बांग्लादेश के आतंकियों-घुसपैठियों की अनदेखी को देशघाती मान रहे हैं संजय गुप्त
दैनिक जागरण, १ नवम्बर २००८, असम में हुए श्रृंखलाबद्ध बम विस्फोटों ने एक बार फिर आंतरिक सुरक्षा की पोल खोल कर रख दी। आतंकवाद दिन-प्रतिदिन वहशी होता जा रहा है, लेकिन हमारे राजनेता उस पर काबू पाने में पहले से अधिक नाकाम है। अब आतंकी देश के किसी भी हिस्से में बिना किसी भय के विस्फोट करने में कामयाब है। बेलगाम आतंकवाद को देखते हुए पुलिस और खुफिया विभाग की कार्यप्रणाली में आमूल-चूल परिवर्तन की आवश्यकता एक लंबे अर्से से महसूस की जा रही है, लेकिन कहीं कोई बदलाव होता नहीं दिखता। आंतरिक सुरक्षा का मौजूदा ढांचा इतना गया-बीता है कि उसके बल पर आतंकवाद को नियंत्रित नहीं किया जा सकता। रही-सही कसर पुलिस और खुफिया एजेंसियों के कामकाज में राजनेताओं के हस्तक्षेप और भ्रष्टाचार ने पूरी कर दी है। आज जब पुलिस को समाज की सुरक्षा के लिए कमर कस कर खड़ा होना चाहिए तब वह नेताओं के इशारों पर काम करने के लिए मजबूर है। बड़ी संख्या में पुलिस अधिकारी अच्छी तैनाती पाने के लिए नेताओं के चक्कर काटते देखे जा सकते है। जब उनका अधिकांश समय नेताओं की जी-हुजूरी करने में बीतेगा तब फिर वे कानून एवं व्यवस्था की ओर ध्यान कैसे दे सकते है?
असम के बम विस्फोटों के लिए पुलिस और खुफिया एजेंसियों की चूक से इनकार नहीं किया जा सकता, लेकिन यदि अतीत में जाया जाए तो पता चलेगा कि यह पूरा क्षेत्र हमेशा से अशात रहा है। राजनीतिज्ञों ने समाज को सही दिशा नहीं दी और उसके चलते अलगाववादी संगठन सक्रिय बने रहे, जिनमें यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट आफ असम यानी उल्फा प्रमुख है। यहां उल्फा के अलावा कई अन्य अलगाववादी एवं उग्रवादी संगठन सक्रिय है। असम में बांग्लादेशी घुसपैठियों की संख्या लगातार बढ़ रही है। अवैध रूप से असम में आ बसे इन नागरिकों ने ऐसे संगठन भी बना लिए है जो शांति व्यवस्था के लिए खतरा है। असम में बांग्लादेश आधारित संगठन हरकत-उल-जिहाद-अल इस्लामी अर्थात हुजी भी सक्रिय है। यह वही संगठन है जिसने कुछ समय पहले बांग्लादेश में एक ही दिन सैकड़ोंविस्फोट किए थे। भारत में अनेक आतंकी वारदातों में इसी संगठन का हाथ माना गया है। असम में बम विस्फोटों के लिए हुजी और उल्फा को जिम्मेदार माना जा रहा है। यद्यपि इन बम विस्फोटों की जिम्मेदारी एक गुमनाम से संगठन इस्लामिक सिक्योरिटी फोर्स-इंडियन मुजाहिदीन ने ली है, लेकिन उसका दावा गुमराह करने वाला भी हो सकता है। उल्फा ने इन बम विस्फोटों में अपना हाथ होने से इनकार किया है, लेकिन उस पर भरोसा करने का कोई कारण नहीं। जब तक बम विस्फोटों की जांच रपट सामने नहीं आ जाती तब तक किसी के दावे पर यकीन नहीं किया जा सकता।
पिछले कुछ दशकों में बांग्लादेशी नागरिकों ने असम के सामाजिक चरित्र को इतना बदल दिया है कि राज्य के मूल निवासी खुद को असुरक्षित महसूस कर रहे है। मूल निवासियों और बांग्लादेशियों में रह रहकर टकराव भी होता है। पिछले माह बोडो आदिवासियों व बांग्लादेशियों के बीच हुए टकराव में करीब 50 लोग मारे गए थे और दो लाख लोगों को पलायन करना पड़ा था। एक समय असम गण परिषद ने बांग्लादेशियों को निकालने का आंदोलन छेड़ा था, लेकिन सत्ता में आने के बाद उसने उन्हे अपना वोट बैंक बनाना बेहतर समझा। कांग्रेस और वाम दल पहले से ही उन्हें अपना वोट बैंक बनाने की राजनीति कर रहे है। इसी कारण बांग्लादेश से होने वाली घुसपैठ पर लगाम नहीं लग रही। बांग्लादेशी असम के साथ-साथ पूर्वोत्तार के अन्य राज्यों और प.