कन्नूर हिंसा के लिए माकपा कार्यकर्ताओं को दोषी ठहरा रहे हैं बलबीर पुंज
केरल का कन्नूर जिला मार्क्सवाद हिंसा से सुलग रहा है। कन्नूर भारत में कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना स्थली है, जिसे मार्क्सवादी गर्व से भारत का लेनिनग्राद कहते हैं। कन्नूर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का कार्य 1943 में प्रारंभ हुआ और तब से ही माकपा का दुर्ग माने जाने वाले इस क्षेत्र में हिंदुत्वनिष्ठ संगठनों के कार्यकर्ताओं पर माकपाई हिंसा जारी है। संघ की बढ़ती साख से घबराए मार्क्सवादियों ने 1969 में एक संघ कार्यकर्ता की बर्बरतापूर्वक हत्या कर दी थी। 1994 में पेशे से शिक्षक और संघ के कार्यकर्ता 35 वर्षीय जयकृष्णन को कन्नूर के एक स्कूल में विद्यार्थियों से भरी कक्षा में काट कर मार डाला गया था। वे छात्र शायद ही उम्र भर उस वीभत्स कांड को भूल पाएंगे। पिछले चालीस सालों में 250 से अधिक लोग माकपाई हिंसा में मारे गए हैं। सैकड़ों जीवन भर के लिए विकलांग कर दिए गए। बर्बरता ऐसी कि मृतकों या घायलों के चित्र मात्र देख आत्मा सिहर उठे। कन्नूर से त्रिशूर और कोट्टयम से तिरुअनंतपुरम तक संघ, भारतीय जनता पार्टी, विहिप, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, भारतीय मजदूर संघ आदि हिंदुत्वनिष्ठ संगठनों के कार्यकर्ता मार्क्सवादी गुंडों के निशाने पर हैं। इसके विरोध में जब हाल में माकपा के दिल्ली स्थित मुख्यालय पर शांतिपूर्ण प्रदर्शन करने के लिए भाजपा कार्यकर्ता एकत्रित हुए तो उन पर मुख्यालय के अंदर से पथराव किया गया। बर्बर हिंसा के बल पर अपना वर्चस्व कायम करने के अभ्यस्त मार्क्सवादी कन्नूर हिंसा पर खेद प्रकट करने की जगह संसद में भी सीनाजोरी कर रहे हैं। संसद में हंगामा खड़ा कर वे कन्नूर की हिंसा को छिपाने की कोशिश में लगे हैं। उनका यह पैंतरा नया नहीं है। अभी कुछ समय पूर्व ही पश्चिम बंगाल के नंदीग्राम में सरकार समíथत जिस तरह मार्क्सवादी कामरेडों द्वारा बड़े पैमाने पर हिंसा की गई थी उसे भी देश और मीडिया की नजरों से छिपाने की पूरी कोशिश की गई थी। पश्चिम बंगाल के राज्यपाल ने तब इस हिंसा की कड़ी आलोचना करते हुए सरकार को कठघरे में खड़ा किया था। केरल के हिंसाग्रस्त कन्नूर जिले की असली तस्वीर क्या है, यह केरल उच्च न्यायालय के न्यायाधीश वी. कुमार की टिप्पणी से स्पष्ट है। उन्होंने कहा है, सरकार और पुलिस के समर्थन से की गई यह हिंसा दिल दहलाने वाली है। उन्होंने पुलिस की भूमिका पर टिप्पणी करते हुए कहा, पुलिस का नया चेहरा देखने को मिला, वह एक पार्टी विशेष के नौकर की तरह काम कर रही है..हिंसा रोकने का एकमात्र विकल्प कन्नूर को केंद्रीय सुरक्षा बलों के हवाले करना है। व्यवस्थातंत्र पर मार्क्सवादी कार्यकर्ताओं के शिकंजे का यह अपवाद नहीं है। सत्तर के दशक में पश्चिम बंगाल की कांग्रेस-कम्युनिस्टों की मिली-जुली सरकार में शामिल मार्क्सवादियों ने अपनी कार्यसूची और भूमि सुधार कानूनों को लागू करने के लिए बड़े पैमाने पर राज्यवार हिंसा का दौर चलाया था। प्रशासन और पुलिस का राजनीतिकरण करने के कारण 1977 में मार्क्सवादियों को अपना वर्चस्व कायम करने में बड़ी मदद मिली। इस मार्क्सवादी हिंसा के विरोध में तब कांग्रेसी मुख्यमंत्री अजय मुखर्जी अपनी ही सरकार के खिलाफ धरने पर बैठे थे। यह स्थापित सत्य है कि जो भी व्यक्ति या संगठन मार्क्सवादी विचारों से सहमत नहीं होते उन्हें मार्क्सवादी सहन नहीं कर पाते। दिल्ली में माकपा का एक चेहरा है तो पश्चिम बंगाल, केरल और त्रिपुरा में अलग। नंदीग्राम की हिंसा बताती है कि अपने विरोधियों से निपटने के लिए मार्क्सवादी किस हद तक जा सकते हैं। साठ के दशक से पूर्व और उसके बाद सत्ता हथियाने के लिए कम्युनिस्टों ने हिंसा का किस तरह सहारा लिया, यह सर्वविदित है। तीस के दशक में छिटपुट हिंसा की घटनाओं के साथ ये देश भर में आंदोलन खड़ा करने में क्षणिक रूप से सफल हुए थे, किंतु कांग्रेस प्रमुख राजनीतिक पार्टी बनी रही और मजदूर संघों में राष्ट्रवादी ताकतों का वर्चस्व रहा। 