दैनिक जागरण, ३१ अक्टूबर २००८, पिछले दिनों एक राष्ट्रीय दैनिक में खबर छपी कि आजमगढ़ में मुस्लिम पोलिटिकल काउंसिल ने सरदार पटेल को आतंकवादी बताया। इससे बेतुकी बात और कोई हो ही नहीं सकती। यह शायद केवल हमारे देश में संभव है कि स्वतंत्रता संग्राम के महानतम नेताओं और आधुनिक भारत के महानतम निर्माताओं में से एक के खिलाफ इस तरह के वाहियात और बेसिरपैर के आरोप मढ़े जा सकते हैं। अकसर भुला दिया जाता है कि पटेल संविधान सभा की अल्पसंख्यक उप समिति के अध्यक्ष थे। हमारे संविधान में अल्पसंख्यकों को प्राप्त भाषाई और सांस्कृतिक अधिकार संबंधी उदार प्रावधान उनकी सर्वग्राह्यं स्वीकार्यता को दर्शाते हैं। पटेल की पंथनिरपेक्षता में गांधीजी का अटूट विश्वास 24 अक्टूबर, 1924 को लिखे गए पत्र से स्पष्ट हो जाता है। यह पत्र महादेव देसाई ने सरदार पटेल के नाम तब लिखा था जब गांधीजी हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए 21 दिन के उपवास पर थे। महादेव लिखते हैं, ''गुजरात में हिंदू-मुस्लिम मोर्चे पर जो भी हो, जब तक आप वहां हैं, गांधीजी निश्चिंत हैं। अगर आपकी उपस्थिति के बाद भी वहां तूफान आता है तो बापू मान लेंगे कि उसे रोक पाना संभव नहीं था।'' आजाद भारत में ऐसा कोई नहीं है जिसने इतने कम समय में इतने अधिक क्षेत्रों में इतनी उपलब्धियां हासिल की हों, जितनी सरदार पटेल ने की। उनकी मृत्यु पर मैनचेस्टर गार्जियन ने लिखा, ''पटेल के बिना गांधी के विचार इतने प्रभावशाली नहीं होते तथा नेहरू के आदर्शवाद का इतना विस्तार नहीं होता। वह न केवल स्वतंत्रता संग्राम के संगठनकर्ता, बल्कि नए राष्ट्र के निर्माता भी थे। कोई व्यक्ति एक साथ विद्रोही और राष्ट्र निर्माता के रूप में शायद ही सफल होता है। सरदार पटेल इसके अपवाद थे।'' सरदार पटेल द्वारा 561 रियासतों को एक राष्ट्र में मिलाना यथार्थवाद और उत्तारदायित्व बोध की विजय है। इस महती कार्य के कारण उनकी तुलना चांसलर बिस्मार्क से की जाती है, जिन्होंने 19वीं सदी में जर्मनी को एकता के सूत्र में बांधा था, किंतु पटेल की उपलब्धियां बिस्मार्क से बढ़कर हैं।
बिस्मार्क को कुल दर्जनभर राज्यों से निपटना पड़ा था, जबकि पटेल ने 561 रियासतों का मसला सुलझाया। बिस्मार्क ने खून-खराबे के बल पर कार्य को अंजाम दिया, पटेल ने रक्तरहित क्रांति की। उन्होंने लोगों और अवसरों से निपटने में गजब की कार्य कुशलता का परिचय दिया। जब लोहा गरम था तभी चोट की। उन्होंने आठ लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल तथा 8.6 करोड़ लोगों को भारतीय संघ में मिलाया। गांधीजी और लार्ड माउंटबेटन दोनों ने पटेल के महान योगदान की भूरि-भूरि सराहना की। गांधीजी ने कहा था कि रियासतों से निपटने का कार्य वास्तव में बहुत बड़ा था। मुझे पक्का विश्वास है कि पटेल के अलावा कोई अन्य इस काम को अंजाम नहीं दे सकता था। पटेल को 19 जून, 1948 को लिखे पत्र में लार्ड माउंटबेटन ने कहा था, ''इसमें शक नहीं है कि वर्तमान सरकार की सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि रियासतों को भारतीय भूभाग में मिलाना था। अगर आप इसमें विफल हो जाते तो इसके भयावह परिणाम निकलते.