एक महीने से अधिक समय से असंतोष से उबल रहे जम्मू में यदि सेना बुलाए जाने के बाद भी हालात नहीं सुधर रहे तो इसका मतलब है कि केंद्रीय सत्ता को बिना किसी देरी के वहां हस्तक्षेप करना चाहिए और वह भी पूरी संवेदनशीलता के साथ। यह क्षोभजनक है कि जब केंद्रीय सत्ता से ऐसे किसी आचरण की अपेक्षा की जा रही है तब वह ठीक उल्टा व्यवहार कर रही है। यदि केंद्र सरकार और उसके रणनीतिकार यह समझ रहे हैं कि आक्रोश से भरी हुई जम्मू की जनता को बलपूर्वक दबाया जा सकता है तो यह उनकी एक ऐसी भूल है जो महंगी पड़ सकती है। आखिर इसका क्या औचित्य कि अब मीडिया के साथ भी सख्ती का व्यवहार किया जा रहा है? न केवल स्थानीय केबल नेटवर्क को बंद कर दिया गया है, बल्कि मीडियाकर्मियों को सामान्य कार्य भी नहीं करने दिया जा रहा। आखिर यह क्या हो रहा है? स्थानीय प्रशासन जिस तरह लोकल न्यूज नेटवर्क को ठप करने के साथ-साथ समाचार पत्रों को अपना कामकाज करने से रोक रहा है वह तो एक तरह का अघोषित आपातकाल है। क्या यह रवैया विनाश काले विपरीत बुद्धि वाली कहावत को चरितार्थ नहीं करता? इसकी जितनी भी निंदा की जाए वह कम है कि जम्मू की जनता की भावनाओं के प्रति पहले तत्कालीन राज्य सरकार ने असहिष्णुता का प्रदर्शन किया और अब केंद्र सरकार भी ऐसा ही कर रही है। आखिर यह कहां का न्याय है कि कश्मीर घाटी के अलगाववादियों के समक्ष तो दंडवत हो जाया जाए, लेकिन जम्मू संभाग के लोगों के वाजिब गुस्से की भी अनदेखी की जाए? दुर्भाग्य से पिछले कुछ दिनों से यही हो रहा है।
केंद्रीय सत्ता को यह समझना होगा कि जम्मू की जनता के आक्रोश में शेष देश की भी किसी न किसी रूप में सहभागिता है। समस्या सिर्फ यही नहीं है कि जम्मू की जनता की उपेक्षा और अनदेखी की जा रही है, बल्कि यह भी है कि वहां के स्वत: स्फूर्त विरोध प्रदर्शनों के बारे में दुष्प्रचार भी किया जा रहा है। हैरत की बात यह है कि इस दुष्प्रचार में केंद्रीय सत्ता के प्रतिनिधि भी शामिल हैं। जम्मू के आंदोलन को कभी चंद दिनों का विरोध प्रदर्शन बताया जा रहा है और कभी उसके पीछे भाजपा की शरारत रेखांकित की जा रही है। यदि केंद्र सरकार और उसके प्रतिनिधि, विशेष रूप से जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल एन एन वोहरा यह नहीं देख पा रहे हैं कि जम्मू तो उनकी भेदभावपरक नीतियों के कारण असंतोष से उबल पड़ा है तो इसका मतलब है कि उन्होंने अपने हाथों से अपनी आंखों पर पट्टी बांध ली है। यह घोर निराशाजनक है कि राज्यपाल एन एन वोहरा ऐसी कहीं कोई प्रतीति नहीं करा पा रहे हैं कि उन्हें जम्मू और आसपास के लोगों की थोड़ी सी भी परवाह है। अलगाववादियों का आगे बढ़कर तुष्टीकरण और राष्ट्रवादियों की घनघोर उपेक्षा करके भारत सरकार अपने दायित्वों से मुंह मोड़ने के साथ-साथ अपयश की भी भागीदार बन रही है। उसके पास अभी भी इस सवाल का कोई जवाब नहीं है कि अमरनाथ श्राइन बोर्ड को दी गई भूमि का आवंटन क्यों रद किया गया? चूंकि वह भविष्य में भी इस सवाल का जवाब देने में सक्षम नहीं होगी इसलिए उसे इस पर विचार करना ही होगा कि भूल सुधार कैसे की जाए?(दैनिक जागरण ४ अगस्त २००८)
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