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Monday, March 5, 2012

त्रासदी का विचित्र तमाशा


-स्वप्न दासगुप्ता
यह कटु लग सकता है, किंतु जिस तरह मीडिया और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने भयावह गुजरात दंगों की दसवीं वर्षगांठ को पीड़ितों के उत्सव में बदला है वह बेहद घृणित है। पीड़ितों को गले लगाने के लिए दिग्गज पत्रकार अहमदाबाद की दौड़ लगा रहे थे। दंगों में अपनी जान बख्शने की गुहार लगा रहे कुतुबुद्दीन अंसारी के दुर्भाग्यपूर्ण अति-प्रचारित फोटोग्राफ का दुर्भाग्यपूर्ण ढंग से दोहन किया गया। यह हिंसा को इतिहास के कूड़ेदान में फेंकने का संकल्प लेने का एक उचित अवसर हो सकता था, किंतु इसके बजाय यह महज तमाशा बनकर रह गया। हंगामेदार टीवी वार्ताओं में इसका पटाक्षेप हो गया।
घटनाओं के इस बदसूरत मोड़ के कारण स्पष्ट हैं। दस साल पहले गोधरा में साबरमती एक्सप्रेस पर हुए जघन्य हमले से गुजरात में हिंसा भड़की। इस पूरे प्रकरण में 'न्याय' का राजनीतिक दोषारोपण में रूपातंरण हो गया। कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं ने इस मुद्दे को जिंदा बनाए रखा। अब मुद्दा दंगाइयों और अमानवीय कृत्य के जिम्मेदार लोगों को दंडित करने का नहीं रह गया है, बल्कि एक व्यक्ति-मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को राजनीतिक निशाना बनाना भर रह गया है। यह माना जा रहा है कि अगर मोदी पर व्यक्तिगत रूप से दंगों को बढ़ावा देने के आरोप में मामला दर्ज हो जाता है तो न्याय हासिल हो जाएगा। एक अतिरिक्त लाभ के रूप में मोदी राजनीतिक परिदृश्य से गायब भी हो जाएंगे। परिणामस्वरूप अगले लोकसभा चुनाव में उनके प्रधानमंत्री पद की दावेदारी की संभावना भी खत्म हो जाएगी। संक्षेप में, अगर आप नरेंद्र मोदी को हरा नहीं सकते, तो उन्हें अयोग्य ठहरा दो।
अगर नरेंद्र मोदी राजनीतिक रूप से कमजोर हो जाते तो उनके खिलाफ न्यायिक संघर्ष भी दम तोड़ देता। 2002 या 2007 के चुनाव में अगर मोदी हार जाते तो उससे यह आत्मतुष्ट निष्कर्ष निकाल लिया जाता कि गुजरात ने भी उसी तरह प्रायश्चित कर लिया जिस तरह उत्तर प्रदेश ने अयोध्या में विवादित ढांचा गिराए जाने के बाद भारतीय जनता पार्टी को नकारकर किया था। एक्टिविस्टों का शिकंजा इसलिए कसता चला गया, क्योंकि इस बीच मोदी बराबर खुद को मजबूत करते चले गए और कांग्रेस एक प्रभावी चुनौती खड़ी करने की स्थिति में भी नहीं रही। परिणामस्वरूप, मोदी से निपटने का एकमात्र रास्ता यह रह गया कि उन्हें राजनीति से ही किनारे कर दिया जाए।
एक और पहलू गौरतलब है। पिछले दस वर्षो में नरेंद्र मोदी ने गुजरात का कायापलट कर दिया है। 2002 में सांप्रदायिक माहौल में चुनाव जीतने के बाद उन्होंने अपना ध्यान गुजरात के तीव्र विकास पर केंद्रित किया। गुजरात हमेशा से ही आर्थिक रूप से सशक्त राज्य रहा है और उद्यमिता तो जैसे गुजरातियों के डीएनए में समाई हुई है। मोदी के प्रयासों से गुजरात की विकास दर दहाई में प्रवेश कर गई। उन्होंने प्रशासन को चुस्त-दुरुस्त किया, राज्य की राजकोषीय स्थिति को सुधारा, भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाया और सरकारी योजनाओं को ईमानदारी से चलाया। मोदी एक आदर्श प्रशासक हैं, जो कम से कम खर्च में प्रभावी शासन का मंत्र जानते हैं। 2007 में उनकी चुनावी जीत हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण का परिणाम नहीं थी। इस जीत का श्रेय उनके सुशासन को जाता है। दूसरे, मोदी ने मुद्दे को सफलतापूर्वक हिंदू गौरव से गुजराती गौरव में बदल दिया। पिछले एक दशक में गुजरातियों के जनमानस में बड़ा बदलाव आया है। दरअसल, 1969 के दंगे के बाद से गुजरात एक दंगा संभाव्य राज्य बन गया था। 1969 के दंगे के बाद, 1971, 1972 और 1973 में गुजरात में भीषण दंगे हुए। इसके बाद लंबे अंतराल के बाद जनवरी 1982, मार्च 1984, मार्च से जुलाई 1985, जनवरी 1986, मार्च 1986, जनवरी 1987, अप्रैल 1990, अक्टूबर 1990, नवंबर 1990, दिसंबर 1990, जनवरी 1991, मार्च 1991, अप्रैल 1991, जनवरी 1992, जुलाई 1992, दिसंबर 1992 और जनवरी 1993 में दंगे हुए। इस दौरान गुजरात क‌र्फ्यू, सामाजिक असुरक्षा और हिंदू-मुस्लिम समुदायों में घृणा का साक्षी रहा। दंगों का यह सिलसिला पूरे गुजरात में चलता रहा। 1993 में सूरत में भीषण दंगे हुए थे।
मार्च 2002 के बाद से गुजरात में कोई दंगा नहीं हुआ है। वहां क‌र्फ्यू अतीत की बात बन गया है। इस असाधारण रूपांतरण का क्या कारण है? मोदी में बुराई ढूंढने वाले सेक्युलरिस्ट बिना सोचे-समझे इसका सतही जवाब यह देते हैं कि 2002 के दंगों के बाद गुजरात के मुसलमान इतने भयभीत हो गए हैं कि वे हिंदुओं के अत्याचारों का विरोध कर पाने की स्थिति में नहीं हैं। इस प्रकार की व्याख्या से तो यही लगता है कि दंगे मुस्लिम समुदाय के एक वर्ग द्वारा शुरू किए जाते थे। इसका सही कारण यह है कि गुजरात में पिछले एक दशक में बड़े आर्थिक और प्रशासकीय बदलाव हुए हैं। पहला बदलाव तो यह हुआ कि प्रशासकीय और राजनीतिक नेतृत्व, दोनों ने 2002 के दंगों में भड़की हिंसा से निपटने की अक्षमता से सबक लिया है। पुलिस को सत्तारूढ़ दल के छुटभैये नेताओं की दखलंदाजी से मुक्त करते हुए खुलकर काम करने का मौका दिया गया है। अवैध शराब व्यापार और माफिया पर शिकंजा कसा गया है। इसके अलावा एक अघोषित समझ यह भी विकसित हुई है कि राज्य एक और दंगे की राजनीतिक कीमत नहीं चुका पाएगा। इसीलिए, वहां हिंदू उग्रवाद पर अंकुश लगाने के लिए विशेष ध्यान दिया गया है।
गुजरात में सबसे बड़ा परिवर्तन सामाजिक स्तर पर आया है। आज गुजरात एक ऐसा समाज है जो पैसा बनाने और आर्थिक अवसरों का लाभ उठाने में लगा हुआ है। खुशनुमा वर्तमान और संभावनाओं से भरे भविष्य ने गुजरातियों के मन में भर दिया है कि दंगे धंधे के लिए सही नहीं हैं। इसका यह मतलब नहीं है कि दोनों समुदायों के बीच अतीत की कटुता खत्म हो गई है और उसका स्थान सौहा‌र्द्र ने ले लिया है। अब भी सांप्रदायिक टकराव होते हैं, किंतु सांप्रदायिक टकराव और सांप्रदायिक हिंसा में फर्क होता है। अगर आर्थिक और राजनीतिक अंकुश रहे तो सांप्रदायिक टकराव हमेशा सांप्रदायिक हिंसा में नहीं बदलते। गुजरात के मुसलमानों को अब राजनीतिक वरदहस्त हासिल नहीं है, जो उन्हें कांग्रेस के राज में हासिल था, किंतु इसकी क्षतिपूर्ति समृद्धि के बढ़ते स्तर से हो गई है। 2002 के दंगे भयावह थे, किंतु अब इस पर ध्यान देना महत्वपूर्ण है कि जनसंहार के बाद के दस सालों में गुजरात में अमनचैन कायम है और वह अभूतपूर्व विकास की राह पर अग्रसर है। उत्सव इसी बात का मनाया जाना चाहिए।

Friday, June 19, 2009

धार्मिक स्थल का निर्माण शुरू होने से लोग नाराज

Dainik Jagran, 18 Jun 2009, बाहरी दिल्ली, जागरण संवाददाता : रोहिणी के सेक्टर-16 में धार्मिक स्थल का निर्माण शुरू होते ही क्षेत्रवासी डीडीए से खासे नाराज हो गए हैं। सेक्टर की डेढ़ दर्जन से ज्यादा रेजीडेंट वेलफेयर एसोसिएशन निर्माण के विरोध में बृहस्पतिवार को दिल्ली विकास प्राधिकरण के आयुक्त से मुलाकात करने गए। संगठनों ने धरना प्रदर्शन करने की चेतावनी दी है। जबकि निगम पार्षद ने इस संबंध में उप राज्यपाल से मांग की है कि स्थिति तनावपूर्ण होने से बचाएं और उक्त धार्मिक स्थल का आवंटन निरस्त करने का आदेश जारी करें।

बृहस्पतिवार को सेक्टर-16 स्थित ब्लॉक बी-1 के नजदीक नगर निगम के स्टोर से सटे स्थल पर एक मस्जिद निर्माण के लिए नींव की खुदाई शुरू हुई। ये देख इलाके की रेजीडेंट वेलफेयर एसोसिएशनों ने ऐतराज जताया। कर्मयोगी परिषद रेजीडेंट्स वेलफेयर एसोसिएशन के प्रधान सतीश गुप्ता ने बताया कि पूर्व में अप्रैल माह में क्षेत्र के डेढ़ दर्जन से ज्यादा संगठनों ने डीडीए उपाध्यक्ष अशोक कुमार निगम को पत्र लिखकर विरोध जताया था कि यहां मस्जिद का आवंटन निरस्त किया जाए, क्योंकि 500 मीटर दूर एक मस्जिद पहले से है। साथ ही आस-पास मुस्लिम समुदाय की आबादी भी नगण्य है। बावजूद इसके आरडब्ल्यूए की अनदेखी की गई। गुप्ता ने कहा कि डीडीए का संबंधित आयुक्त ने जान-बूझकर मस्जिद निर्माण को मंजूरी देते हुए हिंदू भावनाओं की बेकद्री की। बहुत जल्द उक्त स्थल पर रेजीडेंट वेलफेयर एसोसिएशनों के सैकड़ों कार्यकर्ता धरना देते हुए डीडीए के खिलाफ प्रदर्शन करेंगे। इस संबंध मे ंनिगम पार्षद हरीश अवस्थी ने उप राज्यपाल को पत्र लिख कर उक्त आवंटन को रद करवाने का अनुरोध किया है।

