राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार एमके नारायणन का कहना है कि देश में करीब 800 आतंकी संगठन सक्रिय हैं, किंतु उन पर काबू पाने के लिए किसी ठोस नीति का कहीं संकेत नहीं मिलता। संप्रग सरकार आतंकवाद के खिलाफ कड़े कानून बनाने में संकोच करती है। कुछ राज्य सरकारों ने आतंकवाद पर अंकुश लगाने के लिए कानून पारित भी किया, किंतु उन पर केंद्र सरकार कुंडली मारे बैठी है। आतंकी घटना होने पर गृहमंत्री राज्य सरकारों पर दोष डाल अपना पल्ला झाड़ लेते हैं। यदि कानून-व्यवस्था राज्य का विषय है तो राज्यों द्वारा बनाए गए काूननों को हरी झंडी क्यों नहीं? यूपीए सरकार ने आते ही पोटा को निरस्त कर डाला। आतंकवाद के प्रति उसके लचर रुख के कारण आज जिहादियों के हौसले इतने बुलंद हैं कि वे पूर्व चेतावनी देकर तबाही मचा रहे हैं तो दूसरी ओर कथित सेकुलरिस्टों में मची तुष्टिकरण की होड़ देखकर कट्टरपंथी ताकतें अपनी शर्तों पर सरकार को नचा रही हैं। राजग सरकार के समय में जब सिमी पर प्रतिबंध लगाया गया था तब सेकुलर दलों ने आसमान सिर पर उठा लिया था। प्रतिबंधित होने के बावजूद सिमी भूमिगत होकर देश विरोधी गतिविधियों में संलग्न रहा। जांच एजेंसियों का मानना है कि हाल के आतंकी हमलों में जिस इंडियन मुजाहिदीन नामक संगठन का नाम सामने आ रहा है वह सिमी का ही छद्म नाम है। पुख्ता सबूत नहीं होने के कारण अभी हाल में सिमी को क्लिनचिट मिल गई थी, जिस पर बाद में सर्वाेच्च न्यायालय ने रोक लगा दी। केंद्र सरकार को सिमी के खिलाफ सबूत देना शेष है, किंतु संप्रग सरकार के घटक दल जिस तरह सिमी का बचाव करते रहे हैं उससे लगता नहीं कि सरकार सिमी के खिलाफ कड़े कदम उठा पाएगी। राजद सुप्रीमो लालू यादव तो सिमी पर प्रतिबंध लगाने की दशा में संघ परिवार को भी प्रतिबंधित करने की मांग करते हैं। अपने साथ लादेन का हमशक्ल लेकर चुनाव प्रचार करने वाले रामविलास पासवान सिमी के बड़े पैरोकार हैं। मुलायम सिंह समेत अधिकांश सेकुलरिस्ट भी सिमी के शुभचिंतक हैं। आतंकवाद को अपने कुतर्कों की ढाल देना आसान है। आवश्यकता वोटबैंक की राजनीति से ऊपर उठकर सभ्य समाज की रक्षा के लिए एकजुट होने की है, जहां किसी भी वर्ग, समुदाय या पंथ के प्रति कोई पूर्वाग्रह न हो। कटु सत्य यह है कि सेकुलरवाद इस्लामी कट्टरपंथ के तुष्टिकरण का पर्याय बन कर रह गया है। जम्मू-कश्मीर में जो संघर्ष चल रहा है वह इसी कुत्सित नीति का परिणाम है। घाटी के कट्टरपंथियों ने केवल चार दिन हंगामा खड़ा किया और सरकार ने घुटने टेक दिए। अमरनाथ श्राइन बोर्ड को दी गई जमीन वापस ले ली गई। अमरनाथ संघर्ष समिति जमीन वापस पाने के लिए दो महीने से आंदोलन कर रही है, किंतु सरकार गूंगी-बहरी बनी हुई है। क्यों? स्वतंत्रता दिवस पर घाटी में काला दिवस मनाया गया, तिरंगा जलाया गया। अलगाववादियों ने पाकिस्तानी झंडा लहराया और 'भारत तेरी मौत आए, मिल्लत आए' का नारा लगाया। मस्जिदों से लाउडस्पीकर्स पर 'हमको चाहिए आजादी' गूंजता रहा। श्रीनगर के लाल चौक पर ध्वजारोहण के बाद तिरंगा उतार लिया गया। सरेआम पाकिस्तानी झंडे लहराए गए और पुलिस मौन बनी रही। इस रीढ़विहीन सरकार में देश की अस्मिता, उसकी संप्रभुता के लिए कोई चिंता नजर नहीं आती। 15 अगस्त को राष्ट्र को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा, ''मजहब के नाम पर लोगों को बांटने से समस्या जटिल होगी.इससे भारत की एकता व अखंडता को खतरा पैदा होगा।'' किंतु अमरनाथ मामले में सरकार के घुटने टेकने से उत्साहित जिहादियों द्वारा इस देश की जमीन पर ही पाकिस्तान जिदंाबाद के जो नारे लगाए गए, उससे भारत की संप्रभुता को जो चुनौती मिली है उसका प्रतिकार कैसे संभव है?
जम्मू का आंदोलन जमीन के टुकड़े के लिए नहीं चल रहा। वह भारत की संप्रभुता, बहुलतावादी संस्कृति और सनातनी परंपराओं को बनाए रखने के लिए है। पाकिस्तान की शह पर अलगाववादियों ने घाटी को 'काफिरों' यानी हिंदुओं से मुक्त करा लिया है। घाटी दारुल इस्लाम बन चुकी है। अब उनकी निगाह जम्मू पर है। बोर्ड से जमीन वापस लेने से उन्हें लगता है कि वह शेष भारत में भी अपनी हांकने में सफल होंगे। यदि सेकुलरिस्टों को ऐसा ही रवैया रहा तो निकट भविष्य में यह संभव भी है। जम्मू का जनाक्रोश कश्मीर मसले पर बरती गई भूलों की तार्किक परिणति है। पहली भूल अक्टूबर 1947 में नेहरू ने की, जब पाकिस्तानी कबायलियों को जवाब देने की बजाय वह संयुक्त राष्ट्र चले गए। अनुच्छेद 370 दूसरी बड़ी भूल थी, जिसके द्वारा जम्मू-कश्मीर को शेष भारत से विलग कर दिया गया। यदि सेकुलरिस्टों की प्रतिबद्वता सच्ची पंथनिरपेक्षता के साथ है तो उन्हें जम्मू के राष्ट्रभक्त भारतीयों का साथ देना चाहिए, अन्यथा इस तीसरी भूल की बड़ी कीमत चुकानी पड़ेगी।
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