Monday, August 4, 2008

कट्टरता की घरेलू जड़ें

घरेलू संपर्क उभरने के कारण आतंकवाद की चुनौती और अधिक गंभीर होती देख रहे हैं
स्वप्न दासगुप्ता

बेंगलूर और अहमदाबाद में आतंकी हमले तथा सूरत में तबाही मचाने के लिए रखे गए बमों की बरामदगी के संदर्भ में पुलिस और आतंकवाद से लड़ रहे विशेषज्ञ एक बिंदु पर सहमत हैं। सहमति का बिंदु यह है कि इन घटनाओं तथा इसके पूर्व उत्तर प्रदेश और जयपुर में हुए बम धमाकों की जिम्मेदारी लेने वाला आतंकी संगठन इंडियन मुजाहिदीन वास्तव में पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई और सिमी व लश्कर-ए-तोएबा सरीखे संगठनों का धोखा देने वाला चेहरा है। विशेषज्ञों का नजरिया सही हो सकता है, लेकिन फिर भी कुछ तथ्य परेशान करने वाले हैं। पहला तो यह है कि लेटरहेड किसी का भी हो, जो लोग किसी घटना की जिम्मेदारी लेने वाला ई-मेल भेजते हैं वे पूरी तरह आतंकियों के संपर्क में हैं, क्योंकि उन्हें प्रत्येक घटना की पूर्व जानकारी रहती है। दूसरा बिंदु यह है कि फलस्तीन की आजादी अथवा इस्लाम का राज स्थापित करने के नाम पर लड़ रहे कुछ आतंकी सगंठनों के विपरीत इंडियन मुजाहिदीन की घोषणाएं स्थानीय मुद्दों पर आधारित हैं, मसलन मुस्लिमों के खिलाफ पुलिस की कथित बर्बरता, हिंदुओं की असहिष्णुता या भारतीय मुस्लिम के लिए न्याय का अभाव आदि। इंडियन मुजाहिदीन के प्रोपेगेंडा से संबंधित यह स्थानीय पहलू आतंकी खतरे के सर्वाधिक चिंताजनक तथ्य की ओर ले जाता है। अब इस तथ्य के लगभग अकाट्य सबूत मौजूद हैं कि बम विस्फोट करने वाले पाकिस्तान से उड़कर यहां नहीं आए। बेंगलूर और अहमदाबाद में हुए बम धमाकों की प्रकृति और सूरत में तबाही मचाने की असफल कोशिश यह बताती है कि आतंकी वारदात को अंजाम देने वाले लोग स्थानीय माहौल से परिचित हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो आतंकियों को प्रेरणा चाहे जहां से मिलती हो, आतंकी घटनाओं के सूत्रधार कोई भी हों, लेकिन वारदात को अंजाम देने वाले भारतीय ही हैं, जो अपने ही देश के लोगों को मार रहे हैं। आतंकी घटनाओं में स्थानीय मुस्लिमों की संलिप्तता के स्पष्ट सबूत एक ऐसा विषय है जिस पर ध्यान देने से जिम्मेदार राजनेता डर रहे हैं। यहां तक कि काफी मुखर माने जाने वाले गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बम धमाकों को भारत पर हमला बताने में सतर्कता बरती। केवल केंद्रीय गृह राज्य मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल ने अहमबदाबाद बम धमाकों को गोधरा बाद के दंगों से जोड़कर संकीर्ण राजनीतिक लाभ लेने की कोशिश की। कुल मिलाकर राजनीतिक वर्ग तथा सिविल सोसाइटी ने ऐसा अहसास कराने से परहेज किया कि आतंकवाद के लिए सभी भारतीय मुस्लिम सामूहिक रूप से दोषी हैं। इस सबके बावजूद यदि ईमानदारी से कहें तो आतंकी तत्व माहौल को विषाक्त बनाने में सफल रहे हैं। भारत की आतंकी समस्या को दुनिया में व्यापक इस्लामिक बगावत से जोड़ना आसान है। इसी तरह