Wednesday, August 6, 2008

‘पूर्वोत्तर में मस्जिदें-मदरसे आतंकवादी अड्डे’

तेजपुर। ‘जनरल ऑफिसर-इन-कमांडिंग फोर्थ कोर’ के लेफ्टिनेंट जनरल बीएस. जायसवाल ने आज दावा किया कि असम और दूसरे पूर्वोत्तर राज्यों में मस्जिदें और मदरसे कट्टरपंथी एवं आतंकवादी संगठनों के अड्डे बन गए हैं। लेफ्टिनेंट जनरल जायसवाल ने यहां पत्रकारों से कहा कि असम और दूसरे पूर्वोत्तर राज्यों में कट्टरपंथी और आतंकवादी मजिस्दों एवं मदरसों की सुरक्षित शरणस्थली से अपनी गतिविधियां चलाते हैं। उन्होंने पश्चिमी असम से ‘मुस्लिम यूनाइटेड लिबरेशन टाइगर्स ऑफ असम’ की गतिविधियों के साक्ष्य मिलने के भी दावे किए। हालांकि बंग्लादेशी घुसपैठ को उन्होंने राजनीतिक मुद्दा बताते हुए कहा कि सेना केवल सुरक्षा कायम रखने के लिए जिम्मेदार है। उधर, अरुणाचल प्रदेश के राज्यपाल और पूर्व सेना प्रमुख जेजे. सिंह ने तेजपुर में आज भारत-चीन अंतरराष्ट्रीय सीमा पर मौजूदा स्थिति की समीक्षा की। जनरल सिंह ने कहा कि सीमा के समीप कहीं कोई तनाव या उकसावे की स्थिति नहीं है। उन्होंने कहा कि सेना किसी भी घुसपैठ से निपटने में सक्षम हैं और संवेदनशील स्थानों पर कड़ी सतर्कता बरती जा रही है। (IBN7, 5 August 2008)

आंध्र प्रदेश: मुसलमानों को आरक्षण मिला

नई दिल्ली। उच्चतम न्यायालय ने आंध्र प्रदेश के शैक्षणिक संस्थानों में प्रवेश में मुसलमानों को चार फीसदी आरक्षण देने के सरकार की आज सशर्त अनुमति दे दी।
मुख्य न्यायधीश के. जी. बालकृष्णन, न्यायमूर्ति पी सदाशिवम और न्यायमूर्ति जे. एम. पांचाल की खण्डपीठ ने एक याचिका पर सुनवाई के बाद अपने आदेश में कहा कि आंध्र प्रदेश के शैक्षणिक संस्थानों में मुसलमानों को चार फीसदी आरक्षण की सुविधा तब तक दी जा सकती है जब तक इस मामले पर आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय का अंतिम फैसला नहीं आ जाता। आंध्रप्रदेश उच्च न्यायालय की सात सदस्यीय पीठ इस मामले पर गौर कर रही है।
इस साल मई में उच्चतम न्यायालय ने राज्य सरकार को काउंसिलिंग जारी रखने की अनुमति दी थी लेकिन कॉलेजों में प्रवेश में धर्म अधारित आरक्षण पर रोक लगायी थी।
याचिकाकर्ता ने उच्चतम न्यायालय से कहा कि इस तरह का आरक्षण संविधान के खिलाफ है इसलिए राज्य सरकार का मुसलमानों को आरक्षण देने का फैसला असंवैधानिक और गैरकानूनी है।सरकारी वकील ने अपने जबाव में कहा कि सरकार के आदेश में कुछ भी गैरकानूनी नहीं है और अगर प्रवेश प्रक्रिया को अनुमति नहीं दी गयी तो समूची प्रवेश प्रक्रिया बाधित होने की आशंका है। क्योंकि काउंसिलिंग का काम पूरा हो चुका है।
इस पर उच्चतम न्यायालय ने सशर्त प्रवेश की अनुमति देते हुए कहा कि इन प्रवेशों की वैधता उच्च न्यायालय की सात सदस्यीय पीठ के निर्णय पर निर्भर करेगी। (IBN७, 05 अगस्त २००८)

सिमी पर से प्रतिबंध हटा

नई दिल्ली। दिल्ली हाईकोर्ट के न्यायाधीश की अध्यक्षता वाले विशेष न्यायाधिकरण ने मंगलवार को स्टूडेंट्स इस्लामिक मूवमेंट आफ इंडिया [सिमी] पर लगे प्रतिबंध को हटा दिया है। केंद्र सरकार न्यायाधिकरण के इस फैसले को सुप्रीमकोर्ट में चुनौती देगा। भाजपा ने प्रतिबंध हटने के लिए केंद्र सरकार की अक्षमता को दोषी ठहराया है।

एक शीर्ष कानून अधिकारी के मुताबिक न्यायाधिकरण की अध्यक्षता कर रहीं न्यायाधीश गीता मित्तल ने कहा कि सरकार ने सिमी के खिलाफ ऐसे कोई नए साक्ष्य पेश नहीं किए हैं जिससे प्रतिबंध बढ़ाने को न्यायोचित ठहराया जा सके। सरकार ने संगठन की गैरकानूनी गतिविधियों में संलिप्तता दिखाने के लिए सिर्फ वर्ष 2006 में मालेगांव में हुए विस्फोटों का सबूत दिया जो इस पर प्रतिबंध लगाने की अधिसूचना जारी करने के लिए पर्याप्त नहीं था।

गृह मंत्रालय के सूत्रों ने बताया कि प्रतिबंध हटाने के न्यायाधिकरण के फैसले को सुप्रीमकोर्ट में चुनौती दी जाएगी। उन्होंने बताया कि पहले फैसले का गहन अध्ययन किया जाएगा और इसके बाद प्राथमिकता के आधार पर आगे की प्रक्रिया तय की जाएगी।