Wednesday, June 10, 2009

अब सरकार से नतीजे चाहते हैं मुसलमान

दैनिक जागरण, ९ जून २००९, नई दिल्ली [जागरण ब्यूरो]। मुसलमानों की तालीम और तरक्की, खासकर रोजगार के मौके दिलाने के वादे पर सरकार कितना खरा उतरेगी, यह तो समय बताएगा, लेकिन कांग्रेस और संप्रग के फिर से सत्ता में आने से उनकी आंखों में एक चमक जरूर दिखने लगी है। शायद यही वजह है कि वह अब अपने मसलों को और भी पुरजोर तरीके से उठाने लगे हैं। राज्यसभा में मुस्लिम सांसदों ने लगभग साफ तरीके से कौम की सूरत-ए-हाल बदलने की बात की, चाहे वह आरक्षण से या फिर बिना आरक्षण के हो।

मौका था राज्यसभा में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद पर अंतिम दिन वह भी अंतिम दौर में का चर्चा का। शायद इत्तेफाक था कि तीन मुस्लिम सांसदों को सिलसिलेवार ढंग से एक के बाद एक बोलने का मौका मिला। अभिभाषण के विभिन्न मसलों पर तो उन्होंने अपनी बात तो रखी ही, लेकिन कौम की दिक्कतों और भविष्य की जरूरतों पर उन्होंने खासतौर से सरकार का ध्यान खींचा।

उत्तर प्रदेश से राज्यसभा के निर्दलीय सदस्य मो. अदीब ने अपने तजुर्बे और मांगों का इजहार कुछ यूं किया। उन्होंने कहा कि बाबरी मस्जिद गिरने के बाद मुसलमानों ने कांग्रेस को छोड़ा तो छोटी पार्टियों ने उन्हें कंधा दिया। जाति-पाति की राजनीति की। भाजपा का डर दिखाया और वोट लिया, लेकिन उनकी तरक्की की कोई ठोस योजना नहीं बनाई। पिछले लोकसभा चुनाव में लगभग 20-25 साल बाद मुसलमानों ने कांग्रेस को वोट दिया, लेकिन भाजपा के जीतने के डर से नहीं, बल्कि काम की वजह से। लिहाजा अब अल्पसंख्यकों को विश्वास में लिया जाना चाहिए और उनकी तरक्की की व्यापक योजनाएं बननी चाहिए।

मो.अदीब के बाद पश्चिम बंगाल से निर्दलीय सदस्य अहमद सईद मलिहाबादी ने कहा कि मुसलमान इस देश का दूसरा सबसे बड़ा बहुसंख्यक है। पिछली सरकार में सच्चर की रिपोर्ट पर कार्यक्रम बनाने में ही समय बीत गया। इसलिए अब मौका आया है तो मुसलमानों को खैरात नहीं, बल्कि उनका हक मिलना ही चाहिए और जब तक आरक्षण नहीं देंगे, लोग उसे उन्हें उनका हक देने नहीं देंगे।

रालोद के महमूद मदनी ने भी इसी सिलसिले को आगे बढ़ाया। उन्होंने कहा कि 60 साल से मुसलमानों को नजरअंदाज किया गया। मुल्क को बदअमनी से बचाना है, तो जो भी यहां रहते हैं, उन्हें एक साथ आना होगा। सभी को समान अवसर दिए मुल्क एक नहीं बन सकता। संविधान यदि मजहब के नाम पर आरक्षण की इजाजत नहीं देता तो मुसलमानों को पिछड़ेपन के आधार पर आरक्षण दीजिए। उन्होंने सवाल उठाया कि समान अवसर आयोग की सिफारिश करने वाली रंगनाथ मिश्र आयोग की रिपोर्ट आखिर संसद में क्यों नहीं पेश की गई।

Wednesday, June 3, 2009

सिब्बल के गले नहीं उतरी केजीबीवी की यह पढ़ाई

दैनिक जागरण , जून ०२, २००९, नई दिल्ली, संप्रग की पिछली सरकार ने बीते पांच वर्षो में मुस्लिम समुदाय की तालीमी [शिक्षा] तरक्की के लिए भले ही लाख शोर मचाया हो, लेकिन जमीनी तस्वीर लगभग जस की तस है। खासकर, लड़कियों की पढ़ाई के मामले में तो लगता है कि सरकार कागजों में ही ज्यादा गंभीर रही है। तभी तो कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालयों में पढ़ रही ढाई लाख लड़कियों में से सिर्फ 15 हजार ही मुस्लिम समुदाय से हैं। शायद यही वजह है कि यह तालीमी तरक्की नए मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल के भी गले नहीं उतरी।

मंत्रालय का काम संभालने के बाद सिब्बल के एजेंडे पर जो कुछ खास मसले हैं, उनमें मुसलमानों की पढ़ाई-लिखाई को लेकर जस्टिस सच्चर की सिफारिशों पर अब तक हुई कार्रवाई भी अहम है। तभी तो उन्होंने काम शुरू करने के महज दो दिनों के भीतर ही इस पर रिपोर्ट तलब कर ली। अफसरों को भी मुंह जबानी ब्यौरा देने की छूट नहीं थी, लिहाजा सोमवार को उन्होंने सच्चर की सिफारिशों पर अमली कार्रवाई को लेकर सोमवार को प्रेजेंटेशन भी दिया।

सूत्रों के मुताबिक अफसरों ने सिब्बल को बताया कि दलितों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों की लड़कियों की पढ़ाई पर खास फोकस के तहत देश भर में चलाए जा रहे कस्तूरबा गांधी बालिका विद्यालयों [केजीबीवी] में कुल ढाई लाख लड़कियां पढ़ रही हैं। लेकिन उनमें मुस्लिम समुदाय से सिर्फ 15 हजार ही हैं।

बताते हैं कि यह आंकड़ा सिब्बल के भी गले नहीं उतरा। उन्होंने इस स्थिति को कतई असंतोषजनक माना, लेकिन किसी को कोई हिदायत नहीं दी। सूत्रों की मानें तो सिब्बल अभी मंत्रालय से जुड़े विभिन्न मसलों को गहराई से समझने में जुटे हैं। यही वजह है कि वे अफसरों को सतही तौर पर कुछ भी हिदायत देने से बच रहे हैं।

बताते हैं कि अल्पसंख्यकों की शिक्षा और सच्चर की सिफारिशों को लेकर अफसरों ने सिब्बल के मंत्रालय का रोडमैप रख दिया है। अब उन्हें मंत्री के अगले निर्देश का इंतजार है। अफसरों के मुताबिक मंत्रालय 2004 से अब तक लगभग ढाई हजार केजीबीवी को मंजूरी दे चुका है, जिनमें से 427 मुस्लिम बहुल आबादी वाले विकास खंडों में खोले जाने हैं। उनमें भी 94 शहरी क्षेत्रों की मुस्लिम आबादी वाले मुहल्लों में खुलेंगे।

Tuesday, May 5, 2009

सेकुलर राजनीति की सच्चाई

गुजरात दंगों के संदर्भ में विशेष जांच दल की रपट से कथित सेकुलर वर्ग का झूठ उजागर होता देख रहे हैं तरुण विजय

Dainik Jagran, 19 April 2009, जिस समय प्राय: हर रोज सैनिकों और नागरिकों की आतंकवादियों द्वारा बर्बर हत्याओं के समाचार छप रहे हों उस समय यह देखकर लज्जा होती है कि भारतीय राजनेता परिवारवाद तथा मजहबी तुष्टीकरण के दलदल में फंसे हास्यास्पद बयान देने में व्यस्त है। गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि 'स्वधर्मे निधनं श्रेय: परधर्मो भयावह' अर्थात् अपने धर्म पर अडिग रहते हुए मृत्यु भी प्राप्त हो तो वह श्रेयस्कर है। आज सत्ता का भोग करने वाले यदि अपने मूल राजधर्म के पथ से अलग रहते है तो एक दिन ऐसा आता है जब न तो उनका यश शेष रहता है और न ही पाप कर्म से अर्जित संपदा। लोकसभा चुनावों में अनर्गल आरोप-प्रत्यारोप, मिथ्या भाषण तथा गाली-गलौज का जो वातावरण बना है वह राजनीतिक कलुश का अस्थाई परिचय ही कराता है।

आजादी के बाद से अब तक देश में ऐसे अनेक मंत्री, मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री हुए जिन्होंने अपने-अपने कार्यकाल में विवादों, चर्चाओं और अकूत संपत्तिका आनंद लिया, परंतु उन सब में हम ऐसे किन्हीं दो-चार व्यक्तियों का स्मरण करते है जो अपनी संपत्तिनहीं, बल्कि कर्तव्य के कारण जनप्रिय हुए। पैसा कभी वास्तविक सम्मान नहीं दिलाता, इस बात को वे राजनेता भूल जाते है जो भारत की मूल हिंदू परंपरा सभ्यता और संस्कृति के प्रवाह पर चोट करना अपनी सेकुलर राजनीति का आधार बना बैठे है कि इस देश को हमेशा धर्म ने बचाया है सेकुलर सत्ता ने नहीं। अब तक कई हजार सांसद और विधायक बन गए है, परंतु उनमें से ऐसे कितने होंगे जिन्होंने पैसा नहीं, यश कमाया है? क्या वजह है कि सरदार पटेल और लाल बहादुर शास्त्री कांग्रेस नेता होते हुए भी शेष दलों में भी आदर और सम्मान पाते है और भाजपा के हिंदुत्वनिष्ठ राजनीति के पुरोधा डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी हों अथवा दीनदयाल उपाध्याय, उनके प्रति कभी कोई आघात नहीं कर पाया। वे संपदा और राजनीतिक प्रभुता न होते हुए भी दायरों से परे सम्मान के पात्र हुए।

गुजरात में दंगों की जांच के लिए गठित विशेष जांच टीम के प्रमुख एवं पूर्व सीबीआई निदेशक ने पिछले सप्ताह अपनी रिपोर्ट सर्वोच्च न्यायालय में दाखिल की, जिसमें कहा गया कि गुजरात दंगों के बारे में कुछ स्वयंसेवी संगठनों ने अपने कुछ नेताओं के कहने पर एक जैसे प्रारूप पर रौंगटे खड़े करने वाले जो आरोप लगाए थे वे सरासर झूठ और मनगढ़ंत थे। इसमें तीस्ता जावेद सीतलवाड़ का नाम सामने आया, जिन्होंने इस प्रकार के आरोप उछाले थे कि गर्भवती मुस्लिम महिला से हिंदुओं ने दुष्कर्म के बाद बर्बरतापूर्वक उसकी हत्या कर दी। विशेष जांच टीम ने स्पष्ट रूप से ऐसे चार उदाहरण प्रस्तुत किए है जिनमें एक कौसर बी की हत्या, दूसरा नरौडा पाटिया में कुएं में मुस्लिमों की लाशें फेंकने, तीसरा एक ब्रिटिश दंपत्तिकी हत्या का था। ये तीनों घटनाएं सैकड़ों मुसलमानों द्वारा एक जैसी भाषा और एक जैसे प्रारूप पर जांच टीम को दी गई थीं और तीनों ही झूठी साबित हुईं। हालांकि तीस्ता ने इस खबर का तीव्र खंडन किया है, लेकिन इस पर विशेष जांच टीम ने कोई टिप्पणी नहीं की है। अत: खंडन के दावों की भी जांच जरूरी है। ध्यान रहे, इसी प्रकार अरुंधती राय ने भी गुजरात दंगों के एक पक्ष का झूठा चित्रण किया था। यह कैसा सेकुलरवाद है जो अपने ही देश और समाज को बदनाम करने के लिए झूठ का सहारा लेने से भी नहीं हिचकता? यह कैसे प्रधानमंत्री हैं जो परमाणु संधि न होने की स्थिति में इस्तीफा देने के लिए तैयार रहते है, लेकिन नागरिकों को सुरक्षा देने में असमर्थ रहते हुए भी पद पर बने रहते हैं।