सरकार की प्रतिष्ठा बढ़ाने में कोई अन्य इतना अहम योगदान नहीं दे सकता था, जितना योगदान राज्यों के संबंध में आपकी शानदार नीतियों ने दिया।'' पटेल ने पहले भारत को एक सूत्र में बांधने की शानदार योजना बनाई और फिर वह इसे मूर्त रूप देने की दिशा में दृढ़ता से आगे बढ़े। उन्होंने रियासतों में देशभक्ति का जज्बा पैदा किया और उन्हें याद दिलाया, ''हम भारत के इतिहास के महत्वपूर्ण दौर में हैं। एक सामूहिक प्रयास से हम देश को नई ऊंचाइयों तक पहुंचा सकते हैं। जबकि एकता के अभाव में हमें नई विपदाओं का सामना करना पड़ेगा।'' उन्होंने यह भी ध्यान रखा कि विद्रोह की सुगबुगाहट न होने पाए। उन्होंने भोपाल के नवाब की यह सलाह अस्वीकार कर दी कि कुछ राज्यों का समूह बनाकर उन्हें स्वतंत्र उपनिवेश के रूप में मान्यता दे दी जाए।
जब भारत के निंदक विंस्टन चर्चिल ने हैदराबाद के निजाम के विभाजनकारी खेल को यह कहकर बढ़ावा दिया कि यह साम्राज्य का पुराना और विश्वासपात्र सहयोगी है तो पटेल ने कहा, ''चर्चिल की दुर्भावना और विषभुजी जबान से नहीं, बल्कि सद्भाव से ही भारत के ब्रिटेन और राष्ट्रमंडल के अन्य सदस्यों से चिरस्थायी संबंध बनेंगे।'' उनका संदेश काम कर गया और भारत के मामलों में नुक्ताचीनी बंद हो गई। अलग-अलग तरह की रियासतों को भारत में मिलाने के बेहद जटिल मुद्दे पर पटेल के नजरिये में दृष्टि, चातुर्य, उदारता, दृढ़निश्चय और परिपक्व व्यावहार्यता का समावेश था। जब 1956 में निकिता ºुश्चेव भारत के दौरे पर आए तो उन्होंने खास तौर पर कहा, ''आपने रजवाड़ों को मिटाए बिना ही रियासतों को मिटा दिया।'' अगर जम्मू-कश्मीर भी पटेल को सौंप दिया जाता तो भ्रम और अंतर्विरोध पैदा नहीं होते और हम आज जिस क्रूरता के शिकार बन रहे हैं उससे बच जाते। पटेल ने शेख अब्दुल्ला का धौंसपट्टी का रुझान भांप लिया था और उन पर सही ढंग से काबू पाया। उन्हें कश्मीर मुद्दे को संयुक्त राष्ट्र में ले जाने का पछतावा था। उन्होंने 28 अक्टूबर, 1947 को पंडित नेहरू के रेडियो पर प्रसारित भाषण से 'संयुक्त राष्ट्र के तत्वावधान में जनमत संग्रह' शब्द हटाने का पुरजोर प्रयास किया। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान इंडियन सिविल सर्विस दूसरे पक्ष के साथ थी। इस कारण यह कांग्रेसी नेताओं का कोपभाजन बनी हुई थी। नेहरू इसे न भारतीय, न नागरिक, न सेवा कहकर फटकारते थे। एक बार फिर पटेल की रचनात्मक प्रतिभा काम आई और उन्होंने मामले को संतोषजनक तरीके से निपटा दिया। पटेल सार्वजनिक जीवन में ईमानदारी का पर्याय थे। मरणोपरांत उनके पास जो संपत्तिमिली उसमें धोती, कुर्ता और एक सूटकेस था। आज भारत में हालात काबू से बाहर हो रहे हैं और भारतीय संघ लड़खड़ा रहा है। ऐसे में राष्ट्रीय नेतृत्व को पटेल की रचनात्मक दृष्टि और दृढ़ता को अपनाना चाहिए, जो उन्होंने इतिहास के नाजुक मोड़ पर दिखाई थी।
बिस्मार्क को कुल दर्जनभर राज्यों से निपटना पड़ा था, जबकि पटेल ने 561 रियासतों का मसला सुलझाया। बिस्मार्क ने खून-खराबे के बल पर कार्य को अंजाम दिया, पटेल ने रक्तरहित क्रांति की। उन्होंने लोगों और अवसरों से निपटने में गजब की कार्य कुशलता का परिचय दिया। जब लोहा गरम था तभी चोट की। उन्होंने आठ लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल तथा 8.6 करोड़ लोगों को भारतीय संघ में मिलाया। गांधीजी और लार्ड माउंटबेटन दोनों ने पटेल के महान योगदान की भूरि-भूरि सराहना की। गांधीजी ने कहा था कि रियासतों से निपटने का कार्य वास्तव में बहुत बड़ा था। मुझे पक्का विश्वास है कि पटेल के अलावा कोई अन्य इस काम को अंजाम नहीं दे सकता था। पटेल को 19 जून, 1948 को लिखे पत्र में लार्ड माउंटबेटन ने कहा था, ''इसमें शक नहीं है कि वर्तमान सरकार की सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि रियासतों को भारतीय भूभाग में मिलाना था। अगर आप इसमें विफल हो जाते तो इसके भयावह परिणाम निकलते.