भाजपा उपाध्यक्ष मुख्तार अब्बास नकवी ने कहा कि संप्रग सिमी पर लगे प्रतिबंध को जारी रखने में अक्षम रहा है। इससे सरकार का वास्तविक चेहरा और आतंकवाद के प्रति इसका नरम रवैया दिखता है। उन्होंने कहा कि भाजपा इस फैसले का विरोध करेगी क्योंकि वह इस मुद्दे को देश की सुरक्षा और नागरिकों की सुरक्षा से जुड़ा हुआ मानती है। उन्होंने कहा कि सिमी आतंकवाद है और आतंकवाद सिमी। इस सह संबंध का सबको पता है। सरकार हकीकत से मुंह मोड़ रही है और आतंकवाद के प्रति नरम रुख अपना कर नागरिक समाज को खतरे में डाल रही है। (दैनिक जागरण, ६ अगस्त २००८)

सिमी के तीन और संदिग्ध गिरफ्तार

बेलगाम। कर्नाटक के बेलगाम में धरपकड़ अभियान के तहत पुलिस ने मंगलवार को सिमी के तीन और संदिग्ध कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया।

पुलिस के अनुसार इसके साथ ही गिरफ्तार संदिग्ध आतंकवादियों की संख्या बढ़कर 11 हो गई। हाल ही में सिमी के प्रमुख सदस्य मुनरोज की मध्य प्रदेश के इंदौर में गिरफ्तारी के बाद मुंबई पुलिस ने इकबाल जकाती को गिरफ्तार किया।(दैनिक जागरण, ६ अगस्त २००८)

जम्मू को हल्के में लेना हलक में फंसा

नई दिल्ली । जम्मू-कश्मीर में केंद्र सरकार एक तरफ कुआं तो दूसरी तरफ खाई वाले हालात में फंस गई है। पहले राज्यपाल व खुफिया रिपोर्टो पर भरोसा कर जम्मू के आंदोलन को हल्के में लेना अब उसके हलक में अटक गया है। प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने बुधवार को सर्वदलीय बैठक बुला तो ली है, लेकिन मंगलवार तक सरकार के पास कोई पुख्ता फार्मूला नहीं था। जम्मू-कश्मीर से लौटकर गृह सचिव मधुकर गुप्ता और रक्षा सचिव विजय सिंह ने गृह मंत्री शिवराज पाटिल के साथ प्रधानमंत्री को हालात का पूरा ब्यौरा दिया।

सूत्रों के मुताबिक, जम्मू-कश्मीर के बीच बढ़ती जा रही खाई से तो केंद्र सरकार चिंतित है ही साथ में उसे आशंका है कि इन हालात का फायदा उठाकर आईएसआई अपने मंसूबों को अंजाम न दे जाए। सीमा सुरक्षा बल के पुलिस महानिदेशक एके मित्रा ने अभी सोमवार को ही आशंका जताई थी कि आईएसआई भारतीय सीमा में 800 लोगों की घुसपैठ कराने की कोशिश कर रही है। वैसे भी यही समय है जबकि घुसपैठ में बढ़ोत्तरी होती है।

जम्मू में भड़के आंदोलन पर राज्यपाल एनएन वोहरा, उनके प्रशासन और राज्य में मौजूद खुफिया तंत्र की रिपोर्टो से केंद्र का भरोसा अब पूरी तरह उठ चुका है। यही कारण है कि सर्वदलीय बैठक में समस्या के निदान पर चर्चा से पहले प्रधानमंत्री बिल्कुल सटीक हालात से वाकिफ रहना चाहते हैं। इसके मद्देनजर ही उन्होंने दो शीर्ष अधिकारियों गृह सचिव और रक्षा सचिव को जम्मू-कश्मीर के हालात का जायजा लेने भेजा।

मंगलवार को दोनों अधिकारियों ने लौटकर गृह मंत्री की मौजूदगी में प्रधानमंत्री को अपनी रिपोर्ट सौंपी। दरअसल, राज्यपाल वोहरा व उनके प्रशासन ने जो रिपोर्ट दी थी कि जम्मू में आंदोलन राजनीतिक है और ज्यादा नहीं खिंच सकेगा।

अब जम्मू और उसके बाहर तो हालात न सिर्फ उग्र हो गए हैं, बल्कि आंच पंजाब के कुछ हिस्सों में भी पहुंच रही है। केंद्र की चिंता है कि जम्मू में रास्ता बंद होने के साथ-साथ अगर पंजाब से भी उन्हें सहयोग मिला तो हालात और खराब होंगे। उधर कश्मीर क्षेत्र में भी प्रतिक्रिया शुरू हो गई है। इन पूरे हालात में सेना से लेकर अ‌र्द्धसैनिक बलों का ध्यान आंदोलन से निपटने में लगा है। केंद्र को चिंता है कि इन हालात का फायदा उठाकर पाकिस्तान घुसपैठ बढ़ा सकता है जो और भी ज्यादा घातक होगी। सरकार की चिंता यह भी है कि घाटी में हालात सामान्य करने की उसकी सालों की कमाई एक महीने के आंदोलन में कहीं वह गंवा न बैठे।

उधर जम्मू में तात्कालिक तौर पर शांति के लिए राज्यपाल एनएन वोहरा को हटाना एकमात्र विकल्प नजर आ रहा है, लेकिन केंद्र दूसरी चिंता में घुला जा रहा है। घाटी में अलगाववादियों के बीच वोहरा की अच्छी छवि है और वह उन्हें पसंद भी करते हैं। सूत्रों के अनुसार पूर्व राज्यपाल एसके सिन्हा के बाद वोहरा को राज्यपाल बनाने की पैरवी तत्कालीन मुख्यमंत्री गुलाम नबी आजाद और पीडीपी प्रमुख मुफ्ती मुहम्मद सईद समेत कश्मीर के कई अलगाववादी नेताओं ने भी की थी। ऐसे में केंद्र को चिंता है कि जम्मू को शांत करने के चक्कर में कहीं घाटी में गड़बड़ न हो जाए। हालांकि, केंद्र भी मान रहा है कि जम्मू में हालात काबू करने का सबसे आसान तरीका वोहरा की विदाई ही है।(दैनिक जागरण , ६ अगस्त २००८)