इस देश में एक ऐसा सेकुलर वर्ग खड़ा हो गया है जिसने हिंदुओं की संवेदना तथा प्रतीकों पर चोट करना अपना मकसद मान लिया है। इन दिनों विशेषकर जिस प्रकार उर्दू के कुछ अखबारों में जहर उगला जा रहा है वह 1947 से पहले के जहरीले माहौल की याद दिलाता है। ऐसी किसी संस्था या नेता पर कोई कार्रवाई नहीं होती। इस स्थिति में केवल देशभक्ति और राष्ट्रीयता के आधार पर एकजुटता ही अराष्ट्रीय तत्वों को परास्त कर सकती है। दुर्भाग्य से इस देश में हिंदुओं का पहला शत्रु हिंदू ही होता है। इसी स्थिति को बदलने के लिए डा. हेडगेवार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की थी, ताकि हिंदू एकजुटता स्थापित हो और इस देश का सांस्कृतिक प्रवाह सुरक्षित रह सके। भारत में हिंदू बहुलता संविधान सम्मत लोकतंत्र और बहुलवाद की गारंटी है। जिस दिन हिंदू अल्पसंख्यक होंगे या उनका मनोबल सेकुलर आघातों से तोड़ दिया जाएगा उस दिन भारत न सिर्फ अपनी पहचान खो देगा, बल्कि यहां भी अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश जैसी मजहबी मतांधता छा जाएगी। पानी, बिजली, सड़क, रोजगार, गरीबी उन्मूलन, विज्ञान और प्रौद्योगिकी का विकास, ग्रामीण सम्मान की पुनस्र्थापना राजधर्म के अंतर्गत अनिवार्य कर्तव्य है, लेकिन यही सब स्वयं में कभी भी राष्ट्र की पहचान नहीं बन सकते। अगर भौतिकता राष्ट्र की पहचान होती तो तिरंगे झंडे और यूनियन जैक में फर्क ही नहीं रहता।

आज देश की राजनीति को वह दृष्टि देने की जरूरत है जो भारतीयता की रक्षा कर सके। देश आज विदेशी विचारधाराओं और नव उपनिवेशवादी प्रहारों से लहूलुहान हो रहा है। जिहादी हमलों में साठ हजार से भी अधिक भारतीय मारे गए है। नक्सलवादी-माओवादी हमलों में 12 हजार से अधिक भारतीय मारे जा चुके है। इन आतंकवादियों के पास हमारे सैनिकों से बेहतर उपकरण और हथियार होते है। भारत सरकार पुलिस और अर्धसैनिक बलों को घटिया हथियार, सस्ती बुलेट प्रूफ जैकेट और अपर्याप्त प्रशिक्षण देकर अमानुषिक आतंकवादियों का सामना करने भेज देती है। राजधर्म का इससे बढ़कर और क्या पतन होगा? जिस राज में सैनिक अपने वीरता के अलंकरण वापस करने लगें और संत अपमानित व लांछित किए जाएं वहां के शासक अनाचार को ही प्रोत्साहित करने वाले कहे जाएंगे।





झूठी कहानी की सच्चाई

विशेष जांच दल की रपट से गुजरात दंगों की कहानियों का झूठ उजागर होता हुआ देख रहे हैं एस. शंकर

Dainik Jagran, 23 April 2009, पिछले सात वर्र्षो से मीडिया में मानो एक धारावाहिक चल रहा है, जिसमें गोधरा, बेस्ट बेकरी, जाहिरा शेख, नरेंद्र मोदी, नरोड़ा पटिया, अरुंधती राय, मानवाधिकार आयोग और तीस्ता सीतलवाड़ आदि शब्द बार-बार सुनने को मिलते हैं। नाटक के आरंभ से ही नरेंद्र मोदी को खलनायक के रूप में पेश किया गया, किंतु जैसे-जैसे नई परतें खुलती गईं, पात्रों की भूमिकाएं बदलती नजर आईं। नवीनतम कड़ी में सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त विशेष जांच दल ने कोर्ट की तीन सदस्यीय पीठ को अपनी रिपोर्ट सौंपी। इसने गुजरात दंगे पर सबसे अधिक सक्रिय मानवाधिकार कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड़ को जघन्य हत्याओं और उत्पीड़न की झूठी कहानियां गढ़ने, झूठे गवाहों की फौज तैयार करने, अदालतों में झूठे दस्तावेज जमा करवाने और पुलिस पर मिथ्या आरोप लगाने का दोषी बताया है। चूंकि नई सच्चाई सर्वोच्च न्यायालय के माध्यम से आई है अत: तीस्ता और उनके शुभचिंतक मौन रहकर इसे दबाने का प्रयास कर रहे हैं। इस तरह अब तक जो अभियोजक थे अब वे आरोपी के रूप में कठघरे में दिखाई देंगे। वैसे इन वषरें में गुजरात दंगों से संबंधित हर नया पहलू इसी तरह बदलता रहा है। जाहिरा शेख का बार-बार गवाही-पलटना, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग द्वारा उतावलापन दिखाना, तहलका के पासे उलटा पड़ना, नानावती आयोग की वृहत रिपोर्ट, तीस्ता के अत्यंत निकट सहयोगी रईस खान द्वारा तीस्ता के भय से पुलिस सुरक्षा की मांग करने से लेकर अरुंधती राय द्वारा काग्रेस नेता अहसान जाफरी की बेटी के दुष्कर्म-हत्या की लोमहर्षक झूठी कथा लिखने और लालू प्रसाद यादव द्वारा नियुक्त मुखर्जी आयोग द्वारा गोधरा को महज दुर्घटना बताने तक सभी कड़ियों ने प्रकारातर में एक ही चीज दिखाई कि गुजरात सरकार पर लगाए गए आरोप मनगढ़ंत थे।

बेस्ट बेकरी मामला मात्र जाहिरा शेख के बयान बदलने से चर्चित हुआ। मानवाधिकार आयोग ने उसी जाहिरा की छह सौ पन्नों की याचिका पर गुजरात हाई कोर्ट पर सार्वजनिक रूप से लाछन लगाया। उन पन्नों को देखने की भी तकलीफ नहीं की, जिन पर कहीं भी जाहिरा के दस्तखत तक नहीं थे! पर चूंकि उसे तीस्ता ने जमा किया था इसलिए आयोग अधीर होकर सर्वोच्च न्यायालय से गुहार लगा बैठा कि बेस्ट बेकरी की सुनवाई गुजरात से बाहर हो। इस प्रकार आयोग ने न केवल अपनी मर्यादा का उल्लंघन किया, बल्कि गुजरात की न्यायपालिका पर कालिख भी पोती। यहां तक कि गुहार सुनते हुए स्वयं सर्वोच्च न्यायालय ने गुजरात हाई कोर्ट और वहां के मुख्यमंत्री के विरुद्ध कठोर टिप्पणियां कर दीं। किस आधार पर? एक ऐसे व्यक्ति के बयान पर, जो स्व-घोषित रूप से एक बार शपथ लेकर अदालत में झूठा बयान दे चुका था।

इस प्रकार हमारे राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने एक ही गवाह के एक बयान को मनमाने तौर पर गलत और दूसरे को सही मान लिया। इसी आधार पर गुजरात हाईकोर्ट की खुली आलोचना की, जिसने बेस्ट बेकरी केआरोपियों को दोषमुक्त किया था। उस निर्णय को 'सच्चाई का मखौल' बताकर सर्वोच्च न्यायपालकों ने नरेंद्र मोदी को भी 'राजधर्म' निभाने या 'गद्दी छोड़ देने' की सलाह दे डाली। साथ ही मामला मुंबई हाई कोर्ट को सौंप दिया गया। सर्वोच्च न्यायालय ने यह सब तब किया जब जाहिरा की मां और ननद ने कहा था कि सारा खेल तीस्ता करवा रही है और जाहिरा ने पैसे लेकर बयान बदला है। जाहिरा के वकील ने भी यही कहा था। फिर भी, सच्चाई की अनदेखी कर केवल कुछ उग्र, साधन-संपन्न मानवाधिकार कार्यकर्ताओं से प्रभावित होकर हमारे न्यायपालकों ने अपने को हास्यास्पद स्थिति में डाल लिया।

बाद में सर्वोच्च न्यायालय ने यह देखकर 'अपने को विचित्र स्थिति' में पाया कि जाहिरा के नाम पर प्रस्तुत किए गए भारी-भरकम दस्तावेजों में जाहिरा के दस्तखत ही नहीं हैं। यह सब तो अब स्पष्ट हो रहा है। इस बीच तीस्ता भारतीय न्यायपालिका को दुनिया भर में बदनाम कर चुकी थीं और उन्हें न्यूरेनबर्ग ह्यूमन राइट अवार्ड, ग्राहम स्टेंस इंटरनेशनल अवार्ड फार रिलीजियस हारमोनी, पैक्स क्रिस्टी इंटरनेशनल पीस प्राइज, ननी पालकीवाला अवार्ड से लेकर पद्मश्री तक कई देशी-विदेशी पुरस्कार मिल चुके हैं। न्यायाधीशों ने जाहिरा शेख को झूठे बयान देने के लिए सजा दी। अमेरिकी संसद की 'यूनाइटेड स्टेट्स कमीशन आन इंटरनेशनल रिलीजस फ्रीडम' के सामने भी तीस्ता ने मनगढ़ंत गवाही दी थी। क्या हमारे न्यायाधीश उन सारी झूठी गवाहियों की असल सूत्रधार को कोई सजा देंगे? तीस्ता को इसलिए सजा मिलनी चाहिए ताकि आगे न्यापालिका और मीडिया का दुरुपयोग कर अपना उल्लू साधने वालों को चेतावनी मिले। गुजरात हाईकोर्ट ने अपने निर्णय में वही बातें लिखी थीं जिन्हें अब सुप्रीम कोर्ट के विशेष जांच दल ने जांच में सही पाया है।

हाईकोर्ट ने कहा था कि जाहिरा का 'कुछ लोगों को बदनाम करने का षड्यंत्र' दिखता है और यह भी कि वह कुछ समाज-विरोधी और देश-विरोधी तत्वों के गंदे हाथों में खेल रही हैं। हाईकोर्ट ने ऐसे लोगों और कुछ गैर सरकारी संगठनों द्वारा पूरे राज्य प्रशासन और न्यायपालिका को निशाना बनाने तथा एक समानातर जांच चलाने की भी आलोचना की थी, पर उस निर्णय को निरस्त करके सर्वोच्च न्यायालय ने कठोर टिप्पणियां कर दीं। उसी से देश-विदेश में गुजरात हाई कोर्ट की छवि धूमिल हुई। क्या आज गुजरात हाईकोर्ट के वे न्यायाधीश सही नहीं साबित हुए, जिन्हें पक्षपाती समझ कर उन न्यायिक मामलों को राज्य से बाहर ले जाया गया था? आशा की जा सकती है कि अपने ही द्वारा गठित विशेष जांच दल की इस रिपोर्ट के बाद सर्वोच्च न्यायालय न्यायिक प्रक्रिया का दुरुपयोग करने वालों पर कड़ी कार्रवाई करेगा। गुजरात धारावाहिक की अंतिम कड़ियां आनी अभी बाकी हैं।


