जिस संगठन का उद्देश्य खलीफा की स्थापना करना हो वह हिंसा के माध्यम से अपने कृत्यों का अंजाम देना ही चाहेगा। खिलाफत के पक्ष में आंदोलन 1920 के दशक में चला जिसे गांधीजी का पूर्ण समर्थन मिला और जिसने अली बंधुओं को भारतीय मुसलमानों को रहनुमा बना दिया, पर इतने मजबूत जनांदोलन की मौत हो गई, क्योंकि तुर्की के जिस खलीफा संस्था के पक्ष में आंदोलन चलाया जा रहा था उसे मुस्तफा कमाल पाशा ने आधुनिकीकरण की प्रक्रिया में खत्म कर दिया। सिमी को अभी रियाद के वर्ल्ड असेंबली आफ मुस्लिम यूथ से आर्थिक सहायता मिलती है और कुवैत के इंटरनेशनल इस्लामिक फेडरेशन आफ स्टुडेंट्स आर्गनाईजेशन से इसके गहरे संबंध है। इसे पाकिस्तान एवं शिकागो स्थित कंसल्टेटिव कमेटी आफ इंडियन मुस्लिम्स से भी आर्थिक मदद मिलती है। हिजबुल मुजाहिदीन,आईएसआई, हुजी तथा कई अन्य आतंकी संगठनों से इसके करीबी रिश्ते माने जाते हैं। सरकारी सूत्रों के अनुसार 1993 में एक सिख की गिरफ्तारी के बाद यह खुलासा हुआ कि विध्वंसक कारनामों को अंजाम देने के लिए आईएसआई ने सिमी काडर, सिख तथा कश्मीरी उग्रवादियों को एक साथ लाने का काम किया। सिमी के 400 अंसार यानी पूर्णकालिक काडर तथा 20 हजार सामान्य सदस्य हैं जिनके बीच वह लोकतंत्र, पंथनिरपेक्षता एवं राष्ट्रवाद के विरुद्ध विषवमन करता है।
सिमी की पृष्ठभूमि से यह साफ हो जाता है कि इसकी विचारधारा और गतिविधियां गैरकानूनी हैं। अनेक आतंकी घटनाओं के लिए इसे जिम्मेदार माना गया है। ऐसे में आखिर उच्च न्यायालय के ट्रिब्यूनल ने इस पर लगे प्रतिबंध को कैसे हटा दिया? यहां एक कानूनी पेंच भी नजर आता है। यदि प्रशासनिक अधिकारी तथ्यों के आधार पर संतुष्ट हैं कि किसी संगठन पर प्रतिबंध लगना चाहिए, क्योंकि उसकी गतिविधियां राष्ट्रविरोधी हैं तो क्या इस संतुष्टि की समीक्षा न्यायालय करेगा? पहले अदालत केवल यह देखती थी कि जो तथ्य हैं वे सही हैं या नहीं? उन तथ्यों के आधार पर किसी निर्णय पर पहुंचना सरकार का काम है और प्रशासनिक संतुष्टि आत्मगत हो सकती है, लेकिन बेरियम मिल मामले में न्यायिक समीक्षा के दायरे को विस्तार देते हुए उच्चतम न्यायालय ने व्यवस्था दी कि अदालत यह भी जांच करेगी कि उन तथ्यों के आधार पर उन निष्कर्र्षो तक पहुंचना कितना सही है? इस पर सवाल उठ सकता है कि यदि प्रशासन के इस तरह के निर्णय की न्यायिक समीक्षा होगी तो अपराध एवं आतंकवाद पर काबू पाना कैसे संभव होगा, किंतु इसका दूसरा पक्ष ज्यादा अहम् है। संविधान हर नागरिक को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मौलिक अधिकार देती है, जिसमें संगठन बनाना भी शामिल है। इस अधिकार में कटौती कुछ खास आधार पर ही की जा सकती है। किसी व्यक्ति के मौलिक अधिकारों की रक्षा करना न्यायपालिका की जिम्मेदारी है। अगर किसी संगठन पर सरकार दुर्भावना या राजनीतिक वजहों से प्रतिबंध लगाती है तो एक निष्पक्ष पंच की हैसियत से न्यायालय उसे खारिज करेगा। ऐसे में आतंकवाद से लड़ने में सबसे जरूरी है कि राजनीतिक नफा-नुकसान की फिक्र न करते हुए सरकार एवं राजनेता राष्ट्रहित में काम करें। दुर्भाग्य से इस मुद्दे पर भी संप्रग एकजुट नहीं हैं। कांग्रेस प्रतिबंध के पक्ष में है जबकि सपा और राजद इसके विरुद्ध। किस हद तक प्रतिबंधों का राजनीतिक इस्तेमाल हो सकता है, इसका एक उदाहरण है यूपी में मायावती के कार्यकाल में शिवपाल सिंह की सिमी कार्यकर्ता के रुप में गिरफ्तारी, जबकि सिमी के संविधान के तहत कोई गैर-मुस्लिम इसका सदस्य नहीं हो सकता। शिवपाल सिंह को इसी आधार पर न्यायालय से तुरंत जमानत मिल गई। स्पष्ट है कि आतंकवाद के विरुद्ध लड़ाई ईमानदारी से होनी चाहिए और न्यायिक कसौटी पर खरे उतरने के लिए तथ्यात्मक आधार भी पुष्ट होने चाहिए। (दैनिक जागरण, ८ अगस्त २००८)