जम्मू में केंद्र की तटस्थता

श्री अमरनाथ श्राइन बोर्ड जमीन मामले के प्रति केंद्र की उदासीनता को घातक मान रहे हैं निशिकान्त ठाकुर

श्री अमरनाथ श्राइन बोर्ड को अस्थायी निर्माण के लिए भूमि के आवंटन और फिर अलगाववादी एवं सांप्रदायिक ताकतों के दबाव में उसके निरस्तीकरण के मसले पर जम्मू में अब हालात विस्फोटक हो चुके है। आने वाले दिनों में क्या हो जाए, कुछ कहा नहीं जा सकता। ध्यान रहे, इसी मसले पर इंदौर में उग्र प्रदर्शन हो चुके है। यहां तक कि क‌र्फ्यू लगाने की नौबत भी वहां आ चुकी है। देश के दूसरे शहरों में भी इस पर शांतिपूर्ण तरीके से असंतोष जताया जा चुका है। यह अलग बात है कि शांतिपूर्ण ढंग से विरोध जताने का अब किसी सरकार के लिए कोई मतलब नहीं रह गया है। शायद यही वजह है कि जम्मू में इस मामले ने इतना तूल पकड़ा और आखिरकार यह भयावह रूप लिया। हालांकि शुरुआती दौर में वहां भी जनता शांतिपूर्ण ढंग से ही विरोध प्रदर्शन कर रही थी, पर जब पुलिस ने बल प्रयोग किया और श्री अमरनाथ संघर्ष समिति के शहीद कार्यकर्ता कुलदीप वर्मा के शव के साथ बदसलूकी की तो जनता इसे बर्दाश्त नहीं कर सकी। अब अगर लोग यह सवाल उठा रहे है कि क्या बार-बार और हर तरह से अपमानित किए जाना ही जम्मू-कश्मीर के हिंदुओं की नियति है, तो इसे गलत नहीं कहा जा सकता है।

एक मामूली भूखंड, जो साल में नौ-दस महीने तो बर्फ से ढके रहने के कारण किसी काम लायक नहीं रहता, को लेकर शुरू हुआ यह मसला अब जम्मू के लोगों की अस्मिता का सवाल बन चुका है। इस पूरे मामले और जम्मू-कश्मीर के राजनीतिक-सामाजिक इतिहास पर नजर डालें तो जाहिर हो जाता है कि श्राइन बोर्ड को भूमि आवंटन व निरस्तीकरण तथा कुलदीप के शव के अपमान के मसले ने इसमें सिर्फ घी या पेट्रोल का काम किया है। असल आग बहुत पहले से सुलगती आ रही है। तबसे जबसे जम्मू संभाग ने यह महसूस किया कि राजनीतिक तौर पर उसके साथ लगातार पक्षपात होता चला आ रहा है। यह पक्षपात उसके साथ केवल इसलिए हो रहा है कि जम्मू संभाग हिंदू बहुल है और वहां की सरकार को वहां हिंदुओं का होना ही खटक रहा है। अगर ऐसा नहीं है तो क्या कारण है कि दो राजनीतिक दलों द्वारा वहां के संविधान से 'धर्मनिरपेक्ष' शब्द बाकायदा अभियान चला कर हटवाया गया। राज्य में शरीयत कानून लागू करने संबंधी विधेयक को मंजूरी भी इन्हीं राजनीतिक दलों के कारण मिली थी। हद तो यह है कि ये दोनों दल इसके बाद भी खुद को धर्मनिरपेक्ष बताते है।

आज जम्मू की जनता बार-बार सवाल उठा रही है कि श्राइन बोर्ड को अस्थायी तौर पर भूमि आवंटन को लेकर कश्मीर में अलगाववादियों ने तोड़फोड़ से लेकर आगजनी तक सब कुछ कर डाला और तब भी वहां क‌र्फ्यू नहीं लगाया गया। जबकि यहां शांतिपूर्ण प्रदर्शन को उग्र होने के लिए मजबूर पुलिस ने किया और क‌र्फ्यू भी लगा दिया। इंसाफ का यह कौन सा तरीका है? क्या इससे अलग-अलग संभागों के बीच फर्क करने की सरकारी नीति उजागर नहीं होती है? जम्मू के लोगों का आरोप है कि आवंटित जमीन सिर्फ इसलिए वापस ली गई ताकि कश्मीर के अलगाववादी और पाकिस्तानपरस्त ताकतों को संतुष्ट किया जा सके। जम्मू के प्रदर्शनकारियों के साथ बर्बरतापूर्ण व्यवहार भी इसीलिए किया गया। इसमें कोई दो राय नहीं है कि पुलिस ऐसा बर्बरतापूर्ण दमन तब तक कर ही नहीं सकती जब तक कि उसे सरकार की ओर से इसके लिए शह न मिली हो। अब यह बात सिर्फ जम्मू ही नहीं, पूरे देश के लोग कह रहे है और यह घटना पूरे देश में असंतोष का कारण बन रही है। इस मामले में राज्यपाल एन.एन. वोहरा की भूमिका को सबसे महत्वपूर्ण माना जा रहा है और इसीलिए जनता में उनके खिलाफ बेहद आक्रोश है।