Wednesday, January 21, 2009

जिहादी रणनीति का सच

एस.शकंर
दैनिक जागरण, १३ जवारी २००९, जब इजरायल पर हिजबुल्ला और हमास जैसे आतंकी संगठनों के हमले शुरू होते है तो विरोध की प्रतिक्रियाएं सुनाई नहीं पड़तीं। न तो मानवीय संकट का राग अलापा जाता है, न ही अपील और आपत्तियों के स्वर उठते है। दूसरी ओर इजरायल द्वारा अपनी रक्षा के लिए प्रतिक्रियात्मक प्रहार शुरू करते ही निंदा, प्रदर्शन और अपीलों का दौर शुरू हो जाता है। दिसंबर में हमास ने इजरायल पर राकेट हमले शुरू किए। इजरायल की कार्रवाई जवाबी है, फिर भी आलोचना के निशाने पर वही है। जबसे इजरायल बना है तभी से उसे तरह-तरह के शत्रुओं की घृणा, प्रहार का सामना करना पड़ रहा है। पिछले तीन वर्ष से ईरान के राष्ट्रपति इजरायल को दुनिया से मिटा देने की कई बार घोषणाएं कर चुके है। क्यों दुनिया के मानवता प्रेमी ईरान की वह भ‌र्त्सना, निंदा नहींकरते जो इजरायल द्वारा आत्मरक्षा में की गई कार्रवाइयों पर होती है? इजरायल की पूर्वी और पश्चिमी सीमा पर वेस्ट बैंक और गाजा अर्थात फलस्तीनी सत्ता पर कुख्यात आतंकी संगठन हमास दो वर्ष से काबिज है। हमास का लक्ष्य है इजरायल को मिटाना। इजरायल के उत्तर अर्थात लेबनान के दक्षिणी क्षेत्र में शिया आतंकी संगठन हिजबुल्ला का राज है। हिजबुल्ला का नियंत्रण ईरान के हाथ में है, जो उसे सैन्य और वित्तीय मदद देता है। इस प्रकार हमास, हिजबुल्ला, ईरान, सीरिया आदि कई शक्तियां इजरायल को खत्म करने का खुलेआम उद्देश्य रखती है। ऐसे में यह कहना कि हमास के हमलों पर इजरायल की प्रतिक्रिया आनुपातिक होनी चाहिए, निरी प्रवंचना ही है।

आतंकी पश्चिमी भय और बुद्धिजीवियों के भोलेपन का जमकर लाभ उठाते है। यहां अनुपात का प्रश्न ही नहीं, मूल बात अस्तित्व-रक्षा की है। गाजा उस भूमि पर स्थित है जिसे तीन वर्ष पहले इजरायल ने अपनी बसी-बसाई आबादी को हटाकर स्वेच्छा से खाली कर दिया था, ताकि सुलह-शांति का कोई मार्ग निकले। आज वहीं से उस पर राकेट से हमले हो रहे है। डेढ़ वर्ष पहले हिजबुल्ला ने यही किया था, अब हमास कर रहा है। गाजा को खाली करने के बदले इजरायल को अरब देशों, सुन्नी हमास और शिया हिजबुल्ला जैसे आतंकी संगठनों से क्या मिला? आतंकी तत्व नरमी को डर और कायरता समझते है। अलग-अलग रूपों में जिहादी राजनीति केवल फलस्तीन ही नहीं, दुनिया के हर क्षेत्र में कमोबेश सक्रिय है, किंतु इसकी रणनीति और विचारधारा को समझा नहीं गया है। उसे हम प्राय: अपनी मनोवृत्ति के अनुरूप देखने की गलती करते है। जैसे सभी घाव मरहम से ठीक नहीं होते उसी तरह हरेक राजनीतिक संघर्ष बातचीत या लेन-देन से नहीं सुलझ सकता। जिहादी राजनीति के अपने नियम है। उन्हे पाकिस्तान, फलस्तीन से लेकर दारफर तक पहचाना जा सकता है। अलकायदा, हमास, हिजबुल्ला, लश्करे-तैयबा, इंडियन मुजाहिदीन आदि सैकड़ों संगठन खुलेआम जिहाद में लगे है। इसके अलावा ईरान, सीरिया, सऊदी अरब, सूडान आदि कई देशों में सत्ताधारी हलकों से जब-तब प्रत्यक्ष या प्रच्छन्न जिहादी राजनीति का संचालन या सहयोग होता रहता है। उनकी भिन्नताएं अपनी जगह है, किंतु उनके क्रिया-कलाप की सैद्धांतिक-व्यवहारिक समानताएं अधिक महत्वपूर्ण है। उसी में उनकी शक्ति और कमजोरी की थाह मिलती है। जिहादी रणनीति सदैव हमला करने की है। इसके लिए उसे किसी बहाने की जरूरत नहीं पड़ती। कारण ढूंढने का काम तो उलटे पीड़ित समाजों के बुद्धिजीवी करते है। सभी जिहादी सीधे नागरिक आबादी को मारते हैं, जैसा कि भारत में पिछले 15 वर्ष से मार रहे है। यदि जांच-पड़ताल भी की जाए तो वे 'निर्दोष मुसलमानों' को पीड़ित करने का आरोप लगाएंगे। जिहादियों को विश्वास है कि उनके शत्रु जीत नहीं सकते। दबावों से उन पर कोई फर्क नहीं पड़ता और वार्ता से वे कायल होने वाले नहीं।

हिजबुल्ला और हमास ने लेबनान या गाजा में जानबूझकर नागरिक बस्तियों के बीच अपने सैनिक ठिकाने बनाए है, ताकि वे बच्चों, स्त्रियों को ढाल बना सकें। आम नागरिकों की हमास या हिजबुल्ला को परवाह नहीं, मगर वे दुनिया भर में प्रचार करेगे कि इजरायल निर्दोष लोगों की हत्या कर रहा है। यदि हमास, हिजुबल्ला, लश्कर जैसे संगठनों के दस्तावेज, पर्चो या दूसरी सामग्री पर ध्यान दें तो स्पष्ट दिखता है कि वे यहूदियों, हिंदुओं के विरुद्ध घृणा फैलाते है। जिहादी रणनीति का यही मूल तत्व है। फलस्तीन हो या कश्मीर, कमोबेश उनके तौर-तरीके समान है। जिहादी आतंकवाद के व्यवहार को ठीक-ठीक पहचान कर उपाय सोचें, तब दिखेगा कि उससे और उसकी विचारधारा से खुली, लंबी लड़ाई के अलावा कोई विकल्प नही। जब हम आसान समाधान की दुराशा छोड़ देंगे और लड़ाई स्वीकार करेगे तभी जिहादी आतंकवाद के अंत की शुरुआत होगी।


अल्पसंख्यक अपने अधिकारों से महरूम

दैनिक जागरण, २० जनवरी २००८, नई दिल्ली। उपराष्ट्रपति मुहम्मद हामिद अंसारी ने मंगलवार को कहा कि कानून के सामने अल्पसंख्यक देश के सभी अधिकारों के लाभार्थी हैं लेकिन हकीकत इससे परे है और इस बात की पुष्टि भी हो चुकी है।

अंसारी ने कहा कि इस हकीकत के चलते देश का सर्वागीण विकास प्रभावित हो रहा है इस लिए इस स्थिति में सुधार लाए जाने की सख्त जरूरत है।

उपराष्ट्रपति ने मंगलवार को यहां राज्य अल्पसंख्यक आयोगों के वार्षिक सम्मेलन का उद्घाटन करते हुए यह टिप्पणी की। अल्पसंख्यकों की सुरक्षा के संदर्भ में उपराष्ट्रपति ने कहा कि कुछ हाल की और कुछ पहले की घटनाओं के चलते अल्पसंख्यकों की सुरक्षा के मामले में चिंताएं बनी हुई हैं। उन्होंने कहा कि शासन द्वारा सुरक्षा मुहैया नहीं करा पाना इस मामले में चिंता का बड़ा विषय है। अदालतों के फैसलों से भी इस बात की पुष्टि होती है।

अंसारी ने कहा कि इस संबंध में जनमानस और मानवाधिकार संगठनों की शिकायतों को देखते हुए सुधारात्मक कदम उठाए जाने की आवश्यकता है। उपराष्ट्रपति ने कहा कि देश में लगभग हर छठा व्यक्ति अल्पसंख्यक है और उनकी आबादी करीबन 20 करोड़ है। कानून की नजर में वे सभी अधिकारों के लाभार्थी हैं लेकिन हकीकत इससे परे है और इसकी पुष्टि भी हो चुकी है। इससे देश का सर्वागीण विकास प्रभावित हुआ है।

उन्होंने कहा कि राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग और इस तरह के राज्य आयोगों का गठन अल्पसंख्यकों के हितों की सुरक्षा और उनमें विश्वास बहाल करने के लिए किया गया था लेकिन अनुभव दर्शाते है कि उनकी शिकायतें दूर करने का तंत्र भी कुछ हद तक सफल नहीं रहा है।

अंसारी ने इस कमी को दूर करने के लिए राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग और अनुसूचित जाति आयोग की तर्ज पर अल्पसंख्यक आयोग को भी जांच के अधिकार देने की वकालत की। उन्होंने कहा कि इसी तरह अल्पसंख्यकों के लिए अनुसूचित जाति एवं जनजाति उत्पीडन निवारक कानून की तर्ज पर कोई कानून बनाने के बारे में भी विचार करना चाहिए। उपराष्ट्रपति ने कहा कि सच्चर समिति की रिपोर्ट के बाद अल्पसंख्यकों के उत्थान के लिए कई स्तर पर कार्य किए जा रहे हैं लेकिन जरूरत इस बात की है कि उनके क्रियान्वयन पर नजर रखने के लिए भी कारगर तंत्र स्थापित किए जाएं। इस अवसर पर मानव संसाधन विकास मंत्री अर्जुन सिंह ने कहा कि उन्होंने मदरसों में पढ़ने वाले विद्यार्थियों की शिक्षा को केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड और भारतीय स्कूल शिक्षा बोर्ड परिषद के समकक्ष मानने की सिफारिश को स्वीकार कर लिया है।

सिंह ने कहा कि इसके अलावा केंद्रीय मदरसा बोर्ड गठित करने का मामला भी विचाराधीन है। केंद्रीय श्रम मंत्री आस्कर फर्नाडिस ने कहा कि अल्पसंख्यकों का उत्थान वर्तमान समय में जरूरी है और इसके लिए उन्हें बड़े पैमाने पर तकनीकी शिक्षा उपलब्ध कराई जानी चाहिए ताकि वे स्वावलंबी बन सकें।

अगले सत्र में पेश होगा मदरसा बिल

दैनिक जागरण, २० जनवरी २००९, नई दिल्ली। मदरसों में शिक्षा का स्तर सुधारने के इरादे से सरकार केंद्रीय मदरसा बोर्ड की स्थापना करने के वास्ते संसद के अगले सत्र में विधेयक लाएगी।

केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री अर्जुन सिंह ने मंगलवार को राज्य अल्पसंख्यक आयोगों के वार्षिक सम्मेलन में कहा कि अल्पसंख्यकों की एक अर्से से मांग रही है कि ऐसा बोर्ड बनाया जाए और इसके मद्देनजर संसद के अगले सत्र में यह विधेयक पेश किया जाएगा। सिंह ने कहा कि उनके मंत्रालय के मदरसा शिक्षा की तरफ विशेष ध्यान दिया है और हाल में केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड [सीबीएसई] और भारतीय स्कूल शिक्षा बोर्ड परिषद [सीओबीएसई] से सिफारिश की है कि मदरसा प्रमाणपत्र को सीबीएसई के बराबर माना जाए, ताकि मदरसों से शिक्षा प्राप्त व्यक्ति भी सरकारी नौकरियों के योग्य हों।

सिंह ने कहा कि अल्पसंख्यक शिक्षा संस्थानों के वास्ते एक विशेष निकाय राष्ट्रीय अल्पसंख्यक शिक्षा संस्थान आयोग का गठन इसलिए किया गया है, ताकि अपने पंसद के शिक्षण संस्थान खोलने और चलाने के अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा हो सके। बाटला हाउस मुठभेड़ की न्यायिक जांच की मांग संबंधी एक सवाल के जवाब में उन्होंने कहा कि यह मांग सरकार की नजर में है और व्यक्तिगत तौर पर उनका मानना है कि अच्छा होगा कि अगर इस घटना के संबंध में स्थिति स्पष्ट हो सके। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ द्वारा चलाए जा रहे सरस्वती शिशु मंदिर स्कूलों के खिलाफ कार्रवाई करने के बारे में पत्रकारों के सवालों के जवाब में सिंह ने कहा कि इन स्कूलों के पाठ्यक्रम में कुछ अवांछित सामग्री है और उनका मंत्रालय मामले की जांच कर रहा है। उन्होंने लेकिन यह भी कहा कि वह जल्दबाजी में कोई कदम नहीं उठाना चाहते क्योंकि किसी भी संगठन की राजनीतिक तौर पर निशाना बनाने की उनकी कोई मंशा नहीं है।

फिर बाहर निकला बटला हाउस का जिन्न

दैनिक जागरण, 20 जनवरी २००९, नई दिल्ली। केंद्रीय मंत्री अर्जुन सिंह ने बटला हाउस के भूत को एक बार फिर खड़ा कर दिया है। उन्होंने मंगलवार को मांग की कि मामले की न्यायिक जांच की जानी चाहिए। उधर, विपक्षी भाजपा ने इसकी कड़ी निंदा करते हुए इसे आतंकवाद और पाक समर्थक बयान बताया।

अर्जुन सिंह ने संवाददाताओं से कहा कि लोकतंत्र में बेहतर यही होता है कि मामले स्पष्ट हों। उनका मानना है कि घटना की न्यायिक जांच से मामला स्पष्ट हो सकेगा। अर्जुन सिंह ने संकेत दिया कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी इस बारे में विचार कर रहे हैं। हालांकि उन्होंने इसे प्रधानमंत्री के विशेषाधिकार का मामला बताते हुए कोई ब्यौरा देने से इनकार कर दिया।

उधर, भाजपा ने अर्जुन सिंह के इस बयान पर कड़ी आपत्ति जताते हुए कहा कि यह आतंकियों का समर्थन करने और उस मुठभेड़ में मारे गए पुलिस अधिकारी महेश चंद शर्मा की शहादत को चुनौती है। उन्होंने कहा कि सिंह का बयान एक अन्य केंद्रीय मंत्री अब्दुल रहमान अंतुले के समान है जिसमें उन्होंने मुंबई आतंकी हमले में शहीद हुए हेमंत करकरे की शहादत पर सवाल उठाया था और इसका फायदा उठाकर पाकिस्तान ने भारत के खिलाफ भी मोर्चा खोल दिया।

भाजपा प्रवक्ता राजीव प्रताप रूडी ने कहा कि अंतुले के बाद एक अन्य केंद्रीय मंत्री द्वारा आतंकियों का इस तरह खुला समर्थन किए जाने के संबंध में स्वयं प्रधानमंत्री और गृह मंत्री को तुरंत स्पष्टीकरण देना चाहिए।

दिल्ली में गत 13 सितंबर को हुए बम विस्फोटों में कथित रूप से शामिल इंडियन मुजाहिद्दीन के दो संदिग्ध आतंकी जामिया नगर में पुलिस के साथ हुई मुठभेड़ में मारे गए थे। इस घटना में एक पुलिस इंस्पेक्टर भी मारा गया।

बटला हाउस इलाके के लोगों सहित कई मुस्लिम संगठनों, समाजवादी पार्टी और जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय आदि ने इस मामले की न्यायिक जांच की मांग की थी।

Friday, December 12, 2008

आतंक की उर्वर जमीन

रह-रह कर होने वाले आतंकी हमलों के मूल कारणों पर प्रकाश डाल रहे हैं बलबीर पुंज

दैनिक जागरण, ०८ दिसम्बर २००८, इतिहास के काले पन्नों में 26/11 का भारत में वही स्थान है जो अमेरिका में 9/ 11 का है। भारत में लगभग हर दो मास के बाद बम विस्फोटों में निर्दोषों की हत्या होती है। ऐसी घटनाओं में मरने वालों की संख्या अब हजारों में है। 11 सितंबर ,2001 के व‌र्ल्ड ट्रेड सेंटर, पेंटागन आदि पर हवाई हमले के बाद पिछले सात वर्र्षो में अमेरिका में एक भी आतंकवादी घटना नहीं हुई। अमेरिका और इज़राइल भारत की तुलना में जिहादी आतंकवादियों के निशाने पर अधिक हैं, फिर केवल भारत में ही आतंकवादियों को अपने नापाक मंसूबों को पूरा करने में इतनी सफलता क्यों मिल रही है? क्या यह सत्य नहीं कि लगभग सभी स्वयंभू सेकुलर दलों ने सेकुलरवाद के नाम पर कट्टरवादी मुस्लिम मानसिकता को पुष्ट करने का काम किया है? क्या जिहादी प्रवृति इसी मानसिकता की देन नहीं है?

यह ठीक है कि मुंबई में हुए हाल के नरसंहार के लिए पाकिस्तानी जिम्मेदार थे, परंतु इस महानगर पर ढाए गए इस कहर को क्या केवल इन्हीं दस लोगों ने अंजाम दिया? क्या इन आतंकवादियों को कोई स्थानीय सहयोग नहीं प्राप्त था? वर्ष 2005 से अब तक की घटनाओं में अपने ही देश में पैदा हुए, पनपे और प्रशिक्षित किए गए आतंकवादियों की संख्या कितनी है? अभी दिल्ली में बटला हाउस की पुलिस मुठभेड़ को छोड़ दें तो कितनी घटनाओं में सुरक्षा बलों ने आतंकवादियों को मार गिराने में सफलता प्राप्त की है? क्या यह सत्य नहीं कि इन घटनाओं के लिए जिम्मेदार आतंकवादियों को न तो किस न्यायालय में चार्जशीट किया गया है और न ही दंडित? क्यों? संसद पर खूनी हमले के दोषी मुहम्मद अफजल को सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के बाद भी वर्र्षो से दंडित नहीं किया गया। इससे क्या संदेश जाता है?

मुबई में हुए हमले के बाद जनाक्रोश उमड़ना स्वभाविक था और कांग्रेस में जिस तरह से आरोपों और प्रत्यायोपों का दौर शुरू हुआ वह वास्तव में ही शर्मनाक था। शेष देश और मुबई साठ घंटे के आतंकी आक्रमण से उबरे भी नहीं थे कि कांग्रेस के नेताओं में महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री के पद को लेकर जूतम पैजार शुरू हो गई। शीर्ष पर व्यक्ति बदलने से क्या कोई वास्तविक परिवर्तन संभव है? वर्तमान दुखद स्थिति के लिए नेतृत्व और उससे अधिक कांग्रेसी नीतियां जिम्मेदार हैं। क्या इन नीतियों में परिवर्तन होगा? क्या वोट बैंक की राजनीति के लिए राष्ट्र हितों की बलि नहीं दी जाएगी? 16 मार्च 2006 के दिन केरल विधानसभा ने सर्वसम्मति से एक प्रस्ताव पारित करके उस अब्दुल नसीर मदनी की रिहाई की मांग की जिस पर 1998 में कोयंबतूर बम विस्फोटों का षडयंत्र करने और विस्फोटों में 60 बेकसूर नागरिकों की हत्या का मुकदमा चल रहा था। ये विस्फोट बीजेपी नेता लालकृष्ण आडवानी की हत्या के इरादे से उनकी सार्वजनिक सभा में किए गए थे।

एक दूसरे से ज्यादा बड़ा और बेहतर सेकुलर दिखने और मुस्लिम समाज का सबसे बड़ा खैरख्वाह होने के इसी उत्साह की वजह से भारत के वामपंथी दलों और यूपीए ने उत्साह के साथ आतंकवाद विरोधी पोटा कानून को भी खत्म कर दिया। इसी का नतीजा है कि भारत की अस्मिता पर बार-बार हमला करने वाले आतंकवादियों के हौसले लगातार बुलंद होते जा रहे हैं। ऐसी हरकतें करने वाले संगठनों और पार्टियों के वोटों में कितनी बढ़ोत्तारी होती है, यह तो पता नहीं पर इसमें कोई शक नहीं कि इन हरकतों से समाज की सुरक्षा में लगी एजेंसियों और सुरक्षा कर्मियों का उत्साह घटता है। आतंकवादियों के लिए भला इससे बेहतर सौगात और क्या हो सकती है?

