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Thursday, September 18, 2008

निष्क्रियता का नया प्रमाण

जिन खास कारणों से आतंकवाद पर लगाम नहींलग पा रही उन्हें रेखांकित कर रहे हैं राजनाथ सिंह सूर्य

दैनिक जागरण, १८ सितम्बर २००८. कुछ घटनाएं ऐसी होती हैं जो आगे चलकर बड़े संकट का सबब बन जाती हैं। उन पर तत्काल ध्यान नहीं दिया जाना इसका मुख्य कारण होता है। ऐसी ही एक घटना है उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ के मौलवीगंज से सिमी प्रमुख शहबाज की गिरफ्तारी के पूर्व गुजरात के गृहमंत्री अमित शाह का केंद्रीय गृहमंत्री शिवराज पाटिल से फोन पर किया गया यह अनुरोध कि वह मुख्यमंत्री मायावती से संपर्क कर इस व्यक्ति के बारे में मिली सूचनाओं की छानबीन का अनुरोध करें। शिवराज पाटिल ने अमित शाह की बात इस कान से सुनकर उस कान से निकाल दी। यदि गुजरात की पुलिस ने उत्तर प्रदेश की पुलिस से सीधा संपर्क किया होता तो शायद शहबाज गिरफ्तार होता। इस घटना से दो महत्वपूर्ण प्रश्न उभरते हैं, जो हमारी व्यवस्था में खतरनाक राजनीतिक राग-द्वेष के कारण उत्पन्न घातक स्थिति को उजागर करते हैं।

शिवराज पाटिल अपने दायित्व के प्रति कितने 'जिम्मेदार' हैं, इसके कई सबूत सामने चुके हैं। चाहे आतंकियों से निपटने के लिए कई राज्यों द्वारा बनाए गए कानूनों को स्वीकृति देने का मामला हो या फिर पाकिस्तान की जेल में बंद सरबजीत और संसद पर हमले के आरोप में फांसी की सजा पाए अफजल के मामले की तुलना हो-उनके चौंकाने वाले कथनों की लंबी फेहरिश्त है। अमित शाह और शिवराज पाटिल के वार्तालाप और उसके उपसंहार के जो समाचार प्रकाशित हुए हैं उससे जहां भारत सरकार के प्रमुख कर्णधारों की 'जिम्मेदारी' के प्रति गंभीरता का पता चलता है वहीं एक संवैधानिक सवाल भी खड़ा हो जाता है। शिवराज पाटिल ने मायावती से क्यों बात नहीं की? क्या उन्हें भय था कि ऐसा करने पर उनकी संरक्षक नाराज हो जाएंगी या फिर उन्होंने इस मामले को बहुत मामूली समझ लिया? हमारी जो संघात्मक व्यवस्था है उसमें केंद्र राज्यों के बीच सेतु का दायित्व निभाता है। एक राज्य से दूसरे राज्य के संबंधों और समस्याओं को निपटाने में केंद्र मध्यस्थता और सहायक की भूमिका निभाता है। शिवराज पाटिल की कार्यप्रणाली और गुजरात पुलिस के उत्तर प्रदेश पुलिस से सीधे संपर्क से केंद्र की भूमिका पर प्रश्नचिह्न खड़ा हो गया है। मैं शिवराज पाटिल के 'व्यक्तित्व' पर विवाद नहीं करना चाहता, लेकिन प्रत्येक नागरिक को यह जानने का हक तो है ही कि हमारे देश का गृहमंत्री संविधान की मर्यादाओं का पालन कर रहा है या नहीं? अब तक इसका सकारात्मक उत्तर नहीं मिला है। शायद यही कारण है कि किसी अरुंधति राय को कश्मीर की आजादी की वकालत करने का हक मिल गया है। शायद इसी आचरण का प्रभाव है कि देश के एक छोटे से भाग में पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे के साथ प्रदर्शन होता है, शायद इसी आचरण का परिणाम है कि पाकिस्तान के हस्तक बनकर देश भर में विस्फोटों से अराजकता उत्पन्न करने वाले के प्रति सहानुभूति प्रगट करने का सिलसिला चल निकला है। शायद यही कारण है कि जहां केंद्रीय प्रशासन तंत्र सिमी पर प्रतिबंध जारी रखने के लिए सर्वोच्च न्यायालय में पैरवी कर रहा है वहीं केंद्रीय मंत्रिमंडल के कुछ सदस्य खुलेआम इस संगठन को देशभक्ति का प्रमाणपत्र दे रहे हैं। केंद्रीय गृहमंत्री असम में बांग्लादेशी घुसपैठियों के बारे में अदालती समीक्षा को भी स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं। दलीय आधार पर केवल कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों का सम्मेलन बुलाकर जो शुरुआत संप्रग सरकार ने की उसका परिणाम यह हुआ कि भाजपा ने भी अपने मुख्यमंत्रियों का सम्मेलन बुला लिया। हमारी अवधारणा है कि चाहे केंद्र हो या राज्य, लोकतांत्रिक व्यवस्था के अंतर्गत किसी किसी दल के नेतृत्व में सरकार बनती है, लेकिन सरकार 'राजनीतिक दल' की नहीं होती। मनमोहन सरकार ने इस मान्यता को ही ध्वस्त कर दिया। राष्ट्रीय परिषद या इसी प्रकार की वे संस्थाएं जो संघात्मक ढांचे को एकात्मता के सूत्र में बांधे रखने के लिए हैं, विलुप्त होती जा रही हैं। संसद, जहां देश भर की समस्याओं का संज्ञान लिया जाता है, निष्प्रभावी कर दी गई है। गृह मंत्रालय ने जम्मू को जलने और कश्मीर के उन्मादियों को देशघाती अभियान चलाने का मौका क्यों दिया? क्या देशद्रोह से भी बड़ा कोई अपराध हो सकता है और क्या देश से अलग होने के 'हक' की वकालत करने वालों से बड़ा कोई अपराधी है? इन अपराधियों से क्यों नहीं निपटा जा रहा? कुछ लोगों के इस आकलन से सहमत हुआ जा सकता है कि शिवराज पाटिल भले ही गृहमंत्री हों, लेकिन दायित्व निर्वहन के मामले में पद के अनुरूप उनकी हैसियत नहीं स्थापित हो पाई है। यही बात प्रधानमंत्री के बारे में भी कही जाती है तो फिर प्रश्न यह उठता है कि जिसकी हैसियत है वह कौन है?

संविधान में प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और उनके सहयोगियों की ही हैसियत का प्रावधान है। यदि कोई गैर सांविधानिक हैसियत है तो क्यों है और फिर क्या इन सभी स्थितियों के लिए उसे जिम्मेदार ठहराना चाहिए? विधान तो उन्हें जिम्मेदार मानता है जो संबंधित दायित्व के निर्वहन की शपथ लेते हैं। केंद्रीय प्रशासन तंत्र के उपयोग और उसके कार्य करने की व्यवस्था पर इतने प्रश्नचिह्न पहले कभी नहीं लगे थे जितने अब लगे हैं। इस स्थिति में मुख्यमंत्रियों से प्रशासनिक मामले में तथा नीतियों पर अमल को लेकर संपर्क करने में गृह मंत्रालय अपने दायित्व निर्वहन में पूर्णत: असफल साबित हुआ है। इसी का परिणाम है कि केवल देश घाती गतिविधियों में इजाफा हुआ है, बल्कि इन गतिविधियों में संलग्न लोगों के प्रति मजहबी आधार पर सहानुभूति बटोरने के प्रयास थामे नहीं थम रहे। विडंबना यह है कि गृह मंत्रालय को संचालित करने वाले राजनीतिक पदधारक अपने ही तंत्र की सूचनाओं, आकलन और तथ्यपरक जानकारियों के अनुरूप आचरण का साहस नहीं जुटा पा रहे हैं। विश्व के किसी भी सार्वभौमिक सत्ता वाले स्वतंत्र देश में ऐसी निष्क्रियता का उदाहरण नहीं मिलेगा।

Thursday, September 11, 2008

मुस्लिम समुदाय की समस्या

रमजान के पवित्र माह पर देश के मुस्लिम समाज के सम्मुख कुछ सवाल रख रहे हैं डा. महीप सिंह
दैनिक जागरण, 11 सितम्बर 2008. मुसलमानों के लिए रमजान का महीना बहुत पवित्र है। मुसलमानों की यह मान्यता हैं कि यह मास पूरी तरह आत्मावलोकन और नैतिक शक्ति-अर्जन का है। इसी मास में पवित्र कुरान को मानवता के लिए प्रकाश में लाया गया। रमजान में अपेक्षित सभी बातों में मुझे आत्मपरीक्षण और आत्मनिरीक्षण की बात सबसे अधिक महत्वपूर्ण लगती है। जो देश, समाज या मजहब-यहां तक कि जो व्यक्ति भी समय-समय पर इस प्रकार का आत्मपरीक्षण या निरीक्षण नहीं करता वह जड़ हो जाता है, सही मार्ग से भटक जाता है, अंधविश्वासी और रूढि़ ग्रस्त होकर अपने समय का साक्षी नहीं रहता। उसमें लकीर की फकीरी तो आ जाती है, अपने मूल सिद्धांतों और अभिप्रायों की सही समझ विकृत हो जाती है। संसार का कोई भी मजहब, मत, संप्रदाय इससे अछूता नहीं है।

आज आतंकवाद के विरुद्ध युद्ध की बड़ी चर्चा है। अमेरिका इस मुहिम का अगुआ है। इस युद्ध की अधिक चर्चा 11 सितंबर 2001 को अमेरिका के न्यूयार्क और वाशिंगटन जैसे नगरों पर हुए आक्रमण के बाद शुरू हुई। अमेरिका ने उस आतंकवादी हमले को अपने अस्तित्व पर खुली चुनौती माना। इराक और अफगानिस्तान पर अमेरिका और उसके साथी देशों का आक्रमण इसी युद्ध का एक अंग था। संसार के किसी भी भाग में जब कोई आतंकवादी घटना होती है तो कुछ अपवादों को छोड़ कर सभी में ऐसे नाम आते है जो उनके मुसलमान होने की घोषणा करते है। लगता है जैसे आतंकवाद और इस्लाम एक दूसरे के पर्यायवाची हो गए है। इस तथ्य से इस्लामी विद्वान भी परिचित है और उनकी ओर से लगातार यह कहा जाता है कि इस्लाम दहशतगर्दो के खिलाफ है और बेगुनाह लोगों की हत्या करने की इजाजत नहीं देता। पिछले दिनों देवबंद दारूल उलूम जैसी इस्लामी चिंतन की प्रख्यात संस्था ने उलेमाओं का सम्मेलन करके यह घोषित किया कि आतंकवाद की इस्लाम में कोई जगह नहीं है और बेगुनाह लोगों की हत्या करना बड़ा गुनाह है, किंतु ऐसे फतवों का कोई विशेष प्रभाव देखने में नहीं आता। हाल में जयपुर, बेंगलूर, अहमदाबाद में आतंकियों ने कितने ही बम विस्फोट करके अनेक लोगों की हत्या की। ऐसी घटनाएं केवल गैर इस्लामी देशों में ही नहीं हो रही है। पाकिस्तान इस समय संभवत: दहशतगर्दो के निशाने पर सबसे ज्यादा है। सब कुछ इस्लाम के नाम पर, मजहब के नाम पर हो रहा है। पाकिस्तान में तो एक-दूसरे की मस्जिदों में नमाज अदा करते हुए नमाजियों पर गोलियां बरसाई गई है। क्या रमजान के पवित्र मास में मुस्लिम उलेमाओं और बुद्धिजीवियों को इस पर गहन विचार नहीं करना चाहिए कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पूरे मुस्लिम समुदाय की क्या छवि बन रही है? क्या मात्र यह कह देना या फतवा जारी कर देना काफी है कि दहशतगर्दो की इस्लाम इजाजत नहीं देता? क्या किसी भी स्तर पर इसका कोई सार्थक परिणाम निकला है? क्या ऐसे फतवों से इस्लामी आतंकवाद में कुछ कमी आई है? मैं अपनी एक और जिज्ञासा मुसलमान मित्रों के सम्मुख रखना चाहता हूं। किसी भी देश के किसी भी भाग में यदि मुसलमानों का बहुमत है तो वहां आंदोलन इस बात पर है कि उस भाग को अपने देश से काट कर वहां इस्लामी राज्य किसी प्रकार स्थापित किया जाए? मध्य एशिया से जुड़े चीन के उस प्रांत को जिसमें मुस्लिम बहुसंख्यक है, चीन से अलग करने की कोशिश हो रही है। फिलीपींस के एक मुस्लिम बहुल भाग को मुस्लिम उस देश से अलग करने के लिए संघर्षरत है। वे चेचेन्या को रूस के शासन में नहीं देखना चाहते। भारत में मुस्लिम बहुल कश्मीर में आजादी की मांग की जा रही है। भारत का 61 वर्ष पहले विभाजन इसी आधार पर हुआ था। लाखों असहाय लोगों की बलि लेकर वह भाग भारत से अलग हो गया था, जो मुस्लिम बहुल था। इससे क्या यह निष्कर्ष निकाला जाए कि मुस्लिम समुदाय किसी देश में गैर मुसलमानों के साथ मिलकर शांति के साथ नहीं रह सकता? क्या जिस देश के किसी भाग में उनकी जनसंख्या बढ़ जाएगी वहां वे उस क्षेत्र को अलग करके इस्लामी राज्य बनाने की जद्दोजहद प्रारंभ कर देंगे? यदि खुला युद्ध करना उनके लिए संभव नहीं होगा तो क्या वे आतंकवादी मार्ग अपना लेंगे? क्या वे आत्मघाती हमलों में खुद भी मरेगे और निर्दोष लोगों को भी मारेगे? कुछ दिन पहले शबाना आजमी ने यह कहा कि इस देश में मुसलमानों के साथ भेद-भाव होता है, किंतु इसका कारण वह नहीं है जो वे सोचती है। कारण मुसलमानों की आम छवि है। सिख समुदाय को भी इस छवि के साथ वर्षो तक जीना पड़ा है। अस्सी के दशक में सिखों की छवि आतंकवाद के साथ जुड़ गई थी। यह बात फैल गई थी कि ये लोग देश तोड़कर खालिस्तान बनाना चाहते है। इसका परिणाम यह हुआ था कि हिंदू बहुल क्षेत्रों में सिखों को कोई किराए पर मकान नहीं देता था। वे बसों में बैठते थे तो लोग शंका भरी नजरों से उन्हे देखते थे। सिखों को इस छवि को सुधारने में दो दशक से अधिक का समय लग गया।

इस देश में मुस्लिम समुदाय को लेकर सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि उनकी छवि में सुधार नहीं हो रहा। भारत के मुसलमानों का जीवन-मरण अब इस देश के साथ ही जुड़ा है। ध्यान रहे कि पाकिस्तान और बांग्लादेश में गैर मुसलमानों की संख्या घटी है-या तो मतांतरण या फिर निष्कासन के कारण, किंतु भारत में मुसलमानों की संख्या लगातार बढ़ रही है। मेरा मत है कि रमजान के पवित्र मास में भारतीय मुसलमानों को कुछ निश्चय दोहराने चाहिए: एक, वे इस देश के गौरवशील नागरिक है। दो, आतंकवाद को किसी भी तर्क से न्यायोचित नहीं ठहराते। तीन, कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग मानते है। चार, सभी वर्गो, विशेष रूप से हिंदुओं के साथ सद्भाव पूर्ण वातावरण में जीने के इच्छुक है और सभी प्रकार की शंकाओं को आपसी संवाद द्वारा समाप्त करने के इच्छुक है। मेरी अभिलाषा है कि इस वर्ष की ईद कुछ बेहतर संदेश और सद्भाव लेकर आए।


Wednesday, September 10, 2008

दबाव में फैसले

राजनेताओं को देश और जनहित को ज्यादा महत्व देने की सलाह दे रहे हैं निशिकान्त ठाकुर

Dainik Jagran, 8 September 2008. जम्मू में अब जिंदगी पटरी पर लौट आई है। स्कूल-कॉलेज खुलने लगे है और वहां पढ़ाई होने लगी है। बाजारों में चहल-पहल लौट आई है। वीरान हो गईं सड़कें, जहां कुछ दिनों पहले या तो फौजी बूटों की धमक थी या फिर आंदोलनकारियों की चीत्कार, अब नए सिरे से गुलजार हो गईं है। अपने निजी उपयोग के लिए नहीं, बल्कि श्राइन बोर्ड के लिए जमीन की मांग को लेकर अपनी जान तक देने वाले लोगों की मौत का गम अब हल्का होने लगा है। निजी स्वार्थो के लिए अगर राजनेता गड़े मुर्दे न उखाड़े तो थोड़े दिनों बाद यह कड़ा संघर्ष इतिहास का हिस्सा हो जाएगा। अलबत्ता यह मान लेना बहुत बड़ी भूल होगी कि जनता इसे पूरी तरह भूल जाएगी। क्योंकि लोक की स्मृति राजसत्ता और दरबारी लेखकों की गुलाम नहीं होती। उसने हजारों साल पहले की उन घटनाओं को भी अपने भीतर संजो रखा है, जिन्हे सरकारी किताबों से उड़ा ही नहीं दिया गया बल्कि जनता के मन से मिटाने के लिए क्रूरतम कोशिशें तक की गईं है। लगातार जनता को गुमराह करने की ही साजिश में ही लगे रहने वाले राजनेताओं को चाहिए कि वे इस मसले को जनता की याददास्त से उड़ाने की बजाय, इससे स्वयं सीख लेने की कोशिश करे।

