।

आज देश की राजनीति को वह दृष्टि देने की जरूरत है जो भारतीयता की रक्षा कर सके। देश आज विदेशी विचारधाराओं और नव उपनिवेशवादी प्रहारों से लहूलुहान हो रहा है। जिहादी हमलों में साठ हजार से भी अधिक भारतीय मारे गए है। नक्सलवादी-माओवादी हमलों में 12 हजार से अधिक भारतीय मारे जा चुके है। इन आतंकवादियों के पास हमारे सैनिकों से बेहतर उपकरण और हथियार होते है। भारत सरकार पुलिस और अर्धसैनिक बलों को घटिया हथियार, सस्ती बुलेट प्रूफ जैकेट और अपर्याप्त प्रशिक्षण देकर अमानुषिक आतंकवादियों का सामना करने भेज देती है। राजधर्म का इससे बढ़कर और क्या पतन होगा? जिस राज में सैनिक अपने वीरता के अलंकरण वापस करने लगें और संत अपमानित व लांछित किए जाएं वहां के शासक अनाचार को ही प्रोत्साहित करने वाले कहे जाएंगे।





झूठी कहानी की सच्चाई

विशेष जांच दल की रपट से गुजरात दंगों की कहानियों का झूठ उजागर होता हुआ देख रहे हैं एस. शंकर

Dainik Jagran, 23 April 2009, पिछले सात वर्र्षो से मीडिया में मानो एक धारावाहिक चल रहा है, जिसमें गोधरा, बेस्ट बेकरी, जाहिरा शेख, नरेंद्र मोदी, नरोड़ा पटिया, अरुंधती राय, मानवाधिकार आयोग और तीस्ता सीतलवाड़ आदि शब्द बार-बार सुनने को मिलते हैं। नाटक के आरंभ से ही नरेंद्र मोदी को खलनायक के रूप में पेश किया गया, किंतु जैसे-जैसे नई परतें खुलती गईं, पात्रों की भूमिकाएं बदलती नजर आईं। नवीनतम कड़ी में सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त विशेष जांच दल ने कोर्ट की तीन सदस्यीय पीठ को अपनी रिपोर्ट सौंपी। इसने गुजरात दंगे पर सबसे अधिक सक्रिय मानवाधिकार कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड़ को जघन्य हत्याओं और उत्पीड़न की झूठी कहानियां गढ़ने, झूठे गवाहों की फौज तैयार करने, अदालतों में झूठे दस्तावेज जमा करवाने और पुलिस पर मिथ्या आरोप लगाने का दोषी बताया है। चूंकि नई सच्चाई सर्वोच्च न्यायालय के माध्यम से आई है अत: तीस्ता और उनके शुभचिंतक मौन रहकर इसे दबाने का प्रयास कर रहे हैं। इस तरह अब तक जो अभियोजक थे अब वे आरोपी के रूप में कठघरे में दिखाई देंगे। वैसे इन वषरें में गुजरात दंगों से संबंधित हर नया पहलू इसी तरह बदलता रहा है। जाहिरा शेख का बार-बार गवाही-पलटना, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग द्वारा उतावलापन दिखाना, तहलका के पासे उलटा पड़ना, नानावती आयोग की वृहत रिपोर्ट, तीस्ता के अत्यंत निकट सहयोगी रईस खान द्वारा तीस्ता के भय से पुलिस सुरक्षा की मांग करने से लेकर अरुंधती राय द्वारा काग्रेस नेता अहसान जाफरी की बेटी के दुष्कर्म-हत्या की लोमहर्षक झूठी कथा लिखने और लालू प्रसाद यादव द्वारा नियुक्त मुखर्जी आयोग द्वारा गोधरा को महज दुर्घटना बताने तक सभी कड़ियों ने प्रकारातर में एक ही चीज दिखाई कि गुजरात सरकार पर लगाए गए आरोप मनगढ़ंत थे।

बेस्ट बेकरी मामला मात्र जाहिरा शेख के बयान बदलने से चर्चित हुआ। मानवाधिकार आयोग ने उसी जाहिरा की छह सौ पन्नों की याचिका पर गुजरात हाई कोर्ट पर सार्वजनिक रूप से लाछन लगाया। उन पन्नों को देखने की भी तकलीफ नहीं की, जिन पर कहीं भी जाहिरा के दस्तखत तक नहीं थे! पर चूंकि उसे तीस्ता ने जमा किया था इसलिए आयोग अधीर होकर सर्वोच्च न्यायालय से गुहार लगा बैठा कि बेस्ट बेकरी की सुनवाई गुजरात से बाहर हो। इस प्रकार आयोग ने न केवल अपनी मर्यादा का उल्लंघन किया, बल्कि गुजरात की न्यायपालिका पर कालिख भी पोती। यहां तक कि गुहार सुनते हुए स्वयं सर्वोच्च न्यायालय ने गुजरात हाई कोर्ट और वहां के मुख्यमंत्री के विरुद्ध कठोर टिप्पणियां कर दीं। किस आधार पर? एक ऐसे व्यक्ति के बयान पर, जो स्व-घोषित रूप से एक बार शपथ लेकर अदालत में झूठा बयान दे चुका था।