सच तो यह है कि जायज मांगों को लेकर उठे जनाक्रोश को बहुत दिनों तक दबाया नहीं जा सकता है। अभी भले ही वहां गईं उमा भारती व ऋतंभरा जैसी नेताओं को बोलने भी नहीं दिया गया, पर जनता को बहुत दिनों तक दबाया नहीं जा सकेगा। इसके लिए संघर्ष में रोज कई लोग घायल भी हो रहे है। लोगों के आक्रोश का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि अब तक सात लोग इस आंदोलन में शहीद हो चुके हैं, फिर भी लोग क‌र्फ्यू तोड़ कर धरना-प्रदर्शन कर रहे हैं। इस आंदोलन को दबाने के लिए पुलिस किस हद तक जा रही है इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि पत्रकारों को भी काम के लिए आने-जाने नहीं दिया जा रहा है और प्रेस फोटोग्राफरों के कैमरे तक तोड़ दिए जा रहे है। कुल मिलाकर इमरजेंसी जैसे हालात बना दिए गए है। इसके बावजूद जनता की शक्ति और जज्बे का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि ऐसे समय में जबकि दुकानें नहीं खुल रहीं है और लोगों को खाने-पीने की चीजें भी नहीं मिल पा रही है, तो भी भारी भीड़ प्रदर्शन के लिए निकल रही है और इसमें बच्चे-बूढ़े व स्त्रियां सभी बेधड़क शामिल हो रहे है। आम जनता की दृढ़ इच्छाशक्ति का अंदाजा लगाने के लिए यह तथ्य काफी है। हैरत की बात है कि इस पर भी केंद्र सरकार इसे राजनीतिक शिगूफेबाजी मान रही है और ऐसा सोच रही है कि थोड़े दिन चल कर यह आंदोलन अपने आप थम जाएगा।

दरअसल जम्मू की जनता यह बात लंबे अरसे से महसूस करती आ रही है कि कश्मीर के लोग अपनी मांगें मनवाने के मामले में हमेशा उन पर भारी पड़ते रहे है। इसका कारण कुछ और नहीं, केवल वहां अलगाववादियों की बहुलता और उनका उग्र होना है। उग्र न होने के ही कारण कश्मीर संभाग से अधिकतम हिंदुओं को पलायन करना पड़ा। अपने घर-खेत छोड़ कर अब वे दर-दर की ठोकरे खा रहे है और शरणार्थी बनने को विवश है। अब दूसरे राज्यों से आए मजदूर भी वहां से खदेड़े जा रहे है। हिंदू तीर्थयात्रियों और पर्यटकों पर भी अब वहां हमले किए जा रहे है। यह सब सोची-समझी साजिश के तहत किया जा रहा है।

जम्मू की जनता यह मानती है यह साजिश राजनीतिक स्तर पर भी की गई है। आखिर क्या कारण है कि क्षेत्रफल और आबादी में कश्मीर से काफी बड़ा होने के बावजूद जम्मू संभाग को लोकसभा में सिर्फ दो और विधानसभा में 37 सीटे मिली हुई है। जबकि छोटे होने के बावजूद कश्मीर संभाग को लोकसभा की तीन और विधानसभा की 46 सीटे प्राप्त है। उस पर तुर्रा यह कि यहां 2026 तक परिसीमन पर भी रोक लगा दी गई है। जम्मूवासी इसे अपने साथ राजनीतिक अन्याय का ज्वलंत उदाहरण ही नहीं, किसी बड़ी साजिश का हिस्सा भी मानते है।

सच तो यह है कि जम्मूवासियों का यह असंतोष अब बहुत गंभीर रूप लेता जा रहा है। यह स्थिति ज्यादा गंभीर इसलिए भी है कि इसी राज्य के एक और संभाग लद्दाख की जनता की सहानुभूति भी जम्मू के लोगों के साथ है। देश के बाकी हिस्सों के लोगों की भी पूरी सहानुभूति जम्मू की आम जनता के साथ है। यह और ज्यादा उग्र हो, इसके पहले बेहतर यह होगा कि केंद्र इस मामले में हस्तक्षेप करे और पूरे मामले को नए सिरे से देखते हुए सही फैसला करे। वोटबैंक और तुष्टीकरण की चिंता छोड़कर इसे भारतीय संविधान की मूल भावना के अनुरूप और राष्ट्रीय अस्मिता के सवाल के रूप में देखने की कोशिश करे। अन्यथा इसमें कोई दो राय नहीं है कि आने वाले दिनों में केंद्र की इस भयावह तटस्थता को पक्षपात से ज्यादा खतरनाक माना जाएगा।(दैनिक जागरण, ५ अगस्त २००८)

उपेक्षित और असहाय जम्मू

जम्मू के साथ नीतिगत स्तर पर किए जाने वाले भेदभाव को रेखांकित कर रहे हैं तरुण विजय

एक माह से जम्मू दहक रहा है। सेना की गश्त, गोलीबारी, क‌र्फ्य के बीच गूंजते असंतोष के स्वर। आखिर भारत में देशभक्ति की कीमत घर से उजड़ना या जान देना क्यों हैं? पहले कश्मीरी पंडितों को सिर्फ इसलिए घर से निकाल बाहर किया गया, क्योंकि वे तिरंगे के प्रति निष्ठावान थे। इससे पहले जून 1953 को श्यामा प्रसाद मुखर्जी की श्रीनगर शासन के अंतर्गत रहस्यमय परिस्थितियों में मृत्यु घोषित कर दी गई, क्योंकि वे कश्मीर में देशभक्ति का जज्बा बुलंद कर रहे थे। वे कहते थे कि जम्मू-कश्मीर में सिर्फ तिरंगा रहेगा और कोई झंडा नहीं। इस साल 23 जुलाई को 35 वर्र्षीय कुलदीप कुमार डोगरा ने देशभक्ति की आवाज बुलंद करते हुए अपनी जान दे दी। इस तरह जान देना अस्वीकार्य है, लेकिन कुलदीप के आत्मोसर्ग ने हिंदू हनन में सेक्युलर भूमिका को उजागर किया और जम्मू में एक अभूतपूर्व विरोध की लहर पैदा कर दी।