आतंकी घटना के बाद शुरुआती प्रतिक्रिया में आजादी के बाद से सबसे कमजोर गृह मंत्री कहे जा रहे शिवराज पाटिल को कोसा जा सकता है अथवा खुफिया एजेंसियों की विफलता को रेखांकित किया जा सकता है, लेकिन जो समस्या की जड़ है वह कैसे दूर होगी? सरकार को चुनाव में हराया जा सकता है, गृह मंत्री बदले जा सकते हैं अथवा खुफिया तंत्र को पेशेवर लोगों के हवाले किया जा सकता है, लेकिन क्या मुस्लिमों में कट्टरता का प्रसार इतनी आसानी से दूर नहीं हो सकता है? इसमें दो राय नहीं कि आईएसआई नेपाल, बांग्लादेश, अफगानिस्तान में तरह-तरह की विध्वंसक गतिविधियों में लिप्त है। उसकी गतिविधियां और एजेंडा स्वयं पाकिस्तान में लोकतांत्रिक राजनेताओं के लिए चिंता का विषय है। फिर भी यह गौर करना महत्वपूर्ण है कि आईएसआई ने इस्लामिक कट्टरता को पाला-पोसा ही है, उसे पैदा नहीं किया। जिसे अल कायदा वाली मानसिकता कहा जाता है उसने इस्लामिक धर्मगुरुओं के एक प्रभावशाली तबके को अपने नियंत्रण में ले लिया है। इस मानसिकता में आधुनिकता का तिरस्कार, मध्ययुगीन तौर-तरीकों की स्वीकार्यता और दूसरे धर्मो व संस्कृति के प्रति पूर्ण असहिष्णुता शामिल है। भारत उस आतंकवाद से निपट रहा है जिसमें घृणा और अमानवीयता से ग्रस्त मानसिकता घर कर गई है। आतंकी ऐसे बच्चे नहीं हैं जिन्हें नौकरी के सीमित अवसरों के कारण गुमराह कर दिया गया हो अथवा वे किसी मामले में सरकार की प्रतिक्रिया से नाखुश हों। सच तो यह है कि भारत एक वैचारिक आतंकवाद का सामना कर रहा है। इस आतंकवाद को या तो कुचल दिया जाना चाहिए या यह भारत को अशक्त, अपंग बना देगा। आतंकवाद की व्याधि ने सामान्य मुस्लिमों को परेशानी में डाल दिया है। हर बम विस्फोट के बाद वे अलग-थलग हो रहे हैं। तथाकथित परंपरागत मुस्लिम नेतृत्व यह जानता है कि आतंकवादी अपने कारनामों से उनके लिए भी खतरा उत्पन्न कर रहे हैं। कट्टर इस्लाम के समर्थक पीडि़त होने की उस खुराक के बल पर ही सशक्त हुए हैं जो वोट बैंक के लिए सत्ता प्रतिष्ठान की ओर से मुस्लिम समाज के सामने रखी जाती रही है। तथाकथित सामुदायिक नेताओं ने अंडरव‌र्ल्ड को सर चढ़ाया, 1993 में मुंबई धमाकों के दोषियों और गोधरा में कारसेवकों को जलाने वालों के पक्ष में नारे भी बुलंद किए तथा अपने निजी फायदे के लिए समुदाय के वोटों का सौदा कर दिया। अब वे खुद नहीं जानते हैं कि जिस दैत्य को उन्होंने पाला-पोसा उससे कैसे निपटा जाए। त्रासदी यह है कि शेष भारत इस पर पूरी तरह सुनिश्चित नहीं कि आगे कैसे बढ़ा जाए? हर कोई जानता है कि भारत सांप्रदायिक तनाव नहीं झेल सकता, फिर भी एक देश के रूप में हम आतंकवाद के मामले में भय तथा आरामतलबी, दोनों कारणों से पंगु से हैं। आतंकवाद से मुकाबला एक विचारधारा, एक मानसिकता से लड़ाई है, लेकिन क्या हम एक ऐसे वायरस से निपट सकते हैं जिसके अस्तित्व को स्वीकार करने से ही हम बचते हों? (दैनिक जागरण, ४ अगस्त २००८)

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