यह कहने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि यह सब जो अब हुआ है, थोड़ा पहले भी हो सकता था। सच तो यह है कि अगर वस्तुस्थिति और सत्य को नजरअंदाज करने की बजाय थोड़ी सी ईमानदारी बरती गई होती तो यह नौबत ही नहीं आई होती। न तो जनता को कोई आंदोलन करना पड़ा होता और न जम्मू में क‌र्फ्यू लगाना पड़ा होता। यही नहीं, अगर थोड़ा और पहले दूरअंदेशी बरती गई होती और वोटबैंक की राजनीति के बजाय राष्ट्रहित एवं जनहित को महत्व दिया गया होता तो घाटी में भी इस मसले को लेकर जो प्रदर्शन हुए और खूनी खेल खेले गए, उनकी नौबत नहीं आई होती। घाटी से लेकर जम्मू तक जो नुकसान न केवल सरकार बल्कि आम जनता को भी उठाना पड़ा है, वह सब नहीं हुआ होता। सरकार को अपने नुकसान का अफसोस न हो, पर जनता को अपने नुकसान का अफसोस जरूर है। इसके बावजूद न चाहते हुए भी वह ऐसा करने के लिए मजबूर थी। यह बात जम्मू के लोगों की समझ में पूरी तरह आ गई थी कि अब अपना वाजिब हक लेने का इसके अलावा कोई रास्ता नहीं बचा है। जिन जम्मूवासियों ने करीब महीने भर की अपनी रोजी-रोटी गंवाई या अपने मकानों-दुकानों का नुकसान झेला, वे किसी से टैक्स वसूल कर अपने निजी नुकसान की भरपाई नहीं कर सकेंगे। यह नुकसान तो खैर, फिर भी वे देर-सबेर पूरा कर लेंगे, पर जिनकी जानें गई है क्या उन्हे कोई लौटा सकेगा?यह सब जो हुआ है क्या इससे पता नहीं चलता कि हमारे राजनेता कितने संवेदनशील है? क्या इससे यह मालूम नहीं हो जाता कि हमारे देश का संविधान जिनके हाथों में है, वे कितने निष्पक्ष और न्यायप्रिय है? जो बात सरकार ने अब मानी है, क्या वही वह पहले नहीं मान सकती थी? अगर अभी सरकार में किसी भी तरह से शामिल कोई भी राजनेता यह कहता है कि सरकार ने जम्मू के लोगों की बातें दबाव में मानी है, तो क्या यह हमारी राजनीतिक न्याय प्रणाली के बेहद कमजोर होने का सबूत नहीं है? यह बात तो साफ है कि दबाव में कभी कहीं न्याय हो ही नहीं सकता है। अब अगर इसे दबाव में हुआ फैसला माना जाए, जो कि यह है भी, तब तो जाहिर है कि यह फैसला गलत है। अगर सही यानी दबाव के बगैर फैसला हुआ है तो फिर जान-माल की जो क्षति हुई है, उसके लिए जिम्मेदार कौन है? क्या यह किसी आपराधिक कृत्य से कम है? बहरहाल, यह फैसला चाहे दबाव में लिया गया हो या बिना दबाव के, पर हकीकत यही है कि हमारे देश में अधिकतम राजनीतिक फैसले दबाव में ही लिए जाते है। बात चाहे श्राइन बोर्ड को जमीन देने की मंजूरी की रही हो, चाहे उसे फिर से वापस लेने या फिर अब दुबारा वही जमीन उसे लौटाने की, फैसले सारे दबाव में ही लिए गए है। यह अलग बात है कि हर बार दबाव अलग-अलग तरह के रहे है।

यह दबाव कैसे प्रभावी होता है, इसे जम्मू-कश्मीर में व्याप्त विसंगतियों से देखा और समझा जा सकता है। यह कौन नहीं जानता है कि घाटी यानी कश्मीर पूरे राज्य का बहुत छोटा सा हिस्सा है। जम्मू और लद्दाख की हिस्सेदारी उससे ज्यादा है। इसके बावजूद राज्य से संबंधित हर फैसले पर इस क्षेत्र की प्रभुता का असर साफ देखा जा सकता है। सरकार के भी बड़े से बड़े फैसले बदलवा देने में यह अपने को सक्षम समझता है और इसे बार-बार साबित करता रहता है। आखिर क्यों? सिर्फ इसलिए कि यहां मुट्ठी भर ऐसे अलगाववादी रहते है, जो राज्य के साथ-साथ केंद्र सरकार को भी शोपीस से ज्यादा कुछ नहीं समझते। इलाके की आम जनता के मानस को चाहे वे रत्ताी भर भी प्रभावित न कर सके हों, पर ढोर-बकरियों की तरह अपने मन मुताबिक जहां चाहे वहां खड़ा करने में उन्हे मुश्किल नहीं होती। क्यों? क्योंकि आम जनता निहत्थी है, जबकि अलगाववादियों के पास अत्याधुनिक बंदूकें है, बम है, ग्रेनेड है, बारूदी सुरंगें है। यही नहीं, परदे के पीछे से कुछ राजनेताओं का संरक्षण भी उन्हे प्राप्त है। अगर ऐसा नहीं है तो क्या कारण है कि घाटी में पाकिस्तान समर्थक नारे लगाए जाते है, पाकिस्तानी झंडे फहराए जाते है और इसकी नोटिस तक नहीं ली जाती है। इस राष्ट्रविरोधी कृत्य को अगर घाटी के जनजीवन का हिस्सा मान लिया गया है तो यह कैसे माना जाए कि यह सब राजनीतिक संरक्षण के बगैर हो रहा है? राजनेता यह क्यों भूल जाते है कि लोकतंत्र में उनकी ताकत जनता से ज्यादा नहीं है?

सच तो यह है कि अगर वे इस बात को याद रखें तो जम्मू-कश्मीर ही नहीं, पूरे देश में कोई दिक्कत नहीं रह जाएगी। कभी वोटबैंक तो कभी निजी स्वार्थो के दबाव में जो फैसले किए जाते रहे है, उनका ही नतीजा है जो पूरे देश में असहिष्णुता बढ़ रही है। जाहिर है, एक समुदाय को खुश करने के लिए अगर दूसरे का हक मारा जाएगा तो वह कितने दिनों तक बर्दाश्त कर सकेगा? और जब शांतिपूर्वक किसी की बात नहीं सुनी जाएगी तो उसके धैर्य का बांध कभी तो टूटेगा ही। जम्मू, गुजरात या अभी उड़ीसा जैसे संकट वस्तुत: ऐसे ही राजनीतिक फैसलों की देन है। राजनेता अगर निजी हितों की तुलना में थोड़ा सा ज्यादा महत्व राष्ट्र और जनहित को देने लगें तो कई समस्याएं अपने आप हल हो जाएंगी। अन्यथा इस बात को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि जम्मू, गुजरात और उड़ीसा सिर्फ संकेत है। सच तो यह है कि अपने मौलिक और न्यायसंगत अधिकारों से वंचित देश की बहुत

बड़ी आबादी के भीतर अत्यंत भयावह ज्वालामुखी का लावा उबल रहा है। उसे अब बहुत ज्यादा दिनों तक गुमराह करना संभव नहीं रह गया है। यह राजनेताओं के सोचने का विषय है कि जिस दिन यह लावा फूटेगा, तब क्या होगा?

मतांतरण अभियान कब तक

मतांतरण अभियान के कारण होने वाले सामाजिक विखंडन की अनदेखी पर चिंता प्रकट कर रहे हैं तरुण विजय

दैनिक जागरण, १० सितम्बर २००८। कंधमाल उड़ीसा का जनजातीय बहुल जिला है जहां की करीब 6 लाख आबादी में प्राय: 52 प्रतिशत कंध जनजातीय लोग हैं जो अधिकांशत: हिंदू हैं। यहां 1857 में कंध वीर चक्र बिशोई ने अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध किया था तब से अंग्रेजों ने यहां के कंध जनजातीय समाज को सबक सिखाने और उनके व्यापक मतांतरण हेतु मिशनरियों के प्रोत्साहन का अभियान छेड़ा। कंध जनजातीय समाज देशभक्ति और धर्मनिष्ठा में अडिग रहा और उसने ब्रिटिश साम्राज्यवादियों की कोशिश सफल नहीं होने दी। मिशनरियों ने इसे एक चुनौती के रूप में माना और दुनिया भर से लाखों डालर एवं विदेशी पादरी यहां ईसाई प्रचार के लिए आक्रामक रूप से काम करते रहे। उनका ज्यादा प्रभाव स्थानीय अनुसूचित जाति पनास पर हुआ, जिसके लगभग डेढ़ लाख मतांतरित लोग कंधमाल में हैं। इस परिस्थिति में स्थानीय जनजातीय समाज के आíथक और धाíमक विकास का संकल्प लिए 1969 में स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती ने कंधमाल में चक्कपाद आश्रम स्थापित कर आदिशंकर की उस परंपरा को जीवंत किया जिसमें नरसेवा को ही नारायण सेवा माना गया है। उन्होंने हजारों जनजातीय बच्चों को शिक्षा दी, उनकी धर्मनिष्ठा सुदृढ़ की, उनके माता-पिता बनकर वात्सल्य उडेला और विदेशी धन के बल पर मतांतरण के षड्यंत्र असफल किए। वे सच्चे अर्थों में गांधी, ठक्कर बापा और विनोबा की परंपरा के क्रांतिकारी संन्यासी थे, जिन्होंने गरीब और अन्त्यजों की सेवा को ही ईश्वरीय साधना माना। 23 सितंबर को श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के अवसर पर एके-47 लिए 10-15 हमलावरों ने उनकी हत्या कर दी। अंधाधुंध गोलीबारी में उनके साथ आश्रम में कन्या छात्रावास की संचालिका माता भक्तिमयी, स्वामीजी के शिष्य अमृतानंद और एक छात्र के अभिभावक प्रभाती भी मार डाले गए।

उक्त घटना की प्रतिक्रिया में उपजी हिंसा पर वेटिकन से पोप ने प्रतिक्रिया व्यक्त की और इटली की सरकार ने भी भारतीय राजदूत को बुलाकर विरोध जताया। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने स्वदेशी मामले में विदेशी दखल पर वेटिकन और रोम को डपटने के बजाय अपने ही देश पर शर्रि्मदगी का इजहार किया। भारत के कैथोलिक स्कूलों ने उड़ीसा के ईसाई संस्थानों पर जनाक्रोश जनित हमलों के विरोध में हड़ताल की। इन सभी स्कूलों में अधिकाशत: हिंदू बच्चे पढ़ते हैं, लेकिन उनके एक हिंदू संत की हत्या पर स्कूल बंद नहीं हुए। भारत में स्कूलों और बच्चों का राजनीतिक इस्तेमाल चर्च ने शुरू किया है। इसके अलग परिणाम होंगे। वेटिकन को इस पर कोई दुख नहीं हुआ कि शांतिपूर्वक जनसेवा कर रहे एक हिंदू संत की उन कुछ बर्बर तत्वों द्वारा हत्या कर दी गई जिन पर चर्च के संरक्षण का आरोप लगा है। उड़ीसा में किसी भी प्रकार की हिंसा का कोई समर्थन नहीं कर सकता। निर्दोष चाहे हिंदू मारा जाए या ईसाई, वह भारतीय है और उसकी हत्या पर समाज को दुखी होना चाहिए, लेकिन चर्च और दिल्ली की सत्ता ने दुख का भी सांप्रदायीकरण किया। पिछले वर्ष दिसंबर में भी स्वामी लक्ष्मणानंद की हत्या का प्रयास हुआ था, जो विफल रहा। इसके बाद राज्य सरकार और जिला प्रशासन को अनेक बार पत्र लिखकर सुरक्षा उपलब्ध कराने का अनुरोध किया गया, पर राज्य सरकार ने कोई कार्रवाई नहीं की। 9 अगस्त को कंधमाल के पास कुलमाहा गांव में ईसाइयों की एक बैठक हुई जिसमें आल इंडिया क्रिश्चियन काउंसिल के एक कुख्यात अधिकारी ने हिस्सा लिया जो पहले अमेरिकी संसद में भारत के विरुद्ध बयान देने के लिए चíचत रहे हैं। इस अधिकारी की स्वामीजी की हत्या से पहले उड़ीसा में लंबी उपस्थिति के रहस्य की जांच जरूरी है। 13 अगस्त को स्वामीजी की हत्या की धमकी वाला पत्र चक्कपाद आश्रम में मिला। इसका स्थानीय समाचार-पत्रों में व्यापक प्रचार हुआ और राज्य सरकार को भी इसकी सूचना दी गई, लेकिन पुलिस-प्रशासन ने कोई कार्रवाई नहीं की।

स्वामी लक्ष्मणानंद इस क्षेत्र में समाज सुधारक के नाते जाने जाते थे। जनजातियों से शराब, तंबाकू की आदत छुड़वाना, साफ-सुथरे रहकर भगवद् चिंतन और उच्च शिक्षा की ओर प्रवृत्ता करना उनके मुख्य योगदान थे। उन्होंने जनजातीय क्षेत्र में संस्कृत विद्यालय की स्थापना की। आर्थिक विकास, चिकित्सकीय सहायता जैसे अनेक प्रकल्प आज भी स्वामीजी के प्रयासों से चल रहे हैं। उनकी हत्या से किसे लाभ हो सकता था? स्थानीय ईसाई तत्वों ने उनकी हत्या के बाद प्रचारित किया कि माओवादी-नक्सली तत्वों ने उन्हें मारा है। जब माओवादियों की ओर से स्थानीय प्रेस को अधिकृत बयान दिया गया कि इस हत्या में उनका कोई हाथ नहीं है तब यह भ्रामक प्रचार रुका। वस्तुत: दुनिया में ईसाइयत ने सर्वाधिक रक्तरंजित बर्बरता जनजातीय समाज पर ही करते हुए उन्हें मतांतरित किया। 1493 में कोलंबस ने भारत की खोज के भ्रम में अमेरिका खोजा। कोलंबस के समय अमेरिका और कैरेबियन में 10 करोड़ जनजातीय लोग थे। उसके बाद सिर्फ सौ वर्ष के कालखंड में सात करोड़ लोग बर्बरतापूर्वक मार डाले गए। क्यूबा, प्यूर्टोरिको और जमैका के 30 लाख जनजातीय लोग 50 वर्ष के कालखंड में सिर्फ 200 रह गए। । ब्राजील, आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड के जनजातीय समाज को भी इसी प्रकार या तो मार डाला गया या ईसाई बनाया गया।

चर्च आक्रामकता के साथ हिंदू देवी-देवताओं के प्रति अभद्र प्रचार करते हुए हर संभव साधन से हिंदुओं के मतांतरण में जुटता है तो उस कारण सामाजिक विखंडन पैदा होता है। स्वेच्छा से कोई किसी भी आस्था को माने तो कभी किसी को आपत्तिनहीं होती, लेकिन छल-बल से हिंदू जनसंख्या घटाने का षड़यंत्र प्रतिक्रिया पैदा करता है। आक्रामक ईसाइयत केवल हिंदू और बौद्ध देशों तक ही क्यों सीमित है-इस्लामी देशों में क्यों नहीं? हिंदुओं की सर्वपंथ समभाव की धर्मनीति का सम्मान करने के बजाय उनके मतांतरण का अभियान क्यों किया जाता है?

Tuesday, September 9, 2008

फसाद की जड़ धर्मांतरण

हिन्दुस्तान दैनिक , 2 सितम्बर २००८स्वामी जी ने बिनोवा भाव के गोरक्षा आंदोलन को इस इलाके में जोर-शोर से चलाया जिस कारण गैर हिन्दू समाज को खास मुश्किलों का सामना करना पड़ा। कंधमाल जिल में ईसाई संगठनों ने कंधों को लुभान की हर संभव कोशिश की है। विश्व हिन्दू परिषद की ईसाईयों के प्रति आक्रोश की यही वजह है, जिसका मजबूती के साथ नेतृृत्व स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती कर रहे थे। स्वामी जी ने ईसाई बने हजारों पनस लोगों को ‘शुद्धिकरण' के जरिये फिर से हिन्दू बनाया है।

Monday, September 8, 2008

उड़ीसा में इटली का दखल

उड़ीसा की हिंसक घटनाओं के पीछे मतांतरण की भूमिका देख रहे हैं बलबीर पुंज

दैनिक जागरण ,१ सितम्बर २००८ , उड़ीसा के कंधमाल जिले की हिंसा पर इटली सरकार द्वारा विगत गुरुवार को व्यक्त की गई आपत्ति न केवल राजनयिक मर्यादा का अतिक्रमण है, बल्कि ईसाइयत का साम्राज्यवादी चेहरा भी बेनकाब करती है। 80 वर्षीय स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती और उनके सहयोगियों की हत्या एवं उसकी प्रतिक्रिया में जो हिंसा हुई वह निंदनीय है, किंतु इसके पीछे चर्च की दशकों पुरानी मतांतरण गतिविधियां जनाक्रोश का सबसे बड़ा कारण हैं। ये हिंसक घटनाएं भारत का आंतरिक मसला हैं और किसी समुदाय विशेष के विरुद्ध राज्य सरकार द्वारा पोषित नहीं हैं। विगत गुरुवार को इटली सरकार ने कैबिनेट की बैठक के बाद भारतीय राजदूत को तलब कर भारत में मजहबी हिंसा रोकने का निर्देश देने का फैसला लेने संबंधी बयान जारी किया है। इसके एक दिन पूर्व पोप ने भी हिंसा की कड़ी निंदा की थी।