कुलदीप डोगरा की देह जम्मू कश्मीर पुलिस जबरदस्ती उठा ले गई और सुबह ढाई बजे शराब तथा टायर डालकर जलाने का प्रयास किया तो उसके गांव के लोग आ गए। आखिरकार कुलदीप की देह घरवालों को सौंपी गई। क्या मानवाधिकार वाले सिर्फ आतंकियों के अधिकारों पर बोलने का ठेका लिए हैं? जम्मू कश्मीर सरकार भारत की है या अन्य देश की? आखिर शेष देश में इसकी क्या प्रतिध्वनि हुई? ऐसा लगता है हमारी भारतीयता का समग्र फलक ही चटकने लगा है। कश्मीर के पांच लाख शरणार्थी अभी भी अपने देश में बेघर और अनाथ जैसे घूम रहे हैं। जम्मू का दृश्य बयान करना बहुत कठिन है। जो सड़कें तीर्थ यात्रियों और स्थानीय नागरिकों के आवागमन और काम-काज से भरी हुआ करती थीं आज वहां मीलों दूर तक भांय-भांय करता दहशत भरा सन्नाटा पसरा हुआ है। सैनिकों के बूटों की खट-खट आवाज कहीं-कहीं सन्नाटे को तोड़ती है। घरों में आटा नहीं है, चावल नहीं है, पानी नहीं है। खाना बनाना तक मुश्किल हो गया है। रोजमर्रा का सामान नहीं मिल रहा है। मुहल्लों के भीतर जाने पर सिर्फ फुसफुसाहटें सुनाई देती हैं। जम्मू के नागरिक अब घर में भी जोर से बोलना मानो भूल गए हैं। बाजार बंद हैं, दिलों में मातम है। सब एक सवाल पूछ रहे हैं कि जम्मू कश्मीर हिंदुस्तान का है या नहीं? अगर है तो वहां आज भी दो झंडे क्यों लहराए जाते हैं? आखिर क्यों भारतीय तीर्थ यात्रियों के लिए वह जमीन नहीं दी गई जो बंजर थी और जहां घास का एक तिनका भी नहीं उगता। इसे स्वयं जम्मू कश्मीर सरकार ने उच्च न्यायालय के निर्देश पर अमरनाथ श्राइन बोर्ड को स्थानांतरित किया था। इस जमीन पर कोई स्थायी रूप से रहने वाला नहीं था। इस जमीन का उपयोग वर्ष में सिर्फ दो महीने के लिए होने वाला था और इसका लाभ स्थानीय कश्मीरी नागरिकों को मिलने वाला था? जम्मू कश्मीर में हिंदुओं के दो बड़े तीर्थ स्थान हैं-माता वैष्णो देवी और अमरनाथजी। इन दोनों यात्राओं पर हर वर्ष करीब 70 लाख से अधिक तीर्थ यात्री जाते हैं। वे रास्ते में करोड़ों रुपये खर्च करते हैं। इसका पूरा लाभ जम्मू-कश्मीर की अर्थव्यवस्था को होता है। जिहादियों के कारण जम्मू कश्मीर में पर्यटक आने वैसे ही कम हो गए हैं। अगर हिंदू तीर्थ यात्री जम्मू कश्मीर न आएं तो वहां की सारी अर्थव्यवस्था ठप्प हो सकती है। अभी भी जम्मू-कश्मीर को शेष देश को मिलने वाले अनुदानों से औसतन दस गुना ज्यादा अनुदान और सहायता मिलती है। अपनी हर गलती का दोष वह भारत सरकार पर थोपते हैं यानी खाना भी हमारा और गुर्राना भी हम पर। पूरी रियासत के तीन हिस्से हैं-जम्मू, घाटी और लद्दाख। श्रीनगर के राजनेता न केवल अनुदान का अधिकांश हिस्सा सबसे छोटे भाग और सबसे कम जनसंख्या पर खर्च करते हैं,बल्कि जम्मू और लद्दाख के नागरिकों के साथ भेदभाव भी करते हैं। जम्मू कश्मीर का कुल वैधानिक क्षेत्रफल 222236 वर्ग किलोमीटर है। इसमें से 78114 वर्ग किमी पाकिस्तान के अवैध कब्जे में है और 37555 वर्ग किमी चीन ने कब्जाया हुआ है। लद्दाख का क्षेत्रफल 59211 वर्ग किमी और जम्मू का 26293 वर्ग किमी है। घाटी का क्षेत्रफल है 15833 वर्ग किमी। 1963 में पाकिस्तान ने अवैध कब्जे के कश्मीर में से 5180 वर्ग किमी चीन को भेंट दे दिया था। क्या आपने कभी सुना है कि कश्मीर के उन जाबांज नेताओं ने जो हिंदू तीर्थ यात्रियों को एक इंच जमीन भी न देने के लिए अराजकता फैला देते हैं, पाकिस्तानी कब्जे वाले कश्मीर को वापस लेने के लिए धरना या प्रदर्शन दिया हो? हजारों वर्ग किमी जमीन पाकिस्तान के कब्जे में चली जाए तो उस पर खामोश रहना और हिंदू तीर्थ यात्रियों के लिए जमीन देने पर जान की बाजी लगाने की धमकियां देना किस मानसिकता का द्योतक है?