भारतीय मुस्लिम समाज और आतंकवाद का सवाल उठते ही भारत के सेकुलरिस्ट यह दलील देने लगते हैं कि गरीबी के कारण मुस्लिम युवक आतंकवाद की राह में भटक जाते हैं, लेकिन मुंबई और दिल्ली समेत पिछले सभी आतंकवादी हमलों के लिए जिम्मेदार जिन आतंकवादी युवाओं को पकड़ा गया उनमें से अधिकांश उच्चा शिक्षा पाए हुए और खाते पीते घरों के हैं। यह दिखाता है कि असली समस्या अशिक्षा और बेरोजगारी में नहीं, बल्कि भारतीय मुस्लिम समाज पर गहरी पकड़ बनाए बैठे वे कठमुल्ला नेता हैं जो आज भी भारत को 'दारुल इस्लाम' बनाने का सपना पाले हुए हैं। वैसे भी अगर गरीबी में ही आतंकवादी पैदा होते हैं तो फिर भारत के हिंदू समाज में सबसे ज्यादा आतंकवादी होने चाहिए थे, क्योंकि यहां के निपट गरीब हिंदुओं की संख्या भारत की पूरी मुस्लिम आबादी के दुगने से भी ज्यादा है। मुंबई में हुई आतंकी घटना एक ऐसे मौके पर हुई जब महाराष्ट्र की एटीएस मालेगांव बम विस्फोटों की जांच में लगी हुई थी।

महाराष्ट्र एटीएस की जांच के हर कदम को जिस तरह मीडिया के सामने रोज-रोज परोसा जा रहा था उसे देखकर समझना मुश्किल था कि महाराष्ट्र सरकार एटीएस का इस्तेमाल बमकांड की जांच के लिए कर रही है या दुनिया को यह बताने के लिए कि दुनिया भर में फल फूल रहे इस्लामी आतंकवाद के साथ-साथ भारत में 'हिंदू आतंकवाद' भी खड़ा हो गया है। 26 नवंबर के दिन पाकिस्तानी आतंकवादियों की गोलियों से शहीद होने से ठीक एक दिन पहले एटीएस के प्रधान शहीद हेमंत करकरे ने एक टीवी न्यूज़ चैनेल को दिए अपने इंटरव्यू में इस बात को स्वीकार किया था कि एटीएस का 90 प्रतिशत समय और ताकत को मालेगांव कांड पर खर्च किया जा रहा है। क्या इस जांच का उद्देश्य आतंकवाद के स्रोतों को बंद करना नहीं बल्कि साध्वी प्रज्ञा और ले. कर्नल पुरोहित को 'हिंदू टेरर' के प्रतीकों के रूप में खड़ा करके 'सेकुलरिस्टों' के राजनीतिक एजेंडे को आगे बढ़ाना नहीं था? आतंकवादी पाकिस्तान से आए, इस पर कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। वाघा बार्डर पर मोमबत्तियां जला कर क्या पाकिस्तान की मानसिकता बदली जा सकती है? 1947 में जम्मू कश्मीर के भारत में विलय के बावजूद पाकिस्तान कबायलियों और उनकी आड़ में अपनी सेना को भेजकर राज्य का एक हिस्सा अपने कब्जे में लेने में कामयाब रहा था। भारत के खिलाफ मजहबी आतंकवादियों के इस पहले इस्तेमाल की सफलता के बाद उसका इसमें विश्वास लगातार बढ़ता आया है। 1980 और 90 के दशकों में पंजाब में आतंकवादी आंधी के लिए भी पाकिस्तान ही जिम्मेदार था। कश्मीर में अलगाववादी आंदोलन को आतंक का समर्थन भी पाकिस्तान से प्राप्त होता है।

पाकिस्तान और कठमुल्लों के बाद भारत में जेहादी आतंकवाद को बढ़ाने वाला तीसरा तत्व वे मुस्लिम देश हैं जो दुनिया भर में जेहादी आतंकवाद को बढ़ावा देने के लिए पैसे और हथियार मुहैया करा रहे हैं। अगर भारत में आतंकवाद को सचमुच खत्म करना है तो हमें इन तीनों तत्वों के प्रभाव पर नियंत्रण लगाना होगा। यह काम किसी एक पार्टी या सरकार के बस का नहीं है। इस काम के लिए सभी दलों को अपने छोटे-छोटे स्वार्थों से ऊपर उठना होगा।


Saturday, November 15, 2008

तसलीमा पर फिर भारत छोड़ने का दबाव

दैनिक जागरण, १५ नवम्बर २००८, नई दिल्ली: बांग्लादेश की निर्वासित एवं विवादित लेखिका तसलीमा नसरीन पर फिर भारत छोड़कर जाने का दबाव पड़ रहा है। इस साल 8 अगस्त को भारत लौटीं तसलीमा ने कहा कि सरकार के आदेश के मुताबिक 15 अक्टूबर तक उन्हें देश छोड़ देना था। तसलीमा ने ई-मेल के जरिए दिए एक इंटरव्यू में कहा, हां मुझ पर एक बार फिर भारत छोड़कर जाने का दबाव पड़ रहा है। सरकार ने मुझे छह महीने का निवास परमिट दिया था, इसमें गुप्त शर्त थी कि मुझे कुछ दिनों के भीतर इस देश को फिर छोड़ना होगा। अपनी विवादित किताब लज्जा के लिए मुस्लिम कट्टरपंथियों के निशाने पर रही तसलीमा ने बताया कि वह इन दिनों यूरोप में किसी जगह हैं और व्याख्यान देने में व्यस्त हैं। डाक्टर से लेखिका बनी तसलीमा को सात महीने पहले भी कट्टरपंथी संगठनों के विरोध के चलते भारत छोड़कर जाना पड़ा था। विवादास्पद किताब लिखने की वजह से 1994 में बांग्लादेश से निकाले जाने के बाद तसलीमा ने अधिकांश समय कोलकाता में बिताया। तसलीमा ने कहा, मेरे लिए बांग्लादेश के दरवाजे बंद हो चुके हैं। लिहाजा मेरी नजर में अब भारत में कोलकाता ही मेरा घर है। यदि मुझे वहां लौटने की इजाजत नहीं मिली तो मेरी जिंदगी फिर खानाबदोश सरीखी हो जाएगी।

Friday, November 7, 2008

अमंगल की आहट

साध्वी प्रज्ञा मामले को राज्यसत्ता पर बहुसंख्यकों के घटते विश्वास का संकेत मान रहे हैं ए. सूर्यप्रकाश

दैनिक जागरण, ७ नवम्बर २००८, मालेगांव बम धमाकों के सिलसिले में साध्वी प्रज्ञा तथा कुछ अन्य हिंदुओं की गिरफ्तारी पर मचे शोर-शराबे के बीच हमारे समक्ष यह सवाल उभरा है कि क्या हिंदुओं के भीतर भी आतंकवाद का कीड़ा अंतत: रेंग गया अथवा यह अल्पसंख्यक वोट बैंक को अपने पाले में खींचने के लिए संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की एक और साजिश है? उम्मीद है कि जिन लोगों के पास इस मामले की जांच का जिम्मा है वे उस हायतौबा से प्रभावित हुए बिना अपना कार्य करेंगे जो इस प्रकार की परिस्थितियों में संघ परिवार को लेकर छद्म सेकुलर ब्रिगेड की ओर से सुनने को मिलती रही है। जांचकर्ताओं को ऐसे सबूत एकत्र करने होंगे जो न्यायिक समीक्षा के समक्ष टिक सकें और उन लोगों के कामों पर पूरी रोशनी डाल सकें जिन्हें गिरफ्त में लिया गया है और इस पर भी कि किन कारणों से वे आतंकवादी तौर-तरीके अपनाने की ओर उन्मुख हुए। आतंकवाद पर राजनीति ने केंद्र सरकार की विश्वसनीयता को इस हद तक क्षति तक पहुंचाई है कि कोई भी उन सूचनाओं पर भरोसा करने के लिए तैयार नहीं जो इस मामले में सामने लाई गई हैं।

जब जांच की संभावित दिशा की शुरुआती खबरें सामने आईं तो पूरे देश के हिंदू यह जानकर सन्न रह गए कि इस समुदाय के कुछ लोग, जिनमें एक साध्वी तथा सेना के कुछ पूर्व व वर्तमान अधिकारी शामिल हैं, महाराष्ट्र के मालेगांव तथा गुजरात के मोदसा में हुए बम धमाकों के सिलसिले में जांच के घेरे में हैं। यह शुरुआती आश्चर्य अब संदेह में बदलने लगा है। जो लोग इस मामले में सरकार के रुख को स्वीकार करने के लिए तैयार थे, अब अचानक अनेक कारणों से घटने लगे हैं। इसका मुख्य कारण सत्ताधारी गठबंधन के इरादों पर घटता विश्वास तथा देश को एक व सुरक्षित बनाए रखने में उंसकी असफलता है। संप्रग की विश्वसनीयता पिछले छह माह में एकदम से घटी है। इसके कारणों को जानना कठिन नहीं है। सबसे पहला है इसकी अक्षमता। दूसरा कारण है उन लोगों के संदिग्ध इरादे जो आज हम पर शासन कर रहे हैं। कानून एवं व्यवस्था तथा आर्थिक मोर्चे पर असफलता अक्षमता के क्षेत्र में आती है। जो लोग सत्ता संभाले हुए हैं उनका रिकार्ड बेहद निराशाजनक है। दूसरा कारण कहीं अधिक खतरनाक है। यह हमारे सत्ता संचालकों की हानिकारक प्रकृति सामने लाता है। यह इसलिए ज्यादा खतरनाक है, क्योंकि यह उस सबको तबाह कर सकता है जो हमने पिछले साठ वर्षो में संजोया है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने सरकार के भीतर की इस खतरनाक सोच का सबसे पहले संकेत तब दिया था जब उन्होंने यह स्तब्धकारी घोषणा की थी कि देश के संसाधनों पर पहला हक मुस्लिमों का है। मैंने इससे अधिक निर्रथक बयान कभी नहीं सुना। यदि इस टिप्पणी के बाद भी मनमोहन सिंह अपने पद पर बने रह सके तो सिर्फ इसलिए कि हिंदू समाज में लोकतंत्र और पंथनिरपेक्षता की जड़ें बहुत गहरी हैं। यह चिंता की बात है कि हिंदू समाज की इस विशेषता पर आंच आने लगी है। मनमोहन सिंह ने जिस एजेंडे की शुरुआत की उसे उनके साथियों ने खूब आगे बढ़ाया। हिंदुओं के मन-मस्तिष्क में आ रहे परिवर्तन की यही मुख्य वजह है।

सत्ताधारी गठबंधन के इस एजेंडे को राजेन्द्र सच्चर समिति की रिपोर्ट से और अधिक आगे तक ले जाया गया, जो देश में मुस्लिमों की दशा से संबंधित थी। खुद गैर-जिम्मेदार तरीके से काम करने वाली यह समिति सशस्त्र बलों में सांप्रदायिक आधार पर गिनती के पक्ष में थी। समिति ने जो रिपोर्ट पेश की उसमें मुस्लिमों की तथाकथित दुर्दशा के लिए हर किसी पर आधारहीन आरोप लगाए गए। तुष्टीकरण के मामले में प्रधानमंत्री के रुख से उत्साहित कैबिनेट के अन्य सदस्य और अधिक आगे बढ़ गए। उन्होंने देश की एकता, सेकुलर ताने-बाने तथा विधि के शासन को कहीं अधिक गंभीर क्षति पहुंचाई। जिस अबू बशर को पुलिस ने अहमदाबाद और बेंगलूर बम धमाकों के मास्टरमाइंड के रूप में चिह्निंत किया उसके परिजनों के प्रति संवेदना जताने में संप्रग सरकार के मंत्री एक-दूसरे को पीछे छोड़ने की होड़ में जुट गए। अहमदाबाद और बेंगलूर के बम धमाकों में सौ से अधिक लोग मारे गए थे और अनगिनत लोग घायल हुए थे। अबू बशर की पक्षधरता करने वाले मंत्री लालू प्रसाद यादव तथा रामबिलास पासवान ने बाद में जामिया नगर मुठभेड़ पर सवाल उठाने शुरू कर दिए, जिसमें दिल्ली पुलिस के एक बहादुर अधिकारी को अपनी जान गंवानी पड़ी थी। इन सभी घटनाओं ने हिंदुओं के मन को बहुत अधिक आघात पहुंचाया।