वस्तुत: इटली सरकार की निराधार प्रतिक्रिया उसके राजनीतिक पतन और गिरते सामाजिक मापदंडों को ही रेखांकित करती है। इटली की सरकार नवफासीवादियों पर आश्रित है, जिनका मुख्य एजेंडा विदेशी द्वेष और अप्रवास विरोधी है। आश्चर्य नहीं कि रोम के नए मेयर का स्वागत मुसोलिनी की तरह होता है। नवफासीवादी युवा इटली रोमन कैथोलिक के अनुयायी हैं और उन्हें मुस्लिम-यहूदियों सहित प्रोटेस्टेंट ईसाइयों की उपस्थिति से भी नफरत है। इसके विपरीत ईसाई मत में दीक्षित और इटली में जन्मी-पलीं सोनिया गांधी सत्तापक्ष की सर्वोच्च नेता हैं। इस पृष्ठभूमि में इटली सरकार द्वारा भारत को सहिष्णुता का उपदेश देना शैतान के मंत्रोच्चार करने जैसा है। इटली की सरकार ने जो अनावश्यक हस्तक्षेप करने की कोशिश की है उसका भारतीय सत्ता अधिष्ठान की ओर से कड़ा प्रतिवाद किया जाना चाहिए। क्या इस सेकुलर सरकार से देश के आत्मसम्मान की रक्षा के लिए किसी पहल की अपेक्षा की जा सकती है? पोप दुनियाभर के इसाइयों के संरक्षक माने जाते हैं, इसलिए कुछ हद तक उनकी प्रतिक्रिया स्वाभाविक है, किंतु भारत के संदर्भ में उन्होंने एकपक्षीय तथ्यों के आधार पर प्रतिक्रिया व्यक्त कर चर्च की मतांतरण गतिविधियों को ढकने का प्रयास किया है। चर्च भारत में वैसे इलाकों में ज्यादा सक्रिय है जहां आर्थिक व शैक्षिक पिछड़ापन है। बहुधा चर्च स्थानीय मान्यताओं, परंपराओं व प्रचलित आस्थाओं पर भी आघात कर अपना प्रसार करने की कोशिश करता रहा है। यह हिंदूनिष्ठ संगठनों का मिथ्या आरोप नहीं है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद मतांतरण की ऐसी शिकायतें मिलने पर मध्य प्रदेश की कांग्रेसी सरकार द्वारा 14 अप्रैल 1955 में गठित 'नियोगी समिति' ने इस कटु सत्य को रेखांकित किया था। समिति की प्रमुख संस्तुतियां थीं-मतांतरण के उद्देश्य से आए विदेशी मिशनरियों को बाहर निकाला जाए, चिकित्सा व अन्य सेवाओं के माध्यम से मतांतरण को कानून बनाकर रोका जाए, बल प्रयोग, लालच, धोखाधड़ी, अनुभवहीनता, मानसिक दुर्बलता का उपयोग मतांतरण के लिए नहीं हो, किसी भी निजी संस्था को सरकारी स्त्रोतों के अलावा विदेशी सहायता प्राप्त करने की अनुमति नहीं मिले।

स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती 1966 में कंधमाल आए और तब से वह अशिक्षित-पिछड़े वनवासियों के उत्थान में संलग्न थे। उन्होंने पिछड़े आदिवासियों के मतांतरण के मिशनरी प्रयासों का प्रखर विरोध किया। उन्होंने गोवध के खिलाफ भी मुहिम छेड़ रखी थी। 1970 के बाद से वह चर्च के निशाने पर थे। विगत दिसंबर माह में भी उन पर कातिलाना हमला हुआ था। उसकी प्रतिक्रिया में हिंसक वारदातें भी हुईं। तब दिल्ली से जांच के लिए उड़ीसा गए मानवाधिकार आयोग के प्रतिनिधियों ने हिंसा के लिए केवल हिंदू संगठनों को कसूरवार ठहराया। केंद्रीय गृहमंत्री शिवराज पाटिल का दौरा केवल ईसाई गांवों तक ही सीमित रहा। उन्होंने ब्राह्मणदेई, जलेसपेटा, तुमुड़ीबंध, बालीगुडा और बाराखंबा गांवों का दौरा नहीं किया, जहां ईसाई हमलावरों द्वारा हिंदू मंदिरों को तोड़ा गया। ईसाई हमलावरों के डर से कटिंगिया व आसपास के दस गांवों के हिंदू ग्रामीण जंगलों में जा छिपे थे। उन्हें सुरक्षा का भरोसा दिलाने की चिंता शिवराज पाटिल को नहीं हुई। सेकुलर मीडिया में भी चर्चों पर हुए हमलों की तो खूब चर्चा हुई थी, किंतु मंदिरों और हिंदुओं पर किए गए हमलों की खबर गायब ही रही। यदि तब तटस्थतापूर्वक जांच की जाती और चर्च पर कड़ी कार्रवाई की जाती तो संभवत: आज यह स्थिति पैदा ही नहीं होती। यह कहना कि हत्या के पीछे नक्सलियों-माओवादियों का हाथ है, सत्य से आंख मूंदना है। उड़ीसा में सक्रिय अधिकांश माओवादी-नक्सली नवमतांतरित ईसाई ही हैं। त्रिपुरा में अगस्त 2000 में स्वामी शांतिकाली जी महाराज की भी हत्या की गई थी। शांतिजी भी वनवासी इलाकों में चलाए जा रहे मतांतरण कार्यक्रमों के प्रखर आलोचक थे। तब तत्कालीन मुख्यमंत्री ने हत्या में बैप्टिस्ट चर्च के शामिल होने की बात स्वीकारी थी। पूर्वोत्तार के ईसाई बहुल क्षेत्र हों या अन्यत्र, जहां कहीं भी अलगाववाद की समस्या है उसके पीछे मतांतरण एक बड़ा कारक है।

मतांतरण के संबंध में स्वामी विवेकानंद ने कहा था, ''जब हिंदू समाज का एक सदस्य मतांतरण करता है तो समाज की संख्या कम नहीं होती, बल्कि समाज का एक शत्रु बढ़ जाता है।'' आज कश्मीर में जो हो रहा है वह इस कटु सत्य को रेखांकित करता है। आश्चर्य नहीं कि वैदिक हिंदू दर्शन के साक्षी कश्मीर में आज पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे लग रहे हैं और भारत की मौत की कामना की जा रही है।

लक्ष्मणानंदजी की हत्या में चर्च शामिल हो या नक्सली-माओवादी, मैं मतांतरण से पैदा होने वाली विषाक्त मानसिकता को मुख्य कसूरवार मानता हूं, जो बहुलतावादी संस्कृति की धुर विरोधी है। कंधमाल की हिंसा में जहां चर्च की बड़ी भूमिका है वहीं सेकुलरवादियों की कुत्सित नीतियों का भी बड़ा योगदान है। उड़ीसा की दो आदिवासी जातियों-कंध और पण में पिछले कुछ समय से आरक्षण को लेकर संघर्ष चरम पर है। कंध जनजाति के लोग अपनी संस्कृति और आस्था के प्रति खासे जागरूक हैं, जबकि अधिकांश पण आदिवासियों ने ईसाइयत स्वीकार कर ली है। मतांतरण के बाद अनुसूचित जाति को मिलने वाले आरक्षण से वंचित हो जाने के बाद पण समुदाय कंध की तरह अनुसूचित जनजाति का दर्जा पाने की मांग कर रहा है, जिसका समर्थन चर्च कर रहा है। विदेशी धन से पोषित फूलबनी कुई जनकल्याण संघ इस फसाद का सूत्रधार है। संप्रग सरकार द्वारा गठित रंगनाथ मिश्रा आयोग द्वारा सभी मतांतरितों को आरक्षण देने की संस्तुति के बाद कंध सहित अन्य हिंदू अनुसूचित जाति-जनजाति को यह भय सताने लगा है कि उनके हक का आरक्षण लाभ पण उड़ा ले जाएंगे। स्वयं पण भी चर्च की शरण में आने के बावजूद ठगा सा महसूस कर रहे हैं। चर्च की शरण में आने के बावजूद उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया है। उड़ीसा की हाल की हिंसक घटनाओं की तह में छल-कपट और फरेब के बल पर चर्च द्वारा चलाया जा रहा मतांतरण अभियान है, जिसे सेकुलरिस्टों का प्रत्यक्ष और परोक्ष समर्थन प्राप्त है।



Friday, August 22, 2008

जम्मू के जज्बे को सलाम

अमरनाथ श्राइन बोर्ड मामले में कश्मीरी अलगाववादियों का असली चेहरा बेनकाब होता देख रहे है ए. सूर्यप्रकाश

दैनिक जागरण , अगस्त २१, २००८। कुछ समय पहले तीखे तेवर वाले सज्जाद लोन जैसे कश्मीरी अलगाववादी नेता अपने आंदोलन के दौरान बार-बार घोषणा कर रहे थे कि वे अमरनाथ यात्रा पर जाने वाले तीर्थयात्रियों को सुविधाएं उपलब्ध कराने के लिए अमरनाथ श्राइन बोर्ड को एक इंच जमीन भी नहीं देंगे। भारत के उन अनेक नौजवानों को कश्मीर के अलगाववादियों के इस चुनौतीपूर्ण अंदाज से जबरदस्त धक्का लगा है जो अब तक उनसे अपरिचित रहे हैं। उन्हें नहीं पता था कि हुर्रियत कांफ्रेंस और ऐसे ही अन्य संगठनों के नेताओं के मन में भारत के स्वतंत्र, पंथनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक ढांचे के प्रति नफरत भरी है। लोग उस स्तब्धकारी भेदभाव से भी पहली बार परिचित हो रहे हैं जो राष्ट्रवादी बहुल जम्मू क्षेत्र और अलगाववादी एवं सांप्रदायिक कश्मीर क्षेत्र में दिखाई पड़ रहा है। जम्मू के हिंदू, सिख और मुस्लिम प्रदर्शनकारी तिरंगा हाथ में लेकर प्रदर्शन करते हैं और भारत माता की जय जैसे नारे लगाते हैं, जबकि कश्मीर के प्रदर्शनकारी हुर्रियत या पाकिस्तान का हरा झंडा लेकर भारत विरोधी नारे लगाते हुए प्रदर्शन में भाग लेते हैं। पिछले साठ साल से भारतीय गणतंत्र का अंग होने के बावजूद कश्मीरी मुसलमानों का बड़ा वर्ग पंथनिरपेक्ष लोकतंत्र के दायरे से बाहर है। मीडिया में सामने आई विरोध प्रदर्शन की तस्वीरों से यह साफ हो जाता है कि घाटी के अधिकांश मुसलमानों पर भारतीय पंथनिरपेक्षता का रंग नहीं चढ़ा है। दूसरी तरफ वहां छह सौ साल पहले का वही माहौल नजर आता है, जिसमें सुल्तान सिकंदर ने हिंदुओं पर कुठाराघात करते हुए उन्हें कश्मीर छोड़ने या मुसलमान बनने को मजबूर कर दिया था। हिंदू समुदाय पर दूसरा बड़ा कुठाराघात 1989-90 में मुस्लिम आतंकवादियों ने किया, जिन्हें स्थानीय मुसलमानों का समर्थन हासिल था। उन्होंने हिंदुओं की हत्याएं शुरू कर दीं। इस नरसंहार के कारण तीन लाख कश्मीरी पंडितों ने पलायन कर जम्मू और दिल्ली के शरणार्थी शिविरों में शरण ली।

हाल के वर्र्षो में आतंकवादियों ने अमरनाथ यात्रियों को निशाना बनाया और अस्थायी शिविरों में निवास करने वाले यात्रियों को मौत के घाट उतारा। इसके बावजूद सज्जाद लोन कहते हैं कि अमरनाथ श्राइन बोर्ड की जरूरत ही नहीं है, क्योंकि मुसलमान हिंदू तीर्थयात्रियों का 'ध्यान' रख रहे हैं। इससे भी हास्यास्पद बयान हुर्रियत कांफ्रेंस के अध्यक्ष मीर वाइज फारुख का है। उनका दावा है कि वह पंथनिरपेक्षता में यकीन रखते हैं। सांप्रदायिक तो हिंदू हैं, जो श्राइन बोर्ड की जमीन के लिए प्रदर्शन कर रहे हैं। हैरानी की बात यह है कि घाटी से हिंदुत्व की विशिष्ट संस्कृति के सफाए पर कोई भी अलगाववादी नेता शर्रि्मदगी महसूस नहीं करता। यह इस क्षेत्र में किसी भी पंथिक अल्पसंख्यक समुदाय पर सबसे बड़ा हमला है। हालिया वर्र्षो में टीवी शो में अनेक कश्मीरी अलगाववादी नेता हाजिर हुए हैं। ये विद्रोही, अड़ियल, सांप्रदायिक और भारत विरोधी थे, फिर भी कुछ अंग्रेजी समाचार चैनलों ने उन्हें पर्याप्त समय दिया। भारतीय मीडिया का एक वर्ग यह मानता है कि अलगाववाद की भाषा बोलने वाले कश्मीरी मुसलमानों से संजीदगी और पंथनिरपेक्षता की उम्मीद ही नहीं करनी चाहिए। सज्जाद लोन, बिलाल लोन और मीर वाइज फारुख जैसे लोगों के जहर उगलने वाले बयान और उनके दावों में बेइमानी के निशान इन मीडिया संगठनों के लचर रवैये से साफ झलकते हैं। ये उन्मत्त कश्मीरी मुस्लिम सांप्रदायिकता के प्रति रुझान रखते हैं। इनमें कश्मीरी मुस्लिम दृष्टिकोण की तरफदारी की इच्छा इतनी तीव्र है कि साफ-साफ सांप्रदायिक नारेबाजी और प्रदर्शनों के बावजूद वे इसे सांप्रदायिक बताने से गुरेज करते हैं। मूर्खतावश अलगाववादियों को मंच प्रदान करके कुछ मीडिया संगठन भारत की एकता व अखंडता तथा संवैधानिक मूल्यों को छिन्न-भिन्न करने के खतरनाक अंजाम के करीब पहुंच गए हैं। यह नि:संदेह हमारे लिए गंभीर चिंता का विषय होना चाहिए।

सज्जाद लोन कहते हैं कि 'हम' हिंदुओं को एक इंच जमीन भी नहीं देंगे। एक चैनल पर एक कश्मीरी पंडित ने लोन से पूछा कि 'हम' से क्या मतलब है? क्या इसमें कश्मीरी पंडित शामिल नहीं हैं, जो कश्मीर के मूल निवासी हैं? इस सवाल पर लोन और वहां मौजूद अन्य लोगों की बोलती बंद हो गई। जाहिर है कि लोन ने जिस 'हम' का उल्लेख किया था उसमें केवल मुस्लिम समुदाय शामिल है। लोन को बताना चाहिए कि कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है और हमेशा रहेगा और अगर सीमा पार के आकाओं से आपका इतना ही लगाव है तो मुजफ्फराबाद पुल पार करके वहां जाओ और वहीं जाकर बस जाओ। कश्मीर नाम के भौगोलिक टुकड़े से हम भावनात्मक बंधन में बंधे हैं और यह बंधन हमेशा कायम रहेगा। लोन के पूर्ववर्ती भी नियंत्रण रेखा के पार ऐसा ही झुकाव रखते थे। कश्मीरी मुसलमानों की सांप्रदायिकता सबसे पहले 1947 में खुलकर सामने आई थी। तब कश्मीर सेना में तैनात मुसलमान सैनिकों ने फौजी अफसरों की हुक्मअदूली करते हुए बगावत कर दी थी और हमलावर पाकिस्तान सेना में शामिल हो गए थे। उन्होंने अपने अधिकारी लेफ्टिनेंट कर्नल नारायण सिंह, बिग्रेडियर राजिंदर सिंह और अन्य अधिकारियों को मौत के घाट उतारने के बाद श्रीनगर की तरफ कूच किया।

इस धोखे की गूंज आज जम्मू-कश्मीर राज्य में सुनाई पड़ रही है। कश्मीरी मुस्लिम समुदाय सीमा पार से पड़े प्रभाव के कारण घाटी में हिंदुओं के अधिकारों को रौंदना अपना अधिकार समझ बैठा है। अगर हम जम्मू-कश्मीर को भारत के अभिन्न अंग के रूप में कायम रखना चाहते हैं तो देश की एकता, अखंडता, आजादी, पंथनिरपेक्षता और लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति प्रतिबद्ध भारत के प्रत्येक नागरिक को ब्रिगेडियर राजिंदर सिंह और लेफ्टिनेंट कर्नल नारायण सिंह जैसे बलिदान के लिए तैयार रहना चाहिए। जम्मू की जुझारू जनता हमारे सामने उदाहरण पेश कर रही है। आइए हम सब उन्हें सलाम करें।


आतंक की घरेलू जड़ें

सिमी की देशव्यापी गतिविधियों को एक बड़ा खतरा बता रहे हैं हृदयनारायण दीक्षित
दैनिक जागरण, अगस्त २१,२००८। सिमी देशी आतंकवाद का ब्रांड है। उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ में 1977 में जन्मी सिमी अब धुर दक्षिण तक केरल में है। पूर्वोत्तर में असम में है। महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, राजस्थान और दिल्ली में है। गुजरात का ताजा रक्तपात उसी का खेल है। राजनीति में सिमी को पाक-साफ बताने वाले राजनेता और राजनीतिक दल हैं तो सिमी को आतंकी संगठन बताने वाले भी हैं। सिमी की निगाह में भारत का संविधान इस्लाम विरोधी है। राष्ट्र-राज्य बकवास है, पंथनिरपेक्षता और हिंदू-मुस्लिम भाईचारा बेकार और इस्लाम विरोधी है। उसकी दृष्टि में सभी गैर-इस्लामी जन 'काफिर' हैं, दुनिया के सभी गैर-इस्लामी विचार, सभ्यता और संस्कृतियां बेहूदा हैं। कुरान उसका संविधान है। जेहाद के जरिए भारत को इस्लामी मुल्क बनाना उसका मकसद है। सिमी भारत से युद्धरत है। वह एक मुकम्मल हमलावर विचारधारा है। इस विचार में मजहब की बारूद है। सिमी इस्लाम का बेजा इस्तेमाल कर रही है, लेकिन मौलवी, उलेमा, इमाम आदि चुप हैं। सिमी भारत के लिए बहुत बड़ा खतरा है, वह भारतीय राष्ट्र-राज्य की दुश्मन है। आतंकवाद और सिमी पर मुलायम रुख वाले सेकुलर दल दया के पात्र हैं।