बंगाल में भी अच्छी खासी संख्या में है। उन्होंने मतदाता पहचान पत्र भी हासिल कर लिए है। वे कई विधानसभा क्षेत्रों में निर्णायक स्थिति में भी आ गए है। बांग्लादेशियों के प्रति राजनीतिक दलों के नरम रवैये का परिणाम यह है कि वे अन्य राज्यों और राजधानी दिल्ली में भी बढ़ते जा रहे है। वे सामान्य अपराधों से लेकर आतंकी घटनाओं में शामिल पाए गए है, पर उन्हे वोट बैंक बनाने की राजनीति जारी है। अब तो कुछ दल उनकी खुली वकालत करने लगे है।
भले ही बांग्लादेश से होने वाली घुसपैठ रोकने के लिए सीमा पर चौकसी बरतने का दावा किया जाता हो, लेकिन सीमा सुरक्षा बल उस पर पूरी तौर पर लगाम लगाने में सक्षम नहीं। यह स्वीकारोक्ति और किसी ने नहीं, हाल में सीमा सुरक्षा सुरक्षा बल के सेवानिवृत्ता महानिदेशक ने की थी। यह आश्चर्य की बात है कि चाहे पाकिस्तान से लगी सीमा हो या बांग्लादेश से-सीमा सुरक्षा बल घुसपैठ रोकने में समर्थ नहीं। सीमावर्ती राज्य सरकारे और केंद्रीय सत्ता ऐसे उपाय करने के लिए तैयार नहीं जिनसे सीमाओं को वास्तव में अभेद्य बनाया जा सके। घुसपैठ और विशेष रूप से बांग्लादेश से होने वाली घुसपैठ पर राजनीतिक दलों के शुतुरमुर्गी रवैये ने हुजी सरीखे आतंकी संगठनों और उन्हे बढ़ावा देने वाली आईएसआई जैसी संस्थाओं का काम आसान कर दिया है। चाहे बांग्लादेश के आतंकी संगठन हों अथवा पाकिस्तान के, वे भारत को आर्थिक महाशक्ति बनने देने के लिए तैयार नहीं। अब तो सीमा पार के आतंकी संगठन देश के युवकों को गुमराह करने में जुट गए है। राजनीतिक दलों का रवैया उनके लिए मददगार साबित हो रहा है। हमारे ज्यादातर राजनीतिक दल जिसमें कांग्रेस से लेकर अनेक क्षेत्रीय दल शामिल है, आतंकवाद से लड़ने के लिए किसी भी स्तर पर तत्पर नहीं दिखते। इन दलों को यह भय सताता रहता है कि यदि आतंकवाद को नियंत्रित करने के लिए कोई कठोर कदम उठाए गए तो उनके वोट बैंक पर असर पड़ सकता है। ऐसे दल मुस्लिम समाज को अपना सबसे बड़ा वोट बैंक समझते है। समस्या यह है कि मुस्लिम समाज यह समझने के लिए तैयार नहीं कि उसके कथित हितैषी राजनीतिक दल उसका इस्तेमाल कर रहे हैं।
आज जब राजनीतिक दल हुजी, सिमी और इंडियन मुजाहिदीन जैसे संगठनों के प्रति नरमी बरत रहे है तब कुछ हिंदू संगठनों के भी आतंकी रास्ते पर चलने की बात सामने आ रही है। यदि यह सिद्ध हो जाता है कि मालेगांव विस्फोट के लिए कथित हिंदू संगठन ही जिम्मेदार है तो इससे अधिक दुर्भाग्यपूर्ण और कुछ नहीं होगा। हिंदू युवकों का आतंक के रास्ते पर चलना यह साबित करने के लिए पर्याप्त है कि आतंकवाद को किसी पंथ या समुदाय विशेष से नहीं जोड़ा जा सकता। यदि राजनीतिक-सामाजिक कारणों से समाज का एक वर्ग दूसरे वर्ग को चोट पहुंचाने की कोशिश करेगा तो इससे देश में अराजकता बढ़ेगी। यह सही समय है जब वोट बैंक की परवाह किए बगैर आतंकवाद को नियंत्रित करने के ठोस कदम उठाए जाएं। ऐसा न करने का अर्थ होगा विघटन और अराजकता को बढ़ावा