40 के दशक में कम्युनिस्टों को सुनहरा अवसर मिला। ब्रितानियों के खिलाफ राष्ट्रवाद के उफान के दमन पर वे ब्रितानियों के संग हो लिए। बड़े पैमाने पर राष्ट्रवादी नेता जेल में कैद थे। इससे कम्युनिस्टों को भारतीय राजनीति, खासकर मजदूर संघों में सेंधमारी करने का उपयुक्त अवसर मिला। 1964 में कम्युनिस्ट आंदोलन के कुछ वैचारिक प्रश्नों पर हुए वाद-विवाद में पी. सुंदरय्या, एके गोपालन, हरिकिशन सिंह सुरजीत आदि कम्युनिस्ट नेताओं ने लिखा था, हमारे देश में शांति के पथ को अपरिहार्य बताना अपने आप को और दूसरों को धोखा देना है। 1964 का यह दस्तावेज, जो माओ की हिंसक क्रांति पर आधारित था, वास्तव में अंतत: सीपीआई के उद्भव का आधार बना। तब से लेकर आज तक मार्क्सवाद का यह घटक लोकतांत्रिक प्रक्रिया में आने के बावजूद लगातार अपनी गतिविधियों से यह प्रमाणित करता रहा है कि विरोधी स्वर को दबाने के लिए वह हिंसा के किसी भी स्तर तक उतर सकता है। हिंसा और दमन का विरोध करने वाले केरल के केआर गौरी और पश्चिम बंगाल के मोहित सेन जैसे कामरेडों को इसीलिए धक्के मार निकाल बाहर किया गया था। पश्चिम बंगाल, केरल और त्रिपुरा में कम्युनिस्टों का जो प्रभाव है वह उनकी हिंसा की राजनीति के बल पर ही स्थापित हुआ है। कन्नूर मार्क्सवादियों के वर्चस्व वाले उत्तरी मालाबार का मुख्यालय है। नंदीग्रामवासियों की तरह मालाबार के लोग भी अब मार्क्सवाद के विरोध में मुखर हो उठे हैं। कथित मार्क्सवादी शहीदों के नाम पर जनता से धन उगाही, आतंकवाद को समर्थन, छिटपुट व्यापार से लेकर भवन निर्माण तक में मार्क्सवादी पार्टी की तानाशाही, नागरिकों से आय के हिस्से से पार्टी के लिए चंदे की वसूली, रोजगार में माकपा कार्यकर्ताओं को प्राथमिकता जैसे दमन व शोषण के अनगिनत कार्यो के खिलाफ मालाबार की जनता अब उठ खड़ी हुई है। मार्क्सवादी विचारधारा के खिलाफ आम आदमी का यह विद्रोह मार्क्सवादियों के लिए असहनीय है। वस्तुत: राष्ट्रवादी विचारधारा से कोसों की दूरी होने के कारण भारतीय जनमानस में मार्क्सवाद अपनी पैठ नहीं बना पाया है। इसीलिए मार्क्सवादी अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए हिंसा का सहारा लेते है। उन्हें पता है कि वर्ग-संघर्ष की दुकानदारी भारत में नहीं चल सकती। साम्यवाद दुनिया भर से सिमटता जा रहा है। ऐसे में मार्क्सवादियों को अपने अस्तित्व के लिए सबसे बड़ा खतरा राष्ट्रवादी ताकतों से लगता है। आश्चर्य नहीं कि भाजपा और संघ परिवार मार्क्सवादियों के निशाने पर रहते हैं। यह सही है कि हिंसा के बदले हिंसा भारतीय परंपरा की पहचान नहीं है, किंतु अनवरत हिंसा का प्रतिकार क्या हो सकता है? हिंसा? अंततोगत्वा सभ्य समाज को ही भारत की बहुलतावादी परंपरा की रक्षा के लिए मार्क्सवादियों की हिंसा के खिलाफ गोलबंद होना होगा। कन्नूर की ये दुर्भाग्यपूर्ण घटनाएं मार्क्सवादी विचारधारा में कोई अपवाद नहीं है। कम्युनिस्टों को हिंसा के माध्यम से अपनी राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता के दमन और प्रताडि़त करने का विश्वव्यापी अनुभव है। सोवियत संघ से लेकर, कम्युनिस्ट चीन, कंबोडिया, क्यूबा में करोड़ों निर्दोषों की हत्या कम्युनिस्टों के रक्तरंजित इतिहास में दर्ज हैं। यदि कन्नूर में फैली इस हिंसा को समाप्त नहीं किया गया तो यह कालांतर में दावानल बन सकता है। (दैनिक जागरण , १८ मार्च २००८ )