सिमी ने अपने मुखपत्र 'इस्लामिक मूवमेंट' में साफ किया था,''कोई भी राजनीतिक दल अपनी सेकुलरवादी घटिया विचारधारा के जरिए ठोस और सकारात्मक बदलाव नहीं ला सकता। असली बदलाव का एकमात्र रास्ता इस्लामी जीवन पद्धति है।'' सिमी के महामंत्री सफदर नागौरी गुजरात रक्तपात के जरिये दोबारा चर्चा में हैं। नागौरी ने ओसामा बिन लादेन को आतंकवादी नहीं, 'सच्चा मुसलमान' बताया था। उनके मुताबिक जम्मू-कश्मीर भारत का हिस्सा नहीं है। सिमी ने 2004 में भारत के लिए एक और महमूद गजनी की जरूरत बताई थी। महमूद गजनी ने भारत पर 17 हमले किए, सिमी भी उसी तर्ज पर हमलावर है। उतवी हमलावर महमूद गजनी का सहायक और इतिहासकार था। उतवी ने 'तारीखे यामिनी' में सन 1000 से लेकर ज्यादातर हमलों का आंखों देखा वर्णन किया है,''..नदी का रंग काफिरों के खून से लाल हो गया, सुल्तान बेहिसाब दौलत लाया। अल्लाह इस्लाम और मुसलमानों को सम्मान देता है। गुलामों की तादाद के कारण बाजार भाव गिर गया।'' गजनी जोरजबर से गुलाम ले गया था, सो बाजारभाव गिरा। आज सिमी की खिदमत में खुशी-बखुशी गुलाम हाजिर हैं। यहां गुलामों की बहुतायत है, सिमी समर्थक दल नेता घटे दर पर गुलाम हैं। अबुल बशर और प्रतिभाशाली युवकों का सिमी में होना खतरे की घंटी है। अहमदाबाद बमकांड के आरोपी तथा आजमगढ़ के निवासी बशर को अपने किए पर कोई मलाल नहीं। उसने अहमदाबाद, वाराणसी, फैजाबाद और जयपुर की आतंकी कार्रवाई को 'इस्लामिक काम' ठहराया है।

सिमी प्रमुख शहिद बद्र पर बहराइच में राष्ट्रद्रोह सहित कई जघन्य आरोपों के मुकदमे दर्ज हुए। बद्र गुजरात रक्तपात में हुई गिरफ्तारियों को सिमी की बदनामी की साजिश बताते हैं। उनकी मानें तो सिमी पाक-साफ है। साबरमती एक्सप्रेस बम कांड के आरोप सिमी पर हैं। महाराष्ट्र पुलिस ने जलगांव कोर्ट में अक्टूबर 2001 में 11 सिमी कार्यकर्ताओं के खिलाफ आतंकवादी आरोप-पत्र दाखिल किया था। 2001 में ही मध्य प्रदेश पुलिस ने 9 और दिल्ली पुलिस ने भी कई सिमी कार्यकर्ता पकड़े। हावड़ा ब्रिज उड़ाने की तैयारी में आरडीएक्स सहित सिमी के नेता हासिब रजा गिरफ्तार हुए। पश्चिम बंगाल में सिमी के कार्यकर्ता रेलवे लाइन उड़ाने के आरोप में पकड़े गए। मुंबई पुलिस ने आधुनिक शस्त्रों और रसायनों से लैस सिमी के आधा दर्जन कार्यकर्ता मई 2003 में पकड़े। 2005 के श्रीराम जन्मभूमि परिसर हमले में भी सिमी के लोग गिरतार हुए। सिमी के रक्तपात, राज्यद्रोह और राष्ट्रद्रोह की कथा लंबी है। बावजूद इसके ट्रिब्यूनल में केंद्र सिमी को खतरनाक संगठन घोषित करने लायक साक्ष्य भी नहीं जुटा पाया। सर्वोच्च न्यायालय स्टे न देता तो देश की छाती पर सवार सिमी के लोग देश की गर्दन दबोच लेते। गुजरात पुलिस ने केरल के जंगल में सिमी ट्रेनिंग कैंप का ताजा खुलासा किया है। केरल सरकार ने जून 2006 में ही सिमी पर प्रतिबंध की वैधता जांच रहे ट्रिब्यूनल के समक्ष तमाम खतरनाक सूचनाएं दी थीं। केरल राज्य की विशेष पुलिस शाखा ने कई स्थानीय मजहबी संगठनों/केंद्रों को भी सिमी सहायक पाया था। केरल के नेशनल डेमोक्रेटिक फ्रंट, इस्लामिक यूथ सेंटर और तमिलनाडु के तमिल मुस्लिम मुनेत्र कजगम जैसे संगठन सिमी से संबंधित बताए जाते हैं। सिमी देश के तमाम विश्वविद्यालयों में भी सक्रिय है।

सिमी और बांग्लादेशी संगठन हरकत-उल जेहाद अल इस्लाम (हुजी) मिलकर काम करते आए हैं। सिमी ने हुजी के लिए उत्तर प्रदेश के जौनपुर, इलाहाबाद, कानपुर, लखनऊ, अंबेडकरनगर, अलीगढ़, सोनौली, फिरोजाबाद, हाथरस और आजमगढ़ में नवयुवक प्रशिक्षित किए हैं। मध्य प्रदेश में प्रतिबंध के पहले ही विभिन्न जिलों में सांप्रदायिक शत्रुता बढ़ाने वाले 35 मुकदमे सिमी कार्यकर्ताओं पर दर्ज हुए थे। उसके बाद से 2006 तक 180 से ज्यादा सिमी कार्यकर्ता गिरफ्तार हुए। संप्रति मध्य प्रदेश भी सिमी का गढ़ है। महाराष्ट्र के औरंगाबाद, मालेगांव, जलगांव और थाणे सिमी के सघन कार्यक्षेत्र हैं। नासिक, शोलापुर, कोल्हापुर, गड़चिरौली, नांदेड़, औरंगाबाद, जलगांव और पुणे खुफिया एजेंसियों के लिए सिरदर्द हैं। राज्य में 3000 से ज्यादा मदरसे हैं और सिमी गतिविधियों के के लिए अच्छा-खासा कच्चा माल हैं। पश्चिम बंगाल के 24 परगना जिले में 2003 के अगस्त-सितंबर में दो दिवसीय प्रशिक्षण हुआ। सिमी ने 2004 के चुनाव में 'इंडियन नेशनल लीग' के 6 उम्मीदवारों को जंगीपुर, मुर्शिदाबाद, डायमंड हार्बर, बशीरहाट, जादवपुर और पश्चिमोत्तर कोलकाता सीटों पर समर्थन भी दिया। तमाम नेता स्वाभाविक ही सिमी का प्रत्यक्ष/अप्रत्यक्ष समर्थन करते हैं।

जिस प्रकार सिमी का घोषित मकसद भारत विरोध और जेहादी आतंकवाद है उसी प्रकार सिमी समर्थक राजनीतिक दलों का घोषित मकसद चुनावी जीत है। दोनों परस्पर सहयोगी हैं। भारत आंतरिक सुरक्षा के संकट से जूझ रहा है। माओवादी नक्सलपंथी हिंसा है, राष्ट्रव्यापी जेहादी आतंकवाद है, कश्मीर घाटी में अलगाववाद है, पूर्वोत्तर अशांत है, नेपाल और बांग्लादेशी सीमाएं असुरक्षित हैं। सिमी के देशी आतंकवाद से पूरे देश में थरथराहट है। आतंकवाद के खिलाफ पड़ोसी बांग्लादेश में भी कड़े कानून हैं और मृत्युदंड का प्रावधान है। ब्रिटेन के आतंक विरोधी कानून में संदिग्ध को 42 दिन तक पुलिस हिरासत में रखने की व्यवस्था है। फ्रांस, इटली, जर्मनी, स्पेन, अमेरिका, फिलीपींस में भी कड़े कानून हैं, लेकिन भारत आतंकवाद पर मुलायम है। यहां रक्तपात, हमला और बमबारी नहीं, बल्कि हमलावर का मजहब देखा जाता है। सिमी ने 'सागा आफ स्ट्रगल' (वार्षिक रिपोर्ट 1998-2000) में कहा था,''दीन के लिए उठो, खड़े हो, मुस्लिम युवक इस्लाम की श्रेष्ठता की पुनस्र्थापना के लिए जेहाद करें।'' अर्थात अपने ही देशवासियों, भाई-बंधुओं का कत्ल करें। अचरज है कि सवा अरब भारतवासियों को 4-5 हजार उन्मादी मार रहे हैं और राष्ट्र-राज्य की सारी संस्थाएं चुप हैं।


Wednesday, August 13, 2008

कांग्रेस की कारस्तानी

जम्मू-कश्मीर के हालात के लिए कांग्रेस के अपराध बोध को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं यशवंत सिन्हा

यह इतिहास की विडंबनाओं में से एक है कि पाकिस्तान की मांग करने, उसे हासिल करने और इस तरह देश का बंटवारा करने वाले मुस्लिम लीग के नेताओं को इस सबका तनिक भी अफसोस नहीं, जबकि लीग की मांग के सामने समर्पण करने वाली कांग्रेस चाहकर भी अपराध बोध से मुक्त नहीं हो पा रही है। पाकिस्तान के निर्माण ने यह मिथक पूरी तरह तोड़ दिया था कि कांग्रेस समस्त भारतीयों की पार्टी है और यह सभी जातियों और पंथों का प्रतिनिधित्व करती है। इस सदमे से कांग्रेस अब तक उबर नहीं पाई है। हालिया घटनाएं, जिनमें अमरनाथ श्राइन बोर्ड को भूमि का आवंटन और बाद में इस फैसले को पलटना शामिल है, इसी अपराध बोध से सीधे-सीधे संबंधित है। कांग्रेस नेतृत्व यह साबित करने पर आमादा था कि उसका दो देशों के सिद्धांत में विश्वास नहीं, वे भारत के विभाजन और पाकिस्तान के गठन के लिए जिम्मेदार नहीं और देश के अन्य भागों से मुसलमानों को पाकिस्तान जाने की जरूरत नहीं, भारत में उनका स्वागत है। भारत ने पंथनिरपेक्ष राष्ट्र का निर्माण किया और संविधान में अल्पसंख्यकों के अधिकारों को सुनिश्चित किया। जम्मू-कश्मीर मामले में हम एक कदम आगे बढ़ गए और अनुच्छेद 370 लागू कर उसे विशेष दर्जा दे दिया। विदेश मामलों में हमने इजरायल के बजाय हमेशा मुस्लिम देशों का पक्ष लिया और कई दशकों तक इसरायल को मान्यता प्रदान नहीं की। हम हर कीमत पर बाहरी मुसलमानों के हक में खड़े नजर आए।
अगर हम आजाद भारत के संवैधानिक प्रावधानों तक सीमित रहते तो कोई समस्या नहीं थी। समस्या तब खड़ी हुई जब मुसलमानों को रिझाने के लिए कांग्रेस झुक गई। ऐसा कर कांग्रेस 1947 के अपराध बोध से मुक्त होना और खुद को पंथनिरपेक्ष भी साबित करना चाहती थी। इसलिए शुरुआत में उसने मुस्लिम समर्थित रुख अपनाया जो धीरे-धीरे हिंदू विरोधी रवैये में बदल गया। चुनावी राजनीति की मजबूरियों से यह परिवर्तन न केवल कांग्रेस के आचार-विचार पर छा गया, बल्कि उसने मुलायम सिंह, लालू यादव और करुणानिधि जैसे नेताओं को भी जन्म दिया जो हिंदू विरोध में मस्त रहते हैं। यह ऐसा अमृत है जो सिमी जैसी मुस्लिम कट्टरवादी शक्तियों को जिंदा रखता है। इससे मुस्लिम राजनेता भड़काने वाले भाषण देने को प्रोत्साहित होते हैं, जैसा कि उमर अब्दुल्ला ने 22 जुलाई को संसद में विश्वास मत के दौरान किया। कुछ स्थानों में यह भावना घर कर गई है कि आप हिंदू विश्वास को गाली दे सकते हैं, उसे बेकार कह सकते हैं और उसका अपमान कर सकते हैं। इसके बाद भी आप न केवल साफ बच जाते हैं बल्कि तारीफ के हकदार भी हो जाते हैं। भारत में पंथनिरपेक्षता की नई परिभाषा है हिंदू विरोधी।
अमरनाथ श्राइन बोर्ड को आवंटित भूमि को निरस्त करके देश के पंथनिरपेक्ष ताने-बाने में दुष्टतापूर्ण अन्याय बुन दिया गया, किंतु इसने जम्मू-कश्मीर के बाहर शायद ही किसी की आत्मा को झकझोरा हो। जम्मू-कश्मीर सरकार में वन विभाग से संबद्ध मंत्रालय के मंत्री ने श्राइन बोर्ड को भूमि दान देने का प्रस्ताव मंत्रिमंडल की बैठक में रखा था। यह मंत्री पीडीपी पार्टी से था। भूमि आवंटन का उद्देश्य जुलाई और अगस्त में अमरनाथ यात्रा पर आने वाले श्रद्धालुओं को ठहरने के लिए अस्थाई आवास उपलब्ध कराना था। जैसे ही कश्मीर घाटी में भारत विरोधी, राष्ट्र विरोधी और हिंदू विरोधी तत्वों को इस फैसले के बारे में पता चला तो उन्होंने इसे निरस्त करने के लिए हिंसक प्रदर्शक शुरू कर दिया। आगामी चुनाव देखते हुए पीडीपी समेत अधिकांश राजनीतिक दल भी उनके समर्थन में आ खड़े हुए। पीडीपी को अपना ही फैसला बदलने तथा राष्ट्र विरोधी शक्तियों के साथ खड़े होने में जरा भी शर्म नहीं आई। जम्मू-कश्मीर के पूर्व राज्यपाल जैसे व्यक्ति द्वारा लगाए गए आरोप को गंभीरता से लेना चाहिए कि पीडीपी राष्ट्रविरोधी शक्तियों के साथ मिली हुई है। नेशनल कांफ्रेंस ने भी यही रास्ता अख्तियार किया और लोकसभा में घोषणा कर दी कि हम जमीन का एक इंच टुकड़ा भी नहीं देंगे। उक्त जमीन वन विभाग की है और बंजर है। यहां से किसी को भी बेदखल नहीं किया जा रहा है। आवंटन श्रद्धालुओं के लिए अस्थाई आवास बनाने के लिए हुआ था, न कि स्थाई भवन बनाने के लिए। श्राइन बोर्ड के अध्यक्ष बाहर का कोई व्यक्ति न होकर जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल हैं। कल्पना के कितने भी घोड़े दौड़ा लिए जाएं, इसे राज्य की जनसांख्यिकी में बदलाव के रूप में नहीं देखा जा सकता। अन्य सामान्य पर्यटकों की तरह अमरनाथ यात्री राज्य में अस्थाई आगंतुक हैं। क्या पर्यटकों के आने से राज्य की जनसांख्यिकी बदल जाती है? होटल और हाउसबोट स्थायी ढांचा हैं। क्या जम्मू-कश्मीर के राजनेता यह कहेंगे कि पर्यटकों के लिए होटलों का निर्माण भी नहीं होगा।
पाकिस्तान ने पाक अधिकृत कश्मीर की जनसांख्यिकी को स्थाई रूप से बदल दिया है। हमारे तथाकथित पंथनिरपेक्ष राजनेता और कश्मीरी हितों की स्वयंभू अलंबरदार हुर्रियत कांफ्रेंस ने इसके खिलाफ आवाज तक नहीं उठाई। वह कश्मीर के केवल एक भाग को लेकर ही इतना संवेदनशील क्यों है? क्या इसलिए क्योंकि यह हिंदू तीर्थस्थल है? क्या इसलिए कि हमने संविधान में अनुच्छेद 370 लागू करने की हिमाकत की? एक बार फिर घाटी में सांप्रदायिक और राष्ट्रविरोधी शक्तियों की जीत हुई है। इस मसले को हिंदू-मुस्लिम संकीर्ण नजरिये से देखना भारी भूल होगी। भूमि के आवंटन से किसी भी मुसलमान को कोई नुकसान नहीं हो रहा है। यह भारतीय राष्ट्रवादियों और भारत विरोधियों के बीच संघर्ष है। यह असली पंथनिरपेक्षतावादियों और छद्म पंथनिरपेक्षतावादियों के बीच सीधी लड़ाई है। आवंटन रद्द करने में राज्यपाल ने हड़बड़ी दिखाई। सरकार ने घाटी में राष्ट्रविरोधियों और अलगाववादी शक्तियों के सामने इस उम्मीद में आत्मसमर्पण कर दिया कि जम्मू और अन्य क्षेत्रों में राष्ट्रवादी शक्तियां इसे चुपचाप सहन कर लेंगी। यह आकलन बिल्कुल गलत था। इस अन्याय के खिलाफ राष्ट्रवादी उठ खड़े हुए। भारत सरकार ने हालात बद से बदतर बना दिए। अनावश्यक रूप से अनेक लोगों को जान गंवानी पड़ी। काल्पनिक आर्थिक नाकेबंदी के विरोध में अलगाववादी अब कश्मीर के सेबों को नियंत्रण रेखा पार करके मुजफ्फराबाद में बेचना चाहते हैं। किसी भी हाल में इसकी अनुमति नहीं दी जानी चाहिए।
सरकार के सामने बस एक ही विकल्प रह जाता है कि जमीन श्राइन बोर्ड को सौंपी जाए। इसके लिए उसे कश्मीर घाटी में राष्ट्रविरोधी शक्तियों से टकराना होगा और जोरदार तरीके से यह बात दोहरानी होगी कि जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है। उसे आतंकियों, अलगाववादियों और पाकिस्तान समर्थकों के खेल का मैदान बनने नहीं दिया जाएगा। भारत के राष्ट्रवादी मुसलमानों ने तब अच्छा उदाहरण पेश किया जब 7 अगस्त को उन्होंने दिल्ली में लालकिला से श्रीनगर के लाल चौक के लिए कूच किया। यह अलग बात है कि तनावपूर्ण माहौल में उन्हें जम्मू-कश्मीर में प्रवेश करने नहीं दिया। यह एक उल्लेखनीय बात होगी कि भारत के मुसलमान उनके उदाहरण का अनुसरण करते हुए श्राइन बोर्ड को जमीन सौंपने के पक्ष में बोलें। 1947 में कांग्रेस की भयावह भूल का खामियाजा देश को अब भुगतने नहीं दिया जाएगा। मुलायम, लालू और करुणानिधि जैसे लोगों को इतिहास के कचरे के डिब्बे में फेंक दिया जाना चाहिए। वे इसी लायक हैं। (दैनिक जागरण, १३ जुलाई २००८)