देने की स्थितियां पैदा करना तथा समाज में दहशत का माहौल कायम होने देना। ध्यान रहे कि जो समाज भय और आतंक के साये में जीता है वह कभी प्रगति नहीं कर पाता। आज जो देश आतंकवाद पर काबू पाने में समर्थ नहीं और जहां आतंकी संगठन दहशत फैलाने में कामयाब है वे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नरम अथवा विफल राष्ट्र समझे जा रहे है। बेहतर होगा कि देश के सभी राजनीतिक दल वोट बैंक की राजनीति के साथ-साथ कोरी बयानबाजी से ऊपर उठें और आतंकवाद को सबसे बड़े खतरे के रूप में देखकर उसके सफाए के लिए वास्तव में कमर कसें।
असम के बम विस्फोटों के लिए पुलिस और खुफिया एजेंसियों की चूक से इनकार नहीं किया जा सकता, लेकिन यदि अतीत में जाया जाए तो पता चलेगा कि यह पूरा क्षेत्र हमेशा से अशात रहा है। राजनीतिज्ञों ने समाज को सही दिशा नहीं दी और उसके चलते अलगाववादी संगठन सक्रिय बने रहे, जिनमें यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट आफ असम यानी उल्फा प्रमुख है। यहां उल्फा के अलावा कई अन्य अलगाववादी एवं उग्रवादी संगठन सक्रिय है। असम में बांग्लादेशी घुसपैठियों की संख्या लगातार बढ़ रही है। अवैध रूप से असम में आ बसे इन नागरिकों ने ऐसे संगठन भी बना लिए है जो शांति व्यवस्था के लिए खतरा है। असम में बांग्लादेश आधारित संगठन हरकत-उल-जिहाद-अल इस्लामी अर्थात हुजी भी सक्रिय है। यह वही संगठन है जिसने कुछ समय पहले बांग्लादेश में एक ही दिन सैकड़ोंविस्फोट किए थे। भारत में अनेक आतंकी वारदातों में इसी संगठन का हाथ माना गया है। असम में बम विस्फोटों के लिए हुजी और उल्फा को जिम्मेदार माना जा रहा है। यद्यपि इन बम विस्फोटों की जिम्मेदारी एक गुमनाम से संगठन इस्लामिक सिक्योरिटी फोर्स-इंडियन मुजाहिदीन ने ली है, लेकिन उसका दावा गुमराह करने वाला भी हो सकता है। उल्फा ने इन बम विस्फोटों में अपना हाथ होने से इनकार किया है, लेकिन उस पर भरोसा करने का कोई कारण नहीं। जब तक बम विस्फोटों की जांच रपट सामने नहीं आ जाती तब तक किसी के दावे पर यकीन नहीं किया जा सकता।
पिछले कुछ दशकों में बांग्लादेशी नागरिकों ने असम के सामाजिक चरित्र को इतना बदल दिया है कि राज्य के मूल निवासी खुद को असुरक्षित महसूस कर रहे है। मूल निवासियों और बांग्लादेशियों में रह रहकर टकराव भी होता है। पिछले माह बोडो आदिवासियों व बांग्लादेशियों के बीच हुए टकराव में करीब 50 लोग मारे गए थे और दो लाख लोगों को पलायन करना पड़ा था। एक समय असम गण परिषद ने बांग्लादेशियों को निकालने का आंदोलन छेड़ा था, लेकिन सत्ता में आने के बाद उसने उन्हे अपना वोट बैंक बनाना बेहतर समझा। कांग्रेस और वाम दल पहले से ही उन्हें अपना वोट बैंक बनाने की राजनीति कर रहे है। इसी कारण बांग्लादेश से होने वाली घुसपैठ पर लगाम नहीं लग रही। बांग्लादेशी असम के साथ-साथ पूर्वोत्तार के अन्य राज्यों और प.बंगाल में भी अच्छी खासी संख्या में है। उन्होंने मतदाता पहचान पत्र भी हासिल कर लिए है। वे कई विधानसभा क्षेत्रों में निर्णायक स्थिति में भी आ गए है। बांग्लादेशियों के प्रति राजनीतिक दलों के नरम रवैये का परिणाम यह है कि वे अन्य राज्यों और राजधानी दिल्ली में भी बढ़ते जा रहे है। वे सामान्य अपराधों से लेकर आतंकी घटनाओं में शामिल पाए गए है, पर उन्हे वोट बैंक बनाने की राजनीति जारी है। अब तो कुछ दल उनकी खुली वकालत करने लगे है।