यह संभव है कि इन घटनाओं ने बहुसंख्यक समुदाय को हिंसा की ओर मोड़ दिया हो। शायद इसीलिए वे लोकतांत्रिक जीवनशैली से दूर हो रहे हैं। अन्यथा और किस तरह साध्वी प्रज्ञा, जिन्होंने धर्म और अध्यात्म के लिए संन्यास ग्रहण कर लिया तथा देश प्रेम और अनुशासन का प्रतीक माने जाने वाले सैनिकों में से कुछ की आतंकी साजिश में लिप्तता की व्याख्या की जा सकती है? अंत में कुछ बातें लोकतंत्र और उस तत्व की जो भारत और अमेरिका जैसे देशों में लोकतंत्र को टिकाए रखने का आधार है। यह है संविधान। भारत, अमेरिका, सऊदी अरब या पाकिस्तान या अन्य कोई भी देश हो, उसका संविधान समाज में बहुमत की इच्छा को परिलक्षित करता है। हर तरह की समानता की गारंटी देने वाले भारत और अमेरिका सरीखे लोकतांत्रिक संविधान वास्तव में बहुसंख्यकों द्वारा अल्पसंख्यकों को दिया गया उपहार है। यदि भारत के हिंदू पाकिस्तान के मुस्लिमों के समान संकीर्ण मानसिकता वाले होते तो हमें ऐसा संविधान नहीं मिला होता जो मानवता द्वारा व्यक्त किए गए अनेक महान विचारों को अपने अंदर समेटे हुए है। चाहे भारत हो या अमेरिका अथवा कोई अन्य देश, बहुसांस्कृतिक समाज में इस प्रकार के संविधान का टिके रहना इस पर निर्भर करता है कि उस देश की राजसत्ता की प्रकृति क्या है? वह संविधान को किस रूप में इस्तेमाल करती है? राजसत्ता को बहुमत का विश्वास हासिल होना चाहिए। जब बहुमत राज्य में विश्वास खो देता है तो लोकतंत्र अव्यवहारिक तथा निष्क्रिय हो जाता है। यदि ऐसी स्थिति उत्पन्न हुई तो एकदम ढांचागत परिवर्तन उत्पन्न हो सकते हैं और इसका पहला निशाना संविधान तथा लोकतंत्र ही बनेगा।

साध्वी की गिरफ्तारी तथा सेना के कुछ पूर्व तथा वर्तमान सदस्यों की इस साजिश में संभावित संलिप्तता की बातें इस बात का पर्याप्त संकेत दे रही हैं कि राज्य पर बहुमत का विश्वास घटने लगा है। यह चिंताजनक स्थिति है, जिसकी अनदेखी नहींकी जानी चाहिए। इसमें अधिक संदेह नहीं कि इस स्थितिके लिए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह तथा उनके कुछ गैर-जिम्मेदार सहयोगी जिम्मेदार हैं, जो आतंकियों के परिजनों के प्रति तो संवेदना प्रकट करते हैं, लेकिन आतंक से प्रभावित लोगों के परिजनों के प्रति नहीं। यदि शांति प्रिय हिंदू समाज में से कोई आतंकी कृत्यों की ओर मुड़ा है तो हमें आत्मचिंतन करना होगा। इसके पहले कि सामाजिक सुनामी लोकतंत्र,पंथनिरपेक्षता तथा उदारवाद के रूप में हमारे उन मूल्यों को तबाह कर दे जिन्हें हम सबसे अधिक सम्मान देते हैं, हमें सावधान होना होगा।


प्रधानमंत्री ने ठुकराई न्यायिक जांच की मांग

दैनिक जागरण ७ नवम्बर २००८, नई दिल्ली। राजनीतिक विवादों से घिरी बटला हाउस मुठभेड़ की न्यायिक जांच की मांग को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने पूरी तरह ठुकरा दिया है। जबकि समाजवादी पार्टी और संप्रग के कुछ घटक ही नहीं बल्कि कांग्रेस के दिग्गज अल्पसंख्यक नेता भी इस मुठभेड़ की न्यायिक जांच की मांग के लिए दबाव बना रहे थे। प्रधानमंत्री ने कांग्रेस के राज्यसभा सांसद राशिद अल्वी को दो टूक कह दिया कि बटला मुठभेड़ की फिर से जांच कराना संभव नहीं है।

बटला मुठभेड़ की आगे अन्य किसी तरह की जांच की मांग पर सरकार के शीर्षस्थ स्तर पर यह दो टूक घोषणा है। इस मुठभेड़ को लेकर करीब महीने भर से राजनीतिक विवाद चल रहा है।

बटला मुठभेड़ और मालेगांव में 2006 में हुए विस्फोटों की जांच में सीबीआई तथा महाराष्ट्र सरकार के रुख की शिकायत करने के लिए राशिद अल्वी ने बुधवार को प्रधानमंत्री से मुलाकात की। इस दौरान ही मनमोहन सिंह ने बटला मुठभेड़ की और आगे जांच नहीं किए जाने की बात कही।

राशिद अल्वी ने बताया कि बटला मुठभेड़ को लेकर चौतरफा उठ रही आवाजों का हवाला देते हुए जब उन्होंने न्यायिक जांच की मांग उठाई तो प्रधानमंत्री ने इसे खारिज कर दिया। प्रधानमंत्री का कहना था कि 'इसकी अब आगे कोई जांच नहीं हो सकती।' गौरतलब है कि सपा, राजद, लोजपा ही नहीं बल्कि कांग्रेस के दिग्गज अल्पसंख्यक नेता न्यायिक जांच की मांग की वकालत कर रहे थे।

जांच की मांग ठुकराए जाने पर अल्वी ने कहा कि वे निराश हुए हैं मगर हताश नहीं और प्रधानमंत्री को पुनर्विचार के लिए पत्र लिख रहे हैं। उनका तर्क है कि केन्द्रीय विज्ञान व प्रौद्योगिकी मंत्री कपिल सिब्बल ने मुठभेड़ को फर्जी बताया था और वे सरकार का हिस्सा हैं। ऐसे में मुठभेड़ की जांच एक बार करा लेने में हर्ज ही क्या है? अल्वी अब प्रधानमंत्री को मुंबई पुलिस द्वारा मारे गए बिहारी युवक राहुल राज का उदाहरण देंगे कि किस तरह बिहार के नेताओं की एकजुट आवाज सुनकर इसकी जांच कराई गई है।

कांग्रेस नेता ने बताया कि प्रधानमंत्री ने मालेगांव में दो साल पूर्व हुए विस्फोटों के बारे में सीबीआई और महाराष्ट्र सरकार के रवैये की शिकायतों पर गंभीरता से पड़ताल कराने का वादा किया। मालेगांव में संघ से जुड़े संगठनों की कथित आतंकी गतिविधियों के बारे में अल्वी ने प्रधानमंत्री को कुछ दस्तावेज भी सौंपे जिसमें यह बताया गया है कि दो साल पहले ही महाराष्ट्र सरकार को इसकी जानकारी मिल गई थी। सीबीआई को भी इस बारे में मालूम था। अल्वी के मुताबिक सीबीआई और राज्य सरकार ने इसे छिपाने की गलती क्यों और किसके इशारे पर की, इसकी सुप्रीम कोर्ट के जज द्वारा जांच होनी चाहिए।

Monday, October 20, 2008

अल्पसंख्यक युवकों को कोचिंग करायेगी प्रदेश सरकार

दैनिक जागरण, २० अक्तूबर २००८, लखनऊ: अल्पसंख्यक युवकों को नौकरी के लिए प्रदेश सरकार कोचिंग करायेगी। मुख्यमंत्री मायावती ने अल्पसंख्यक कल्याण विभाग को निर्देश दिये हैं कि कोचिंग की व्यवस्था ऐसी होनी चाहिये जिससे वे पुलिस, सुरक्षा बल, पब्लिक सेक्टर, रेलवे, बैंक, बीमा कम्पनियों और स्वायत्तशासी संस्थाओं में ज्यादा से ज्यादा संख्या में नौकरी पा सकें। मुख्यमंत्री ने निर्देशों में कहा है कि इंटरमीडिएट, डिग्री अथवा पीजी की शिक्षा पूरी करने वाले अल्पसंख्यक वर्ग के युवकों को प्रतियोगी परीक्षाओं में सफलता के लिए कोचिंग की जरूरत होती है, पर फीस अत्यधिक होने के कारण गरीब बच्चे इसे हासिल नहीं कर पाते। ऐसे में सरकार का दायित्व है कि वह इन बच्चों को यह सुविधा उपलब्ध कराये। मुख्यमंत्री ने निर्देशों में कहा है कि अल्पसंख्यक बच्चों को इंजीनियरिंग, लॉ, मेडिकल, बिजनेस एडमिनिस्ट्रेशन और आईटी कालेजों में प्रवेश दिलाने के लिए भी कोचिंग की सुविधा प्रदान की जाय। कहा गया है कि अल्पसंख्यक युवकों को उनके ही जिलों में उस कोचिंग से परीक्षा की तैयारी करने की सुविधा दी जायेगी जिसके माध्यम से लगातार तीन वर्षो तक 15 प्रतिशत सफलता रिकार्ड रहा हो। अल्पसंख्यक छात्रों को कोचिंग की सुविधा दिये जाने में सहयोग देने के लिए मंडलायुक्त की अध्यक्षता में एक समिति गठित की जायेगी, जिसमें जिलाधिकारी, जिला अल्पसंख्यक कल्याण अधिकारी अल्पसंख्यक शैक्षिक संस्था के प्रतिनिधि विश्र्वविद्यालय अथवा महाविद्यालय के प्रोफेसर या प्रधानाचार्य प्रतिष्ठित समाजसेवी तथा शिक्षाविद शामिल होंगे। कोचिंग संस्थाओं के चयन हेतु शासन स्तर पर समिति का गठन किया गया है, जिसके अध्यक्ष, सचिव अल्पसंख्यक कल्याण एवं वक्फ होंगे। इस योजना के तहत ऐसी कोचिंग संस्थाएं जो राष्ट्रीय अथवा राज्य स्तर पर प्रतिष्ठा पा चुकी हैं, चाहे वे अन्य राज्यों में हों, इस योजना में आच्छादित मानी जायेंगी। अल्पसंख्यक छात्रों को इन कोचिंग में भेजा जायेगा और अनुदान भी दिया जायेगा।

Sunday, October 19, 2008

जामिया मुठभेड़: प्रधानमंत्री से मिले नेता

18 अक्टूबर 2008 ,वार्ता , नई दिल्ली। कांग्रेस के मुस्लिम नेताओं ने आज प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से मुलाकात कर उन्हें जामिया नगर के बाटला हाउस मुठभेड़ कांड को लेकर उठ रही शंकाओं से अवगत कराया तथा इन्हें दूर करने के लिए तत्काल प्रभावी कदम उठाने की मांग की।

कांग्रेस के अल्पसंख्यक विभाग के एक प्रतिनिधिमंडल में शामिल इन नेताओं ने डॉ. सिंह को ताजा हालत की जानकारी दी और उनसे आग्रह किया कि गत 19 सितंबर को हुई इस मुठभेड़ को लेकर मुसलमानों में तरह-तरह के प्रश्न उठ रहे हैं, उनका जवाब दिया जाना चाहिए।

प्रतिनिधिमंडल कांग्रेस महासचिव मोहसिना किदवई, पूर्व केंद्रीय मंत्री सीके. जाफर शरीफ और सलमान खुर्शीद, राज्यसभा के उपसभापति के रहमान खान, अल्पसंख्यक विभाग के अध्यक्ष इमरान किदवई तथा अनीस दुर्रानी शामिल थे।

दुर्रानी ने बताया कि हमने इस मुठभेड़ की न्यायिक जांच कराने की मांग नहीं की लेकिन हम चाहते हैं कि सरकार की ओर से शंकाओं को दूर करने का जल्द से जल्द प्रयास किया जाना चाहिए।