Monday, August 11, 2008

जम्मू के साथ सौतेलापन

अमरनाथ मामले में आंदोलनरत जम्मू की जनता का दर्द बयान कर रहे हैं संजय गुप्त

जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल एनएन वोहरा के निर्देश पर अमरनाथ श्राइन बोर्ड को अस्थाई रूप से दी गई भूमि का आवंटन रद्द होने के बाद से जम्मू संभाग की जनता द्वारा शुरू किया गया आंदोलन अभी भी थमता नजर नहीं आ रहा। चूंकि जिस समय यह आवंटन रद्द किया गया उस समय केंद्र में राजनीतिक अस्थिरता का माहौल था और संप्रग सरकार खुद को बचाने में लगी हुई थी इसलिए जम्मू के उग्र आंदोलन की ओर ध्यान नहीं दिया गया। विडंबना यह रही कि जम्मू-कश्मीर में राष्ट्रपति शासन लागू होने और इस तरह राज्य की कमान केंद्रीय सत्ता के हाथों में आने के बाद भी जम्मू की अनदेखी की गई। जम्मू-कश्मीर में राष्ट्रपति शासन इसलिए लगाना पड़ा, क्योंकि गुलाम नबी आजाद सरकार द्वारा अमरनाथ श्राइन बोर्ड को भूमि आवंटन के सवाल पर सत्ता में साझीदार पीडीपी ने समर्थन वापस ले लिया था। अमरनाथ श्राइन बोर्ड को भूमि आवंटन का कश्मीर घाटी में जैसा विरोध हुआ उससे देश का हिंदू समाज पहले ही आहत था। रही-सही कसर भूमि आवंटन का फैसला रद्द होने से पूरी हो गई। इस घटनाक्रम पर केंद्र सरकार या तो मौन धारण किए रही या फिर गुलाम नबी आजाद और एनएन वोहरा के फैसलों पर सहमति जताती रही। चूंकि जम्मू की जनता पिछले 60 वर्षो से राज्य और केंद्र सरकार की उपेक्षा से त्रस्त थी इसलिए भूमि आवंटन को रद्द करने के अनुचित फैसले ने उसके संयम का बांध तोड़ दिया। वहां पिछले लगभग 40 दिनों से धरना-प्रदर्शन और बंद का सिलसिला कायम है। जम्मू के लोग इतना अधिक कुपित है कि वे क‌र्फ्यू और सेना की भी परवाह नहीं कर रहे है।
केंद्र सरकार के लिए यह आवश्यक था कि वह जम्मू की नाराजगी दूर करने के लिए आगे आती, लेकिन वह हाथ पर हाथ धरे बैठी रही। इससे वहां के लोगों का गुस्सा और बढ़ता चला गया। इस गुस्से को पुलिस के दमनकारी रवैये ने भी बढ़ावा दिया। इस दमनचक्र के चलते वहां अनेक लोग मारे गए। इन मौतों ने लोगों के गुस्से को भड़काया और उन्होंने श्रीनगर राजमार्ग को अवरुद्ध कर दिया। केंद्र की नींद तब खुली जब जम्मू के आंदोलन की प्रतिक्रिया कश्मीर घाटी में भी होने लगी और वहां के व्यापारी मुजफ्फराबाद कूच की धमकी देने लगे। समस्या समाधान के नाम पर केंद्र सरकार ने एक माह बाद सर्वदलीय बैठक तो बुलाई, लेकिन ऐसा कुछ भी करने से इनकार किया जिससे जम्मू की जनता का आक्रोश कम होता। चूंकि जम्मू के लोगों को बिना कोई आश्वासन दिए वहां एक सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल भेजने का निर्णय लिया गया इसलिएउसका विरोध होना स्वाभाविक है और उसके माध्यम से कोई नतीजा निकलने के आसार भी कम हैं।
जम्मू-कश्मीर के भारत में विलय के बाद से ही जम्मू संभाग के लोगों के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार किया जा रहा है। कश्मीर घाटी को खुश करने के लिए अनुच्छेद 370 का प्रावधान तो बनाया ही गया, उसे अन्य अनेक विशेष सुविधाएं भी प्रदान की गई। केंद्रीय सहायता का अधिकांश हिस्सा कश्मीर घाटी पर खर्च होता है। इसकी एक वजह जम्मू-कश्मीर शासन और प्रशासन में घाटी के लोगों का वर्चस्व होना है। 1980 के दशक में जब कश्मीर में आतंकवाद ने सिर उठाया तो वहां के कश्मीरी पंडितों को अपनी जान बचाकर भागना पड़ा। वे अभी भी जम्मू संभाग के विभिन्न इलाकों में शरणार्थी जीवन बिताने के लिए विवश है। उनकी घर वापसी की परवाह न तो राज्य सरकार कर रही है और न ही केंद्र सरकार।
कश्मीर घाटी से कश्मीरी पंडितों के पलायन के बाद कश्मीरियत का चेहरा ही बदल गया। घाटी का न केवल मुस्लिमकरण हो गया है, बल्कि वह मुस्लिम वर्चस्व वाली भी हो गई है। अब स्थिति यह है कि घाटी के इस्लामिक चरित्र की दुहाई देकर ही नेशनल कांफ्रेंस, पीडीपी और हुर्रियत कांफ्रेंस सरीखे संगठन अमरनाथ श्राइन बोर्ड को जमीन न देने की वकालत कर रहे है। यह तब है जब जमीन का आवंटन अस्थाई रूप से होना है और उसका इस्तेमाल वर्ष में महज दो माह के लिए किया जाना है। यह वन विभाग की बंजर जमीन है, जिसे न तो कोई इस्तेमाल करता है और न वहां कुछ पैदा होता है। इस जमीन पर अमरनाथ तीर्थ यात्रियों के लिए अस्थाई शिविर बनाने की योजना थी, ताकि उन्हे मौसम की मार से बचाया जा सके। घाटी के लोगों को यह भी मंजूर नहीं। इस नामंजूरी के खिलाफ ही जम्मू के लोग असंतोष से भर उठे है। वे इसलिए और गुस्से में है, क्योंकि केंद्र सरकार के साथ-साथ देश के ज्यादातर राजनीतिक दल भी उनकी भावनाओं की उपेक्षा कर रहे है।
केंद्रीय सत्ता जानबूझकर इस तथ्य की अनदेखी कर रही है कि जम्मू का आंदोलन केवल अमरनाथ संघर्ष समिति का आयोजन नहीं है और न ही यह भाजपा के नेतृत्व में चल रहा है। यह आंदोलन तो जम्मू की जनता का है। शायद इसी कारण कांग्रेस के सांसद भी एनएन वोहरा को हटाने की मांग कर रहे है। दरअसल अब जम्मू की जनता ने केंद्र सरकार से अपनी अनवरत उपेक्षा का हिसाब लेने का निश्चय कर लिया है। ये वही लोग है जो आतंकवाद के चरम दौर में भी शांत बने रहे, लेकिन अब और अधिक उपेक्षा सहन करने के लिए तैयार नहीं। जम्मू की जनता को राज्य सरकार के साथ-साथ केंद्र सरकार पर भी भरोसा नहीं। आज जो सवाल जम्मू की जनता का है वही शेष देश का भी है कि आखिर कश्मीर घाटी के अलगाववादियों का तुष्टिकरण कब तक और किस हद तक किया जाएगा? क्या पंथनिरपेक्षता का मतलब सिर्फ हिंदुओं की उपेक्षा करना है? कुछ बुद्धिजीवियों ने यह तर्क दिया है कि जब जम्मू-कश्मीर सरकार अमरनाथ तीर्थ यात्रियों की देखभाल खुद करने के लिए तैयार है तो फिर अमरनाथ श्राइन बोर्ड को जमीन की जरूरत ही क्या रह जाती है? इन बुद्धिजीवियों को यह बताना होगा कि यदि महज सौ एकड़ भूमि दो महीने के लिए श्राइन बोर्ड के पास बनी रहे तो उससे कौन सा पहाड़ टूट जाएगा? उन्हे यह पता होना चाहिए कि जब तक वैष्णो देवी जाने वाले तीर्थ यात्रियों की देखरेख का काम राज्य सरकार के हाथों में रहा तब तक वहां कैसी अराजकता और अव्यवस्था रहा करती थी? क्या ये बुद्धिजीवी यह चाहते है कि अमरनाथ तीर्थयात्री पहले की तरह अव्यवस्था भोगते रहे?
यदि केंद्र सरकार शिवराज पाटिल के नेतृत्व में सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल जम्मू भेजने के पहले यह संकेत भर दे देती कि वह अमरनाथ श्राइन बोर्ड को जमीन वापस सौंपने पर विचार करेगी तो इससे जम्मू के साथ-साथ शेष देश के हिंदुओं की आहत भावनाओं पर मरहम लगता, लेकिन उसने इस पर विचार करने से साफ इनकार कर दिया। लगता है कि उसे यदि किसी की परवाह है तो सिर्फ घाटी के अलगाववादियों की। अगर ऐसा नहीं है तो वह ऐसे संकेत क्यों दे रही है कि जम्मू और शेष देश के लोग यह भूल जाएं कि अमरनाथ श्राइन बोर्ड को कभी कोई जमीन देने का फैसला किया गया था। इस फैसले पर कश्मीर घाटी का नेतृत्व करने वाले लोगों ने जिस छोटी मानसिकता का परिचय दिया, जिसमें महबूबा मुफ्ती से लेकर फारुख अब्दुल्ला तक शामिल है उससे आम हिंदू कुपित भी है और आहत भी। वे स्वयं को अपमानित महसूस कर रहे है। जम्मू के लोग इस अपमान को सहने के लिए तैयार नहीं। हो सकता है कि जम्मू के लोगों का आंदोलन पुलिस और सेना की सख्ती के कारण थोड़ा धीमा पड़ जाए, लेकिन उनकी आहत भावनाएं राज्य के राजनीतिक परिदृश्य पर गहरा असर डालेंगी।( देनिक जागरण, ११ अगस्त २००८)

अलगाववाद को पुरस्कार

अमरनाथ मामले में अलगाववाद को पुरस्कृत और राष्ट्रवाद को तिरस्कृत होता हुआ देख रहे हैं प्रशांत मिश्र
महीने भर पहले तक शायद ही किसी ने सोचा होगा कि जम्मू का जनांदोलन इतनी जल्दी जन विद्रोह बन जाएगा। हमारे मन में यह बात घर कर गई है कि विद्रोह करने का अधिकार सिर्फ कश्मीरियों का है। हमारे लिए यह समझ पाना थोड़ा मुश्किल है कि जम्मू के लोग आखिर इस सीमा तक क्यों चले गए? जम्मू के लोगों की इतनी प्रबल नाराजगी की वजह साफ है। उन्हे समझ में आ गया कि केवल केंद्र सरकार ही नहीं बल्कि पूरी व्यवस्था कश्मीर में तुष्टिकरण के लिए सारी सीमाएं लांघ गई है। अगर जम्मू अब भी नहीं जागता तो शायद उसके स्वाभिमान को हमेशा के लिए दबा दिया जाता। जम्मूवासियों के मन में असंतोष और अपमान की आग तो पहले से ही सुलग रही थी। अमरनाथ प्रकरण ने इस आग में केवल घी डाला है। बीते दो दशक गवाह है कि कश्मीरी अपनी जायज-नाजायज मांगें मनवाते रहे है।
हर बार कुछ बुद्धिजीवियों और केंद्र के नुमांइदों का तर्क होता है कि अगर कश्मीरियों की अमुक मांग नहीं मानी गई तो वे भारत से अलग हो जाएंगे या फिर अलगाववादी उन्हे भड़काने में सफल हो जाएंगे। याद करिए जब पीडीपी के बाद जम्मू-कश्मीर में शासन की बारी कांग्रेस की आई तो दिल्ली के कथित सेक्युलर बुद्धिजीवियों ने बाकायदा अभियान छेड़ दिया कि कांग्रेस को पीडीपी को ही सत्ता में बने रहने देना चाहिए। तर्क वही पुराना था कि यदि राष्ट्रीय दल वहां सरकार बनाता है तो कश्मीर में अलगाववाद बढ़ जाएगा। अलगाववाद के भय से केंद्र सरकार कश्मीरियों की नाजायज मांगों को जितना मानती गई उतना ही कश्मीरी नेता ब्लैकमेलिंग करते गए। सब जानते है कि किस तरह कश्मीर से हिंदू भगा दिए गए, लेकिन देश-दुनिया में कहीं भी उनके मानवाधिकार का मामला नहीं उठा। कुछ देशों के दूतावासों से अलगाववादियों को भारी मात्रा में पैसा मिलता रहा ओर वे भारतीय मीडिया के प्रिय बने रहे। उनकी मदद में जिनेवा के मानवाधिकार आयोग, बीबीसी, सीएनएन और कुछ देश भी लगे रहे। कई देशों में कश्मीर या कश्मीरी लाबी है, लेकिन क्या कभी आपने जम्मू लाबी का नाम सुना है? क्या 'जे एंड के' में केवल 'के' है, 'जे' है ही नहीं। हकीकत यह है कि कश्मीर के अलगाववादियों को खुश रखने के लिए और राष्ट्रवाद के नाम पर जम्मू की अनदेखी की गई। हमारी सरकारों को हमेशा लगता रहा कि असंतुष्ट होकर भी जम्मू कहां जा सकता है। इसी मानसिकता के चलते अलगाववाद को पुरस्कार और राष्ट्रवाद को तिरस्कार मिलता रहा। अधिक जनसंख्या होने के बाद भी जम्मू का प्रतिनिधित्व कश्मीर से कम है। जम्मू पाकिस्तानी आक्रमण और आतंकवाद का पहला शिकार बनता है, लेकिन केंद्रीय सहायता कश्मीर की झोली में डाल दी जाती है। इस अवहेलना पर अगर जम्मू में यह मांग उठे कि हमें कश्मीर से अलग कर दिया जाए तो उस पर सांप्रदायिक विभाजन का आक्षेप मढ़ दिया जाता है। तब हम राष्ट्रवादी बनकर कहने लगते हैं कि जम्मू और लद्दाख के कश्मीर से जुड़े रहने से अलगाववाद कमजोर होता है। आज जम्मू के लोग तिरंगा लेकर विद्रोह कर रहे है। उनकी उचित मांगों की अब अधिक देर तक अनसुनी नहीं हो सकती। ऐसा नहीं है कि इस जन विद्रोह के पहले जम्मू में असंतोष नहीं था, हकीकत यह है कि राष्ट्रवाद के नाम पर जम्मू ने असंतोष दबा रखा था। जम्मू में जो कुछ हो रहा है वह उसके तिरस्कार का नतीजा है। जम्मू के जन विद्रोह ने देश को बताया है कि अब वह कश्मीर की धमकी देकर अपनी मांगें मनवा लेने की रणनीति सहन करने को तैयार नहीं हैं। कश्मीरियत बेपर्दा हो गई है। कश्मीर में ब्लैकमेल की राजनीति इतनी सफल है कि पीडीपी और नेशनल कांफ्रेंस भी उसका इस्तेमाल सफलता के साथ कर रहे है, लेकिन उनका दोष क्यों मानें। दोष तो केंद्र सरकार, कथित बुद्धिजीवियों और मीडिया के एक बड़े वर्ग का है जिसने कश्मीर की हर धमकी के आगे घुटने टेके। परिणाम यह हुआ कि जिन उमर फारूख और बिलाल के पिताओं को पाकिस्तान के इशारे पर मौत के घाट उतारा गया वे भी उसके नहीं,भारत के खिलाफ बोलते है। उन्हें मालूम है कि पाकिस्तान के खिलाफ बोलने में गोली मिलेगी, जबकि भारत के खिलाफ बोलने में झोली भरेगी। जम्मू विद्रोह का संदेश स्पष्ट है कि तुष्टीकरण ने कश्मीर को पाकिस्तान से बदतर बना दिया है। जिस कुलदीप डोगरा के बलिदान से यह जन आंदोलन, जन विद्रोह बना उसे सांघातिक चोट संसद में दिए उमर अब्दुल्ला के उस भाषण से लगी जिसमें कहा गया कि कश्मीरी एक इंच जमीन भी न देंगे। अमरनाथ विवाद से जम्मू की आंखें खुल गई है और अब जम्मू के आंदोलन से देश की आंखें खुलनी चाहिए। आखिर कश्मीरियों को अमरनाथ यात्रियों की अस्थाई सुविधा पर इतनी आपत्ति क्यों है जबकि उनके आने से लाभ उन्हीं को होता है। कश्मीरा सड़कों पर उतरे तो डरी हुई राज्य सरकार ने केंद्र के इशारे पर स्थाई सुविधा को वापस ले लिया। अगर कश्मीरी अलगाववादियों के सामने केंद्र सरकार ऐसे ही घुटने टेकती रही तो एक-दो साल में भारत सरकार कश्मीरियों के पाकिस्तान में मिल जाने की आशंका समाप्त करने के नाम पर अमरनाथ यात्रा पर अस्थाई रोक भी लगा सकती है। अगर जम्मू के जन विद्रोह पर ध्यान नहीं दिया गया तो आज की कल्पना कल हकीकत बन सकती है।
कश्मीर का तुष्टीकरण करके हमने कश्मीर की सद्भावपूर्ण परंपराओं को भी समाप्त कर दिया है। हमने अलगाववाद के लिए प्रीमियम देना शुरू कर दिया है। तुष्टीकरण का अंत नहीं होता। तुष्टीकरण की राजनीति का अर्थ ही यही है कि कभी संतुष्ट न हो। जब महात्मा गांधी ने जिन्ना से कहा कि अपनी मांगें बताइए, हम स्वीकार करेंगे तो जिन्ना का जवाब था, 'हमारी लेटेस्ट मांगे ये है, पर ये लास्ट नहीं हैं।' कुछ इसी तरह कश्मीरियों की हर मांग लेटेस्ट होती है, लास्ट नहीं। जब सरकारें तुष्टीकरण में अंधी हो जाती है तो जनता को आगे आना पड़ता है। जम्मू की जनता यही कर रही है। अगर हमने अब भी इसे तात्कालिक शोर समझ कर इसकी अनदेखी-अनसुनी की तो इतिहास हमें शायद ही माफ करे।(दैनिक जागरण, ११ अगस्त २००८)