जम्मू और कश्मीर घाटी में लगभग बराबर की संख्या में मतदाता हैं, लेकिन जम्मू को सिर्फ दो लोकसभा सीट दी गई हैं और घाटी को तीन। पूरे राज्य की आय का 70 प्रतिशत से अधिक जम्मू से मिलने वाले राजस्व से प्राप्त होता है और घाटी से लगभग 30 प्रतिशत, लेकिन खर्च करते समय जम्मू पर कुल राजस्व का 30 प्रतिशत खर्च किया जाता है और घाटी पर 70 प्रतिशत। लद्दाख के साथ श्रीनगर के शासकों का भेदभाव सीमातिक्रमण कर गया है। लद्दाख बौद्ध संघ ने केंद्र को ऐसे दर्जनों ज्ञापन दिए जिनमें लद्दाख के बौद्ध युवकों को परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद भी कश्मीरी प्रशासनिक सेवा में न लेने, मेडिकल, इंजीनियरिंग कालेज में दाखिला न देने जैसे भेदभाव के अनेक आरोप लगाए। सच यह है कि योजनाबद्ध तरीके से लेह के बौद्ध समाज को अल्पमत में किए जाने का षड्यंत्र चल रहा है। वास्तव में पूरे प्रदेश में ही भारत लगातार सिकुड़ता गया है। यह परिस्थिति दिल्ली के रीढ़हीन शासकों द्वारा पनपाई और बढ़ाई गई है। जम्मू कश्मीर भारत मा का भाल है। वहां का दर्द भारत का दर्द है। यदि हम वहां का दर्द नहींमहसूस करेंगे तो शेष भारत में भी बंटवारे के बीज फैलेंगे।(दैनिक जागरण ६ अगस्त २००८)


दमनकारी रवैया

एक महीने से अधिक समय से असंतोष से उबल रहे जम्मू में यदि सेना बुलाए जाने के बाद भी हालात नहीं सुधर रहे तो इसका मतलब है कि केंद्रीय सत्ता को बिना किसी देरी के वहां हस्तक्षेप करना चाहिए और वह भी पूरी संवेदनशीलता के साथ। यह क्षोभजनक है कि जब केंद्रीय सत्ता से ऐसे किसी आचरण की अपेक्षा की जा रही है तब वह ठीक उल्टा व्यवहार कर रही है। यदि केंद्र सरकार और उसके रणनीतिकार यह समझ रहे हैं कि आक्रोश से भरी हुई जम्मू की जनता को बलपूर्वक दबाया जा सकता है तो यह उनकी एक ऐसी भूल है जो महंगी पड़ सकती है। आखिर इसका क्या औचित्य कि अब मीडिया के साथ भी सख्ती का व्यवहार किया जा रहा है? न केवल स्थानीय केबल नेटवर्क को बंद कर दिया गया है, बल्कि मीडियाकर्मियों को सामान्य कार्य भी नहीं करने दिया जा रहा। आखिर यह क्या हो रहा है? स्थानीय प्रशासन जिस तरह लोकल न्यूज नेटवर्क को ठप करने के साथ-साथ समाचार पत्रों को अपना कामकाज करने से रोक रहा है वह तो एक तरह का अघोषित आपातकाल है। क्या यह रवैया विनाश काले विपरीत बुद्धि वाली कहावत को चरितार्थ नहीं करता? इसकी जितनी भी निंदा की जाए वह कम है कि जम्मू की जनता की भावनाओं के प्रति पहले तत्कालीन राज्य सरकार ने असहिष्णुता का प्रदर्शन किया और अब केंद्र सरकार भी ऐसा ही कर रही है। आखिर यह कहां का न्याय है कि कश्मीर घाटी के अलगाववादियों के समक्ष तो दंडवत हो जाया जाए, लेकिन जम्मू संभाग के लोगों के वाजिब गुस्से की भी अनदेखी की जाए? दुर्भाग्य से पिछले कुछ दिनों से यही हो रहा है।

केंद्रीय सत्ता को यह समझना होगा कि जम्मू की जनता के आक्रोश में शेष देश की भी किसी न किसी रूप में सहभागिता है। समस्या सिर्फ यही नहीं है कि जम्मू की जनता की उपेक्षा और अनदेखी की जा रही है, बल्कि यह भी है कि वहां के स्वत: स्फूर्त विरोध प्रदर्शनों के बारे में दुष्प्रचार भी किया जा रहा है। हैरत की बात यह है कि इस दुष्प्रचार में केंद्रीय सत्ता के प्रतिनिधि भी शामिल हैं। जम्मू के आंदोलन को कभी चंद दिनों का विरोध प्रदर्शन बताया जा रहा है और कभी उसके पीछे भाजपा की शरारत रेखांकित की जा रही है। यदि केंद्र सरकार और उसके प्रतिनिधि, विशेष रूप से जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल एन एन वोहरा यह नहीं देख पा रहे हैं कि जम्मू तो उनकी भेदभावपरक नीतियों के कारण असंतोष से उबल पड़ा है तो इसका मतलब है कि उन्होंने अपने हाथों से अपनी आंखों पर पट्टी बांध ली है। यह घोर निराशाजनक है कि राज्यपाल एन एन वोहरा ऐसी कहीं कोई प्रतीति नहीं करा पा रहे हैं कि उन्हें जम्मू और आसपास के लोगों की थोड़ी सी भी परवाह है। अलगाववादियों का आगे बढ़कर तुष्टीकरण और राष्ट्रवादियों की घनघोर उपेक्षा करके भारत सरकार अपने दायित्वों से मुंह मोड़ने के साथ-साथ अपयश की भी भागीदार बन रही है। उसके पास अभी भी इस सवाल का कोई जवाब नहीं है कि अमरनाथ श्राइन बोर्ड को दी गई भूमि का आवंटन क्यों रद किया गया? चूंकि वह भविष्य में भी इस सवाल का जवाब देने में सक्षम नहीं होगी इसलिए उसे इस पर विचार करना ही होगा कि भूल सुधार कैसे की जाए?(दैनिक जागरण ४ अगस्त २००८)