आधा घंटे से अधिक समय तक चली इस बैठक में नेताओं ने सांप्रदायिक आधार पर समाज को बांटने के चल रहे प्रयासों तथा देश के विभिन्न हिस्सों विशेषकर उड़ीसा और कर्नाटक में इसाइयों पर हो रहे हमलों पर गहरी चिंता जताई।

नेताओं ने कहा कि ऐसी घटनाओं से अल्पसंख्यकों में दहशत और अविश्वास की भावना पैदा हो रही है, जो देश के लिये बहुत खतरनाक है।

इन नेताओं ने मुसलमानों की स्थिति सुधारने के लिए सच्चर समिति की सिफारिशों को लागू करने की कार्यवाही में तेजी लाने का भी आग्रह किया।

दुर्रानी ने बैठक के बाद बताया कि प्रधानमंत्री ने हमारी बातों को ध्यान से सुना है और कहा है कि अल्पसंख्यकों में विश्वास पैदा करने के लिए जरुरी कदम उठाए जाएंगे।

उल्लेखनीय है कि सरकार को बाहर से समर्थन दे रही समाजवादी पार्टी ने बाटला मुठभेड कांड की न्यायिक जांच कराने की मांग की है।

कांग्रेस ने इस मांग का समर्थन तो नहीं किया है लेकिन उसने साफतौर पर कहा कि इस मुठभेड के बारे में स्थिति स्पष्ट होनी चाहिए।

पार्टी ने इसके लिए सरकार पर दवाब बनाना भी शुरु कर दिया है। पार्टी के कई नेताओं ने शुक्रवार को कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से मुलाकात कर इसी तरह की मांग की थी। पार्टी के अल्पसंख्यक विभाग की सलाहकार परिषद की पिछले दिनों हुई बैठक में यही मुद्दा छाया रहा।

Friday, October 17, 2008

ममता करेंगी बाटला हाउस का दौरा

5 अक्टूबर २००८, वार्ता, नई दिल्ली। तृणमूल कांग्रेस की अध्यक्ष ममता बनर्जी आगामी 17 अक्टूबर को राजधानी के जामियानगर इलाके के ‘बाटला हाउस’ का दौरा करेंगी, जहां पिछले दिनों आतंकवादियों और पुलिस के बीच मुठभेड़ में दो आतंकवादी मारे गए थे तथा दिल्ली पुलिस के एक इंस्पेक्टर शहीद हो गए थे।

पार्टी सूत्रों ने बुधवार को बताया कि बनर्जी सहित पार्टी के 21 सदस्यों के प्रतिनिधिमंडल के बाटला हाउस दौरे का मकसद अल्पसंख्यक समुदाय के प्रति सहानुभूति एवं हमदर्दी जताना है। तृणमूल नेता मुठभेड़ की घटना की न्यायिक जांच की भी मांग कर सकती हैं।

सूत्रों के मुताबिक इस प्रतिनिधिमंडल में कोलकाता के टीपू सुल्तान मस्जिद के इमाम भी शामिल होंगे।

गौरतलब है कि कई संगठन इस मुठभेड़ को फर्जी ठहराते हुए इसकी जांच की मांग कर चुके हैं। इस क्षेत्र के अधिकतर लोगों का कहना था कि मुठभेड़ में मारे गए आतंकवादी नहीं बल्कि छात्र थे।

Thursday, October 16, 2008

गुमराह करने वाले हितैषी

आतंकवाद के संदर्भ में मुस्लिम समुदाय को गुमराह करने वाले वक्तव्यों से सतर्क रहने की सलाह दे रहे हैं राजनाथ सिंह सूर्य

दैनिक जागरण १५ अक्तूबर २००८, जब कभी आतंकी घटनाओं के संदर्भ में पुलिस की धरपकड़ तेज होती है तब यह बयान बार-बार दोहराया जाता है कि मुसलमानों को आतंकवाद से नहींजोड़ा जाना नहीं चाहिए, मुसलमान आतंकवादी नहीं हैं, इस्लाम में आतंक या अतिवादी कार्रवाई की इजाजत नहीं है आदि-आदि। वर्षों से इस प्रकार की अभिव्यक्ति सुनते रहने के कारण यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उठता है कि कौन है जो सभी मुसलमानों को आतंकवादी मान रहा है या फिर इस्लाम को आतंक से जोड़ रहा है? यूरोपीय देशों में आतंकी घटनाओं के बाद 'इस्लामी टेररिस्ट' शब्द का प्रयोग हुआ है। इसकी वजह यह है कि इस प्रकार की घटनाओं को अंजाम देने के सूत्रधार चाहे पहले लीबिया के गद्दाफी रहे हों या अब ओसामा बिन लादेन-सभी ने अपने को इस्लाम का अलंबरदार घोषित किया। यूरोप और अमेरिका में इस्लाम के अनुयायियों को संदेह की दृष्टि से देखा जाने लगा। बावजूद इसके चाहे अमेरिका हो या इंग्लैंड अथवा यूरोप के अन्य देश, न तो इस्लाम के नाम से पहचाने जाने वाले सभी संगठनों को गैर-कानूनी घोषित किया गया है और न इस्लामी देशों के समान गैर-इस्लामी आस्था वालों पर लगे प्रतिबंधों का अनुशरण किया गया है। जिन संगठनों ने स्वयं ही आतंकी घटनाओं को अंजाम देने का दावा किया या सबूत मिले उन्हें अवश्य प्रतिबंधित किया गया तथा उस देश के कानून के मुताबिक उनके विरूद्ध कार्रवाई भी की गई। पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ ने अपने देश के आतंकी संगठनों के विरुद्ध अमेरिकी सैन्य कार्रवाई का समर्थन किया। पिछले तीन दशक से इस्लामी आस्था पर कथित आघात के प्रतिशोध में हो रही आतंकी घटनाओं में जितने लोग मारे गए हैं उतने तो किसी युद्ध में भी नहीं मारे गए। इस प्रकार के जुनून वालों के हमले से सबसे पवित्र तीर्थ माना जाने वाला मक्का भी महफूज नहीं रहा। धीरे-धीरे अनेक देश, जिनमें इस्लामी देश भी शामिल हैं, इस प्रकार की घटनाओं को अंजाम देने वालों के खिलाफ कठोर कार्रवाई के पक्ष में खड़े हो गए हैं।

भारत में आतंकी घटनाओं की पृष्ठभूमि अलग है। पाकिस्तान और बांग्लादेश, दोनों देशों के सत्ता प्रतिष्ठान अपने मंसूबों की पूर्ति के लिए इस प्रकार की घटनाओं को अंजाम देते रहे हैं। अब इन घटनाओं में भले ही 'देशी' लोगों की ही मुख्य भूमिका हो, लेकिन सूत्रधार का काम पाकिस्तान और बांग्लादेश ही कर रहे हैं। भारत में वांछित अपराधियों को संरक्षण देने, आतंकी भेजने, आतंकी घटनाओं को अंजाम देने वालों को प्रशिक्षित कर उन्हें विस्फोटक तथा धन मुहैया कराने, घुसपैठ कराकर आबादी का संतुलन बिगाड़ने, जाली नोटों का जखीरा भेजने आदि सभी कामों को पाकिस्तान की गुप्तचर संस्था आईएसआई कर रही है। इसके ढेरों सबूत हैं। यह संस्था न केवल मजहबी समानता का जुनून पैदाकर मुस्लिम युवकों को गुमराह कर रही है, बल्कि उल्फा एंवं नक्सलवादियों जैसे उग्र अथवा पृथकवादी संगठनों को सभी प्रकार की सहायता दे रही है। पंजाब की जागरूक जनता ने अपने राज्य में आईएसआई की इस साजिश का सफलता से मुकाबला किया। देश के अन्य भागों में उस साहस और सोच का अभाव है। शायद यही कारण है कि जब भी आतंकी घटना के आरोप में गिरफ्तारी होती है, यह शोर मचाने वाले सक्रिय हो जाते हैं कि सभी मुसलमानों को आतंकी न कहा जाए। प्रश्न वही उठ खड़ा होता है कि यह भावना कौन फैला रहा है? न तो किसी राजनीतिक दल ने, न किसी सरकार ने, न प्रशासन ने और न ही किसी हिंदूवादी संगठन ने एक बार भी सभी मुसलमानों के आतंकवाद से जुड़े होने की अभिव्यक्ति की है। यह अभिव्यक्ति मुस्लिम समुदाय का नेतृत्व करने वालों द्वारा भी कभी-कभार ही की जाती है, लेकिन सेकुलरिज्म का जामा पहनकर सांप्रदायिकता के लिए खाद-पानी मुहैया कराने वाले बार-बार इस प्रकार का बयान देकर उन लोगों के मन में भी शंका पैदा करने का काम करते हैं जिनकी इस प्रकार की सोच नहीं है।

न तो मुसलमान आतंकी हैं, न पृथकतावादी, लेकिन आतंकी घटनाओं में शामिल होने के आरोप में जो भी पकड़े गए हैं वे मुसलमान हैं और पाकिस्तानी झंडा हाथ में लेकर कश्मीर घाटी में 'आजादी' की मांग करने वाले भी मुसलमान हैं। जिस प्रकार 1984 के बाद कुछ सालों तक सभी सिख संदेह की नजर से देखे जाते थे उसी प्रकार आजकल की घटनाओं के कारण सभी मुसलमानों के प्रति ऐसी धारणा का प्रभाव संभव है। क्या सिखों के प्रति उस समय बनी धारणा कायम रह सकी? नहीं। सिर्फ इसलिए, क्योंकि स्वयं सिख समुदाय ने आतंकियों से निपटने में जनसहयोग दिया। इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि उस अभियान में निर्दोष नहीं सताए गए, लेकिन ऐसा जानबूझकर किया गया, यह आरोप नहीं लगाया गया। हम कैसे देश में रह रहे हैं, जहां सरकार आतंकी कार्रवाई से निपटने के लिए कड़े कानून बनाने की बात कर रही है, आतंकियों को मारने या पकड़ने में सफलता का दावा कर रही है और जिस पार्टी की सरकार है वह फर्जी मुठभेड़ का दावा करने वालों की कतार में खड़ी होकर न्यायिक जांच कराने की मांग कर रही है। किसी भी 'अल्पसंख्यक' आयोग ने कश्मीर से बेघर किए गए हिंदुओं की दशा पर वक्तव्य तक मुनासिब नहीं समझा। मुठभेड़ की न्यायिक जांच की मांग करने वालों ने एक बार भी पाकिस्तानी झंडा लहराते हुए आजादी की मांग करने को देशद्रोह बताने का साहस नहींकिया। अहमदाबाद की घटनाओं के बाद आजमगढ़ का एक इलाका आतंकियों के गढ़ के रूप में प्रगट हुआ, लेकिन इसका खुलासा तो उस अबुल बशर ने ही किया जिसे आतंकी वारदात के संदर्भ में पकड़ा गया। जो लोग इंस्पेक्टर मोहनचंद्र शर्मा की शहादत पर सवाल खड़े करते हैं या संसद पर हमले के दोषसिद्ध आरोपी अफजल की पक्षधरता करते हैं वे मुस्लिमों के हितचिंतक नहींहो सकते। मुसलमानों को आत्मचिंतन करना होगा। वे भयादोहन करने वालों से जितना परहेज करेंगे उतना ही पाकिस्तान के मंसूबे ध्वस्त होंगे।