Friday, August 8, 2008

आतंक से न लड़ने का सबूत

सिमी पर लगे प्रतिबंध के हटने और पुन: लगने के कारणों पर प्रकाश डाल रहे हैं सुधांशु रंजन

सिमी पर लगे प्रतिबंध को दिल्ली उच्च न्यायालय के एक ट्रिब्युनल ने पर्याप्त प्रमाण के अभाव में खारिज कर दिया, पर 15 घंटे के अंदर उच्चतम न्यायालय ने ट्रिब्युनल के आदेश पर अंतरिम रोक लगाते हुए प्रतिबंध जारी रखा। इस पूरे मामले में तीन पक्ष हैं-आतंकवाद के विरुद्ध लड़ाई में प्रशासनिक चुस्ती, प्रशासनिक संतुष्टि की न्यायिक समीक्षा एवं मामले का राजनीतिकरण। सिमी पर प्रतिबंध पहली बार 27 सितंबर 2001 में अवैध गतिविधियां निरोधक अधिनियम के तहत लगाया गया और तब से हर दो वर्ष बाद यह प्रतिबंध बढ़ाया जा रहा है। गत 7 फरवरी को केंद्र ने फिर चौथी बार इसे 2010 तक के लिए बढ़ा दिया। ट्रिब्यूनल के अनुसार सिमी के विरुद्ध दिए गए साक्ष्य प्रतिबंध के औचित्य को प्रमाणित नहीं करते। अपील में केंद्र सरकार ने उच्चतम न्यायालय में दलील दी कि ट्रिब्युनल ने न तो मंत्रिपरिषद के नोट पर विचार किया जो बंद लिफाफे में उसके समक्ष पेश किया गया और न ही 77 गवाहों के बयानों पर ध्यान दिया, जिनमें खुफिया ब्यूरो के कई वरिष्ठ अधिकारी थे। केंद्र ने अदालत से कहा कि यदि सिमी की अवैध गतिविधियों को तुरंत नियंत्रित नहीं किया गया तो संगठन विध्वंसक हरकतों के जरिये सांप्रादायिकता का जहर घोलकर देश के पंथनिरपेक्ष ताने-बाने को क्षत-विक्षत कर देगा। प्रतिबंध पर न्यायिक समीक्षा पर विचार करने के पहले सिमी की पृष्ठभूमि पर विचार करना आवश्यक है। फिलहाल वेस्टर्न इलिनॉयस विश्वविद्यालय में जन संचार के प्राध्यापक मुहम्मद अहमदुल्ला सिद्दिकी ने 25 अप्रैल 1977 को अलीगढ़ में इसकी स्थापना की थी। इसका उद्देश्य था भारत को पश्चिमी प्रभाव से मुक्त करना और उसे इस्लामी समाज में तब्दील करना। इसकी शुरुआत जमात-ए-इस्लामी के छात्र घटक के रुप में हुई पर यह गठबंधन टिक नहीं पाया, क्योंकि जमात ने इसकी विप्लवी विचारधारा खारिज कर दी। इसने भारत के खिलाफ जिहाद की घोषणा कर रखी है। इसका मकसद है हर व्यक्ति को जबर्दस्ती या हिंसा से मुसलमान बनाकर दार-उल-इस्लाम यानी इस्लाम की भूमि की स्थापना करना।

जिस संगठन का उद्देश्य खलीफा की स्थापना करना हो वह हिंसा के माध्यम से अपने कृत्यों का अंजाम देना ही चाहेगा। खिलाफत के पक्ष में आंदोलन 1920 के दशक में चला जिसे गांधीजी का पूर्ण समर्थन मिला और जिसने अली बंधुओं को भारतीय मुसलमानों को रहनुमा बना दिया, पर इतने मजबूत जनांदोलन की मौत हो गई, क्योंकि तुर्की के जिस खलीफा संस्था के पक्ष में आंदोलन चलाया जा रहा था उसे मुस्तफा कमाल पाशा ने आधुनिकीकरण की प्रक्रिया में खत्म कर दिया। सिमी को अभी रियाद के व‌र्ल्ड असेंबली आफ मुस्लिम यूथ से आर्थिक सहायता मिलती है और कुवैत के इंटरनेशनल इस्लामिक फेडरेशन आफ स्टुडेंट्स आर्गनाईजेशन से इसके गहरे संबंध है। इसे पाकिस्तान एवं शिकागो स्थित कंसल्टेटिव कमेटी आफ इंडियन मुस्लिम्स से भी आर्थिक मदद मिलती है। हिजबुल मुजाहिदीन,आईएसआई, हुजी तथा कई अन्य आतंकी संगठनों से इसके करीबी रिश्ते माने जाते हैं। सरकारी सूत्रों के अनुसार 1993 में एक सिख की गिरफ्तारी के बाद यह खुलासा हुआ कि विध्वंसक कारनामों को अंजाम देने के लिए आईएसआई ने सिमी काडर, सिख तथा कश्मीरी उग्रवादियों को एक साथ लाने का काम किया। सिमी के 400 अंसार यानी पूर्णकालिक काडर तथा 20 हजार सामान्य सदस्य हैं जिनके बीच वह लोकतंत्र, पंथनिरपेक्षता एवं राष्ट्रवाद के विरुद्ध विषवमन करता है।

सिमी की पृष्ठभूमि से यह साफ हो जाता है कि इसकी विचारधारा और गतिविधियां गैरकानूनी हैं। अनेक आतंकी घटनाओं के लिए इसे जिम्मेदार माना गया है। ऐसे में आखिर उच्च न्यायालय के ट्रिब्यूनल ने इस पर लगे प्रतिबंध को कैसे हटा दिया? यहां एक कानूनी पेंच भी नजर आता है। यदि प्रशासनिक अधिकारी तथ्यों के आधार पर संतुष्ट हैं कि किसी संगठन पर प्रतिबंध लगना चाहिए, क्योंकि उसकी गतिविधियां राष्ट्रविरोधी हैं तो क्या इस संतुष्टि की समीक्षा न्यायालय करेगा? पहले अदालत केवल यह देखती थी कि जो तथ्य हैं वे सही हैं या नहीं? उन तथ्यों के आधार पर किसी निर्णय पर पहुंचना सरकार का काम है और प्रशासनिक संतुष्टि आत्मगत हो सकती है, लेकिन बेरियम मिल मामले में न्यायिक समीक्षा के दायरे को विस्तार देते हुए उच्चतम न्यायालय ने व्यवस्था दी कि अदालत यह भी जांच करेगी कि उन तथ्यों के आधार पर उन निष्कर्र्षो तक पहुंचना कितना सही है? इस पर सवाल उठ सकता है कि यदि प्रशासन के इस तरह के निर्णय की न्यायिक समीक्षा होगी तो अपराध एवं आतंकवाद पर काबू पाना कैसे संभव होगा, किंतु इसका दूसरा पक्ष ज्यादा अहम् है। संविधान हर नागरिक को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मौलिक अधिकार देती है, जिसमें संगठन बनाना भी शामिल है। इस अधिकार में कटौती कुछ खास आधार पर ही की जा सकती है। किसी व्यक्ति के मौलिक अधिकारों की रक्षा करना न्यायपालिका की जिम्मेदारी है। अगर किसी संगठन पर सरकार दुर्भावना या राजनीतिक वजहों से प्रतिबंध लगाती है तो एक निष्पक्ष पंच की हैसियत से न्यायालय उसे खारिज करेगा। ऐसे में आतंकवाद से लड़ने में सबसे जरूरी है कि राजनीतिक नफा-नुकसान की फिक्र न करते हुए सरकार एवं राजनेता राष्ट्रहित में काम करें। दुर्भाग्य से इस मुद्दे पर भी संप्रग एकजुट नहीं हैं। कांग्रेस प्रतिबंध के पक्ष में है जबकि सपा और राजद इसके विरुद्ध। किस हद तक प्रतिबंधों का राजनीतिक इस्तेमाल हो सकता है, इसका एक उदाहरण है यूपी में मायावती के कार्यकाल में शिवपाल सिंह की सिमी कार्यकर्ता के रुप में गिरफ्तारी, जबकि सिमी के संविधान के तहत कोई गैर-मुस्लिम इसका सदस्य नहीं हो सकता। शिवपाल सिंह को इसी आधार पर न्यायालय से तुरंत जमानत मिल गई। स्पष्ट है कि आतंकवाद के विरुद्ध लड़ाई ईमानदारी से होनी चाहिए और न्यायिक कसौटी पर खरे उतरने के लिए तथ्यात्मक आधार भी पुष्ट होने चाहिए। (दैनिक जागरण, ८ अगस्त २००८)

देश को झकझोरता जम्मू

जम्मू के आंदोलन को राष्ट्रीय चेतना को झकझोरने वाला बता रहे हैं हृदयनारायण दीक्षित

जम्मू जल रहा है। जम्मू आग की आंच से दिल्ली में दहशत है। प्रधानमंत्री ने सभी दलों के नेताओं के साथ बैठक की। तय हुआ कि सर्वदलीय टीम जम्मू जाएगी, जायजा लेगी, लेकिन इससे होगा क्या? हिंदू भावना के अपमान का लावा अर्से से पूरे देश में सुलग रहा है। पहले प्रधानमंत्री ने राष्ट्रीय संपदा पर मुसलमानों का पहला अधिकार बताया, हिंदू आहत हुए। फिर केंद्र ने श्रीराम को कल्पना बताया, पूरा देश भभक उठा। सरकारें आस्था प्रतीकों का इतिहास बताने का अधिकार नहीं रखतीं। मनमोहन सरकार ने अनाधिकार चेष्टा की। उसने रामसेतु को तोड़ने का आरोप भी राम पर मढ़ दिया गया। हिंदू मन की आग फिर भभकी। हज यात्रियों को ढेर सारी सुविधांए हैं, लेकिन अमरनाथ यात्रियों के विश्राम के लिए दी गई 40 हेक्टेयर जमीन भी अलगाववादियों के बर्दास्त के बाहर हो गई। वे आंदोलन पर उतारू हुए। उनकी बेजा मांग और आंदोलन के विरूद्ध सेना नहीं बुलाई गई। उल्टे केंद्र और राज्य ने आत्मसमर्पण कर दिया, लेकिन जायज मांग वाले जनआंदोलन को कुचलने के लिए सेना भी बुलाई गई। पुलिस बल टूट पड़ा है। क‌र्फ्यू है, देखते ही गोली मारने के आदेश हैं, पुलिस और सेना की फायरिंग है। मीडिया पर पाबंदी है। मौलिक अधिकार रसातल में हैं। अघोषित आपातकाल है बावजूद इसके जनसंघर्ष जारी है।
सर्वदलीय बैठक ने समस्या का सांप्रदायिकीकरण न करने की अपेक्षा की है। सांप्रदायिक तुष्टीकरण की राजनीति ही सारे फसाद की जड़ है। बुनियादी सवाल यह है कि पंथनिरपेक्ष संविधान की पंथनिरपेक्ष सरकारें हज जैसी मजहबी यात्रा पर राजकोष लुटाती हैं तो अमरनाथ यात्रियों को मात्र 40 हेक्टेयर जमीन भी अस्थाई रूप से देने में अलगाववादियों के साथ क्यों खड़ी हो जाती हैं? जम्मू कश्मीर मंत्रिपरिषद ने ही सर्वसम्मति से जमीन देने का निर्णय लिया था। बैठक में कांग्रेस और पीडीपी के मंत्री भी शामिल थे। जमीन का एलाटमेंट अस्थाई था। यात्रा के बाद जमीन वन विभाग को लौट जानी थी। श्राइन बोर्ड वहां अस्थाई विश्राम ढांचा ही बना सकता था, लेकिन अलगाववादियों, पीडीपी और नेशनल कांफ्रेंस आदि ने दुष्प्रचार किया कि बोर्ड कश्मीर के बाहरी 'भारतीयों' के लिए आवास बना रहा है। यह भी कि कश्मीरी लोगों को खत्म करने के लिए यहां इसराइल बनाया जा रहा है। जम्मू कश्मीर विधानसभा में तद्विषयक विधेयक पर कोई विरोध नहीं हुआ। इसलिए सरकारी आदेश की वापसी आसान नहीं थी। केंद्र ने नए राज्यपाल वोहरा को मोहरा बनाया। उन्होंने बोर्ड के अध्यक्ष की हैसियत से जमीन वापस की। उन्होंने बोर्ड का संविधान नहीं माना। संविधान के मुताबिक किसी निर्णय के लिए 5 सदस्यों के कोरम की जरूरत थी। वोहरा ने सारा फैसला अकेले लिया।
भाजपा और आंदोलनकारी राज्यपाल वोहरा की वापसी चाहते हैं। केंद्र ने वोहरा को हटाने की मांग ठुकरा दी है। उसने जमीन वापसी का कोई वादा नहीं किया। केंद्र तुष्टीकरण नीति पर अडिग है। प्रधानमंत्री ने दलीय संवाद बढ़ाया है,लेकिन यह मसला दलीय असहमति या सहमति का राजनीतिक मुद्दा नहीं है। राजनाथ सिंह ने अमरनाथ जनसंघर्ष समिति से सीधी वार्ता का आग्रह किया। उन्होंने इसी मुद्दे पर 11 अगस्त से प्रस्तावित पार्टी के आंदोलन को रोकने की मांग ठुकरा दी। यह मसला समूचे विश्व के हिंदुओं, एशिया महाद्वीप और यूरोप में फैले शिव श्रद्धालुओं की आस्था से जुड़ा हुआ है। शिव विश्व आस्था हैं। लंदन विश्वविद्यालय के इतिहासविद् एएल बाशम ने दि वंडर दैट वाज इंडिया में शिव को शांति, संहार और नृत्य का देवता बताया है। गांधार से प्राप्त सिक्कों में शिव प्रतीक वृषभ पाया गया है। चीनी यात्री ह्वेनसांग ने भी शिव परंपरा की चर्चा की है। सीरिया के शिल्प में वे विद्युत-देवता है। इस सबके हजारों वर्ष पहले वे ऋग्वेद में हैं, यजुर्वेद में हैं, अथर्ववेद में भी हैं।
केंद्र समग्रता में नहीं सोचता। वोट बैंक बाधा है। जम्मू कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है, लेकिन अस्थाई अनुच्छेद 370 के जरिये कश्मीरी अलगाववाद को संवैधानिक मान्यता है। नेहरू ने इस राज्य का अलग प्रधान अलग निशान (ध्वज) और अलग विधान भी माना था। श्यामा प्रसाद मुखर्जी इसी के खिलाफ शहीद हो गये। इसके पहले आजादी (15 अगस्त 1947) के ढाई माह बाद ही पाकिस्तानी कबाइली आक्रमण हुआ। जम्मू कश्मीर का भारत में विलय हुआ। पाकिस्तानी फौजें भीतर तक घुस आर्इं। भारतीय फौजों ने दौड़ाया, पीटा। नेहरू ने युद्धविराम माना। संयुक्त राष्ट्र को मिमियाती अर्जी दी गई। तबसे ही जम्मू कश्मीर राष्ट्रीय समस्या है। पाप कांग्रेस ने किया, सजा पूरे राष्ट्र को मिली। घाटी रक्त रंजित रहती है। पाकिस्तानी सिक्के चलाने के प्रस्ताव आते हैं। पाकिस्तान जिंदाबाद होता है। बावजूद इसके फौज को हुक्म नहीं मिलता, लेकिन अमरनाथ मसले पर आंदोलित हिंदुओं के खिलाफ फौज लगी है। जम्मू का सुख और दुख भारत का सुखदुख है। जम्मू में वैष्णव देवी हैं, अमरनाथ हैं। जम्मू कश्मीर में ही पिप्पलाद हुए। विश्वविख्यात दर्शन ग्रंथ प्रश्नोपनिषद इन्हीं के आश्रम में हुई अखिल भारतीय बहस से पैदा हुआ। जम्मू का संघर्ष राष्ट्रीय उत्ताप है। समस्या को समग्रता में विचार करने की जरूरत है। यही समय है कि अलगाववादी अनुच्छेद 370 के खात्मे पर भी विचार होना चाहिए। जम्मू जनसंघर्ष को व्यापक राष्ट्रीय समर्थन मिला है। सेना और पुलिस की गोलियों से निहत्थों का टकराना ऐतिहासिक कार्रवाई है। बार-बार के अपमान से आहत हिंदू इस दफा टकरा गए हैं। जम्मू निवासी बहुत पहले से उपेक्षित और सरकार पीड़ित हैं। घाटी के अलगाववादी सरकार और प्रशासन पर भारी पड़ते हैं। सरकार उनकी हर बात मान लेती है। जम्मू और लेह के निवासी दोयम दर्जे के नागरिक हैं। निर्वासित कश्मीरी पंडित बिलख रहे हैं। इसलिए इस दफा 'लड़ो और मरो' जैसी स्थिति है। निहत्थे आंदोलनकारी लगभग एक माह से लड़ रहे हैं। आंसूगैस, सरकारी बर्बरता, गोलीबारी, क‌र्फ्यू और सेना की गोली उनमें खौफ नहीं पैदा करते। यहां मनोविज्ञान और वैज्ञानिक भौतिकवाद काम नहीं करता। सबका मन अमरनाथ हो गया है। केंद्र तुष्टिकरण के रास्ते पर है। हिंसक दमन के बावजूद निर्भीक पत्रकार मोर्चे पर हैं। केंद्र दुस्सह दमन और हिंसा को राष्ट्रीय सत्य बनने से रोक रहा है।
मुसलमान भारतीय समाज के अभिन्न अंग हैं। उनके ईद, अजान और कुरान हिंदुओं में सम्मानित हैं लेकिन हिंदुओं की अयोध्या, काशी, मथुरा और वैष्णो देवी तथा अमरनाथ कट्टरपंथियों को अखरते हैं। अमरनाथ यात्रियों पर राकेट तनते हैं? हिंदू बुतपरस्त ही सही, लेकिन अपने सीने में कुरान और पुराण का सम्मान एक साथ लेकर चलते हैं। मलाल है कि मनमोहन सिंह औरंगजेब हो रहे हैं। हिंदू मानस की प्रकृति कुचालक है। समाज के एक हिस्से का संवेदन दूसरे हिस्से तक आसानी से नहीं पहुंचता। यहां राष्ट्रवाद की करेंट है, लेकिन छद्म सेकुलरवाद की बाधाएं हैं। दुनिया के मुसलमान डेनमार्क के कार्टूनिस्ट से खफा थे, भारत के भी हुए। अमरनाथ मामले को लेकर राष्ट्र खफा है, लेकिन गुस्सा यहां फुटकर और वैयक्तिक रहता है। चूंकि बर्दाश्त की हद होती है इसीलिए इस दफा का आंदोलन ऐतिहासिक है और पूरे देश में रोष है। बहुसंख्यक वोटों के धु्रवीकरण के खतरे हैं, पर यह आंदोलन वोटवादी नहीं है। आंदोलनकारियों ने राष्ट्रीय चेतना को झकझोरने का काम पूरा किया है। (दैनिक जागरण, ८ अगस्त २००८)