Monday, August 4, 2008

जम्मू में हालात बदतर, 5 शहरों में कर्फ्यू

जम्मू। अमरनाथ श्राइन बोर्ड को वन्यभूमि हस्तांतरित किए जाने पर गहराते विवाद के बाद जम्मू के पांच कस्बों में कर्फ्यू लगा दिया गया है, वहीं आज हुर्रियत कांफ्रेंस से अलग हुई एक शाखा द्वारा बुलाए गए हड़ताल से निपटने के लिए भी सुरक्षा बल पूरी तरह तैयार है।लगभग एक महीने से प्रदर्शनकारियों द्वारा अमरनाथ श्राइन बोर्ड को वन्यभूमि हस्तांतरित किए जाने की मांग को लेकर कल भी विरोध जारी रहने पर भद्रवाह कस्बे में कर्फ्यू लगा दिया गया। वहीं जम्मू, साम्बा, राजौरी और उधमपुर में पहले से ही कर्फ्यू लगा हुआ है।एक वरिष्ठ अधिकारी के मुताबिक, इस विरोध प्रदर्शन का फायदा उठाते हुए कुछ असामाजिक तत्व इस पर साम्प्रदायिकता का रंग चढ़ाने की कोशिश कर रहे है। लेकिन उन्होंने कहा कि, “सरकार किसी भी हालत में यहां साम्प्रदायिकता को पनपने नहीं देगी। इन कस्बों में कर्फ्यू और सेना के फ्लैग मार्च की वजह से फिलहाल हालात काबू में है।”हालांकि पूरे जम्मू में सेना की भारी तादाद में तैनाती के बावूजद भी भीड़ द्वारा भगवान शिव की तस्वीर और भारतीय तिरंगे को लेकर सड़कों पर प्रदर्शन का दौर जारी है, साथ ही ये लोग पुलिस तथा राज्यपाल एन.एन.वोहरा के खिलाफ नारे भी लगा रहे हैं।उल्लेखनीय है कि राज्य सरकार ने 26 मई को श्री अमरनाथ श्राइन बोर्ड (एसएएसबी) को उत्तरी कश्मीर में 40 हेक्टेयर वन्यभूमि हस्तांतरित किए जाने का ऐलान किया था। लेकिन 01 जुलाई को सरकार द्वारा अपने इस फैसले को वापस लिए जाने के बाद से पिछले एक महीने के ज्यादा अरसे से जम्मू में विरोध किया जा रहा है।इस विरोध-प्रदर्शन के चलते जम्मू-श्रीनगर राजमार्ग पर भी सेवाएं बाधित हुई है, लेकिन सेना की मौजूदगी की वजह से करीब 600 ट्रकें कश्मीर घाटी तक आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति करने में कामयाब रही।
इस बीच सरकार ने जम्मू के दो स्थानीय टेलीविजन चैनलों के प्रबंधन से बातचीत के बाद उनपर से प्रतिबंध हटा दिया है। इससे पहले अधिकारियों ने दो टेलीविजन चैनल ‘टेक1’ और ‘जेके चैनल’ पर लोगों को भड़काने वाले ‘उत्तेजक सामग्री’ के प्रसारण को लेकर प्रतिबंध लगा दिया था।(CNBC , ४ जुलाई २००८)

कट्टरता की घरेलू जड़ें

घरेलू संपर्क उभरने के कारण आतंकवाद की चुनौती और अधिक गंभीर होती देख रहे हैं
स्वप्न दासगुप्ता