सरकार की प्रतिष्ठा बढ़ाने में कोई अन्य इतना अहम योगदान नहीं दे सकता था, जितना योगदान राज्यों के संबंध में आपकी शानदार नीतियों ने दिया।'' पटेल ने पहले भारत को एक सूत्र में बांधने की शानदार योजना बनाई और फिर वह इसे मूर्त रूप देने की दिशा में दृढ़ता से आगे बढ़े। उन्होंने रियासतों में देशभक्ति का जज्बा पैदा किया और उन्हें याद दिलाया, ''हम भारत के इतिहास के महत्वपूर्ण दौर में हैं। एक सामूहिक प्रयास से हम देश को नई ऊंचाइयों तक पहुंचा सकते हैं। जबकि एकता के अभाव में हमें नई विपदाओं का सामना करना पड़ेगा।'' उन्होंने यह भी ध्यान रखा कि विद्रोह की सुगबुगाहट न होने पाए। उन्होंने भोपाल के नवाब की यह सलाह अस्वीकार कर दी कि कुछ राज्यों का समूह बनाकर उन्हें स्वतंत्र उपनिवेश के रूप में मान्यता दे दी जाए।
जब भारत के निंदक विंस्टन चर्चिल ने हैदराबाद के निजाम के विभाजनकारी खेल को यह कहकर बढ़ावा दिया कि यह साम्राज्य का पुराना और विश्वासपात्र सहयोगी है तो पटेल ने कहा, ''चर्चिल की दुर्भावना और विषभुजी जबान से नहीं, बल्कि सद्भाव से ही भारत के ब्रिटेन और राष्ट्रमंडल के अन्य सदस्यों से चिरस्थायी संबंध बनेंगे।'' उनका संदेश काम कर गया और भारत के मामलों में नुक्ताचीनी बंद हो गई। अलग-अलग तरह की रियासतों को भारत में मिलाने के बेहद जटिल मुद्दे पर पटेल के नजरिये में दृष्टि, चातुर्य, उदारता, दृढ़निश्चय और परिपक्व व्यावहार्यता का समावेश था। जब 1956 में निकिता ºुश्चेव भारत के दौरे पर आए तो उन्होंने खास तौर पर कहा, ''आपने रजवाड़ों को मिटाए बिना ही रियासतों को मिटा दिया।'' अगर जम्मू-कश्मीर भी पटेल को सौंप दिया जाता तो भ्रम और अंतर्विरोध पैदा नहीं होते और हम आज जिस क्रूरता के शिकार बन रहे हैं उससे बच जाते। पटेल ने शेख अब्दुल्ला का धौंसपट्टी का रुझान भांप लिया था और उन पर सही ढंग से काबू पाया। उन्हें कश्मीर मुद्दे को संयुक्त राष्ट्र में ले जाने का पछतावा था। उन्होंने 28 अक्टूबर, 1947 को पंडित नेहरू के रेडियो पर प्रसारित भाषण से 'संयुक्त राष्ट्र के तत्वावधान में जनमत संग्रह' शब्द हटाने का पुरजोर प्रयास किया। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान इंडियन सिविल सर्विस दूसरे पक्ष के साथ थी। इस कारण यह कांग्रेसी नेताओं का कोपभाजन बनी हुई थी। नेहरू इसे न भारतीय, न नागरिक, न सेवा कहकर फटकारते थे। एक बार फिर पटेल की रचनात्मक प्रतिभा काम आई और उन्होंने मामले को संतोषजनक तरीके से निपटा दिया। पटेल सार्वजनिक जीवन में ईमानदारी का पर्याय थे। मरणोपरांत उनके पास जो संपत्तिमिली उसमें धोती, कुर्ता और एक सूटकेस था। आज भारत में हालात काबू से बाहर हो रहे हैं और भारतीय संघ लड़खड़ा रहा है। ऐसे में राष्ट्रीय नेतृत्व को पटेल की रचनात्मक दृष्टि और दृढ़ता को अपनाना चाहिए, जो उन्होंने इतिहास के नाजुक मोड़ पर दिखाई थी।
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