Wednesday, August 6, 2008

जम्मू में केंद्र की तटस्थता

श्री अमरनाथ श्राइन बोर्ड जमीन मामले के प्रति केंद्र की उदासीनता को घातक मान रहे हैं निशिकान्त ठाकुर

श्री अमरनाथ श्राइन बोर्ड को अस्थायी निर्माण के लिए भूमि के आवंटन और फिर अलगाववादी एवं सांप्रदायिक ताकतों के दबाव में उसके निरस्तीकरण के मसले पर जम्मू में अब हालात विस्फोटक हो चुके है। आने वाले दिनों में क्या हो जाए, कुछ कहा नहीं जा सकता। ध्यान रहे, इसी मसले पर इंदौर में उग्र प्रदर्शन हो चुके है। यहां तक कि क‌र्फ्यू लगाने की नौबत भी वहां आ चुकी है। देश के दूसरे शहरों में भी इस पर शांतिपूर्ण तरीके से असंतोष जताया जा चुका है। यह अलग बात है कि शांतिपूर्ण ढंग से विरोध जताने का अब किसी सरकार के लिए कोई मतलब नहीं रह गया है। शायद यही वजह है कि जम्मू में इस मामले ने इतना तूल पकड़ा और आखिरकार यह भयावह रूप लिया। हालांकि शुरुआती दौर में वहां भी जनता शांतिपूर्ण ढंग से ही विरोध प्रदर्शन कर रही थी, पर जब पुलिस ने बल प्रयोग किया और श्री अमरनाथ संघर्ष समिति के शहीद कार्यकर्ता कुलदीप वर्मा के शव के साथ बदसलूकी की तो जनता इसे बर्दाश्त नहीं कर सकी। अब अगर लोग यह सवाल उठा रहे है कि क्या बार-बार और हर तरह से अपमानित किए जाना ही जम्मू-कश्मीर के हिंदुओं की नियति है, तो इसे गलत नहीं कहा जा सकता है।

एक मामूली भूखंड, जो साल में नौ-दस महीने तो बर्फ से ढके रहने के कारण किसी काम लायक नहीं रहता, को लेकर शुरू हुआ यह मसला अब जम्मू के लोगों की अस्मिता का सवाल बन चुका है। इस पूरे मामले और जम्मू-कश्मीर के राजनीतिक-सामाजिक इतिहास पर नजर डालें तो जाहिर हो जाता है कि श्राइन बोर्ड को भूमि आवंटन व निरस्तीकरण तथा कुलदीप के शव के अपमान के मसले ने इसमें सिर्फ घी या पेट्रोल का काम किया है। असल आग बहुत पहले से सुलगती आ रही है। तबसे जबसे जम्मू संभाग ने यह महसूस किया कि राजनीतिक तौर पर उसके साथ लगातार पक्षपात होता चला आ रहा है। यह पक्षपात उसके साथ केवल इसलिए हो रहा है कि जम्मू संभाग हिंदू बहुल है और वहां की सरकार को वहां हिंदुओं का होना ही खटक रहा है। अगर ऐसा नहीं है तो क्या कारण है कि दो राजनीतिक दलों द्वारा वहां के संविधान से 'धर्मनिरपेक्ष' शब्द बाकायदा अभियान चला कर हटवाया गया। राज्य में शरीयत कानून लागू करने संबंधी विधेयक को मंजूरी भी इन्हीं राजनीतिक दलों के कारण मिली थी। हद तो यह है कि ये दोनों दल इसके बाद भी खुद को धर्मनिरपेक्ष बताते है।

आज जम्मू की जनता बार-बार सवाल उठा रही है कि श्राइन बोर्ड को अस्थायी तौर पर भूमि आवंटन को लेकर कश्मीर में अलगाववादियों ने तोड़फोड़ से लेकर आगजनी तक सब कुछ कर डाला और तब भी वहां क‌र्फ्यू नहीं लगाया गया। जबकि यहां शांतिपूर्ण प्रदर्शन को उग्र होने के लिए मजबूर पुलिस ने किया और क‌र्फ्यू भी लगा दिया। इंसाफ का यह कौन सा तरीका है? क्या इससे अलग-अलग संभागों के बीच फर्क करने की सरकारी नीति उजागर नहीं होती है? जम्मू के लोगों का आरोप है कि आवंटित जमीन सिर्फ इसलिए वापस ली गई ताकि कश्मीर के अलगाववादी और पाकिस्तानपरस्त ताकतों को संतुष्ट किया जा सके। जम्मू के प्रदर्शनकारियों के साथ बर्बरतापूर्ण व्यवहार भी इसीलिए किया गया। इसमें कोई दो राय नहीं है कि पुलिस ऐसा बर्बरतापूर्ण दमन तब तक कर ही नहीं सकती जब तक कि उसे सरकार की ओर से इसके लिए शह न मिली हो। अब यह बात सिर्फ जम्मू ही नहीं, पूरे देश के लोग कह रहे है और यह घटना पूरे देश में असंतोष का कारण बन रही है। इस मामले में राज्यपाल एन.एन. वोहरा की भूमिका को सबसे महत्वपूर्ण माना जा रहा है और इसीलिए जनता में उनके खिलाफ बेहद आक्रोश है।

सच तो यह है कि जायज मांगों को लेकर उठे जनाक्रोश को बहुत दिनों तक दबाया नहीं जा सकता है। अभी भले ही वहां गईं उमा भारती व ऋतंभरा जैसी नेताओं को बोलने भी नहीं दिया गया, पर जनता को बहुत दिनों तक दबाया नहीं जा सकेगा। इसके लिए संघर्ष में रोज कई लोग घायल भी हो रहे है। लोगों के आक्रोश का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि अब तक सात लोग इस आंदोलन में शहीद हो चुके हैं, फिर भी लोग क‌र्फ्यू तोड़ कर धरना-प्रदर्शन कर रहे हैं। इस आंदोलन को दबाने के लिए पुलिस किस हद तक जा रही है इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि पत्रकारों को भी काम के लिए आने-जाने नहीं दिया जा रहा है और प्रेस फोटोग्राफरों के कैमरे तक तोड़ दिए जा रहे है। कुल मिलाकर इमरजेंसी जैसे हालात बना दिए गए है। इसके बावजूद जनता की शक्ति और जज्बे का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि ऐसे समय में जबकि दुकानें नहीं खुल रहीं है और लोगों को खाने-पीने की चीजें भी नहीं मिल पा रही है, तो भी भारी भीड़ प्रदर्शन के लिए निकल रही है और इसमें बच्चे-बूढ़े व स्त्रियां सभी बेधड़क शामिल हो रहे है। आम जनता की दृढ़ इच्छाशक्ति का अंदाजा लगाने के लिए यह तथ्य काफी है। हैरत की बात है कि इस पर भी केंद्र सरकार इसे राजनीतिक शिगूफेबाजी मान रही है और ऐसा सोच रही है कि थोड़े दिन चल कर यह आंदोलन अपने आप थम जाएगा।

दरअसल जम्मू की जनता यह बात लंबे अरसे से महसूस करती आ रही है कि कश्मीर के लोग अपनी मांगें मनवाने के मामले में हमेशा उन पर भारी पड़ते रहे है। इसका कारण कुछ और नहीं, केवल वहां अलगाववादियों की बहुलता और उनका उग्र होना है। उग्र न होने के ही कारण कश्मीर संभाग से अधिकतम हिंदुओं को पलायन करना पड़ा। अपने घर-खेत छोड़ कर अब वे दर-दर की ठोकरे खा रहे है और शरणार्थी बनने को विवश है। अब दूसरे राज्यों से आए मजदूर भी वहां से खदेड़े जा रहे है। हिंदू तीर्थयात्रियों और पर्यटकों पर भी अब वहां हमले किए जा रहे है। यह सब सोची-समझी साजिश के तहत किया जा रहा है।

जम्मू की जनता यह मानती है यह साजिश राजनीतिक स्तर पर भी की गई है। आखिर क्या कारण है कि क्षेत्रफल और आबादी में कश्मीर से काफी बड़ा होने के बावजूद जम्मू संभाग को लोकसभा में सिर्फ दो और विधानसभा में 37 सीटे मिली हुई है। जबकि छोटे होने के बावजूद कश्मीर संभाग को लोकसभा की तीन और विधानसभा की 46 सीटे प्राप्त है। उस पर तुर्रा यह कि यहां 2026 तक परिसीमन पर भी रोक लगा दी गई है। जम्मूवासी इसे अपने साथ राजनीतिक अन्याय का ज्वलंत उदाहरण ही नहीं, किसी बड़ी साजिश का हिस्सा भी मानते है।

सच तो यह है कि जम्मूवासियों का यह असंतोष अब बहुत गंभीर रूप लेता जा रहा है। यह स्थिति ज्यादा गंभीर इसलिए भी है कि इसी राज्य के एक और संभाग लद्दाख की जनता की सहानुभूति भी जम्मू के लोगों के साथ है। देश के बाकी हिस्सों के लोगों की भी पूरी सहानुभूति जम्मू की आम जनता के साथ है। यह और ज्यादा उग्र हो, इसके पहले बेहतर यह होगा कि केंद्र इस मामले में हस्तक्षेप करे और पूरे मामले को नए सिरे से देखते हुए सही फैसला करे। वोटबैंक और तुष्टीकरण की चिंता छोड़कर इसे भारतीय संविधान की मूल भावना के अनुरूप और राष्ट्रीय अस्मिता के सवाल के रूप में देखने की कोशिश करे। अन्यथा इसमें कोई दो राय नहीं है कि आने वाले दिनों में केंद्र की इस भयावह तटस्थता को पक्षपात से ज्यादा खतरनाक माना जाएगा।(दैनिक जागरण, ५ अगस्त २००८)

उपेक्षित और असहाय जम्मू

जम्मू के साथ नीतिगत स्तर पर किए जाने वाले भेदभाव को रेखांकित कर रहे हैं तरुण विजय

एक माह से जम्मू दहक रहा है। सेना की गश्त, गोलीबारी, क‌र्फ्य के बीच गूंजते असंतोष के स्वर। आखिर भारत में देशभक्ति की कीमत घर से उजड़ना या जान देना क्यों हैं? पहले कश्मीरी पंडितों को सिर्फ इसलिए घर से निकाल बाहर किया गया, क्योंकि वे तिरंगे के प्रति निष्ठावान थे। इससे पहले जून 1953 को श्यामा प्रसाद मुखर्जी की श्रीनगर शासन के अंतर्गत रहस्यमय परिस्थितियों में मृत्यु घोषित कर दी गई, क्योंकि वे कश्मीर में देशभक्ति का जज्बा बुलंद कर रहे थे। वे कहते थे कि जम्मू-कश्मीर में सिर्फ तिरंगा रहेगा और कोई झंडा नहीं। इस साल 23 जुलाई को 35 वर्र्षीय कुलदीप कुमार डोगरा ने देशभक्ति की आवाज बुलंद करते हुए अपनी जान दे दी। इस तरह जान देना अस्वीकार्य है, लेकिन कुलदीप के आत्मोसर्ग ने हिंदू हनन में सेक्युलर भूमिका को उजागर किया और जम्मू में एक अभूतपूर्व विरोध की लहर पैदा कर दी।

कुलदीप डोगरा की देह जम्मू कश्मीर पुलिस जबरदस्ती उठा ले गई और सुबह ढाई बजे शराब तथा टायर डालकर जलाने का प्रयास किया तो उसके गांव के लोग आ गए। आखिरकार कुलदीप की देह घरवालों को सौंपी गई। क्या मानवाधिकार वाले सिर्फ आतंकियों के अधिकारों पर बोलने का ठेका लिए हैं? जम्मू कश्मीर सरकार भारत की है या अन्य देश की? आखिर शेष देश में इसकी क्या प्रतिध्वनि हुई? ऐसा लगता है हमारी भारतीयता का समग्र फलक ही चटकने लगा है। कश्मीर के पांच लाख शरणार्थी अभी भी अपने देश में बेघर और अनाथ जैसे घूम रहे हैं। जम्मू का दृश्य बयान करना बहुत कठिन है। जो सड़कें तीर्थ यात्रियों और स्थानीय नागरिकों के आवागमन और काम-काज से भरी हुआ करती थीं आज वहां मीलों दूर तक भांय-भांय करता दहशत भरा सन्नाटा पसरा हुआ है। सैनिकों के बूटों की खट-खट आवाज कहीं-कहीं सन्नाटे को तोड़ती है। घरों में आटा नहीं है, चावल नहीं है, पानी नहीं है। खाना बनाना तक मुश्किल हो गया है। रोजमर्रा का सामान नहीं मिल रहा है। मुहल्लों के भीतर जाने पर सिर्फ फुसफुसाहटें सुनाई देती हैं। जम्मू के नागरिक अब घर में भी जोर से बोलना मानो भूल गए हैं। बाजार बंद हैं, दिलों में मातम है। सब एक सवाल पूछ रहे हैं कि जम्मू कश्मीर हिंदुस्तान का है या नहीं? अगर है तो वहां आज भी दो झंडे क्यों लहराए जाते हैं? आखिर क्यों भारतीय तीर्थ यात्रियों के लिए वह जमीन नहीं दी गई जो बंजर थी और जहां घास का एक तिनका भी नहीं उगता। इसे स्वयं जम्मू कश्मीर सरकार ने उच्च न्यायालय के निर्देश पर अमरनाथ श्राइन बोर्ड को स्थानांतरित किया था। इस जमीन पर कोई स्थायी रूप से रहने वाला नहीं था। इस जमीन का उपयोग वर्ष में सिर्फ दो महीने के लिए होने वाला था और इसका लाभ स्थानीय कश्मीरी नागरिकों को मिलने वाला था? जम्मू कश्मीर में हिंदुओं के दो बड़े तीर्थ स्थान हैं-माता वैष्णो देवी और अमरनाथजी। इन दोनों यात्राओं पर हर वर्ष करीब 70 लाख से अधिक तीर्थ यात्री जाते हैं। वे रास्ते में करोड़ों रुपये खर्च करते हैं। इसका पूरा लाभ जम्मू-कश्मीर की अर्थव्यवस्था को होता है। जिहादियों के कारण जम्मू कश्मीर में पर्यटक आने वैसे ही कम हो गए हैं। अगर हिंदू तीर्थ यात्री जम्मू कश्मीर न आएं तो वहां की सारी अर्थव्यवस्था ठप्प हो सकती है। अभी भी जम्मू-कश्मीर को शेष देश को मिलने वाले अनुदानों से औसतन दस गुना ज्यादा अनुदान और सहायता मिलती है। अपनी हर गलती का दोष वह भारत सरकार पर थोपते हैं यानी खाना भी हमारा और गुर्राना भी हम पर। पूरी रियासत के तीन हिस्से हैं-जम्मू, घाटी और लद्दाख। श्रीनगर के राजनेता न केवल अनुदान का अधिकांश हिस्सा सबसे छोटे भाग और सबसे कम जनसंख्या पर खर्च करते हैं,बल्कि जम्मू और लद्दाख के नागरिकों के साथ भेदभाव भी करते हैं। जम्मू कश्मीर का कुल वैधानिक क्षेत्रफल 222236 वर्ग किलोमीटर है। इसमें से 78114 वर्ग किमी पाकिस्तान के अवैध कब्जे में है और 37555 वर्ग किमी चीन ने कब्जाया हुआ है। लद्दाख का क्षेत्रफल 59211 वर्ग किमी और जम्मू का 26293 वर्ग किमी है। घाटी का क्षेत्रफल है 15833 वर्ग किमी। 1963 में पाकिस्तान ने अवैध कब्जे के कश्मीर में से 5180 वर्ग किमी चीन को भेंट दे दिया था। क्या आपने कभी सुना है कि कश्मीर के उन जाबांज नेताओं ने जो हिंदू तीर्थ यात्रियों को एक इंच जमीन भी न देने के लिए अराजकता फैला देते हैं, पाकिस्तानी कब्जे वाले कश्मीर को वापस लेने के लिए धरना या प्रदर्शन दिया हो? हजारों वर्ग किमी जमीन पाकिस्तान के कब्जे में चली जाए तो उस पर खामोश रहना और हिंदू तीर्थ यात्रियों के लिए जमीन देने पर जान की बाजी लगाने की धमकियां देना किस मानसिकता का द्योतक है?