भले ही बांग्लादेश से होने वाली घुसपैठ रोकने के लिए सीमा पर चौकसी बरतने का दावा किया जाता हो, लेकिन सीमा सुरक्षा बल उस पर पूरी तौर पर लगाम लगाने में सक्षम नहीं। यह स्वीकारोक्ति और किसी ने नहीं, हाल में सीमा सुरक्षा सुरक्षा बल के सेवानिवृत्ता महानिदेशक ने की थी। यह आश्चर्य की बात है कि चाहे पाकिस्तान से लगी सीमा हो या बांग्लादेश से-सीमा सुरक्षा बल घुसपैठ रोकने में समर्थ नहीं। सीमावर्ती राज्य सरकारे और केंद्रीय सत्ता ऐसे उपाय करने के लिए तैयार नहीं जिनसे सीमाओं को वास्तव में अभेद्य बनाया जा सके। घुसपैठ और विशेष रूप से बांग्लादेश से होने वाली घुसपैठ पर राजनीतिक दलों के शुतुरमुर्गी रवैये ने हुजी सरीखे आतंकी संगठनों और उन्हे बढ़ावा देने वाली आईएसआई जैसी संस्थाओं का काम आसान कर दिया है। चाहे बांग्लादेश के आतंकी संगठन हों अथवा पाकिस्तान के, वे भारत को आर्थिक महाशक्ति बनने देने के लिए तैयार नहीं। अब तो सीमा पार के आतंकी संगठन देश के युवकों को गुमराह करने में जुट गए है। राजनीतिक दलों का रवैया उनके लिए मददगार साबित हो रहा है। हमारे ज्यादातर राजनीतिक दल जिसमें कांग्रेस से लेकर अनेक क्षेत्रीय दल शामिल है, आतंकवाद से लड़ने के लिए किसी भी स्तर पर तत्पर नहीं दिखते। इन दलों को यह भय सताता रहता है कि यदि आतंकवाद को नियंत्रित करने के लिए कोई कठोर कदम उठाए गए तो उनके वोट बैंक पर असर पड़ सकता है। ऐसे दल मुस्लिम समाज को अपना सबसे बड़ा वोट बैंक समझते है। समस्या यह है कि मुस्लिम समाज यह समझने के लिए तैयार नहीं कि उसके कथित हितैषी राजनीतिक दल उसका इस्तेमाल कर रहे हैं।
आज जब राजनीतिक दल हुजी, सिमी और इंडियन मुजाहिदीन जैसे संगठनों के प्रति नरमी बरत रहे है तब कुछ हिंदू संगठनों के भी आतंकी रास्ते पर चलने की बात सामने आ रही है। यदि यह सिद्ध हो जाता है कि मालेगांव विस्फोट के लिए कथित हिंदू संगठन ही जिम्मेदार है तो इससे अधिक दुर्भाग्यपूर्ण और कुछ नहीं होगा। हिंदू युवकों का आतंक के रास्ते पर चलना यह साबित करने के लिए पर्याप्त है कि आतंकवाद को किसी पंथ या समुदाय विशेष से नहीं जोड़ा जा सकता। यदि राजनीतिक-सामाजिक कारणों से समाज का एक वर्ग दूसरे वर्ग को चोट पहुंचाने की कोशिश करेगा तो इससे देश में अराजकता बढ़ेगी। यह सही समय है जब वोट बैंक की परवाह किए बगैर आतंकवाद को नियंत्रित करने के ठोस कदम उठाए जाएं। ऐसा न करने का अर्थ होगा विघटन और अराजकता को बढ़ावा देने की स्थितियां पैदा करना तथा समाज में दहशत का माहौल कायम होने देना। ध्यान रहे कि जो समाज भय और आतंक के साये में जीता है वह कभी प्रगति नहीं कर पाता। आज जो देश आतंकवाद पर काबू पाने में समर्थ नहीं और जहां आतंकी संगठन दहशत फैलाने में कामयाब है वे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नरम अथवा विफल राष्ट्र समझे जा रहे है। बेहतर होगा कि देश के सभी राजनीतिक दल वोट बैंक की राजनीति के साथ-साथ कोरी बयानबाजी से ऊपर उठें और आतंकवाद को सबसे बड़े खतरे के रूप में देखकर उसके सफाए के लिए वास्तव में कमर कसें।
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