इस प्रकार हमारे राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने एक ही गवाह के एक बयान को मनमाने तौर पर गलत और दूसरे को सही मान लिया। इसी आधार पर गुजरात हाईकोर्ट की खुली आलोचना की, जिसने बेस्ट बेकरी केआरोपियों को दोषमुक्त किया था। उस निर्णय को 'सच्चाई का मखौल' बताकर सर्वोच्च न्यायपालकों ने नरेंद्र मोदी को भी 'राजधर्म' निभाने या 'गद्दी छोड़ देने' की सलाह दे डाली। साथ ही मामला मुंबई हाई कोर्ट को सौंप दिया गया। सर्वोच्च न्यायालय ने यह सब तब किया जब जाहिरा की मां और ननद ने कहा था कि सारा खेल तीस्ता करवा रही है और जाहिरा ने पैसे लेकर बयान बदला है। जाहिरा के वकील ने भी यही कहा था। फिर भी, सच्चाई की अनदेखी कर केवल कुछ उग्र, साधन-संपन्न मानवाधिकार कार्यकर्ताओं से प्रभावित होकर हमारे न्यायपालकों ने अपने को हास्यास्पद स्थिति में डाल लिया।

बाद में सर्वोच्च न्यायालय ने यह देखकर 'अपने को विचित्र स्थिति' में पाया कि जाहिरा के नाम पर प्रस्तुत किए गए भारी-भरकम दस्तावेजों में जाहिरा के दस्तखत ही नहीं हैं। यह सब तो अब स्पष्ट हो रहा है। इस बीच तीस्ता भारतीय न्यायपालिका को दुनिया भर में बदनाम कर चुकी थीं और उन्हें न्यूरेनबर्ग ह्यूमन राइट अवार्ड, ग्राहम स्टेंस इंटरनेशनल अवार्ड फार रिलीजियस हारमोनी, पैक्स क्रिस्टी इंटरनेशनल पीस प्राइज, ननी पालकीवाला अवार्ड से लेकर पद्मश्री तक कई देशी-विदेशी पुरस्कार मिल चुके हैं। न्यायाधीशों ने जाहिरा शेख को झूठे बयान देने के लिए सजा दी। अमेरिकी संसद की 'यूनाइटेड स्टेट्स कमीशन आन इंटरनेशनल रिलीजस फ्रीडम' के सामने भी तीस्ता ने मनगढ़ंत गवाही दी थी। क्या हमारे न्यायाधीश उन सारी झूठी गवाहियों की असल सूत्रधार को कोई सजा देंगे? तीस्ता को इसलिए सजा मिलनी चाहिए ताकि आगे न्यापालिका और मीडिया का दुरुपयोग कर अपना उल्लू साधने वालों को चेतावनी मिले। गुजरात हाईकोर्ट ने अपने निर्णय में वही बातें लिखी थीं जिन्हें अब सुप्रीम कोर्ट के विशेष जांच दल ने जांच में सही पाया है।

हाईकोर्ट ने कहा था कि जाहिरा का 'कुछ लोगों को बदनाम करने का षड्यंत्र' दिखता है और यह भी कि वह कुछ समाज-विरोधी और देश-विरोधी तत्वों के गंदे हाथों में खेल रही हैं। हाईकोर्ट ने ऐसे लोगों और कुछ गैर सरकारी संगठनों द्वारा पूरे राज्य प्रशासन और न्यायपालिका को निशाना बनाने तथा एक समानातर जांच चलाने की भी आलोचना की थी, पर उस निर्णय को निरस्त करके सर्वोच्च न्यायालय ने कठोर टिप्पणियां कर दीं। उसी से देश-विदेश में गुजरात हाई कोर्ट की छवि धूमिल हुई। क्या आज गुजरात हाईकोर्ट के वे न्यायाधीश सही नहीं साबित हुए, जिन्हें पक्षपाती समझ कर उन न्यायिक मामलों को राज्य से बाहर ले जाया गया था? आशा की जा सकती है कि अपने ही द्वारा गठित विशेष जांच दल की इस रिपोर्ट के बाद सर्वोच्च न्यायालय न्यायिक प्रक्रिया का दुरुपयोग करने वालों पर कड़ी कार्रवाई करेगा। गुजरात धारावाहिक की अंतिम कड़ियां आनी अभी बाकी हैं।