बेंगलूर और अहमदाबाद में आतंकी हमले तथा सूरत में तबाही मचाने के लिए रखे गए बमों की बरामदगी के संदर्भ में पुलिस और आतंकवाद से लड़ रहे विशेषज्ञ एक बिंदु पर सहमत हैं। सहमति का बिंदु यह है कि इन घटनाओं तथा इसके पूर्व उत्तर प्रदेश और जयपुर में हुए बम धमाकों की जिम्मेदारी लेने वाला आतंकी संगठन इंडियन मुजाहिदीन वास्तव में पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई और सिमी व लश्कर-ए-तोएबा सरीखे संगठनों का धोखा देने वाला चेहरा है। विशेषज्ञों का नजरिया सही हो सकता है, लेकिन फिर भी कुछ तथ्य परेशान करने वाले हैं। पहला तो यह है कि लेटरहेड किसी का भी हो, जो लोग किसी घटना की जिम्मेदारी लेने वाला ई-मेल भेजते हैं वे पूरी तरह आतंकियों के संपर्क में हैं, क्योंकि उन्हें प्रत्येक घटना की पूर्व जानकारी रहती है। दूसरा बिंदु यह है कि फलस्तीन की आजादी अथवा इस्लाम का राज स्थापित करने के नाम पर लड़ रहे कुछ आतंकी सगंठनों के विपरीत इंडियन मुजाहिदीन की घोषणाएं स्थानीय मुद्दों पर आधारित हैं, मसलन मुस्लिमों के खिलाफ पुलिस की कथित बर्बरता, हिंदुओं की असहिष्णुता या भारतीय मुस्लिम के लिए न्याय का अभाव आदि। इंडियन मुजाहिदीन के प्रोपेगेंडा से संबंधित यह स्थानीय पहलू आतंकी खतरे के सर्वाधिक चिंताजनक तथ्य की ओर ले जाता है। अब इस तथ्य के लगभग अकाट्य सबूत मौजूद हैं कि बम विस्फोट करने वाले पाकिस्तान से उड़कर यहां नहीं आए। बेंगलूर और अहमदाबाद में हुए बम धमाकों की प्रकृति और सूरत में तबाही मचाने की असफल कोशिश यह बताती है कि आतंकी वारदात को अंजाम देने वाले लोग स्थानीय माहौल से परिचित हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो आतंकियों को प्रेरणा चाहे जहां से मिलती हो, आतंकी घटनाओं के सूत्रधार कोई भी हों, लेकिन वारदात को अंजाम देने वाले भारतीय ही हैं, जो अपने ही देश के लोगों को मार रहे हैं। आतंकी घटनाओं में स्थानीय मुस्लिमों की संलिप्तता के स्पष्ट सबूत एक ऐसा विषय है जिस पर ध्यान देने से जिम्मेदार राजनेता डर रहे हैं। यहां तक कि काफी मुखर माने जाने वाले गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बम धमाकों को भारत पर हमला बताने में सतर्कता बरती। केवल केंद्रीय गृह राज्य मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल ने अहमबदाबाद बम धमाकों को गोधरा बाद के दंगों से जोड़कर संकीर्ण राजनीतिक लाभ लेने की कोशिश की। कुल मिलाकर राजनीतिक वर्ग तथा सिविल सोसाइटी ने ऐसा अहसास कराने से परहेज किया कि आतंकवाद के लिए सभी भारतीय मुस्लिम सामूहिक रूप से दोषी हैं। इस सबके बावजूद यदि ईमानदारी से कहें तो आतंकी तत्व माहौल को विषाक्त बनाने में सफल रहे हैं। भारत की आतंकी समस्या को दुनिया में व्यापक इस्लामिक बगावत से जोड़ना आसान है। इसी तरह आतंकी घटना के बाद शुरुआती प्रतिक्रिया में आजादी के बाद से सबसे कमजोर गृह मंत्री कहे जा रहे शिवराज पाटिल को कोसा जा सकता है अथवा खुफिया एजेंसियों की विफलता को रेखांकित किया जा सकता है, लेकिन जो समस्या की जड़ है वह कैसे दूर होगी? सरकार को चुनाव में हराया जा सकता है, गृह मंत्री बदले जा सकते हैं अथवा खुफिया तंत्र को पेशेवर लोगों के हवाले किया जा सकता है, लेकिन क्या मुस्लिमों में कट्टरता का प्रसार इतनी आसानी से दूर नहीं हो सकता है? इसमें दो राय नहीं कि आईएसआई नेपाल, बांग्लादेश, अफगानिस्तान में तरह-तरह की विध्वंसक गतिविधियों में लिप्त है। उसकी गतिविधियां और एजेंडा स्वयं पाकिस्तान में लोकतांत्रिक राजनेताओं के लिए चिंता का विषय है। फिर भी यह गौर करना महत्वपूर्ण है कि आईएसआई ने इस्लामिक कट्टरता को पाला-पोसा ही है, उसे पैदा नहीं किया। जिसे अल कायदा वाली मानसिकता कहा जाता है उसने इस्लामिक धर्मगुरुओं के एक प्रभावशाली तबके को अपने नियंत्रण में ले लिया है। इस मानसिकता में आधुनिकता का तिरस्कार, मध्ययुगीन तौर-तरीकों की स्वीकार्यता और दूसरे धर्मो व संस्कृति के प्रति पूर्ण असहिष्णुता शामिल है। भारत उस आतंकवाद से निपट रहा है जिसमें घृणा और अमानवीयता से ग्रस्त मानसिकता घर कर गई है। आतंकी ऐसे बच्चे नहीं हैं जिन्हें नौकरी के सीमित अवसरों के कारण गुमराह कर दिया गया हो अथवा वे किसी मामले में सरकार की प्रतिक्रिया से नाखुश हों। सच तो यह है कि भारत एक वैचारिक आतंकवाद का सामना कर रहा है। इस आतंकवाद को या तो कुचल दिया जाना चाहिए या यह भारत को अशक्त, अपंग बना देगा। आतंकवाद की व्याधि ने सामान्य मुस्लिमों को परेशानी में डाल दिया है। हर बम विस्फोट के बाद वे अलग-थलग हो रहे हैं। तथाकथित परंपरागत मुस्लिम नेतृत्व यह जानता है कि आतंकवादी अपने कारनामों से उनके लिए भी खतरा उत्पन्न कर रहे हैं। कट्टर इस्लाम के समर्थक पीडि़त होने की उस खुराक के बल पर ही सशक्त हुए हैं जो वोट बैंक के लिए सत्ता प्रतिष्ठान की ओर से मुस्लिम समाज के सामने रखी जाती रही है। तथाकथित सामुदायिक नेताओं ने अंडरव‌र्ल्ड को सर चढ़ाया, 1993 में मुंबई धमाकों के दोषियों और गोधरा में कारसेवकों को जलाने वालों के पक्ष में नारे भी बुलंद किए तथा अपने निजी फायदे के लिए समुदाय के वोटों का सौदा कर दिया। अब वे खुद नहीं जानते हैं कि जिस दैत्य को उन्होंने पाला-पोसा उससे कैसे निपटा जाए। त्रासदी यह है कि शेष भारत इस पर पूरी तरह सुनिश्चित नहीं कि आगे कैसे बढ़ा जाए? हर कोई जानता है कि भारत सांप्रदायिक तनाव नहीं झेल सकता, फिर भी एक देश के रूप में हम आतंकवाद के मामले में भय तथा आरामतलबी, दोनों कारणों से पंगु से हैं। आतंकवाद से मुकाबला एक विचारधारा, एक मानसिकता से लड़ाई है, लेकिन क्या हम एक ऐसे वायरस से निपट सकते हैं जिसके अस्तित्व को स्वीकार करने से ही हम बचते हों? (दैनिक जागरण, ४ अगस्त २००८)