Tuesday, October 21, 2008

पक्षपातपूर्ण बौद्धिकता

एस.शंकर
दैनिक जागरण, 20 अक्टूबर 2008। जामिया मिलिया के कुलपति प्रो. मुशीर उल हसन उदारवादी मुसलमानों के बड़े प्रतिनिधि माने जाते रहे है, लेकिन संदिग्ध आतंकियों को कानूनी लड़ाई लड़ने के लिए सरकारी धन से सहायता देने की उत्कंठा दिखाने पर उनकी यह छवि धूमिल हो गई है। यह अकारण नहीं कि हिंदू लोग मुस्लिम बंधुओं से बातचीत करने में ध्यान रखते है कि विषय इस्लाम या मुस्लिम राजनीति की ओर न मुड़े। इससे असहज स्थिति पैदा हो सकती है। मुस्लिम भी हिंदू सहकर्मियों से तमाम विषय पर चर्चा करते है, पर इस्लाम पर नहीं। उन्हे भी डर रहता है कि हिंदू किसी बिंदु पर स्वाभाविक ही इस्लाम से असहमति व्यक्त कर सकता है। आखिर किसी विषय पर इस्लाम की आलोचना स्वीकार करना या सुनना मुसलमानों के लिए सहज नहीं होगा। जिन्हे यह सत्य न लगे वे इस सवाल पर विचार कर सकते हैं कि क्या कारण है कि बुद्धिजीवी कभी इस्लाम से जुड़े मुद्दे पर कोई सम्मेलन, व्याख्यान, प्रदर्शनी, अभियान या बहस नहीं करते?
दिल्ली के बुद्धिजीवी वर्ग ने इस्लाम और इस्लाम से जुड़े सभी असुविधाजनक प्रश्नों को सदैव पर्दे में रखा। क्यों? ये कैसे बुद्धिजीवी है, जो दस वर्ष से सारी दुनिया में चर्चित विषय-इस्लामी आतंकवाद पर सीधी गोष्ठी करने से भी बचते है? राजनीति या भय, कारण जो भी हो, एक बात तो स्पष्ट है कि हिंदू या मुस्लिम प्रगतिशील इस्लाम से जुड़े किसी प्रसंग के सामने छुई-मुई हो जाते है। उनका सारा आक्रोश व उत्साह हिंदुत्व, संघ परिवार अथवा 'सरकारी आतंकवाद' की लानत-मलानत करने में ही दिखता है। इसीलिए उन्होंने कभी जेहाद, द्विराष्ट्र सिद्धांत, शरीयत कोर्ट, फतवे, तीन तलाक, सलमान रुश्दी, अयातुल्ला खुमैनी, ओसामा बिन लादेन, इब्न बराक, तालिबान, देवबंद, इंतिफादा, अलकायदा, जमाते इस्लामी, सिमी, दीनदार अंजुमन, कश्मीरी हिंदुओं का विस्थापन, पूर्वी तिमोर, शिया-सुन्नी संघर्ष, जबरन मतांतरण, हज सब्सिडी, इस्लाम में स्त्री आदि विषयों पर कोई सभा-सम्मेलन नहीं किया, जबकि ये सब विषय लोगों को उद्वेलित करते रहे है। इमराना, पैगंबर मोहम्मद के कार्टून, डेनमार्क विरोधी मुस्लिम हिंसा, तस्लीमा नसरीन का प्रकरण या सिमी के कारनामे हाल के उदाहरण है। इन विषयों पर दिल्ली में सेमिनार क्यों नहीं होते, यह हिंदू और मुस्लिम बुद्धिजीवी जानते है। कारण यह है कि इन बिंदुओं पर सच कहने का साहस नहीं है। इससे या तो इस्लाम की अवमानना होने का डर रहता है या फिर मुस्लिम नेता धमकियां देने लगते हैं। बहस से इसलिए बचा जाता है, क्योंकि सारे बुद्धिजीवियों की असलियत सामने आ जाएगी। जाहिर हो जाएगा कि इनकी बौद्धिकता हिंदू विरोधी और एक हद तक राष्ट्र विरोधी भी है। इसीलिए चाहे विषय पूरे देश को मथ रहा हो,यदि इसमें इस्लाम की दुर्बलता या आलोचना की संभावना हो तब उस पर हमारे प्रगल्भ वामपंथी-पंथनिरपेक्षवादी गोष्ठी करने के बजाय सामूहिक छुट्टी पर चले जाते है, किंतु यदि मौन रहना संभव न रहे तब उनकी नीति भटकाने की होती है। यदि इस्लामी आतंक की घटना हुई हो तो पहले उसके बारे में संदेह जताया जाता है। बड़ी संख्या में दुनिया भर के मुस्लिम कहते है कि 11 सितंबर को अमेरिका पर आतंकी हमले अलकायदा ने नहीं, बल्कि अमेरिका ने खुद ही करवाए थे। अभी दिल्ली के जामियानगर में आतंकवादियों के साथ पुलिस मुठभेड़ को फर्जी कहना वही अदा है, पर जब संदेह करना कठिन हो तो कहा जाता है कि मुस्लिमों के साथ लंबे समय से अन्याय हो रहा है। आक्रोश में कुछ भटके हुए मुस्लिम हिंसा करते है तो आक्रोश का 'मूल कारण' समझने की कोशिश करनी चाहिए। एक तरह से यह इस्लामपंथियों का श्रम-विभाजन है। कुछ जेहाद करते है तो दूसरे उनका वैचारिक बचाव।
छद्म बुद्धिजीवी पहले तो इस्लामी आतंकवाद के अस्तित्व से ही इनकार करते हैं। वे कहते हैं कि इस्लाम में हिंसा का कोई स्थान नहीं है। फिर भारत, इंग्लैंड जैसे देशों में मुस्लिम नेता विशेषाधिकारों की मांग करते है। इसकी तुलना मुस्लिम देशों में गैर-मुस्लिमों की दुर्दशा से करने पर वे बौखला जाते हैं और रटा-रटाया फिकरा कहते हैं कि यह 'इस्लाम-विरोधी प्रचार' है। तीसरे, किसी भी प्रसंग में हिंदू संगठनों की निंदा अनिवार्य रस्म है। किसी भी सूरत में उदारवादी मुस्लिम आत्म-चिंतन करने या अपने समुदाय की गलती को ईमानदारी से स्वीकार करने का कष्ट नहीं करते। यही कारण है कि जब कई वर्षो से विश्व के बौद्धिक पटल पर इस्लाम की सीमाएं और आधुनिकता संबंधी बहस चल रही है तो उसमें भारतीय मुस्लिम कहीं नहीं दिखते। कारण उनमें सच्चाई को नकारने और दूसरों को दोष देने का स्थायी भाव घर कर चुका है। अंतत: इससे मुसलमानों का ही नुकसान होगा। बीमारी को छिपा कर उसका इलाज नहीं किया जा सकता।

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