जम्मू और कश्मीर घाटी में लगभग बराबर की संख्या में मतदाता हैं, लेकिन जम्मू को सिर्फ दो लोकसभा सीट दी गई हैं और घाटी को तीन। पूरे राज्य की आय का 70 प्रतिशत से अधिक जम्मू से मिलने वाले राजस्व से प्राप्त होता है और घाटी से लगभग 30 प्रतिशत, लेकिन खर्च करते समय जम्मू पर कुल राजस्व का 30 प्रतिशत खर्च किया जाता है और घाटी पर 70 प्रतिशत। लद्दाख के साथ श्रीनगर के शासकों का भेदभाव सीमातिक्रमण कर गया है। लद्दाख बौद्ध संघ ने केंद्र को ऐसे दर्जनों ज्ञापन दिए जिनमें लद्दाख के बौद्ध युवकों को परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद भी कश्मीरी प्रशासनिक सेवा में न लेने, मेडिकल, इंजीनियरिंग कालेज में दाखिला न देने जैसे भेदभाव के अनेक आरोप लगाए। सच यह है कि योजनाबद्ध तरीके से लेह के बौद्ध समाज को अल्पमत में किए जाने का षड्यंत्र चल रहा है। वास्तव में पूरे प्रदेश में ही भारत लगातार सिकुड़ता गया है। यह परिस्थिति दिल्ली के रीढ़हीन शासकों द्वारा पनपाई और बढ़ाई गई है। जम्मू कश्मीर भारत मा का भाल है। वहां का दर्द भारत का दर्द है। यदि हम वहां का दर्द नहींमहसूस करेंगे तो शेष भारत में भी बंटवारे के बीज फैलेंगे।(दैनिक जागरण ६ अगस्त २००८)


Monday, August 4, 2008

कट्टरता की घरेलू जड़ें

घरेलू संपर्क उभरने के कारण आतंकवाद की चुनौती और अधिक गंभीर होती देख रहे हैं
स्वप्न दासगुप्ता

बेंगलूर और अहमदाबाद में आतंकी हमले तथा सूरत में तबाही मचाने के लिए रखे गए बमों की बरामदगी के संदर्भ में पुलिस और आतंकवाद से लड़ रहे विशेषज्ञ एक बिंदु पर सहमत हैं। सहमति का बिंदु यह है कि इन घटनाओं तथा इसके पूर्व उत्तर प्रदेश और जयपुर में हुए बम धमाकों की जिम्मेदारी लेने वाला आतंकी संगठन इंडियन मुजाहिदीन वास्तव में पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई और सिमी व लश्कर-ए-तोएबा सरीखे संगठनों का धोखा देने वाला चेहरा है। विशेषज्ञों का नजरिया सही हो सकता है, लेकिन फिर भी कुछ तथ्य परेशान करने वाले हैं। पहला तो यह है कि लेटरहेड किसी का भी हो, जो लोग किसी घटना की जिम्मेदारी लेने वाला ई-मेल भेजते हैं वे पूरी तरह आतंकियों के संपर्क में हैं, क्योंकि उन्हें प्रत्येक घटना की पूर्व जानकारी रहती है। दूसरा बिंदु यह है कि फलस्तीन की आजादी अथवा इस्लाम का राज स्थापित करने के नाम पर लड़ रहे कुछ आतंकी सगंठनों के विपरीत इंडियन मुजाहिदीन की घोषणाएं स्थानीय मुद्दों पर आधारित हैं, मसलन मुस्लिमों के खिलाफ पुलिस की कथित बर्बरता, हिंदुओं की असहिष्णुता या भारतीय मुस्लिम के लिए न्याय का अभाव आदि। इंडियन मुजाहिदीन के प्रोपेगेंडा से संबंधित यह स्थानीय पहलू आतंकी खतरे के सर्वाधिक चिंताजनक तथ्य की ओर ले जाता है। अब इस तथ्य के लगभग अकाट्य सबूत मौजूद हैं कि बम विस्फोट करने वाले पाकिस्तान से उड़कर यहां नहीं आए। बेंगलूर और अहमदाबाद में हुए बम धमाकों की प्रकृति और सूरत में तबाही मचाने की असफल कोशिश यह बताती है कि आतंकी वारदात को अंजाम देने वाले लोग स्थानीय माहौल से परिचित हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो आतंकियों को प्रेरणा चाहे जहां से मिलती हो, आतंकी घटनाओं के सूत्रधार कोई भी हों, लेकिन वारदात को अंजाम देने वाले भारतीय ही हैं, जो अपने ही देश के लोगों को मार रहे हैं। आतंकी घटनाओं में स्थानीय मुस्लिमों की संलिप्तता के स्पष्ट सबूत एक ऐसा विषय है जिस पर ध्यान देने से जिम्मेदार राजनेता डर रहे हैं। यहां तक कि काफी मुखर माने जाने वाले गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बम धमाकों को भारत पर हमला बताने में सतर्कता बरती। केवल केंद्रीय गृह राज्य मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल ने अहमबदाबाद बम धमाकों को गोधरा बाद के दंगों से जोड़कर संकीर्ण राजनीतिक लाभ लेने की कोशिश की। कुल मिलाकर राजनीतिक वर्ग तथा सिविल सोसाइटी ने ऐसा अहसास कराने से परहेज किया कि आतंकवाद के लिए सभी भारतीय मुस्लिम सामूहिक रूप से दोषी हैं। इस सबके बावजूद यदि ईमानदारी से कहें तो आतंकी तत्व माहौल को विषाक्त बनाने में सफल रहे हैं। भारत की आतंकी समस्या को दुनिया में व्यापक इस्लामिक बगावत से जोड़ना आसान है। इसी तरह आतंकी घटना के बाद शुरुआती प्रतिक्रिया में आजादी के बाद से सबसे कमजोर गृह मंत्री कहे जा रहे शिवराज पाटिल को कोसा जा सकता है अथवा खुफिया एजेंसियों की विफलता को रेखांकित किया जा सकता है, लेकिन जो समस्या की जड़ है वह कैसे दूर होगी? सरकार को चुनाव में हराया जा सकता है, गृह मंत्री बदले जा सकते हैं अथवा खुफिया तंत्र को पेशेवर लोगों के हवाले किया जा सकता है, लेकिन क्या मुस्लिमों में कट्टरता का प्रसार इतनी आसानी से दूर नहीं हो सकता है? इसमें दो राय नहीं कि आईएसआई नेपाल, बांग्लादेश, अफगानिस्तान में तरह-तरह की विध्वंसक गतिविधियों में लिप्त है। उसकी गतिविधियां और एजेंडा स्वयं पाकिस्तान में लोकतांत्रिक राजनेताओं के लिए चिंता का विषय है। फिर भी यह गौर करना महत्वपूर्ण है कि आईएसआई ने इस्लामिक कट्टरता को पाला-पोसा ही है, उसे पैदा नहीं किया। जिसे अल कायदा वाली मानसिकता कहा जाता है उसने इस्लामिक धर्मगुरुओं के एक प्रभावशाली तबके को अपने नियंत्रण में ले लिया है। इस मानसिकता में आधुनिकता का तिरस्कार, मध्ययुगीन तौर-तरीकों की स्वीकार्यता और दूसरे धर्मो व संस्कृति के प्रति पूर्ण असहिष्णुता शामिल है। भारत उस आतंकवाद से निपट रहा है जिसमें घृणा और अमानवीयता से ग्रस्त मानसिकता घर कर गई है। आतंकी ऐसे बच्चे नहीं हैं जिन्हें नौकरी के सीमित अवसरों के कारण गुमराह कर दिया गया हो अथवा वे किसी मामले में सरकार की प्रतिक्रिया से नाखुश हों। सच तो यह है कि भारत एक वैचारिक आतंकवाद का सामना कर रहा है। इस आतंकवाद को या तो कुचल दिया जाना चाहिए या यह भारत को अशक्त, अपंग बना देगा। आतंकवाद की व्याधि ने सामान्य मुस्लिमों को परेशानी में डाल दिया है। हर बम विस्फोट के बाद वे अलग-थलग हो रहे हैं। तथाकथित परंपरागत मुस्लिम नेतृत्व यह जानता है कि आतंकवादी अपने कारनामों से उनके लिए भी खतरा उत्पन्न कर रहे हैं। कट्टर इस्लाम के समर्थक पीडि़त होने की उस खुराक के बल पर ही सशक्त हुए हैं जो वोट बैंक के लिए सत्ता प्रतिष्ठान की ओर से मुस्लिम समाज के सामने रखी जाती रही है। तथाकथित सामुदायिक नेताओं ने अंडरव‌र्ल्ड को सर चढ़ाया, 1993 में मुंबई धमाकों के दोषियों और गोधरा में कारसेवकों को जलाने वालों के पक्ष में नारे भी बुलंद किए तथा अपने निजी फायदे के लिए समुदाय के वोटों का सौदा कर दिया। अब वे खुद नहीं जानते हैं कि जिस दैत्य को उन्होंने पाला-पोसा उससे कैसे निपटा जाए। त्रासदी यह है कि शेष भारत इस पर पूरी तरह सुनिश्चित नहीं कि आगे कैसे बढ़ा जाए? हर कोई जानता है कि भारत सांप्रदायिक तनाव नहीं झेल सकता, फिर भी एक देश के रूप में हम आतंकवाद के मामले में भय तथा आरामतलबी, दोनों कारणों से पंगु से हैं। आतंकवाद से मुकाबला एक विचारधारा, एक मानसिकता से लड़ाई है, लेकिन क्या हम एक ऐसे वायरस से निपट सकते हैं जिसके अस्तित्व को स्वीकार करने से ही हम बचते हों? (दैनिक जागरण, ४ अगस्त २००८)

Wednesday, July 16, 2008

कश्मीरियत की असलियत

अमरनाथ श्राइन बोर्ड मामले को कश्मीर में हिंदू विरोधी मानसिकता का प्रमाण बता रहे हैं एस.शंकर
कश्मीरी मुस्लिम नेता कश्मीरी हिंदुओं को मार भगाने संबंधी अपना पाप छिपाने तथा शेष भारत के हिंदुओं को बरगलाने के लिए कश्मीरियत का हवाला देते है, लेकिन असंख्य बार धोखा खाकर भी हिंदू वर्ग कुछ नहीं समझता। अभी-अभी मुफ्ती मुहम्मद सईद और महबूबा मुफ्ती ने जिस तरह जम्मू-कश्मीर सरकार को गिराया वह कश्मीरियत की असलियत का नवीनतम उदाहरण है। प्रांत में तीसरे-चौथे स्थान की हस्ती होकर भी मुफ्ती और उनकी पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी ने तीन वर्ष तक मुख्यमंत्री पद रखा। विधानसभा चुनाव में पीडीपी को 13 सीटे और तीसरा स्थान मिला था, जबकि पहले स्थान पर रही कांग्रेस को 20 सीटे मिली थीं, फिर भी कांग्रेस ने पीडीपी को पहला अवसर दे दिया। कांग्रेस ने आधी-आधी अवधि के लिए दोनों पार्टियों का मुख्यमंत्री बनाने का फार्मूला माना था। जब आधी अवधि पूरी हुई तब पहले तो मुफ्ती ने समझौते का पालन करने के बजाय मुख्यमंत्री बने रहने के लिए तरह-तरह की तिकड़में कीं। अंतत: जब कांग्रेस ने अपनी बारी में अपना मुख्यमंत्री बनाना तय किया तो मुफ्ती ने 'नाराज न होने' का बयान दिया। तभी से वह किसी न किसी बहाने सरकार से हटने या उसे गिराने का मौका ढूंढ रहे थे। अमरनाथ यात्रा के यात्रियों के लिए विश्राम-स्थल बनाने के लिए भूमि देने से उन्हें बहाना मिल गया। इसीलिए उस निर्णय को वापस ले लेने के बाद भी मुफ्ती और उनकी बेटी ने सरकार गिरा दी। भारत का हिंदू कश्मीरी मुसलमानों से यह पूछने की ताब नहीं रखता कि जब देश भर में मुस्लिमों के लिए बड़े-बड़े और पक्के हज हाउस बनते रहे है, यहां तक कि हवाई अड्डों पर हज यात्रियों की सुविधा के लिए 'हज टर्मिनल' बन रहे है और सालाना सैकड़ों करोड़ रुपये की हज सब्सिडी दी जा रही है तब अमरनाथ यात्रा पर जाने वाले हिंदुओं के लिए अपने ही देश में अस्थाई विश्राम-स्थल भी न बनने देना क्या इस्लामी अहंकार, जबर्दस्ती और अलगाववाद का प्रमाण नहीं है?
चूंकि कांग्रेस और बुद्धिजीवी वर्ग के हिंदू यह प्रश्न नहीं पूछते इसलिए कश्मीरी मुसलमान शेष भारत पर धौंस जमाना अपना अधिकार मानते है। वस्तुत: इसमें इस्लामी अहंकारियों से अधिक घातक भूमिका सेकुलर-वामपंथी हिंदुओं की है। कई समाचार चैनलों ने अमरनाथ यात्रियों के विरुद्ध कश्मीरी मुसलमानों द्वारा की गई हिंसा पर सहानुभूतिपूर्वक दिखाया कि 'कश्मीर जल रहा है'। मानों मुसलमानों का रोष स्वाभाविक है, जबकि यात्री पड़ाव के लिए दी गई भूमि वापस ले लेने के बाद जम्मू में हुए आंदोलन पर एक चैनल ने कहा कि यह बीजेपी की गुंडागर्दी है। भारत के ऐसे पत्रकारों, बुद्धिजीवियों और नेताओं ने ही अलगावपरस्त और विशेषाधिकार की चाह रखने वाले मुस्लिम नेताओं की भूख बढ़ाई है। इसीलिए कश्मीरी मुसलमानों ने भारत के ऊपर धीरे-धीरे एक औपनिवेशिक धौंस कायम कर ली है। वे उदार हिंदू समाज का शुक्रगुजार होने के बजाय उसी पर अहसान जताने की भंगिमा दिखाते है। पीडीपी ने कांग्रेस के प्रति ठीक यही किया है। इस अहंकारी भंगिमा और विशेषाधिकारी मानसिकता को समझना चाहिए। यही कश्मीरी मुसलमानों की 'कश्मीरियत' है। यह मानसिकता शेष भारत अर्थात हिंदुओं का मनमाना शोषण करते हुए भी उल्टे सदैव शिकायती अंदाज रखती है। जो अंदाज छह वर्षो से मुफ्ती और महबूबा ने दिखाया वही फारुख अब्दुल्ला और उनके बेटे उमर का भी था। वाजपेयी सरकार में मंत्री रहते हुए भी उनकी पार्टी ने लोकसभा में वाजपेयी सरकार के विश्वास मत के पक्ष में वोट नहीं दिया था। वह मंत्री पद का सुख भी ले रहे थे और उस पद को देने वाले के विरोध का अंदाज भी रखते थे। जैसे अभी मुफ्ती ने कांग्रेस का दोहन किया उसी तरह जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री के रूप में फारुक अब्दुल्ला ने भाजपा का दोहन किया। पूरे पांच वर्ष वह प्रधानमंत्री वाजपेयी से मनमानी इच्छाएं पूरी कराते रहे। जम्मू और लद्दाख क्षेत्र कश्मीरी मुसलमानों की अहमन्यता और शोषण का शिकार रहा है।
जम्मू और लद्दाख भारत का पूर्ण अंग बनकर रहना चाहते है। इन क्षेत्रों को स्वायत्त क्षेत्र या केंद्र शासित प्रदेश बनाने की मांग लंबे समय से स्वयं भाजपा करती रही। फिर भी केंद्र में छह साल शासन में रहकर भी उसने फारुक अब्दुल्ला को खुश रखने के लिए जम्मू और लद्दाख की पूरी उपेक्षा कर दी। यहां तक कि पिछले विधानसभा चुनाव में फारुक अब्दुल्ला को जिताने की खातिर भाजपा ने जम्मू-कश्मीर में गंभीरता से चुनाव ही नहीं लड़ा। बावजूद इसके जैसे ही लोकसभा चुनाव में भाजपा गठबंधन पराजित हुआ, फारुख ने उससे तुरंत पल्ला झाड़ लिया। इस मानसिकता को समझे बिना कश्मीरी मुसलमानों को समझना असंभव है। वाजपेयी सरकार के दौरान एक तरफ फारुख अब्दुल्ला ने तरह-तरह की योजनाओं के लिए केंद्र से भरपूर सहायता ली, जबकि उसी बीच जम्मू-कश्मीर विधानसभा में राज्य की 'और अधिक स्वायत्तता' के लिए प्रस्ताव पारित कराया। एक तरह से यह वाजपेयी के साथ विश्वासघात जैसा ही था। यदि वह प्रस्ताव लागू हो तो जम्मू-कश्मीर में मुख्यमंत्री नहीं, बल्कि प्रधानमंत्री होगा। साथ ही वे तमाम चीजें होंगी जो उसे लगभग एक स्वतंत्र देश बना देंगी,मगर उसके सारे तामझाम, ठाट-बाट, सुरक्षा से लेकर विकास तक का पूरा खर्चा शेष भारत को उठाते रहना होगा। इस तरह कश्मीरी मुसलमान एक ओर भारत से अलग भी रहना चाहते है और दूसरी तरफ इसी भारत के गृहमंत्री, उपराष्ट्रपति, राष्ट्रपति और मौका मिले तो प्रधानमंत्री भी होना चाहते है। मुफ्ती मुहम्मद सईद, फारुख अब्दुल्ला, उमर अब्दुल्ला तथा अन्य कश्मीरी मुस्लिम नेताओं के तमाम राजनीतिक लटके-झटके केवल एक भाव दर्शाते है कि वे भारत से खुश नहीं है। यही कश्मीरियत की असलियत है। कश्मीरी मुस्लिम नेतै, चाहे वे किसी भी राजनीतिक धारा के हों, शेष भारतवासियों को बिना कुछ दिए उनसे सिर्फ लेते रहना चाहते है। इस मनोविज्ञान को समझना और इसका इलाज करना बहुत जरूरी है, अन्यथा विस्थापित कश्मीरी हिंदू लेखिका क्षमा कौल के अनुसार पूरे भारत का हश्र कश्मीर जैसा हो जाएगा। दैनिक जागरण, 16 जुलाई 2008)